मेरे कण-कण को सींचते,
सरस सुधा-रस से।
श्रृंगार और अभिसार के,
मेरे वे तीन प्रेम-पथिक।
एक वह था जो तर्कों से परे,
निहारता मुझे अपलक।
छुप-छुपकर, अपने को भी छुपाये,
मेरे अंतस में, अपने चक्षु गड़ाए।
मैं भी धर देती 'आत्म' को अपने,
छाँह में शीतल उसकी, मूंदे आंखें।
'मन' मीत बनकर अंतर्मन मेरा,
गुनगुनाता सदा राग 'सत्व' - सा!
और वह,दूसरा,'बुद्धि'मान!
यूँ झटकता मटकता।
मेरा ध्यान उसके कर्षण में भटकता,
निहारती चोरी-चोरी उसे निर्निमेष।
किन्तु तार्किक प्रेमाभिव्यक्ति उसकी,
मुझे तनिक भी नही देखती!
परोसती रहती मैं अपना परमार्थ,
उसके स्वार्थी 'रजस'-बुद्धि-तत्व को।
.... और उसकी तो बात ही न पूछो!
प्रकट रूप में पुचकारता, प्यार करता।
छुपने-छुपाने के आडंबर से तटस्थ
'मैं' मय हो जाता 'अहंकार'-सा!
बन अनुचरी-सी-सहचरी उसकी,
एकाकार हो उसके महत 'तमस' में।
महत्तम तम के महालिंगन-सा, सर्वोत्तम!
पसर जाती 'स्व' के अस्तित्व-आभास में।
आज जा के हुई हूँ 'मुक्त' मैं,
इस त्रिगुणी प्रेम त्रिकोण से ।
'अर्द्धांग' का मेरा तुरीय प्रेम-नाद,
हिलकोरता प्रीत का आह्लाद।
रचाया है आज महारास,
मुझ बिछुड़ी भार्या 'आत्मा' से।
निर्विकार-सा वह निराकार
पूर्ण विलीन, तल्लीन, निर्विचार।
अनंत-विराट 'परम-आत्मा',
गाता चिर-मिलन का गीत।
शाश्वत-सत्य,' सत-चित-आनंद'
मेरा पिया त्रिगुणातीत!!!
सरस सुधा-रस से।
श्रृंगार और अभिसार के,
मेरे वे तीन प्रेम-पथिक।
एक वह था जो तर्कों से परे,
निहारता मुझे अपलक।
छुप-छुपकर, अपने को भी छुपाये,
मेरे अंतस में, अपने चक्षु गड़ाए।
मैं भी धर देती 'आत्म' को अपने,
छाँह में शीतल उसकी, मूंदे आंखें।
'मन' मीत बनकर अंतर्मन मेरा,
गुनगुनाता सदा राग 'सत्व' - सा!
और वह,दूसरा,'बुद्धि'मान!
यूँ झटकता मटकता।
मेरा ध्यान उसके कर्षण में भटकता,
निहारती चोरी-चोरी उसे निर्निमेष।
किन्तु तार्किक प्रेमाभिव्यक्ति उसकी,
मुझे तनिक भी नही देखती!
परोसती रहती मैं अपना परमार्थ,
उसके स्वार्थी 'रजस'-बुद्धि-तत्व को।
.... और उसकी तो बात ही न पूछो!
प्रकट रूप में पुचकारता, प्यार करता।
छुपने-छुपाने के आडंबर से तटस्थ
'मैं' मय हो जाता 'अहंकार'-सा!
बन अनुचरी-सी-सहचरी उसकी,
एकाकार हो उसके महत 'तमस' में।
महत्तम तम के महालिंगन-सा, सर्वोत्तम!
