रात भर धरती गीली होती रही। आसमान बीच बीच में गरज उठता। वह पति की चिरौरी करती रही। बीमार माँ को देखने की हूक रह रह कर दामिनी बन काले आकाश को दमका देती। सूजी आँखों में सुबह का सूरज चमका। पति उसे भाई के घर के बाहर ही छोड़कर चला आया। घर में घुसते ही माँ के चरणों पर निढाल उसका पुक्का फट चुका था। वर्तमान की चौखट पर बैठा अतीत कब से भविष्य की बाट जोह रहा था। दो जोड़ी कातर निगाहें लाचारी के धुँधलेपन में घुलती जा रही थी। सिसकियों का संवाद चलता रहा। दिन भर माँ को अगोरे रही।
पच्छिम लाल होकर अंधेरे में गुम हो गया था। अमावस का काजल धरती को लीपने लगा था। उपवास व्रत के अवसान का समय आ गया था। बरगद के नीचे पतिव्रताओं का झुंड शिव-पार्वती को नहलाने लगा था। कोयल कौए के घोंसले से अपने बच्चे को लेकर अपने घर के रास्ते निकल चुकी थी। कालिंदी अपने आर्त्तनाद का पीछा करती सरपट समुंदर में समाने भागी जा रही थी।
पच्छिम लाल होकर अंधेरे में गुम हो गया था। अमावस का काजल धरती को लीपने लगा था। उपवास व्रत के अवसान का समय आ गया था। बरगद के नीचे पतिव्रताओं का झुंड शिव-पार्वती को नहलाने लगा था। कोयल कौए के घोंसले से अपने बच्चे को लेकर अपने घर के रास्ते निकल चुकी थी। कालिंदी अपने आर्त्तनाद का पीछा करती सरपट समुंदर में समाने भागी जा रही थी।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 04 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक लघु कथा।
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteलेखनी के कुंभकार महोदय
ReplyDeleteमिट्टी की मूर्ति से अनावश्य मिट्टी झाड़नी होगी..
जो, जरूर। आभार
Deleteमाँ बेटी के आत्मीय संबंध की मर्मकथा , जो शायद हर माँ बेटी के जीवन की दर्द भरी सच्चाई है। इससे मिलते जुलते पल पिछले साल मैंने भी मेरी माँ की गंभीर बीमारी के दौरान जीये। ये अटूट बंधन और इसकी अनकही व्यथा या माँ समझ सकती है या बेटी। जीवन की बुझती लौ लिए असहाय माँ की मर्मांतक वेदना के पल, एक बेटी के लिए कितने क्रूर होते हैं , उन्हें किन्हीं शब्दों में शायद लिखा जाना संभव नहीं। पर एक दूसरी बेटी भाभी क्यों इस रिश्ते के प्रति इतनी निष्ठुर साबित होती है, ये प्रश्न नितांत अबूझ है, शायद हमेशा से ही-----!!भावपूर्ण लघुकथा जो नारी मन की पीड़ा को पूर्णरूपेण कहने में सक्षम है । हार्दिक शुभकामनायें🙏🙏
ReplyDeleteजी, बहुत आभार कथा के मर्म को गहराई से आत्मसात कर अपनी संवेदनात्मक समीक्षा देने का.
Deleteभावुक....
ReplyDeleteआभार!!!
Deleteअति दुःखी मन को शांति कहां मिलती इस स्वार्थी दुनिया में
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
आभार!!!
Deleteभावपूर्ण बहुत सार्थक लघु कथा।
ReplyDeleteशब्दावली और जिस तरह कलम चली है। .आह इक कविता लघुकथा कह रही हो जैसे
एक बेटी के मन की पीड़ा को व्यक्त करती सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteहर शब्द सीधा मन में उतरता चला गया..बहुत मर्मस्पर्शी लघुकथा .
ReplyDeleteअपनी ही माँ से मिलने के लिए बेटी को अपने ससुराल में अपने पति और सास ससुर से मन्नतें करनी पड़ती हैं और अक्सर करती हैं बेटियाँ....।एक बेटी की माँँ की देखभाल के लिए तरसना और तड़पना इस दर्द को बहुत ही सुन्दरता से पिरोया है आपने लघुकथा में....बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा
ReplyDeleteजी, आभार!!!
Deleteकलम के शब्दों के माध्यम से कूची चलाई है आपने ... एक चित्र खड़ा करने का अध्बुध प्रयास है जो प्राकृति और तरल मन की संवेदनाओं को साथ ले आया है ... माँ के प्रति प्रेम नारी मन की भावनाएं और संवेदना रहित पुरुष भावाव्यक्ति ... नया केनवास बुनता विचार ...
ReplyDeleteजी, आभार!
Deleteसुन्दर व सार्थक सृजन
ReplyDeleteमार्मिक ,हृदयस्पर्शी सृजन ,सादर नमन
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteमार्मिक ..
ReplyDeleteआभार!!!
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