Saturday, 28 June 2014

प्रेम-जोग

आ री गोरी, चोरी चोरी
मन मोर तेरे संग बसा है.
राधा रंगी, श्याम की होरी
ब्रज में आज सतरंग नशा है.

पहले मन रंग, तब तन को रंग
और रंग ले वो झीनी चुनरिया.
प्रेम-जोग से बीनी जो चुनर
उसे ओढ़ फिर सजे सुंदरिया.

रहे श्रृंगार चिरंतन चेतन
लोचन सुख, सखी लखे चदरिया.
अनहद, अनंत में पेंगे भर ले
अब न लजा, आजा तु गुजरिया.

लोक-लाज के भंवर जाल में
अटक भटक हम दूर रहे हैं.
चले सजनी, अब इष्ट लोक में
देख,  प्रपंची घूर रहे हैं.

दुनियावी कीचड़ में धंसकर,
कपट प्रपंच के पंक मे फंसकर.
अज्ञान के अंध-कुप में
रहे भटकते लुक-लुक छिपकर.

अमृत सी मेरे प्यार की छैंया
सोये गोरी,  जागे सैंया.
लो फिर, नयनन फेरी सुनैना
बसे पिया के अंखियन रैना.

साजन निरखे पल पल गोरी
वैसे,  जैसे चांद चकोरी.
भोर हुआ, अब आ सखी उठें
अमर यात्रा है, अब ना रुठे.

प्रमुदित मन और मचले हरदम
विश्व पर बरसे अमृत पुनम.
मैं पुरुष,  तेरा अभिषेक हूँ
ना मैं’, ना तुम’, मैं-तुम एक हूँ.
          ----------------- विश्वमोहन

Silver Cheers!

(Dedicated to my be(i)tter half on the completion of the silver jubilee year of my wedding on June 28)


Our metamorphosis into
‘made for each other’.
Over the quarter cent years.
 Walk past the memory lane,
Share the silver cheers!

 Mustnot so easily forget,
 All the promises.
 We made to us of sailing together
 for each others’ wishes.


 All those beautiful days and
 Never ending talk long  nights,
 That we justified together,
All the rights wrong and wrongs right!


 With the delicious elixir of love,
That my soul is still replete,
 That you lent me throughout,
 the journey rendering the melody sweet.

The sweet quarrels and bitter love
Through your speaking eyes with frowning lips.
And that we tasted together,
The shrill music carrying the love tips.

Our sojourn in the ‘inn’ on the way
In  dark nights and on rainy days .
Through curse and  boon and thick and  thin
We emerged together with shining rays.

The Providence gifted me with
The everlasting panacea of life.
That He created in you
My friend, philosopher and darling wife.

 O my darling, forget me not
 for my feelings are yet as hot
 as it was, when in my images,
 were you caught!

