सूख रहा हूँ मैं अब
या सूख कर
हो गया हूँ कांटा।
उसी की तरह
साथ छोड़ गया जो मेरा।
गड़ता था
सहोदर शूल वह,
आंखों में जो सबकी।
सच कहूं तो,
होने लगा है अहसास।
अलग अलग बिल्कुल नही!
वजूद 'वह' और 'मैं ' का।
कल अतीत का खिला
फूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वक़्त का!
फूल और काँटे
महज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!
मानो चिरंजीवी
समेटे सारी आयु
मन और बुद्धि के संघर्ष का।
या सूख कर
हो गया हूँ कांटा।
उसी की तरह
साथ छोड़ गया जो मेरा।
गड़ता था
सहोदर शूल वह,
आंखों में जो सबकी।
सच कहूं तो,
होने लगा है अहसास।
अलग अलग बिल्कुल नही!
वजूद 'वह' और 'मैं ' का।
कल अतीत का खिला
फूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वक़्त का!
फूल और काँटे
महज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!
मानो चिरंजीवी
समेटे सारी आयु
मन और बुद्धि के संघर्ष का।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-05-2019) को
"मातृ दिवस"(चर्चा अंक- 3333) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
जी, अत्यंत आभार।
Deleteमन की तड़प और समय की चुभन का सुंदर चित्रण । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!
Deleteमन का चित्रण
ReplyDeleteमन से..
एक बार और
पढ़ना पड़ेगा
मन से...
सादर...
वाह
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!
Deleteअति सुंदर चिंतन,विश्लेषण
ReplyDeleteफूल और काँटा..।
सार्थक सृजन विश्वमोहन जी।
जीवन प्रति क्षण फूल है फिर काँटा
मनोभावों को समय की रेती ने बाँटा।
जी, अत्यंत आभार!!
Deleteकल अतीत का खिला
ReplyDeleteफूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वक़्त का!
फूल और काँटे
महज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!....बेहतरीन सृजन आदरणीय
निशब्द
सादर
लाज़बाब ,हमेशा की तरह ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteकाहे को मनवा इतना उदास?
टीस-टीसकर कांटे जो चुभे
Deleteऔर फूलों की शिथिल सुवास.
चित चंचल हो डगमग डोले,
तो भी मनवा हो न उदास!!!
फूल और काँटे
ReplyDeleteमहज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!
मानो चिरंजीवी
समेटे सारी आयु
मन और बुद्धि के संघर्ष का।
फूल और कांटे के माध्यम से सार्थक चिंतन आदरणीय विश्वमोहन जी | सादर शुभकामनायें |
जी, अत्यंत आभार।
Deleteतत्वबोध बिम्बों और प्रतीकों के ज़रिये। जीवन में अनेक पहलू हैं जो अभिव्यक्ति का मार्ग तलाशते रहते हैं।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteइतनी उदासी क्यूँ । खिलते रहें सर्वदा।
ReplyDeleteहा हा, कोई उदासी नहीं.अत्यंत आभार।
Deleteबहुत अच्छी कविता
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका!!!!
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 23 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteवजूद 'वह' और 'मैं ' का।
ReplyDeleteकल अतीत का खिला
फूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वाह!!!
बहुत सुन्दर, चिन्तनपरक, लाजवाब रचना...
बहुत आभार आपके आशीष का।
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteमहज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
ReplyDeleteपलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!....बेहतरीन
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!
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