Thursday 8 July 2021

गौतम की आत्म-ग्लानि

 हिम शिला की गहन गुफा थी,

पसरा था नीरव निविड़ तम।

प्रस्तर मूर्ति मन में उतरी,

खिन्न मन खोए थे गौतम।


यादों में उतरी अहल्या,

शापित इंद्र सहस्त्र-योनि तन।

गहन ग्लानि में गड़ा चाँद था,

कलंक से कलुषित कृष्ण गगन।


आँखों में अवसाद का आतप,

मन में विचारों का घर्षण।

आत्मच्युत अपराध भाव से,

लांछित लज्जित न्याय का दर्शन!


मन के मंदिर के आसन से,

चकनाचूर मैं च्युत हुआ।

अपने ही दृग के कोशों से,

अहिल्ये! मैं अछूत हुआ।


अनजाने अभिसार को तेरे,

वक्र शक्र ने ग्रास लिया।

मद्धिम बूझा फीका शशि,

निज कर्मों का नाश किया।


धवल चाँदनी की आभा ही,

सोम व्योम का सेतु है।

हो रीता इससे सुधाकर,

हीन भाव ही हेतु है।


राहु का स्पर्श मयंक को,

ज्यों ही कलंकित करता है।

ग्रसित मृत-सा गोला मात्र यह!

राकेश न किंचित रहता है।


पतित पत्र भी पादप का,

बस धरा-धूल ही खाता है।

चिर सत्य,  कि टहनी पर,

नहीं लौट वह पाता  है।


च्युत छवि से पतित पुरुष भी,

कथमपि न जीवित रहता है।

मर्दित  कर्दम आत्मग्लानि में,

पड़ा मृत ही रहता है।


कहूँ कासे! जो कह न सका,

हाय! लाज शर्म से गड़ा हुआ।

अब तो नित नियति यही,

मैं रहूँ मरा-सा पड़ा हुआ।


37 comments:

  1. ह्रिदय्स्पर्शी सृजन,गौतम ऋषि की व्यथा कथा का मौलिक चित्रण,शब्द शौष्ठव का सुंदर समयोजन ।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


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  3. इतिहास और पुराणों में नारी के साथ अन्याय की अनगिन गाथाएं मौजूद हैं। पर कुछ कहानियाँ तर्क से परे हैं। प्रातः स्मरणीय पंचदेवियों में एक माँ अहल्या की व्यथा- कथा भी उनमें से एक है। अकारण, देहलोलुप देवों के कुत्सित षडयंत्र की शिकार देवी अहल्या को उस भूल का दंड मिला जिसमें उनकी तनिक भी हिस्सेदारी ना थी। पौरुष दंभ में अंधे कथित त्रिकालदर्शी ऋषि गौतम ने क्रोधावेश में जिस अमानवीय सजा का प्रावधान एक असहाय और निर्दोष नारी के लिए किया था, न्यायशास्त्र के मर्मज्ञ होने के नाते उन्हें देर- सवेर अपनी भूल का एहसास जरूर हुआ होगा और भीतर की न्याय तुला ने उनके विवेक को झझकोरा अवश्य होगा और निश्चित ही आत्मग्लानि में डूबे और पश्चाताप के दावानल में जलते मुनि गौतम के यही भाव रहे होंगे जिन्हें आपने रचना के माध्यम से सशक्त , जीवंत अभिव्यक्ति दी है। मन के धरातल पर उमड़ते सूक्ष्म भावों और समस्त घटनाक्रम पर दृष्टिपात के साथ अलंकार की शोभा से रचना का सौंदर्य बढ़ गया है | सादर 🙏🙏

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    1. आपकी सांगोपांग समीक्षा ने रचनाधर्मिता के सौंदर्य को और द्विगुणित कर दिया। अत्यंत आभार आपकी प्रेरक टिप्पणी का जो लेखक में नई ऊर्जा और उत्साह का संचार करती है।