         ------------------ vishwamohan

Sunday, 22 June 2014

सोशल मीडिया और भारतीय नारी

कुछ हद तक विवाहेतर सम्बंधों के कवच एवम परिवार नियोजन के कल्याणकारी उपकरण कंडोम की निर्माता एक व्यावसायिक  कम्पनी का शोध रिपोर्ट पढ़ने का अवसर मिला.आम तौर पर ऐसी व्यावसायिक कंपनियों का शोध बाज़ार सर्वेक्षण और उनके अपने तिजारती हितों के अलोक में ज्यादा और समाजशास्त्रीय समीकरणों एवं संवेदनाओं के साम में कम होता है. कथित रिपोर्ट में भी मुझे मेरी इस अवधारणा के प्रतिकूल तत्व नहीं दिखे. यह विशुद्ध रूप से अपनी आर्थिक विवेचनाओं को एक स्व व्याख्यित अवैज्ञानिक सामाजिक दर्शन के छद्म भ्रान्ति जाल में लपेटता जुमला मात्र प्रतिभाषित हुआ. इसमें सोशल मीडिया और प्राद्यौगिकी  को मनोरंजन के साधन के रुप में खड़ा कर उसके समक्ष  दाम्पत्य  जीवन  को घुटने टेकते हुए दिखाया गया है, मानों दाम्पत्य जीवन भी मनोरंजन का कोइ मंजीरा हो. भारतीय परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में दाम्पत्य वैवाहिक जीवन का एक अविच्छिन्न अंग है,  यानि परिणय का प्रणय पक्ष! विवाह जीवन का दाव है. दाम्पत्य विवाह रुपी ऊर्जा  सागर में उठने गिरने वाली प्रेम क्रीड़ा की उत्ताल तरंगें हैं. प्रलय काल में मनु से की गयी श्रद्धा के प्रेम-मनुहार से समझा जा सकता है:-
कहा आगंतुक ने सस्नेह,
अरे, तुम हुए इतने अधीर.
हार बैठे जीवन का दाव,
मरकर जीतते जिसको वीर.
अतः वैवाहिक जीवन में दाम्पत्य-सहवास क्षणिक उच्छवासों का समागम मात्र नहीं, प्रत्युत सृजन की एक चिरंतन चेतना है. यह व्यष्टि-समास समष्टि को समर्पित यज्ञ है. यह दो देह का मिलन नहीं,बल्कि दो आत्माओं  का विस्तार है.
इस संदर्भ में यदि तकनीक तथा सोशल मीडिया की भूमिका का अवलोकन किया जाय तो यह भी व्यक्ति के समाज से सहकार होने की प्रक्रिया का उत्प्रेरक तत्व है, भले ही इसने एक मनोरंजक दंतमंजन का रुप ले लिया हो!  व्यक्ति के सम्पर्क और प्रभाव क्षेत्र के प्रसार का नियामक यंत्र है यह. आज इन वेबसाइट के माध्यम से लोगों के आपस में जुड़ने की प्रवृति और गति दोनों को पर लग गये हैं. पुराने मित्र एक दूसरे से जुट रहे हैं. मित्रता और परस्परिक सम्बंधों के विविध आयाम पुनर्परिभाषित हो रहे हैं. सारी दुनिया सिकुड़कर एक पृष्ठ पर आ गयी है. सूचना तंत्र की तीव्रता में सबकुछ बस एक पासवर्ड में सिमट गया है. नित्य नयी-नयी शख्सियत की तलाश, नये-नये दोस्तों की नयी दास्तान, मन में उमड़ी भावनाओं का चैटिंग के माध्यम से तात्क्षणिक प्रक्षेपण और शब्द एवम चित्रों की दुनिया में अपने स्व को बड़ी मासूमियत से किसी कल्पित विश्वास को पूर्ण रुप से दे देना, यह सोशल वेबसाइट पर प्रतिदिन घटने वाली दास्तान की झलकी मात्र है.
 सब कुछ यहाँ मिल जाता है. हर मर्ज़ की खुराक परोसी हुई है. दमित,छलित, शापित, प्रताड़ित एवम अनुप्राणित, सारी भावनायें यहाँ अंकुरती है, पल्लवित होती है, अपनी सुरभि बिखेरती है, राहगीरों को छलती हैं , दूकानों पर सजती हैं, अपनी चमक-दमक से आंखों को चकाचौंध करती है, मनचलो को इठलाती है , मासूमों को फुसलाती है, किसी के दिल में आशा का दीया जलाती है, किसी के अरमानों का गला घोंटती है , किसी का आशियाना बसाती है तो किसी की दुनिया उजाड़ती है.
यह नवयुग के सोशल  साहित्य का विस्तृत फलक है, जहाँ साहित्य के सभी काल, कविता के सभी रस और नाट्यशास्त्र के सभी अंग अपने श्रृंगार की समस्त कलाओं की सर्वोच्च सत्ता को बस एक लाइक पर आपके सामने  उड़ेल देते हैं. इसके मोह-पाश की महिमा अकथ्य है. इसके प्रेम फांस मे समय स्थिर हो जाता है और व्यक्ति उस जादूई टाइम-सूट को पहन लेता है जहां खगोलीय गुरुत्व, पारिवारिक आकर्षण और जन्म, उम्र, जाति ये सारे बंधन बेअसर हो जाते हैं. व्यक्ति ग्लोबल और कभी कभी कॉस्मिक हो जाता है. भावनाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहां निस्सीम हो जाती है. भावनायें अल्हड़ और व्यंजनायें अराजक. यहां कुछ रुकता नहीं, कुछ टिकता नही. प्रतीक्षा की वेदना नहीं. सबकुछ गत्यात्मक है. चरैवति- चरैवति का दर्शन अपने शाश्वत स्वरुप में विराजता है. यहाँ सबकुछ ताज़ा है, टटका है, बासी कुछ भी नहीं है. बाहर से सब कुछ खुला है. अंदर की गारंटी नहीं. अपीयरेंस महफूज़ है. एस्सेंस का खरीददार नहीं. वाद की फरियाद नहीं, ‘विचारधारा की मियाद नहीं. सारी क्रियायें, सारे व्यापार  अपने स्वाभाविक प्रवाह में घटित होते हैं. यहाँ किशन की वंशी की धुन भी है, गोपिकाओं के प्रेम उपालम्भ भी हैं, राधा रानी के प्रणय की खनक भी है, मीरा के नयनों से निःसृत अंसुअन की धार भी है और उद्धव की ज्ञान-पोटली भी है. सब कुछ मुफ्त! सब कुछ मुक्त! सर्वथा उन्मुक्त! मानों, भारतीय दर्शन में मीमांसित मोक्ष की प्राप्ति यहाँ अनायास ही हो जाती हो.

