शब्द-भँवर में मन भर भटका,
पर भाषा को भाव न भाया।
अक्षर टेढ़े-मेढे सज गए,
वाक्य विवश! विन्यास न पाया।
भाव भी भारी, अंतर्मुख हैं,
बाहर भी वे निकल न पाते।
लटके-अटके गले में रहते,
वापस उनको निगल न पाते।
मूक है वाणी, मौन मुख पर,
होठ का थरथर छाता है।
मन के उन गुमसुम नगमों का,
नयन कोश से नाता है।
दिल की बातें दरिया बनकर,
दृग-द्वार से दहती हैं।
जीवन के उत्थान-पतन के
भाव गहन वह गहती हैं।
मौन नाद में लोचन जल के
भावनाओं की भविता है।
ताल, तुक, लय, भास मुक्त
छंद हीन यह कविता है।