Monday 22 August 2022

कुदरत का खेल

 नीर निधि को नहीं पता,

अंदर ज्वाला जलती है।

बेखबर, अंतस आतप,

जलधि लहर उछलती है।


उच्छल-लहरी, ललना अल्हड़,

श्रृंग उछाह पर चढ़ती है।

लीलने ग्रास यौवन में अपने,

तट सैकत को बढ़ती है।


अभिसार-अभिशप्त बावली,

तीर से फिर न फिरती है।

निस्तेज, निष्प्राण, स्खलित,

गहन गर्त में गिरती है।


तट पर बिछ जाती हिलोर को,

रेत भी मन भर पीता है।

लहर-विरह की अश्रुधार में,

डूब समंदर जीता है।


आना-जाना, गिरना-उठना,

सागर की आकुल तरुणाई।

भीतर भड़की बाड़वाग्नि,

बाहर उर्मि अंगड़ाई।


पल-पल इस लीला में लिपटा,

ना घटता, ना बढ़ता है।

बस खोने-पाने का अब्धि,

स्वांग-दृश्य वह रचता है।


उत्थान-पतन, हँसना-रोना,

एहसास नजर का धोखा है।

'होने' के,  'न होने' का 'होना',

कुदरत का खेल अनोखा है।




28 comments:

  1. कुदरत का हर खेल निराला है
    इस कुदरत की व्याख्या करती
    आपकी पंक्तियां भी अनोखी हैं
    खूबसूरत पंक्तियां 👌

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-08-2022) को   "उमड़-घुमड़ कर बादल छाये"   (चर्चा अंक 4531)    पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    ReplyDelete



  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 24 अगस्त 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम

    ReplyDelete
  4. जन जीवन प्रकृति.. सभी को निरूपित करती उत्कृष्ट रचना।

    ReplyDelete
  5. मिलन और विरह में ही जीवन का सौंदर्य निहित है पर इस सौंदर्य की अपनी पीड़ा भी है।सागर और लहरों के आलौकिक अभिसार के माध्यम से प्रकृति की लौकिक लीला को दर्शाती सार्थक रचना, जिसके लिये हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आदरनीय विश्वमोहन जी।सादर 🙏🙏

    ReplyDelete
  6. पीर लहरों की जाने कौन?
    संचित अंतर्व्यथा पहचाने कौन?
    कम कहाँ दर्द सागर का भी
    जीता इसको भीतर ही पी!
    प्रशांत छवि,विकल मनुवा
    रहता मौन अधरों को सी!
    अपने अंसुवन से खारा सिंधु ,
    ये बात जगत में माने कौन??

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत सुंदर काव्यात्मक प्रतिक्रिया! अत्यंत आभार!!!

      Delete

  7. उत्थान-पतन, हँसना-रोना,

    एहसास नजर का धोखा है।

    'होने' के, 'न होने' का 'होना',

    कुदरत का खेल अनोखा है।

    वाह बहुत ही सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  8. प्रकृति ने न जाने कितने रहस्य अपने अंदर छिपा रखे हैं , सागर के माध्यम से अभिव्यक्त किया है और ऐसा ही मानव मन भी है । गहन भाव भरे रचना ।

    ReplyDelete
  9. वाह! बहुत ही सुंदर सृजन भावों की गहनता लिए।

    ReplyDelete
  10. अद्भुत।
    सादर।

    ReplyDelete
  11. उत्थान-पतन, हँसना-रोना,

    एहसास नजर का धोखा है।

    'होने' के, 'न होने' का 'होना',

    कुदरत का खेल अनोखा है।

    सागर एवं लहरों के माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणी मात्र के जीवन का सार लिखा है आपने...गूढ़ अर्थ समेटे बहुत ही गहन उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन
    वाह!!!

    ReplyDelete
  12. बहुत ही सुंदर सृजन

    ReplyDelete