अब यदि भारतीय समाज में पुरुष के सापेक्ष नारी की स्थिति का इतिहास के भिन्न भिन्न काल-खंडों  में अवलोकन करे तो इतिहास का प्राचीन काल नारी वैभव और उसकी महिमा का उत्कर्ष काल है. मध्य काल आक्रान्ताओं के आगमन का काल है जहां से भारतीय मूल्यों की जमीन में कुसंस्कारों का ज़हर पटना शुरू होता है. मध्यकालीन सामंती परिवेश के प्रवेश के पश्चात से ही मानों दाम्पत्य उसके सहवास की सुकोमल भावनाओं का स्वछंद उच्छवास न होकर उसके सर्वभौमिक आस्तित्व का अनिवार्य कारावास हो. अब परिणय के सुवासित उपवन में उसके प्रणय राग की चहक नहीं सुनायी देती , प्रत्युत उसके भावी जीवन की आजीविका के साधन के रुप में उसका दाम्पत्य परम्परा के बोझ तले कराहता है. अब उसका दाम्पत्य बेबसी के समर्पण का पर्याय बनकर रह गया जहाँ उसके भर्तार का छद्म अहंकार कुलाचें मारता है और अबला औरत संतान जनने और चूल्हा झोंकने का मशीन बनकर रह गयी. वह पर्दानशीं, असूर्यपश्या और पुरुष के समतल जीवन में प्रवाहित होने वाली कृशकाय तन्वंगी धारा बनकर रह गयी. दहलीज के भीतर कैद औरत की मुक्त आकाश में उड़ान भरने की तमन्ना दमित भावना बनकर दिल की कसक में समा गयी. संयुक्त-परिवार प्रणाली में मध्ययुगीन संस्कारों  ने नारीत्व- नाशक मूल्यों का जहर पटाया. परम्परा से प्राप्त समस्त उदात्त संस्कार जो यत्रनार्यस्तु पुज्यंते, तत्र रमंते देवाः का शंखनाद करते थे, शनैः शनैः काल का ग्रास बनते गये. हिंदु स्त्री का पत्नीत्व में महदेवी वर्मा बड़ी साफगोइ से कहती हैं:-
“जैसे ही कन्या का जन्म हुआ, माता पिता का ध्यान सबसे पहले उसके विवाह की कठिनाइयों की ओर गया. यदि वह रोगी माता पिता से पैतृक धन की तरह कोई रोग ले आई तो भी उसके जन्मदाता अपने दुष्कर्म के उस कटु फल को पराई धरोहर कह-कह कर किसी को सौंपने के लिये व्याकुल होने लगे.”

