धू-धू कर, मैं चिता में जल रही,
धूम्र बनकर, वायु तुम मंडरा रहे हो।
देही थे तुम, देह अपनी छोड़कर,
नष्ट होने पर मेरे इतरा रहे हो!
सुन लो, हे अज, नित्य और शाश्वत!
चेतना का, दंभ तुम जो भर रहे हो!
छोड़ मुझ जर्जर सरीखी देह को,
भव सागर, आज जो तुम तर रहे हो!
तुम पुरुष हिरण्य बनकर आ गिरे,
मुझ प्रकृति का ही गर्भ पाए थे।
घोल अपनी चेतना जीव द्रव्य में,
गीत मेरे संग सृजन के गाए थे।
मुक्ति का जो भाव लेकर जा रहे,
हम निरंतर उस धारा में बह रहे।
पंच मात्रिक तत्वों की मैं प्रकृति,
राख बन अपने स्वरूप ही दह रहे।
फिर, कोई तुम - सा भ्रमित पथिक,
अहंकार चेतना का लायेगा।
पांच तत्वों की मुझ प्रकृति में,
अपनी बुद्धि और मन को पाएगा।
हे पुरुष, भटके तुम जंगम, सुन लो!
स्थावर रूप मेरा, ही तुम्हारा वास है।
न मैं बंधी, और न हो, मुक्त तुम!
सहवास हमारा, ही समय आकाश है।
मेरी प्रकृति के अणु परमाणु में,
होता पुरुष विराट का विस्तार है।
'सो अहं, तत् त्वं असि', यह मंत्र ही,
सृष्टि की, अद्भुत छटा का सार है।
वाह
ReplyDeleteदेह रुपी प्रकृति का देही रुपी पुरुष से ये संवाद अपने भीतर समस्त जीवन-बोध का परिचायक है।निश्चित रूप से आत्मा को अजर-अमर कहा जाता है पर फिर भी संसार में यही देह आत्मा को धारण ना करे तो भौतिक रूप में उसका अस्तित्व अदृश्य ही रहे।पंच तत्वों से बनी देह से ही उसकी पहचान है,यही सृष्टि का शाश्वत सत्य है।यदि आत्म-तत्व चेतना है तो देह-तत्व उसका स्थायी निवास।यानि प्रकृति के साथ ही पुरुष का प्राण तत्व चिरंतनता में विस्तार पाता है।संसार मे भले देह नश्वर हो पर आत्मा के साथ उसकी जीवन-यात्रा अभिन्न रुप में चलती है।यही वेदांत-दर्शन' सो अहं, तत् त्वं असि'!' है।एक उत्कृष्ठ आध्यात्मिक चिंतन युक्त सृजन के लिए साधुवाद 🙏🙏
ReplyDeleteजी, कविता के अर्थ को विस्तार देने के लिए अत्यंत आभार!!!
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (२७-०५-२०२२ ) को
'विश्वास,अविश्वास के रंगों से गुदे अनगिनत पत्र'(चर्चा अंक-४४४३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी, अत्यंत आभार!!!!
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
Good one Vishwamohan ! You have turned the tables on Atma which always tends to occupy an elevated superior position !!
ReplyDeleteYea, you can take it as a feminist poem also if the metaphysical terms are read in their mundane worldly meaning; Purush representing a common man and the Prakriti or Deh as a common woman! Thanks a lot for the interest shown!
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ReplyDeleteमेरी प्रकृति के अणु परमाणु में,
होता पुरुष विराट का विस्तार है।
'सो अहं, तत् त्वं असि', यह मंत्र ही,
सृष्टि की, अद्भुत छटा का सार है।
जीवन का सार परिभाषित करती उत्कृष्ट रचना ।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteरेणु ने इस रचना का सार विस्तार से कह दिया है । अद्भुत रचना । आभार ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteहे पुरुष, भटके तुम जंगम, सुन लो!
ReplyDeleteस्थावर रूप मेरा, ही तुम्हारा वास है।
न मैं बंधी, और न हो, मुक्त तुम!
सहवास हमारा, ही समय आकाश है।
देह का आत्मा से संवाद !!!!
अद्भुत!!
न मैं बंधी , और न हो मुक्त तुम ! कितना सटीक आत्मा भी कहाँ मुक्त है एक जर्जर होती देह त्यागी तो दूसरी में समाहित ! और देह भी कहाँ बँधी है एक जीवन के बाद पंचतत्व में विलीन ...
बहुत ही चिंतनपरक लाजवाब एवं अविस्मरणीय सृजन हेतु नमन आभार एवं साधुवाद🙏🙏🙏
कविता के अर्थों को विस्तार देने के लिए आपका अत्यंत आभार!!!
