कई दिनों से रूठी मेरे,
अंतर्मन की कविता।
मनहूसी, मायूसी, मद्धम,
मंद-मंद मन मीता।
शोर के अंदर सन्नाटा है,
शब्द, छंद सब मौन।
कांकड़-पाथर-से भये आखर,
भाव हुए हैं गौण।
थम गई पत्ती, चुप है चिड़िया,
और पवन निष्पंद।
पर्वत बुत-से बने पड़े हैं,
नदियों का बहना बंद।
हिमकाल के मनु-से मेरे,
मन में बैठी इड़ा।
बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!
परखे पीव की पीड़ा?
अभिसार-से सुर श्रद्धा के,
नहीं सुनाई देते।
सुध धरा की व्याकुलता का,
बादल भी नहीं लेते।
चाँद गगन में तनहा तैरे,
आसमान है बेदम।
जुगनू जाकर जम गए तम में,
करे पलायन पूनम।
नि:शक्त शिव शव स्थावर,
निश्चेतन जीव जगत है।
समय चक्र की सतत कला का,
यही नियति आगत है।
प्रलय काल में क्षय के छोर पर,
हो, शक्ति की आहट।
स्फुरण में चेतन के फिर,
जागेंगे शिव औघट।
शिव के डमरू से निकलेगा,
प्रणव-नाद का गान।
और कन्हैया की मुरली से,
प्रणय-रास की तान।
अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
गढ़े ज्ञान की गीता।
अनहद चेतन अंतर्मन में,
मानेगी मेरी कविता!!!
राह निहारूँ उस पहरी की,
मनमीता मोरी मानें।
काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,
जड़-चेतन सब पहचानें।
बहुत ही सुन्दर व दिव्य भावों से ओतप्रोत मुग्ध करती कविता - - साधुवाद सह।
ReplyDeleteजी,अत्यंत आभार!!!
Deleteजी, आपके इस महत यज्ञ का विशेष आभार!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव हैं आपके इस काव्य-सृजन में विश्वमोहन जी ।
ReplyDeleteकवि मन की शानदार कशमकश को आपने वाणी और शब्द दे दिए..अध्यात्म तथा दर्शन ..दोनों का दिव्य दर्शन..
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteरूठने मनाने की प्रगाढ़ प्रेमिल अनुभूतियों से सजी भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी रचना। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमनु,श्रद्धा,बाँसुरी ,शिव इत्यादि को प्रतीक बना कर कवि की मनःचेतना को अच्छा व्यक्त किया है.
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुंदर!
ReplyDeleteजब कविता रूठती है तब व्याकुल मन की पीड़ा बस यूं ही फूटती है और देखिए कितनी गहन उपमाएं लेकर कविता प्रकट हो जाती है कवि से कविता कहां दूर रह पाती है।
बहुत सुंदर सृजन ।।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteहिमकाल के मनु-से मेरे,
ReplyDeleteमन में बैठी इड़ा।
बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!
परखे पीव की पीड़ा?
नाद और तान के साथ सब पीड़ा भी बाहर आएगी ।
सुंदर भाव लिए हुए कविता
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजब रूठी है तो इतना सुंदर सृजन यदि मान जाएगी तब क्या होगा
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपकी मृदुल शुभकामनाओं के लिए!!!
Deleteअनहद नाद की गूंज हृदय को झंकृत कर रही है । अति सुन्दर सृजन । हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार!!!!
Delete
Deleteसुंदर छंदों से सुसज्जित सुंदर रचना!
शोर के अंदर सन्नाटा है,
शब्द, छंद सब मौन।
कांकड़-पाथर-से भये आखर,
भाव हुए हैं गौण।
आपके अंतर्मन की कविता रूठी हुई हो सकती है मगर बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी है। आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना आदरणीय।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत भावपूर्ण रचना आदरणीय सर। सुंदर। हार्दिक आभार व आपको प्रणाम।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteअति सुन्दर..अनंत तक जाती आपकी रचना अनुपम है..
ReplyDeleteसादर नमन..
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteरूठी हुई है तो इतना प्यारा सृजन अगर मान गई तो...
ReplyDeleteपरमात्मा करें जल्द मान जाए... ताकि हम आपकी और भी अच्छी रचनाओं का आनन्द उठा पाए,सादर नमस्कार
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का।
Deleteआदरणीय सर,
ReplyDeleteसादर प्रणाम।
आज आपसे एक अनुरोध है। मैं ने प्रतिलिपी पर अपनी दो कहानियाँ डाली हैं 1.वर्षा ऋतु 2. जब कान्हा आये। कृपया उसे पढ़ कर अपना मार्गदर्शन और आशीष दें। मैं अत्यंत आभारी रहूँगी।
आपकी यह सुंदर रचना पुनः पढ़ी, बहुत आनंद आया।
आपको पुनः प्रणाम
जी, अत्यंत आभार। प्रतिलिपि वाली कहानी का लिंक भेजिए।
Deleteकैसे भेजूँ?
Deleteऔर प्रतिलिपी पर तो आप हैं ही
ReplyDeleteखोज लिया 😀🙏
Deleteटिप्पणी दर्ज हो गयी है। अपनी प्रतिलिपि खंगाल लें।😀🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (११-०७-२०२१) को
"कुछ छंद ...चंद कविताएँ..."(चर्चा अंक- ४१२२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
पुरुषोत्तम जी ने आज एक बार फिर से इस काव्य को पढ़ने का अवसर दिया। वैसे तो ये जितनी बार भी पढ़े जी नहीं भरता मगर वक़्त आभाव के कारण...
ReplyDeleteअनमोल कृति है ये आपकी ,सादर नमन
आशीष भी अनमोल है ये आपका! अत्यंत आभार।
Deleteअक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
ReplyDeleteगढ़े ज्ञान की गीता।
अनहद चेतन अंतर्मन में,
मानेगी मेरी कविता!!!
मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि इस कविता के गूढ़ को समझ पाना मेरे लिए जरा कठिन है। अलग अलग अर्थ हो सकते हैं अपनी समझ के अनुसार। आपकी विद्वत्ता से उपजा इस कविता का शब्द शिल्प और इसकी गूढ़ता ही इस कविता का प्राण है।
एक बार कविता कवि के हाथ से निकल गयी तो वह पाठक की संपत्ति बन जाती है। अब पाठक का अर्थ ही सही अर्थ माना जायेगा।😀🙏 अत्यंत आभार।
Deleteबहुत बहुत शानदार ।
ReplyDeleteपहले भी उतनी ही मोहक आज भी रस से सराबोर।
सुंदर सृजन।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteवाह लाजबाव सृजन
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteरचना से प्रेरित पंक्तियाँ !!!!
ReplyDeleteइकलहर समय की मिलवाती,
दूजी दूर ले जाती,
निष्ठुर कान्हा कब पढ़ पाते
राधा के मन की पाती,
जाने किसकी खातिर माधव
मुरली मधुर बजाए ,
पुकार थकी तरसी राधा
छलिया कहाँ बस में आये!
शिव करते मनमानी।
नयन मूँद ना पलकें खोले,
ना जाने शक्ति की पीड़ा
औघड़ बम- बम भोले,
जब चाहें उठाके डमरू_
जड़ में चैतन्य भरते
प्रेयसी भटकी जन्म -मरण में
ना अमरत्व प्रीत में भरते!!//////////
😂😂
लाजवाब, अद्भुत, विलक्षण!!!
Delete