युग आगे बढा. औद्योगिक क्रांति आयी. शहर बने . गांव टूटे. बाज़ारें सज़ी. गांव का कृषक दूल्हा नये सेट-अप में ऑफीस का नौकरीपेशा बाबू बना. संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था के मूल्य घटे. दुल्हे का दाम बढा. खरीद-फरोख्त के तिज़ारत में औरत फिर परवान चढ़ी. हाँ, एक सकारात्मक असर ये हुआ कि गांव मे घूंघट काढ़े गुलामी करने वाली औरत शहर के उजाले में आ गयी. बाद के दिनों में वह, धीरे धीरे ही सही, संघर्ष मे अपने साथी की सहचरी नज़र आयी. समाज के परिवर्तन का पहिया घूमता रहा. आज़ादी की लड़ाई. आज़ाद हिंदुस्तान. सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जेहाद.

 हम पूरा इतिहास उकटना नहीं चाहते. हाँ, इतना जरुर जोड़ेंगे कि नारियों के उन्नयन की दिशा में जो सदियों की सामाजिक क्रांतियां सौ चोट सुनार के मारती रहीं, वो इक्कीसवीं सदी की सूचना क्रांति ने एक चोट लोहार के में तमाम कर दिया. अब सारी दुनिया उसकी उंगलियों में लिपट गयी.उसका वेबसाइट और ब्लॉग उसके सम्मुख था. उसके व्यक्तित्व को मुक्त गगन मिला और उसकी मुलायम भावनाओं ने पंचम में आलाप भरना शुरु कर दिया. उसे अपनी मौलिकता से साक्षात्कार हो गया. उसके अंतःस की रचनात्मकता कुसुमित होने लगी. उसे अपनी सृजनात्मकता के सौंदर्य की अभिव्यक्ति का विस्तृत वितान मिल गया. उसकी श्रृंगारिकता उसके सामजिक सरोकार की शोभा बन गयी. अपने प्रतियोगी पुरुष के आहत अहंकार और उसकी सहमी ठिठकी कुंठा को नज़रअंदाज़ करते उसकी मुक्ति की उत्कंठा अपने सच्चे मुकाम की ओर मुड़ गयी है. अब उसने नयी सम्भावनाओं की तलाश कर ली है. जाहिर है प्रजनन-उपकरणकी मानसिकता से स्वतंत्र होकर समाज में अपनी नयी भूमिका की तलाश में वह निकल पड़ी है. इस परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त शोध के आंकड़ों की सूचना तो सही है लेकिन व्याख्या भ्रामक और तथ्यहीन.                             
हाँ, भिन्न-भिन्न सामाजिक संरचनाओं में सम्बंधों के बहुमुखी आयामों की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता.इसकी पृष्टभूमि में होती है – सामाजिक सरोकारों  के संस्कार की संस्कृति, जहाँ दाम्पत्य के अंतरंग और सामाजिकता के विविध रंग पारस्परिक अवगुंठन में लयबद्ध भी हो सकते हैं या फिर एक दूसरे की लय में पारदर्शिता का प्रलयी विलय भी कर सकते हैं.
जरुरत है – सुसंस्कारों की, सम्बंधगत परिपक्वता की, विश्वास के सशक्त रेशमी बंधन की, समर्पण की और परिणय एवम प्रणय के संतुलन की. यह संक्रमण का काल है. अभी लम्बी यात्रा शेष है.
                                

