Monday, 31 January 2022

वसंत



जीवन  घट  में  कुसुमाकर  ने,  
रस  घोला है  फिर चेतन  का।
शरमायी सुरमायी कली में,  
शोभे  आभा  नवयौवन  का।

डाल-डाल  पर  नवल  राग में,
पवन मदिरा मृदु प्रकम्पन।
अठखेली लतिका ललना की, 
तरु-किशोर का नेह-निमंत्रण।

पत्र दलों की नुपुर-ध्वनि सुन,  
वनिता  खोले  घन केश-पाश।
उल्लसित पादप-पुंज वसंत में,
नभ तैरे उर का उच्छवास।

मिलिन्द उन्मत्त, मकरन्द मिलन में, 
मलयज बयार,   मदमस्त मदन  में।
चतुर  चितेरा,  चंचल  चितवन  में,  
कसके   हुक    वक्ष-स्पन्दन   में।

प्रणय  पाग  की  घुली  भंग,  
रंजित पराग पुंकेसर   रंग।
मुग्ध मदहोश सौन्दर्य-सुधा,  
रासे  प्रकृति  पुरुष  संग।

पपीहे  की प्यासी पुकार में,
चिर संचित  अनुराग अनंत है।
सृष्टि का यह  चेतन क्षण है,
आली! झूमो आया वसंत है।

विश्वमोहन   

Saturday, 22 January 2022

मन में माँ और माँ में मन (पुण्यस्मृति नमन)

अब भला,  क्या सूखेंगे?

भीगे  थे, जो कोर नयन के!

ये आँखें भी तभी जगी थीं,

प्रहर तेरे महाशयन के।


काश! जो उस दिन भरपेट रोता!

आज शून्य में यूँ न खोता।

दृग-कोष में आँसू बँध गए,

और कंठ के स्वर भी रुँध गए।


तब से हर रोज का सूरज,

तमस शीत पिंड लगता है।

इससे भला तो चंदा मामा,

याद में तेरी जगता है।


लिए कटोरा दूध हाथ में,

हमको रोज बुलाता है।

'बउआ के मुँह में घुटुक'

लोरी की याद दिलाता है।


यादें कण-कण घुली हुई हैं,

रुधिर जो बहता मेरी नस-नस।

मन में माँ और माँ में मन!

चाहे राका, या अमावस।




Tuesday, 11 January 2022

तटस्थ तट!

 आषाढ़ घटा घनघोर रही,

सरस सलिला धार बही।

तट भी आर्द्र सराबोर हुआ,

पवन-प्रणय का शोर हुआ।


तट अभिसार का ज्वार हुआ,

सरिता से पावस प्यार हुआ।

वह बार-बार टूट गिरता था,

अपनी सरिता में मिलता था।


सरिता होती मटमैली-सी,

पर उसकी अपनी शैली थी।

कभी तरु संग खिलती थी,

और पवन से मिलती थी।


वह तट से मुँहजोर बोली,

तट का दिल वह तोड़ चली।

 छोड़ तुम्हें अब जाऊँगी,

नहीं कभी फिर आऊँगी।


तट प्रतिहत, अंतस आहत,

मन में हाहाकार हुआ।

हाय! पाहुन पाहन से,

उसे क्यों ऐसा प्यार हुआ!


स्वभाव सरिता का बहना है,

उसे नहीं थिर रहना है।

छोड़-छाड़ कर सब अपना,

तट को प्रेयसी संग दहना है।


प्रबल प्रवाह ही सरिता का,

तट को तोड़ा करता है।

तट का स्वभाव है समर्पण,

वह नित सरिता पर मरता है।


किन्तु तट तो तट ही है,

वह निश्चल है निश्छल है!

उसमें तब तक जीवन है,

जब तक सरिता में जल है।


सूख जाने पर भी तटिनी के,

स्थावर है, जड़वत है।

बहने-रहने की वृथा व्यथा,

चिर तटस्थ-सा रहता तट है।