क्यों न उलझूँ
बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं चखने लगता हूँ
तुम्हारे वचनामृत को !
बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं चखने लगता हूँ
तुम्हारे वचनामृत को !
मैं चखने लगता हूँ
ReplyDeleteतुम्हारे वचनामृत को!
:)
हम्म्म , गांव में बढ़े बुजुर्ग कहते थे ' माँ दी गालियां , घी दी नालियां " तब उस बात का कभी मतलब समझ नहीं आया ,
आज की तारीख में माँ की हर डांट, सीख बन कर पग पग साथ चलती हैं और जहां आजकल इक सच्ची मुस्कान की किल्लत से जूझ रहे होते हैं, इक सरल सहज मुस्कान बरबस ही आ जाती है
आपकी रचना अंत तक आते आते , पढ़ने वाले को अपने अतीत तक ले जाती है :)
बहुत ही स्नेहिल रचना , सजीब लेखन
आभार ऐसा सृजन करने के लिए
सदर नमन
आपकी गंभीर समीक्षा और स्नेहाशीष का हृदयतल से आभार।
Deleteतुम्हारी डाँट से ,
ReplyDeleteतृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुम में ।।
अति उत्तम भावाभिव्यक्ति ।
जी, आभार।
Deleteभावपूर्ण, नमन।
ReplyDeleteअतीत में खोता चला गया। मानो कोलकाता का वही बड़ाबाजार सामने हो और अपना घर संग में मां-बाबा..
और उनका एक दूसरे से यह कहना-- देखो चौधरी ! मुनिया बिल्कुल सुनता नहीं है..।
काश ! एक बार पुनः लौट आते वे प्यार भरे दिन।
आपके संस्मरण हमेशा हमें मधुर भावनाओं से सिक्त करते हैं। बहुत आभार आपका।
Deleteनारी के साथ पत्नीत्व ही नहीं मातृत्व का भी गुण होता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस भी अपनी धर्मपत्नी शारदामणि में माँ का ही दर्शन करते थे।स्त्री को प्रकृति ने एक साथ अनेक गुणों से संजोया है, इसिलए उसे देवी का पद दिया गया है।
Deleteबहुत सुंदर भाव!
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 26 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteनारि के ममत्व का दर्शन कराती हुई सुन्दर रचना।
ReplyDeleteगजब। मतलब मार कुटाई को श्रँगार कहूँ अपनी भाषा में तो हा हा। :) बस मजाक है। लाजवाब।
ReplyDeleteगज़ब!मजाक-मजाक में ही मर्म का स्पर्श कर लिया। 😀 अत्यंत आभार।
Deleteपवित्र,निश्छल संबंधों में भावनाओं की स्नेहिल धारा में भीगकर
ReplyDeleteहर रूप एक बिंदु पर एकाकार हो उठता है।
बहुत सरल, सहज एवं सुंदर अभिव्यक्ति।
सादर प्रणाम।🙏
स्नेहिल नोंकझोंक भरा, हृदयस्पर्शी शब्द चित्र दाम्पत्य जीवन का!! जब एक पति , पत्नी में प्रेमिका से लेकर माँ का साक्षात दर्शन करता है, वही है पत्नी के नारीत्व का संपूर्ण सम्मान और प्रेम का सर्वोच्च उत्कर्ष!! आपका जीवनकलश इस सुंदर वचनामृत् से सदैव भरा रहे आदरणीय विश्वमोहन जी।हार्दिक शुभकामनायें ।
ReplyDeleteसादर🙏🙏
जी, अत्यंत आभार।
Deleteसुंदर,सहज,स्नेहिल वचनामृत..
ReplyDeleteशुभकामनाएँँ
जी, अत्यंत आभार!!!
ReplyDeleteबहुत खूब ,गलत को भी सही दृष्टि से देखना, समझना अच्छे इंसान होने की निशानी है ,बढ़िया है
ReplyDeleteमाँ से जुड़े रहने का मन क्या क्या करवा के जाता है ...
ReplyDeleteजीवन में माँ का स्थान शायद कोई भर नहीं पाता और इंसान अपनी छोटी छोटी इच्छाओं पूरी करता है किसी बहाने से ...
एक अवस्था आती है जब माँ बाप लौट आते हैं हर भंगिमा में ...
दिल को बहुत छुई आपकी रचना ... सीधे उतर गई अपनी माँ का किरदार ले कर ...
आपके सुंदर शब्द सदा हमें ऊर्जा देते हैं।
Delete"एक नारी " किसी भी उम्र में हो,वो किसी भी रिश्ते से बंधी हो,उसके अंदर एक माँ सदैव छुपी होती है,बस उसे देखने और पहचानने की भावना और नजर होनी चाहिए।बेहद भावपूर्ण सृजन,सादर नमन आपको
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. अत्यंत आभार!!!
Deleteजी, बहुत बहुत आभार आपका!!!!
ReplyDeleteक्यों न उलझूँ
ReplyDeleteबेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जी, आभार।
Deleteबहुत सुंदर कोमल भावनाओं से पूरित रचना !
ReplyDeleteजी. आभार!!!
Deleteअपनत्व से परिपूर्ण लाजबाव रचना
ReplyDeleteजी, आभार!!!
Deleteमां सदैव ही ईश्वर होती है बहुत बढ़िया
ReplyDeleteजी, आभार!!!
Deleteअनुपम ...पत्नी में माँ को देखना और एक बच्चे की तरह सोचना ...इससे खूबसूरत भावजगत कुछ हो नहीं सकता . बहुत ही सुन्दर कविता हृदय तक पहुँच गई .
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteआभार।
Deleteसच, यही होता है. बेहद खूबसुरत अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!
Deleteये भाव ही हैं जो एक व्यक्ति से अनेक रिश्तों को व्याख्यायित करते चलते हैं... बहुत सुंंदर लिखा श्वमोहन जी
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका!!!!
Deleteक्यों न उलझूँ
ReplyDeleteबेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
वाह!!!!
लाजवाब भाव ....प्रेमी और सहृदय व्यक्ति ही ऐसे भाव रखते हैं वरना बात का बतंगड़ बनने देर नहीं लगती
लाजवाब सृजन हमेशा की तरह...।
अत्यंत आभार आपके शब्दों का, जो प्रेरणा देते हैं हमें!!!
Deleteवचनामृत को बड़ी अच्छे सें परिभाषित किया आपने ... बहुत खूब
ReplyDeleteजी,आभार!!!
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