आदरणीय विश्वमोहन जी -- आलोचना की संस्कृति पर ये चिंतनपरक उद्बोधन बहुत ही प्रभावी है | मुझमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किसी भी विषय को आंकने समझने की क्षमता नहीं पर समझ आता है विज्ञानं सभ्यताओं का पोषक है सो ये मात्र बाहरी प्रगति का द्योतक है जबकि संस्कृति व्यक्ति के भीतर व्याप्त संस्कारों का विस्तृत रूप है जिसे प्राण वायु देने में साहित्य की अहम् भूमिका रही है | किसी भी संस्कृति नें साहित्य के रास्ते ही प्रसार और प्रचार पाया है | चिंतन की सतत बहती धारा ही साहित्य है जो समाज का दर्पण है तो व्यक्ति विशेष के विचारों का भी दर्पण है ! जबकि किसी भी विषय वस्तु की निष्पक्ष और पूर्वाग्रह रहित विवेचना ही सार्थक आलोचना है | यदि उसका मूल्याङ्कन किसी धारा अथवा वाद विशेष से जुड़ा होने के आधार पर किया जाये तो ये आलोचना का सबसे विकृत रूप कहा जाएगा | आज राजनीति के दखल से साहित्य की दुर्गति स्पष्ट है | जो रचनाएँ सचमुच समाज का दर्पण होती हैं उन्हें साहित्य के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार गंभीर पाठकों तक पहुँचने नहीं देता |इसके पीछे दोषपूर्ण आलोचना का बड़ा हाथ होता है | क्योकि साहित्य की ये मजबूत विधा अब भ्रामक मोड़ लेती नजर आती है | आज निष्पक्ष समीक्षक प्राय नजर नहीं आते | आशा है आपका ये अत्यंत गहन चिंतन से उपजा सांगोपांग उद्बोधन सुधिजनों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा
उद्बोधन में एक वाक्य मुझे अखर गया जिसे अत्यंत विनम्रता पूर्वक लिखना चाहूंगी
जुमले का शक्ल ले चुकी एक वाकया--- को शायद ऐसे कहना चाहिए -
सबसे पहले त्रुटियों को सुधारने हेतु साधुवाद। फिर आपकी सारगर्भित समीक्षा का अत्यंत आभार। "चिंतन की सतत बहती धारा ही साहित्य है" वाह! बेहद खूबसूरत वाक्य!
वाह .... गज़ब का उद्बोधन .... आलोचना और उसकी संकृति और साहित्य के साथ साथ ज्ञान, विज्ञान, सूक्ष्म ज्ञान से होता हुआ जुमलेबाजी और फिर सार्थक अंत ... आपकी ओजस्वी, खनकती वाणी ने विषय को रोचक और प्रभावी बना दिया है .... बहुत बधाई इस पाठ के लिए ...
आपकी यह प्रस्तुति "पाँच लिंकों का आनन्द" में 6 जून 2019 को लिंक की जाएगी। आप सादर आमंत्रित हैं। सधन्यवाद।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका!
Deleteवाहः
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteअप्रतिम आभार आपके इस अद्भुत आशीष का!
ReplyDeleteआदरणीय विश्वमोहन जी -- आलोचना की संस्कृति पर ये चिंतनपरक उद्बोधन बहुत ही प्रभावी है | मुझमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किसी भी विषय को आंकने समझने की क्षमता नहीं पर समझ आता है विज्ञानं सभ्यताओं का पोषक है सो ये मात्र बाहरी प्रगति का द्योतक है जबकि संस्कृति व्यक्ति के भीतर व्याप्त संस्कारों का विस्तृत रूप है जिसे प्राण वायु देने में साहित्य की अहम् भूमिका रही है | किसी भी संस्कृति नें साहित्य के रास्ते ही प्रसार और प्रचार पाया है | चिंतन की सतत बहती धारा ही साहित्य है जो समाज का दर्पण है तो व्यक्ति विशेष के विचारों का भी दर्पण है ! जबकि किसी भी विषय वस्तु की निष्पक्ष और पूर्वाग्रह रहित विवेचना ही सार्थक आलोचना है | यदि उसका मूल्याङ्कन किसी धारा अथवा वाद विशेष से जुड़ा होने के आधार पर किया जाये तो ये आलोचना का सबसे विकृत रूप कहा जाएगा | आज राजनीति के दखल से साहित्य की दुर्गति स्पष्ट है | जो रचनाएँ सचमुच समाज का दर्पण होती हैं उन्हें साहित्य के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार गंभीर पाठकों तक पहुँचने नहीं देता |इसके पीछे दोषपूर्ण आलोचना का बड़ा हाथ होता है | क्योकि साहित्य की ये मजबूत विधा अब भ्रामक मोड़ लेती नजर आती है | आज निष्पक्ष समीक्षक प्राय नजर नहीं आते | आशा है आपका ये अत्यंत गहन चिंतन से उपजा सांगोपांग उद्बोधन सुधिजनों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा
ReplyDeleteउद्बोधन में एक वाक्य मुझे अखर गया जिसे अत्यंत विनम्रता पूर्वक लिखना चाहूंगी
जुमले का शक्ल ले चुकी एक वाकया--- को शायद ऐसे कहना चाहिए -
--एक वाकया जो जुमले की शक्ल ले चुका है सादर -
सबसे पहले त्रुटियों को सुधारने हेतु साधुवाद। फिर आपकी सारगर्भित समीक्षा का अत्यंत आभार। "चिंतन की सतत बहती धारा ही साहित्य है" वाह! बेहद खूबसूरत वाक्य!
Deleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteजी, आपके ही सुझाव पर इसे ब्लॉग पर साझा किया गया. अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह .... गज़ब का उद्बोधन .... आलोचना और उसकी संकृति और साहित्य के साथ साथ ज्ञान, विज्ञान, सूक्ष्म ज्ञान से होता हुआ जुमलेबाजी और फिर सार्थक अंत ...
ReplyDeleteआपकी ओजस्वी, खनकती वाणी ने विषय को रोचक और प्रभावी बना दिया है ....
बहुत बधाई इस पाठ के लिए ...
जी,अत्यंत आभार आपका।
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