Saturday, 21 June 2014

चेतना, पदार्थ और ऊर्जा

मैं चेतना को  जीव  के भौतिक तत्व और  उसकी  ऊर्जा से बिल्कुल इतर मानता हूँ. वैज्ञानिक विचार परम्परा में पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं. पदार्थ ऊर्जा में परिणत होता है और ऊर्जा पदार्थ में. द्वैत प्रकृति का सिद्धांत भी यही है कि प्रत्येक वस्तु पदार्थ और तरंग दोनों सा व्यवहार करती हैं. अस्तु, किसी खास समय उसका व्यवहार कितना पदार्थीय है और कितना तरंगीय, यह जानना दिलचस्प है. हाँलाकि, पदार्थ का कोई विशेष अंश कितनी उर्जा मे बदल गया, इसका सूत्र अवश्य मिल गया है.
अब प्रश्न उठता है कि अखिर वह कौन सा  कारक  है  जो पदार्थ  और ऊर्जा की इस पारस्परिक परिवर्तनशीलता को संचालित करता है, जिसके नेतृत्व में परिवर्तनशीलता की संजीदगी अपनी शाश्वतता को बनाये रखती है. जिसका साया हटते ही पदार्थ ऊर्जाहीन होकर पदार्थ मात्र रह  जाता है जिसे मृत्यु की स्थिति कहते हैं.
वह चेतना है.
पदार्थ और ऊर्जा अधिभौतिक विज्ञान के विषय हैं, चेतना अध्यात्म का. जैसे ही विज्ञान अध्यात्म की गोद में आता है, सृजन की लता लहलहाती है. अर्थात चेतना की चिन्मय ज्योति के आलोक में ही भौतिक तत्व (पदार्थ और ऊर्जा) का संघट्ट स्वरुप सजीव जीव कहलाता है. चेतना का लोप होते ही जीव निष्प्राण,  पदार्थ ऊर्जाहीन और फिर नष्टशीलता की गति को प्राप्त! ऊर्जा तो निर्जीव वस्तुओं पर भी आरोपित की जा सकती हैं. ऊर्जा यानि कार्य करने की क्षमता.  विद्युत ऊर्जा निर्जीव पंखे में यांत्रिक ऊर्जा में बदलकर उसमें गति ला देती है. वहाँ पंखे की गति किसी चेतना से संचालित नहीं होती. इसलिये, गतिशील होकर भी पंखा निर्जीव है.
ठीक इसके उलट, साधना में लीन एक साधक की समस्त ऊर्जा उसके ध्यान में घनीभुत होती है जिसका संचालन एक विराट चेतन शक्ति करती है. इसलिये, वह साधक शरीर अचल, स्थिर व जड़स्वरुप होकर भी सजीव है, जीवंत है और चैतन्य है.
अब यह जीव-चेतना एक स्वयम्भू सम्पूर्ण चेतना है या किसी परम चेतना का शाश्वत अंश-स्वरुप, एवम स्वयम में उतना ही परम जितना इसका स्त्रोत! इसकी आहट हमें वेद में सुनायी देती है:-
“पूर्णमदं पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवशिष्यते”.
इस चेतना को यदि हम आत्मा माने तो वह अक्षय स्त्रोत परम चेतना परमात्मा है. सदियों से मानव आत्मा-परमात्मा के इस समीकरण को सुलझाने में उलझा है.       
“आत्मनि एव आत्मनः तिष्ठः यः पश्यति सः पण्डितः”