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  4. प्रसंगवश लिखना  चाहूँगी कि  इस कुकृत्य से कथित देवाधिदेव इंद्र ने अपनी देवोचित गरिमा को खंडित किया तो चंद्रमा ने अपनी पावन आभा को कलंकित किया  वहीँ पति की दृष्टि में दोषी और  पतिता समझी गई  माँ अहल्या को मानवी से पाषाणी  बनने और अंतहीन प्रतीक्षा के फलीभूत होने पर, अपने  आराध्य के दर्शन और समस्त नारी जाति की आदर्श होने का गौरव प्राप्त हुआ जिसका श्रेय भी उन्होंने अपने पति के शाप को देकर अपनी सहृदयता और उदारता का परिचय दिया। जिसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में लिखा है ---

    मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। 
    देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
     बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
     पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
    सादर -

     

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    1. मतलब अपने को दुर्दशा की दुर्गम उपत्यका में ठेलने वाले दंभी पुरुष के कुकृत्य को भी उस शापित सती के मुख से महिमामंडित करवा ही दिया! सच में-
      "अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी...."

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  5. गौतम ऋषि के मनस्ताप का चित्रण,..लाजवाब।
    सादर।

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  6. अनछुआ विषय, अद्भुत भाव संप्रेषण।

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  7. बहुत बहुत सुन्दर अत्यंत सराहनीय रचना । मन से साधु वाद ।

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  8. "त्रिकालदर्शी ऋषि गौतम" ये तो उन्हें कहलाने का हक ही नहीं है त्रिकालदर्शी होते तो सत्य को देख चुके होते.... आत्मग्लानि शायद इस बात की हुई हो कि-उनकी सारी विद्या सारी तपस्या विफल रही जो वो क्षणिक क्रोध से बशीभूत हो एक निर्दोष नारी को इतनी कठोर सजा दे दी। वैसे आपकी लेखनी में उनकी पीड़ा उजागर जरूर हो रही है और इसकी तारीफ करना छोटा मुँह बड़ी बात है...आपकी लेखनी तो प्रशंसा से परे है... सादर नमन आपको

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    1. जी, किसी भी व्यक्ति की आंतरिक संवेदना हमेशा जगी रहती है और अनवरत अपने कृत्यों का आकलन करते रहती है।अत्यंत आभार आपकी सारगर्भित टिप्पणी का।

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  9. अनुपम रचना, संभवतः राम को यह सम्मान मिलना था कि उनके सान्निध्य से पाहन जैसा जीवन भी स्पंदित हो जाए, देखा जाए तो यह रूपक कथा है, शाब्दिक अर्थ नहीं लेना चाहिए

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    1. आपकी गहन अंतर्दृष्टि का आभार।

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  10. कहूँ कासे! जो कह न सका,
    हाय! लाज शर्म से गड़ा हुआ।
    पश्चाताप सभी को है
    नियति का चक्र चलायमान है
    सादर नमन..

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  11. कहूँ कासे! जो कह न सका,

    हाय! लाज शर्म से गड़ा हुआ।

    अब तो नित नियति यही,

    मैं रहूँ मरा-सा पड़ा हुआ।
    गौतम ऋषि के मनोभावों का अद्भुत वर्णन किया आपने आदरणीय।

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  12. बहुत बार ऐसे ही प्रश्न मन में उठते है कि महान ऋषि क्या सच को नहीं जान पाते थे ।
    यूँ श्राप जल्दबाजी में क्यों दे दिए जाते थे ।
    बहुत गहन भाव से लिखी सुंदर रचना ।

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    1. जी, आपके सुंदर भावों का अत्यंत आभार।

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  13. माता अहल्या को पाषाणी बनाकर जब गौतम ऋषि को सारे सत्य का भान हुआ होगा तब कितना पश्चाताप हुआ होगा ये सोचा था आज आपकी लेखनी से ऋषि गौतम के पश्चाताप को उन्ही के शब्दरूपों में पढ़ कर सकून मिला मुझे तो...एक हद पार करता पश्चाताप होना चाहिए ही था उन्हें...त्रिकालदर्शी होकर भी इस तरह का क्रोध!!खैर ...आपने बहुत ही लाजवाब लिखा है उनके मनभावों को....।

