Sunday, 20 October 2024

डल झील


प्रत्यूषा का प्रसव काल है,

जल में थोड़ी हलचल है।

चतुर्दशी का चाँद  गगन में,

डल के तल में कोलाहल है।


यह झील सती का सरोवर,

शंकर समीप पर्वत ऊपर।

नीचे जल झलमल-झलमल

सोहै  दूधिया चंद्रशेखर।


कर तल से करतल किल्लोलें,

यह राजतरंगिणी कल्हण की।

चंपू की चंचल चालों में,

छपछप करती यह अल्हड़-सी।


काष्ठ कुटीर के कोटर से,

दो नयन निहारे अपलक से।

लहर तरल पर तिरे चाँदनी,

झील हिलमिल छलके-झलके।


देवोद्भव से त्राण-प्राप्ति,

कश्यप की तप-धार है।

वाराह अवतार-कथा यह,

सतीसर कश्यप-मार है।

Friday, 27 September 2024

कैक्टस





 कभी प्लावित थी,

सलिला इस पथ पर!

कर गई परित्यक्ता,

परती को,

प्रविष्ट हो पाताल में।

सूख कर सुर्ख-सी 

भुर-भुराकर बुरादों में 

मृतप्राय मृदिका!

बन गई बालुकूट।


सहेजकर विरासत,

वेदना की विरसता ।

विषन्न अवसन्न 

हत-प्रतिहत।

उग आया मैं !

छाती पर उसकी, अनाहत।

समेटे खुरदुरेपन

विसंगतियों के .

कंटक, नुकीले।

गड़नेवाले।


पानी भी नहीं अब,

मेरी आंखों में!

छेद देता हूं, हर हवा,! 

जो छेड़ती हैं मुझे।

काट देता हूं, हर तंतु,! 

उलझता जो हमसे।

तरन्नुम हूं मैं, 

उदासी की, वसुधा का!

मैं नीरस हूं, बेबस हूं,  अपयश हूं,

और,  न ही, टस से मस हूं।

मैं कैक्टस हूं!

Wednesday, 10 April 2024

पात पात पर पखेरू गात


मृण्मयी भू, आज अजर-अजिर!
चिन्मय चेतन घर आया है।
क्षिति जल पावक गगन समीर संग,
पुरुष तत्व भर आया है।

पुलकित तरु के पात-पात पर,
चिड़ियाँ चंचल चहक रही हैं।
पवन मचाए उधम दम भर,
कुंज लताएँ बहक रही हैं।

संग अनंग वसंत मधुरास रत,
आरक्त कानन का आनन है।
उलझी बेल द्रुम प्रेम खेल में,
ऋतु हाला में अवगाहन है।

शुक, सारिका, हारिल, श्यामा,
रति - राग और प्रीत की बात।
उपवन सघन सरस मद छात,
पात पात पर पखेरू गात।


 