पसर जाती 'स्व' के अस्तित्व-आभास में।
आज जा के हुई हूँ 'मुक्त' मैं,
इस त्रिगुणी प्रेम त्रिकोण से ।
'अर्द्धांग' का मेरा तुरीय प्रेम-नाद,
हिलकोरता प्रीत का आह्लाद।
रचाया है आज महारास,
मुझ बिछुड़ी भार्या 'आत्मा' से।
निर्विकार-सा वह निराकार
पूर्ण विलीन, तल्लीन, निर्विचार।
अनंत-विराट 'परम-आत्मा',
गाता चिर-मिलन का गीत।
शाश्वत-सत्य,' सत-चित-आनंद'
मेरा पिया त्रिगुणातीत!!!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-06-2019) को "-- कैसी प्रगति कैसा विकास" (चर्चा अंक- 3376) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह अदभुद
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/06/2019 की बुलेटिन, " अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ११८ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजी,अत्यंत आभार।
Deleteअद्भुत रचना। सत, रज और तमस के गुणों से भी परे उस प्रियतम की कल्पना....अत्यंत गूढ़ एवं गहन चिंतन की जरूरत है इसे समझने के लिए....
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपकी दृष्टि का!
Deleteआलौकिक अर्थों को समेटे अद्भुत रचना आदरणीय विश्वमोहन जी ! आत्मा रूपी प्रियतमा को 'सत्व- रज- तम रूपी तीनों प्रेमातुर भ्रामक प्रपंचियों से परे उस त्रिगुणातीत प्रियतम से मिलने की आतुरता और मिलन के पश्चात दिव्य आनन्द के परमानन्द की अनुभूति को दर्शाती ये रचना बहुत विशेष है जो आत्मबोध की प्रेरणा से भरी है क्योकि सृष्टि में यहो तो सम्बन्ध है जो शाश्वत और पूर्ण है | | हार्दिक शुभकामनायें और आभार | सादर -----
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका रचना की तह तक जाने का!
Deleteबहुत ही सुंदर प्रस्तूति।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteअद्भुत।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत आभार।
Deleteवाह!!!बहुत खूब!!सत्यम् ,शिवम् ,सुंदरम् ...।🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार इन सुंदर शब्दों का।
Deleteसत् चित्त आनंद तीनों मिले जहाँ , महारास है वहाँ.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
जी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteअनंत-विराट 'परम-आत्मा',
ReplyDeleteगाता चिर-मिलन का गीत।
शाश्वत-सत्य,' सत-चित-आनंद'
मेरा पिया त्रिगुणातीत!!!...
अति सुन्दर .... तीनों ही साथी है इस जीवन सफ़र के ... अपनी अपनी भूमिका अपना अपना सत्य ... जो भी सत्य समयानुसार लगे असल में वही सत्य ... इसी सत्य को प् कर ही जीवन आनद का एकाकार है ...
जी,सत्य वचन। हार्दिक आभार।
Deleteजी,आभार, हृदयतल से।
ReplyDeleteमैं भी धर देती 'आत्म' को अपने,
ReplyDeleteछाँह में शीतल उसकी, मूंदे आंखें।
'मन' मीत बनकर अंतर्मन मेरा,
गुनगुनाता सदा राग 'सत्व' - सा!
बहुत खुब सर। राजीव उपाध्याय
अत्यंत आभार आपका!!!
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ReplyDeleteबन अनुचरी-सी-सहचरी उसकी,
एकाकार हो उसके महत 'तमस' में।
महत्तम तम के महालिंगन-सा, सर्वोत्तम!
पसर जाती 'स्व' के अस्तित्व-आभास में।
...बेहतरीन रचना आदरणीय
प्रणाम
सादर
आभार!!!
Deleteमैं भी धर देती 'आत्म' को अपने,
ReplyDeleteछाँह में शीतल उसकी, मूंदे आंखें।
'मन' मीत बनकर अंतर्मन मेरा,
गुनगुनाता सदा राग 'सत्व' - सा!
अद्भुत रचना आदरणीय
अत्यंत आभार आपका!!!
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत आभार।
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