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    1. जी, अत्यंत आभार कविता की गहराई में उतरने का।

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  14. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (13-7-21) को "प्रेम में डूबी स्त्री"(चर्चा अंक 4124) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  15. कभी कभी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि तपस्वी ऋषियों को इतना क्रोध(फल स्वरूप शाप)क्यों आता है.दूसरे के प्रति विवेक शील क्यों नहीं रह पाते?शकुन्तला,सुकन्या,और जाने कितने उदाहरण हैं जिनके साथ अन्याय हुआ है.काश ,जैसा आपने विचार किया वे अपना अहं छोड़ दूसरे की स्थिति का विचार कर सकते!

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    1. जी, बहुत आभार इतनी सुंदर विवेचना का।

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  16. चाहे त्रुटि हो अथवा पाप, उसका कलंक (वास्तविक) पश्चात्ताप के अश्रुओं से ही धुल सकता है। लेकिन जो हो गया है, उसके विपर्यय अथवा सुधार का भी कोई मार्ग उपलब्ध होना चाहिए जिसको तुरंत ही कार्यान्वित किया जा सके। त्रुटि किसी की हो तथा सम्पूर्ण जीवन किसी अन्य का नष्ट हो जाए, इससे अधिक अन्यायपूर्ण क्या हो सकता है? अहल्या के साथ जो कुछ भी हुआ, वह तो हमारे पुरुष-प्रधान समाज की सनातन विडम्बना है। गौतम की आत्म-ग्लानि ठीक है किन्तु पश्चात्ताप केवल शाब्दिक विलासिता तो नहीं होना चाहिए। और इंद्र का क्या? उन्हें तो सम्भवतः अपने किसी भी अनुचित कृत्य पर कभी ग्लानि अथवा पश्चात्ताप का अनुभव नहीं हुआ। और हमारे पूजनीय ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी सदा उनकी सहायता तो करते रहे, उन्हें सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने का कार्य कभी नहीं किया। जहाँ तक आपकी इस काव्य-रचना का प्रश्न है विश्वमोहन जी, यह आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही है। अभिनंदन।

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    1. जी, बहुत आभार इतनी विस्तृत विवेचना का।

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  17. तपस्या, विलक्षणता,ज्ञान,पांडित्य सब धरा का धरा रह जाता है मानुष जन्म में मानवीय विकार कोई आश्चर्य की बात तो नहीं।
    गौतम ऋषि के ज्ञान और उनके साधारण मानवीय रूप एवं व्यवहार से अलग करती स्पष्ट रेखा यही समझा रही है।
    जब प्रभु अवतार इस कलंक से मुक्त नहीं तो ऋषि गौतम कैसे बरी हो सकते है?
    आपने एक स्त्री के प्रति हुए अन्याय के बाद तपस्वी पुरूष की मनोदशा का वर्णन करके घाव पर दवा लगाने का प्रयास किया है माना कि आपकी लेखनी आपकी कल्पना अतुलनीय है।
    किंतु जो घटित हो चुका वही सत्य भी है और अमिट भी है।
    -----
    प्रणाम
    विश्वमोहन जी।
    सादर।

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    1. जी, आभार आपकी आलोचना दृष्टि का।

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  18. पतित पत्र भी पादप का,

    बस धरा-धूल ही खाता है।

    चिर सत्य, कि टहनी पर,

    नहीं लौट वह पाता है

    वेदनापूर्ण पंक्तियां, बहुत सुंदर शब्द चयन

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    1. जी, आभार आपके सुंदर शब्दों का!!!!

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  19. अचंभित करता हुआ कल्पना की उड़ान । मंत्र मुग्ध कर रहा है ।

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    1. जी आभार आपके सुबदर शब्दों का!!!

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