अर्थात, अपने चेतन स्वरुप में स्थित होकर अपनी चेतना से समस्त चेतना को आत्म स्वरुप में जो अवलोकन करता है, वही विद्वान है. इस स्थिति मे सब कुछ आत्ममय है, कुछ भी पराया नही. “अयम निजः परो वेति, गणना लघुचेतषाम”. चित्त अर्थात चेतना लघु नहीं, प्रत्युत विराट है. अंश और सम्पूर्ण एकमय हैं.एकोअहंद्वितीयोनास्ति. नदी प्रवाह है और प्रवाह नदी. यह आध्यात्मिक लोक का अवलोकन है.
भौतिक जगत में हम मैटर (पदार्थ और ऊर्जा) का अवलोकन प्रकाश(ऊर्जा) के माध्यम से करते हैं. यह ऊर्जा अपने पदार्थीय स्वरुप (फोटॉन) का आवेग अवलोकित पदार्थ को देकर उसकी स्थिति में परिवर्तन ला देता है. इस तरह हम उसकी विचलित स्थिति देखकर उसकी मौलिक स्थिति का भ्रम पाल लेते हैं. यह भौतिक जगत का दृष्टि-भ्रम है. इसीलिये आध्यात्म लोक विशुद्ध और शाश्वत है जबकि अधिभौतिक जगत प्रदुषित और भ्रांतिपूर्ण! जरुरत है, हम अपनी आत्मा(चेतना) को जगायें.
हाँ, तो ये जगत पदार्थ और ऊर्जा का विस्तार मात्र है. दोनों हैं तो मूलतः एक ही चीज़. यानि, पदार्थ ऊर्जा में बह जाता है और ऊर्जा पदार्थ में जम जाता है. पदार्थ और ऊर्जा का समंवित स्वरुप है - प्रकृति. पदार्थ और ऊर्जा अपने भिन्न-भिन्न अनुपात में एक से दूसरे में अदल-बदल कर प्रकृति की अगणित वस्तुओं का रुप रचते हैं. उनकी पारस्परिक क्रीड़ा उनका रसायन है और तज्जन्य रुप उनकी भौतिकी! अब यह प्रकृति तबतक संजीदा नहीं, जबतक उसमें अंतःस्फुर्त हलचल न हो. यह हलचल पैदा होती है, चेतना से. यह चेतना उसका पुरुष तत्व है. इसी की छाया में उसकी कलायें विकसित होती हैं, विस्तार पाती हैं और अपने किसिम-किसिम के रुपों से सृष्टि को सजाती हैं. अब किस वस्तु को चेतना का कितना प्रसाद मिला या अपनी विशिष्ट मात्रा रचना के बूते वस्तु चेतना के कितने अंश को ग्रहण करने का पात्र बनी – यह रहस्य बना हुआ है और शोधपरक है. फिर, जैसे चेतना का अजस्त्र प्रवाह परम चेतना से हो रहा है, वैसे ही पदार्थ-ऊर्जा रचित प्रकृति का विस्तार भी अनंत है.
पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं. प्रत्येक पदार्थ का अपना एक ऊर्जा-स्तर (प्रभामंडल) होता है और प्रत्येक ऊर्जा में संचित उसकी एक विशिष्ट मात्रा(तत्व). पदार्थ का भौतिक स्वरुप उसके पंच तत्व हैं. चेतना के आलोक में उसकी तज्जन्य ऊर्जा तदनुसार पंचानूभुतियां हैं. रुप, दृश्य, गंध, स्पर्श और श्रोत्र – ये पंच अनुभूति पंच भुत में चेतना के योग का परिणाम है. चेतना के विस्तार से अनूभुतियां तीव्र होती हैं और उसके संकुचन से मंद. योगेश्वर कृष्ण उसी चेतना के विराट रुप में प्रकृतिस्थ अर्जुन के समक्ष खड़े होते हैं.            
                                ------ विश्वमोहन

