Thursday, 23 April 2020

स्मृति दिवस : पुस्तक!

समय के आरम्भ में,
विवस्वत ने सुना था।
शब्दों का नाद !
गूँजता रहा अनंत काल तक,
आकाश के विस्तार में।
श्रुतियों में,
स्मृतियों में,
कुरुक्षेत्र की वीथियों में ।
ज्ञान, कर्म और भक्ति।
अमर प्रवाह-सा,
निर्झरणी के।
सत्व, रजस और तमस,
त्रिपिटक-सा।

मस्तिष्क के पटल पर,
व्यंजन में स्वर भर,
अंकित अक्षर-अक्षर,
शब्दों में उतर,
लेते आकार,   
तालपत्र  पर।
भोजपत्र, चर्मपत्र।
हाशिए पर चित्र पट ,
सजती पांडुलिपियाँ।
काग़ज़ों पर मुद्रण में,
समेटती गाथा मानवी,
सभ्यता और संस्कृति की ,
सजिल्द प्रकाशनों में।

सजी-धजी पुस्तक,
उर्वशी-सी !
खोती जा रही है,
होकर सवार ‘भेड़-चाल’,
डिजिटल स्क्रीन पर।
घिसटाती उसकी जिजीविषा,
और मेरी पिपासा।
मानों! खड़ा हूँ मैं,
निर्वस्त्र, ज्ञान से।    
समय के अंतिम छोर पर।
और स्मृति दिवस बन
आयी है  पुस्तक आज,
मिलने अपने पुरुरवा से!

17 comments:

  1. समय के अंतिम छोर पर।
    और स्मृति दिवस बन
    आयी है पुस्तक आज,..में समस्त शब्द सार को संजोती सार्थक रचना।

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    1. जी, नमन आपकी समीक्षा दृष्टि को और अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।

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  2. खोती जा रही है,
    होकर सवार ‘भेड़-चाल’,
    डिजिटल स्क्रीन पर।
    घिसटाती उसकी जिजीविषा,
    बेहद सराहनीय सत्य दर्शन।
    आभार आपका।
    सादर।

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  3. बहुत सुन्दर।
    पुस्तक दिवस की बधाई हो।

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  4. सजी-धजी पुस्तक,
    उर्वशी-सी !
    खोती जा रही है,
    होकर सवार ‘भेड़-चाल’,
    डिजिटल स्क्रीन पर।
    घिसटाती उसकी जिजीविषा,
    और मेरी पिपासा।
    मानों! खड़ा हूँ मैं,
    निर्वस्त्र, ज्ञान से।
    समय के अंतिम छोर पर।
    और स्मृति दिवस बन
    आयी है पुस्तक आज,
    मिलने अपने पुरुरवा से!
    वाह!!!
    शानदार लाजवाब उत्कृष्ट सृजन।ए

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  5. आदरणीय विश्वमोहन जी , शब्दनाद से शुरू होकर , ताड़पत्र , भोजपत्र , चर्मपत्र से पुस्तक तक की यात्रा सभ्यता , संस्कृति के साथ , मानवी गाथाओं की अनमोल थाती है | पर पुस्तकों की विहंगमता के बीच , परिवर्तनशीलता के नियम के अनुसार , इनका डिजिटल हो जाना इनके अस्तित्व पर बहुत भयानक खतरा है | जिसकी कल्पना पुस्तकप्रेमियों [ जिन्होंने अध्ययन के स्वर्णयुग को जिया है ] के लिए बहुत भयावह है | ईश्वर ना करे कभी पुस्तक के स्मृति दिवस की नौबत आये | विचारणीय रचना | सादर आभार और शुभकामनाएं|

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    1. रचना के निहितार्थ को विस्तार देती संजीवनी समीक्षा का आभार!

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  6. जी, बहुत आभार, हृदय तल से।

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  7. वाह!!बहुत खूब विश्वमोहन जी ।

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  8. उर्वशी-सी पुस्तक ,अपने समस्त शब्द-वैभव के साथ सजी-धजी,अपने प्रियतम पाठक पुरूरवा से सदैव मिलती रहे यही कामना है।उसका स्मृति दिवस मनाने की कभी आवश्यकता ना पड़े यही प्रार्थना है।भावपूर्ण अभिव्यक्ति को एक बार फिर से पढ़कर अच्छा लगा।सादर 🙏🙏

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  9. पुस्तक के जन्म से लेकर संस्मरण बन जाने की हर समय की साक्षी रचना अद्भुत संयोजन शब्दों,काल और साक्ष्य का नमन आपकी लेखनी को

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