Deleteभारतीय जीवन दर्शन में सृष्टि प्रक्रिया का सुन्दर काव्यात्मक प्रकटीकरण !
ReplyDeleteदेह ,प्रकृति, बंधन और आत्मा से गुजरती और एक पंचतात्विक संदेश के संग एक शानदार रचना विश्मोहन जी, निराला और पंत के शब्दों संग बैठी ये रचना...बार बार पढ़ रही हूं...वाह...क्या बात कही है कि ''मुक्ति का जो भाव लेकर जा रहे,
ReplyDeleteहम निरंतर उस धारा में बह रहे।
पंच मात्रिक तत्वों की मैं प्रकृति,
राख बन अपने स्वरूप ही दह रहे।''....अब इसके बाद कुछ और व्याख्या करने को शब्द कम हैं...
इस रचना को अपना इतना आत्मीय स्नेह देने के लिए अत्यंत आभार!!!
Deleteआत्मा और देह का मिलन चिरंतन शाश्वत है देह के आधार बिना आत्मा के कल्याण का कोई मार्ग नहीं पर जैन दर्शन के मतानुसार जब आत्मा अपने पर आच्छादित सभी आवरणों से मुक्त हो जाती है तो वो सिद्धत्व को प्राप्त होती है फिर उसे पंच तत्वों से बनी देह से कोई प्रयोजन नहीं रहता पर साथ ही उसे उस स्थान की प्राप्ति के अंतिम सौपान तक प्रकृति का सहारा चाहिए।
ReplyDeleteसिद्धत्व भी सहज उपलब्ध होता नहीं तो तब तक आत्मा और प्रकृति अलग होकर भी अलग नहीं हो सकते।
गूढ़ भावों को व्यक्त करती गूढ़ रचना।
अप्रतिम अद्भुत।।
कविता के मर्म को विस्तार देती इतनी सुंदर मीमांसा का सादर आभार।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुंदर गहन भावपूर्ण पंक्तियां
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमित्र, रेणुबाला ने और कुसुम जी ने तुम्हारी कविता के मर्म को समझा है पर हम तो लट्ठमार किस्म के प्राणी हैं. फिर भी तुम्हारी कविता ने हमको यह तो समझा ही दिया है कि जिन भौतिक सुखों के और भौतिक उपलब्धियों के, पीछे हम जीवन भर भागते रहते हैं, वो आध्यात्मिक दृष्टि से क्षण-भंगुर हैं और उनका विस्तार हमारे मस्तिष्क तक ही सीमित है.
ReplyDeleteजी, कबीर भी तो लट्ठमार प्राणी ही थे! अत्यंत आभार!!!
Deleteदेह और देही एक दूसरे के पुरक भी और पृथक भी...
ReplyDeleteशानदार सृजन और सभी ने इसकी इतनी अच्छी व्याख्या करके और भी सहज बना दिया वरना हम जैसे तो समझ भी ना पाए।
अध्यात्म की ओर ले जाती इस अद्भुत सृजन के लिए कोटि कोटि नमन आपको 🙏
जी, अत्यंत आभार आपकी दृष्टि का!
Deleteकिस ने क्या दिया किस को? -
ReplyDeleteतत्व धरा के
साँस जीवा के
तन, मन. प्राण जो साध सजे तो
सुर सजा सृष्टि का!
दोनो दे ले कर
पात्र रहे, बस पूर्ण किस ने क्या दिया किस को? -
तत्व धरा के
साँस जीवा के
तन, मन. प्राण जो साध सजे
तब सुर सजा सृष्टि का!
दोनो दे ले कर
पात्र रहे, बस पूर्ण किया,
निराकार को आकार दिया
तब जा कर -
अहम में ब्रह्म साक्षात हुआ।
निराकार को आकार दिया
तब जा कर -
अहम में ब्रह्म साक्षात हुआ।
वाह! बहुत सुंदर।
Deleteज्ञान और अध्यात्म की अतल गहराइयों में आपकी पैठ और तत्व - दर्शन पर आपके विचारों के गुरुत्व को हमने सदा एक जिज्ञासु शिष्य भाव से स्वीकारा है। आपकी इस टिप्पणी का आभार और धन्यवाद, सबीना।
parvati prasang yaad aa gaya. aur bhi aisa hi kuchh padhna hai. likhiye sheeghr hi kripaya
ReplyDeleteजी, आपका आशीष यूं ही बना रहे। अत्यंत आभार।
Deleteअटल जी की एक कविता स्मरण ही आई ...
ReplyDelete"मैं मधु से अनभिग्य आज भी जीवन भर विष पान किया है
किया नहीं विन्ध्वंस विश्व का केवल बार निर्माण किया है "
निःशब्द हूँ ... इस रचना को नमन ...
वाह! बहुत सुंदर। अत्यंत आभार।
Deleteगज़ब
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
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