Thursday, 22 February 2024

भाटिन अंगुरिया छूंछ




 
माला वर्मा का कहानी संग्रह ‘भाटिन अंगुरिया छूंछ’ की कहानियाँ पाठकों के मन में सुदूर अतीत के पन्नों में खोयी उन मधुर स्मृतियों का सुवास बनकर छा जाती हैं जिसे आज की प्रौढ़ पीढ़ी ने अपने बचपन के दिनों में जिया है। पचास-साठ के दशक के सामाजिक जीवन पर तनी-बनी ये कहानियाँ समकालीन जीवन की शीतल  बयार-सी मन को सहलाती हैं। भोजपुरिया समाज की मोहक मिठास पाठकों को एक अद्भुत रस से सराबोर कर देती हैं। परिवार का प्रेम, पड़ोस का अपनापन, पति-पत्नी के प्रतियोगी भाव, रिश्तों का रस, जीवन की खटपट, अल्हड़ बालपन, आचार-व्यवहार की आत्मीयता और  सामाजिक समरसता से लेकर परंपराओं की संजीवनी तक का प्रवाह इन कहानियों में हुआ है। हर कहानी में अपनी अद्भुत मानवीयकरण शैली में कथावाचक माला जी  पाठकों के मन की चौखट पर खड़ी हो जाती हैं और आप बीती सुनाने लगती हैं। 
कहानियों की छाजनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के आसपास ही छायी हुई है। सुबह की चाय, पति से रार, सहेलियों का इनकार, सब्ज़ी-बाज़ार, मुहल्ले का मोड़, जानवरों और पंछियों का आलोड़, नईहर की यादों की हिलोर - सबकुछ छितराया हुआ मिलता है यहाँ। मानवीय संवेदना के धरातल पर एक नयी चेतना का उच्छवास है। कहानी की शैली इतनी सुघड़ है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक ऐसी मनोदशा को प्राप्त कर लेता है मानों वह ख़ुद अपनी बात किसी से बतिया रहा  हो – एकदम बिंदास मिज़ाज में देसी ठाट के साथ। बातें मध्यमवर्गीय नागरी शैली में निकलती हैं लेकिन जल्दी ही अपने स्वाभाविक मीठे देहाती संस्कार के मनभावन गर्भ-गृह में थसक के बैठ जाती हैं। फिर तो पाठक कहानी के रस को पीने लगता है। इतिवृतात्मकता का स्वच्छंद प्रवाह है। गाँव-देहात का भोलापन है और शहर में समायी ज़िंदगी को डोर से बाँधे दूसरे सिरे पर मुसकाती-गुनगुनाती ग्रामीण तान का अनहद राग है। भोजपुरी जीवन-रस से सराबोर कहानियाँ अभी-अभी नईहर लौटी किसी अल्हड़ नवविवाहिता की अपनी सखियों के साथ उछलती-कूदती चुलबुली चहक- सी गूँजती हैं।
‘अम्मा, अम्मी, बाज़ी’ कहानी समाज में बेटे और बेटी के बीच के भेदभाव की भावना को बड़ी संजीदगी से उठाती है। बेटे को अधिक तरजीह दिए जाने पर कहानीकार का यह संदेह बड़ी प्रखरता से प्रतिध्वनित होता है कि क्या इस ‘तरजीह’ को ये पुत्र उसी फ़िक्रमंदी  से अपने माँ-बाप को लौटाते हैं!
परिग्रह का संस्कार इस मानव-मन को इस क़दर दबोचे हुए है कि लालच और मोह की रस्सी में आदमी अंत तक जकड़ा रह जाता है। ‘कम्बल’ में यह मानव-मनोविज्ञान बड़ी  सजीवता से उभरकर सामने आता है।
दिनकर की पंक्तियों (‘श्वानों को मिलता दूध भात  भूखे बालक अकुलाते हैं’) और निराला की पंक्तियों (‘चाट रहे वे जूठी पत्तल कहीं सड़क पर खड़े हुए’) का जीवंत कथात्मक चित्र है – ‘नौनिहाल’। 
