Friday 26 June 2020

वचनामृत

क्यों न उलझूँ
 बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं  चखने लगता हूँ
तुम्हारे  वचनामृत को !

43 comments:

  1. मैं चखने लगता हूँ
    तुम्हारे वचनामृत को!
    :)
    हम्म्म , गांव में बढ़े बुजुर्ग कहते थे ' माँ दी गालियां , घी दी नालियां " तब उस बात का कभी मतलब समझ नहीं आया ,
    आज की तारीख में माँ की हर डांट, सीख बन कर पग पग साथ चलती हैं और जहां आजकल इक सच्ची मुस्कान की किल्लत से जूझ रहे होते हैं, इक सरल सहज मुस्कान बरबस ही आ जाती है

    आपकी रचना अंत तक आते आते , पढ़ने वाले को अपने अतीत तक ले जाती है :)
    बहुत ही स्नेहिल रचना , सजीब लेखन
    आभार ऐसा सृजन करने के लिए
    सदर नमन

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी गंभीर समीक्षा और स्नेहाशीष का हृदयतल से आभार।

      Delete
  2. तुम्हारी डाँट से ,
    तृप्ति जो मिलती है मुझे।
    पता है, क्यों?
    माँ दिखती है,
    तुम में ।।
    अति उत्तम भावाभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
  3. भावपूर्ण, नमन।
    अतीत में खोता चला गया। मानो कोलकाता का वही बड़ाबाजार सामने हो और अपना घर संग में मां-बाबा..
    और उनका एक दूसरे से यह कहना-- देखो चौधरी ! मुनिया बिल्कुल सुनता नहीं है..।
    काश ! एक बार पुनः लौट आते वे प्यार भरे दिन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपके संस्मरण हमेशा हमें मधुर भावनाओं से सिक्त करते हैं। बहुत आभार आपका।

      Delete
    2. नारी के साथ पत्नीत्व ही नहीं मातृत्व का भी गुण होता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस भी अपनी धर्मपत्नी शारदामणि में माँ का ही दर्शन करते थे।स्त्री को प्रकृति ने एक साथ अनेक गुणों से संजोया है, इसिलए उसे देवी का पद दिया गया है।

      Delete
    3. बहुत सुंदर भाव!

      Delete
  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 26 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  5. नारि के ममत्व का दर्शन कराती हुई सुन्दर रचना।

    ReplyDelete
  6. गजब। मतलब मार कुटाई को श्रँगार कहूँ अपनी भाषा में तो हा हा। :) बस मजाक है। लाजवाब।

    ReplyDelete
    Replies
    1. गज़ब!मजाक-मजाक में ही मर्म का स्पर्श कर लिया। 😀 अत्यंत आभार।

      Delete
  7. पवित्र,निश्छल संबंधों में भावनाओं की स्नेहिल धारा में भीगकर
    हर रूप एक बिंदु पर एकाकार हो उठता है।
    बहुत सरल, सहज एवं सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर प्रणाम।🙏

    ReplyDelete
  8. स्नेहिल नोंकझोंक भरा, हृदयस्पर्शी शब्द चित्र दाम्पत्य जीवन का!! जब एक पति , पत्नी में प्रेमिका से लेकर माँ का साक्षात दर्शन करता है, वही है पत्नी के नारीत्व का संपूर्ण सम्मान और प्रेम का सर्वोच्च उत्कर्ष!! आपका जीवनकलश इस सुंदर वचनामृत् से सदैव भरा रहे आदरणीय विश्वमोहन जी।हार्दिक शुभकामनायें ।
    सादर🙏🙏

    ReplyDelete
  9. सुंदर,सहज,स्नेहिल वचनामृत..
    शुभकामनाएँँ

    ReplyDelete
  10. जी, अत्यंत आभार!!!

    ReplyDelete
  11. बहुत खूब ,गलत को भी सही दृष्टि से देखना, समझना अच्छे इंसान होने की निशानी है ,बढ़िया है

    ReplyDelete
  12. माँ से जुड़े रहने का मन क्या क्या करवा के जाता है ...
    जीवन में माँ का स्थान शायद कोई भर नहीं पाता और इंसान अपनी छोटी छोटी इच्छाओं पूरी करता है किसी बहाने से ...
    एक अवस्था आती है जब माँ बाप लौट आते हैं हर भंगिमा में ...
    दिल को बहुत छुई आपकी रचना ... सीधे उतर गई अपनी माँ का किरदार ले कर ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपके सुंदर शब्द सदा हमें ऊर्जा देते हैं।

      Delete
  13. "एक नारी " किसी भी उम्र में हो,वो किसी भी रिश्ते से बंधी हो,उसके अंदर एक माँ सदैव छुपी होती है,बस उसे देखने और पहचानने की भावना और नजर होनी चाहिए।बेहद भावपूर्ण सृजन,सादर नमन आपको

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बढ़िया. अत्यंत आभार!!!

      Delete
  14. जी, बहुत बहुत आभार आपका!!!!

    ReplyDelete
  15. क्यों न उलझूँ
    बेवजह भला!
    तुम्हारी डाँट से ,
    तृप्ति जो मिलती है मुझे।
    पता है, क्यों?
    माँ दिखती है,
    तुममें। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  16. बहुत सुंदर कोमल भावनाओं से पूरित रचना !

    ReplyDelete
  17. अपनत्व से परिपूर्ण लाजबाव रचना

    ReplyDelete
  18. मां सदैव ही ईश्वर होती है बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  19. अनुपम ...पत्नी में माँ को देखना और एक बच्चे की तरह सोचना ...इससे खूबसूरत भावजगत कुछ हो नहीं सकता . बहुत ही सुन्दर कविता हृदय तक पहुँच गई .

    ReplyDelete
  20. सच, यही होता है. बेहद खूबसुरत अभिव्यक्ति.

    ReplyDelete
  21. बहुत सुंदर रचना
    वाह

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!

      Delete
  22. ये भाव ही हैं जो एक व्यक्त‍ि से अनेक र‍िश्तों को व्याख्याय‍ित करते चलते हैं... बहुत सुंंदर ल‍िखा श्वमोहन जी

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका!!!!

      Delete
  23. क्यों न उलझूँ
    बेवजह भला!
    तुम्हारी डाँट से ,
    तृप्ति जो मिलती है मुझे।
    पता है, क्यों?
    माँ दिखती है,
    तुममें।
    वाह!!!!
    लाजवाब भाव ....प्रेमी और सहृदय व्यक्ति ही ऐसे भाव रखते हैं वरना बात का बतंगड़ बनने देर नहीं लगती
    लाजवाब सृजन हमेशा की तरह...।

    ReplyDelete
    Replies
    1. अत्यंत आभार आपके शब्दों का, जो प्रेरणा देते हैं हमें!!!

      Delete
  24. वचनामृत को बड़ी अच्छे सें पर‍िभाष‍ित क‍िया आपने ... बहुत खूब

    ReplyDelete