‘सॉरी, नहीं तो नहीं!’ कहानी में पुरुष-दर्प और नारी-अधिकार का द्वंद्व टपक पड़ता है। ‘रिटायरमेंट के बाद क्या लोग सचमुच सठिया जाते हैं’ इन पंक्तियों में चौथेपन में नए-नए प्रवेश किए पति पर पत्नी का स्वाभाविक अट्टहास गूँजता है। ‘औरतें ग़ुस्से में खाना-पीना छोड़ देती हैं। उन्हें भूख नहीं लगती। किंतु, अधिकतर मर्दों को उस झगड़े वाली स्थिति में भी कड़ाके की भूख लगती है।‘ – यही चौथेपन की चौखट पर चपर-चपर करते पति-पत्नी का सच है। 
‘खीर’ कहानी महज़ एक कहानी न होकर एक चौपाए की संवेदना का सरगम है। ‘मिसेज़ सिन्हा’ कहानी में मिसेज़ चौधरी का मिसेज़ वर्मा को बीच में ही रोककर फट पड़ना, ‘सच कहा मिसेज़ तालुक़दार, बहुएँ घर का काम करना पसंद नहीं करतीं। उनके तेवर अलग होते हैं। नौकरी-पेशा बहु लायिए तो और झमेला। किसी को कुछ समझती नहीं। बेटा भी देख-सुन अनसुना बना रहता है। मैं तो कई वर्षों से यही सब झेल रही हूँ। बहुएँ तो विचित्र आ रही हैं। अब तो बेटियों के तेवर भी बदलते जा रहे हैं। ऊँची शिक्षा, नौकरी क्या मिली, घर के कामों में हाथ बँटाने को तैयार नहीं’ – भौतिक विकास की आँधी में उधियाते समाज की झाँकी है। इसी तरह ‘बीस रुपए’ में भी बात महज़ बीस रूपए की नहीं है। यह भीतर और बाहर की लड़ाई है। यह मन और भावना का द्वंद्व है। यह अपने मौलिक संस्कारों का अवगाहन है जहाँ सांसारिकता के द्वारा मानवीय मूल्यों को दबोचने की पीड़ा अतीत से पसरकर वर्तमान पर छितरा गयी है। 
शादी- बियाह में पाणिग्रहण तो दो व्यक्तियों के मध्य होता है, किंतु संस्कारों का आदान-प्रदान और बौद्धिकता का विनिमय एक बड़े फ़लक पर होता है। बारात में शास्त्रार्थ इसी परंपरा के वाहक थे और तब का भोजपुरिया ग्रामीण समाज अपने ‘मोहन भैया’ सरीखे पढ़निहारों में ही अपना नायक ढूँढता जो अपनी तर्किकता और प्रत्युत्पन्नमतित्व से प्रतिद्वंदी के छक्के छुड़ाकर उसे ‘बुड़बक-बकलोल’ तक साबित कर देता था। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहानी पाठकों तक भोजपुरिया ग्रामीण समाज के  इस संदेश को पहुँचा जाती है। 
और अंत में संग्रह की शीर्षक कथा – ‘भाटिन अंगुरियां छूंछ!’
यह कहानी अपने आप में एक पूरे युग को समेटे है। जातिगत भेद पर बँटे समाज में हर जाति की भूमिका भी तय है। वह भूमिका व्यक्ति विशेष में अपने किरदार की अपेक्षित कुशलता (जिसे आप कुछ ख़ास जगहों पर उसकी विशेष चलुअयी या धुर्तता भी कह सकते हैं) आरोपित कर देती है। कैथी भाषा के जानकार कायस्थ जाति के लाला भी ज़मीन के दस्तावेज़ लिखने के हुनर में माहिर हैं। उनके इस हुनर को लेखिका ने बड़ी सहज अभिव्यक्ति दी है – ‘यानि इधर का माल उधर।‘ कथा के परिवेश की परिधि पर घूमती लेखिका ‘लाला को बुलाएँ क्या!’ इस पंक्ति के साथ शीघ्र कथा पर वापस लौट जाती हैं। यह रचनाकार के बौद्धिक संतुलन, भटकाव की नयूनता और और अपने कथा-वाचन पर पूर्ण नियंत्रण का द्योतक है। दादाजी के मरने के उपरांत उनकी किताबों में दीमक लगना हमारी सांस्कृतिक विरासत के अनवरत क्षरण की करुण गाथा है। घर का मालिक आडंबरहीन सादे जीवन के प्रतीक पुरुष के रूप में उभरता है। आँधी आने पर दउरा लेके दादाजी के साथ बगईचा जाना और भर दौरी आम लेके माथा पर वापस लौटने की घटना से वह प्रत्येक पाठक रोमांचित हो जाता है जिसने इस गँवई गौरव को जीया है। कहानी अपने साथ समकालीन समाज के पूरे परिदृश्य को साथ लेकर चलती है। दादाजी की मायूस बोली, ‘एतना लछमी ख़ाली हमरे अंगना उतरिहन’ हमारे परिवार में बेटियों के दोयम दर्जे की तखती लटका देती है। बेटियों से भरे घर में एक बेटे ने क्या जन्म ले लिया, मानों चाँद ही आँगन में उतर आया हो! यह पुरुषवादी सोच आज भी जस का तस है। बात जो भी हो, ग़रीब औरतों की तो इस पुत्र जन्मोत्सव में चाँदी है। सोहर गाने वाली इन औरतों के कई महीनों के सूखे चुपड़े बालों को रस्म-अदायगी के नाम पर सरसों का तेल नसीब हो गया है। वह माँग-माँगकर तेल थोप रही हैं। मिठाई ऊपर से अलग! लालाजी अपनी व्यवहार कुशलता से पंडितों से दुहाने से तो बच जाते हैं लेकिन कहानी में इसी मोड़ पर एक ऐसी पात्र का प्रवेश होता है जो इसके कथानक में चार चाँद लगा देती है। वह है – अनारकली!  कवित्ताई में निपुण चुकन मियाँ की बेटी। शादीशुदा यौवना। सिर पर सिंदूर और लिलार पर लाल टिकुली। लाला के पोते होने की ख़बर उसे यहाँ खींच लायी है। आज लालाजी से उसे भी अपना बख्शीस लेना है। महाभारत और रामायण को अपनी अनूठी शैली में गाने वाले चुकन मियाँ और मुन्ना मियाँ की  गंगा-जमुनी धारा की मृदुलता में डूबने-उतराने वाली अनारकली की ज़ुबान भला अपने बाप-पितिया से कम धार वाली कैसे हो सकती है! वह नाच-नाचकर लाला के सामने अपनी मोहक भंगिमा में अपनी तान छेड़ देती है, “टोला-महल्ला के कंठा गढ़वल, भाटिन अंगुरिया छूंछ – ऐ लाला, हमरो अंगुरिया छूंछ।‘ अब आगे क्या होता है, यह पाठक ख़ुद पढ़कर जान लें।
देसी और गँवई शब्दों की अनुपम छटा है इन कहानियों में। एक बानगी देखिए – ‘सपरा लें’, ‘हमार किरिया’, ‘पिनक’, ‘हुमच-हुमच’, ‘बुड़बक’, ‘बकलोल’, ‘नईहर’, ‘थूर दिया’, ‘हबकने’, ‘अटर-पटर’, ‘महटिया दिया’, ‘फींचना’, ‘ज़िला-जवार’ आदि आदि।
 हिंदी भाषा में लेखन की वर्तनी से चंद्रबिंदु का लोप भी उसी गति से होता जा रहा है जिस गति से भारतीय जीवन से मूल्यों का लोप! इस बात को यह कहानी संग्रह पूरी तरह साबित करती है। प्रकाशन और सम्पादन की यह कमी दिल को दुखाती है।
अंजनी प्रकाशन (फ़ोन  ८८२०१२७८०६) से प्रकाशित यह संग्रह पठनीय और संग्रहरणीय दोनों है। मालाजी को इस सरस और सार्थक कृति के लिए हार्दिक बधाई और भविष्य की अशेष शुभकामनाएँ!!!

Monday, 1 January 2024

‘साक्षी हैं शब्द’


 ‘साक्षी हैं शब्द’ ग्लोबल के ऑन-लाइन साक्षात्कार मंच पर हमसे 29 दिसम्बर, 2023 को रू-ब-रू होते वरिष्ठ साहित्यकार/नाटककार डॉ. किशोर सिन्हा और साथ में को-होस्ट के रूप में कार्यक्रम को संचालित करती वैशाली (ग़ाज़ियाबाद) से डॉ. रेणु श्रीवास्तव जौहरी जी।

Youtube लिंक है-
सुंदर संवाद, आनंदमय वार्तालाप।