                

Sunday, 15 June 2014

बिदा बहुरिया

सुत  गई गोरी, ऑखें खोली,
बिंदिया, चूड़ी, कुमकुम रो ली I



सजा बिछौना, उड़े पताका,
बंध गयी बांस में, जीवन-गाथा I

सजी सेज़ में, लगे लुआठी,
भसम हुआ सब, हो गया माटी I



आसमान से बहे बयरिया,
अगियन की लपटन धधकाये I

पानी भाप बन, उड़ गये उपर,
तन माटी बन, धुल धुसराये I

खतम खेल अब, बुझ गयी बाती,
बिदा बहुरिया, बचे बाराती ! 


आज बाराती, कल बहुरिया,
जीव-जगत के एही चकरियाI

Tuesday, 15 April 2014

सतीसर की सैर


इंदिरा गांधी  अंतर्राष्ट्रीय विमान  पत्तन के  टर्मिनल टी- 1 की  हवाई पट्टी जब  धीरे  धीरे  पीछे  की  ओर  सरकने लगी तो मेरा पूरा परिवार एक सुखद एहसास से आंदोलित हो उठा । मन में उठने गिरने वाली कल्पनाएं विमान के डैने पर  सवार  हो गयी । सघन जलद दल को पराजित  करता जहाज हवा से  बातें  करने लगा । बादल पीछे छूटने लगे और नीचे समतल परती धीरे धीरे पसरने  लगी । थोडी ही देर बाद हिमाच्छादित पर्वतशिखरों से परावर्तित किरणें  आंखों को चौंधियाने लगी । पहाड़ों को लांघकर  जहाज अब घाटी के उपर  आ गया था । विमान की प्रच्छाया और उपच्छाया धीरे धीरे धरती पर गहराने लगी थी  । व्योम बाला की इठलाती बोली ने  विमान के श्रीनगर में धरा-स्पर्श की उद्घोषणा की । और अब हम सपरिवार मुदित मन से बाहर  निकल  रहे थे । निकास द्वार पर आगवानी करने वालों की कतार में एक व्यक्ति के हाथों में तख्ती पर सुडौल अक्षरों मे लिखा था – ‘जोकहा’।  हिंदुस्तान के माथे पर अपने गांव का नाम पढ़कर मेरी  खुशी  का  पारावार न रहा ।  मेजबान मित्र  शांतमनु की  इस मीठी  मोहक अदा से  मन मेरा महुआ हो गया । अपनेपन के इस अप्रत्याशित  आगोश  में  अभिव्यक्तियां  नि:शब्द  हो  गयी । प्रेम का पाग पसर गया  । गंतव्य विसर गया और मित्र-मिलन की उत्कंठा  प्रबल हो उठी  ।
शांतमनु के आवास में प्रवेश करते ही सामीप्य के अहसास की मृदुलता गढ़िया गयी । ‘कब के बिछुड़े हुए हम आ के यहां ऐसे मिले…. ‘की भाव गंगा में हम अभिषिक्त हो रहे थे । बातचीत का अंतहीन सिलसिला शुरु हो चला था । बातों से बातें जुडती जा रही थी ।   परिवार  का सह-सदस्य ‘टफी’ इस जुड़ाव को देखकर अपने ईर्ष्या भाव को दबा न पा रहा था । रह रह कर  वह  अपनी खीझ अपनी  भौंक में ध्वनित कर देता । मेरी पुत्री के चेहरे पर अवतरित भय का भाव टफी को गौरवोन्नत कर देता और अपने विजय उल्लास को वह अपनी घनी पूंछो की थिरकन में प्रदर्शित कर देता ।  धीरे धीरे हम सभी उस वातावरण में ऐसे घुल मिल गये कि उस दीर्घ आवासीय प्रांगण के  कण-कण ने हमे अपना लिया  ।
मेरी यात्रा की जनमपत्री शांतमनु के हाथों में थी । खाना खाने के उपरांत हम श्रीनगर  शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने निकल गये । निशात, शलमार, चश्मे-शाही और डल झील के मनोहारी सौंदर्य का हमने भरपूर रसपान किया ।
निशात अर्थात ‘परमानंद-वाटिका’ । यह बाग मनोरम  डल  झील  के  किनारे  अवस्थित सबसे बड़े मुगल  उद्यानों  में  एक है । इसकी  प्रकल्पना नुरजहां  के  भाई आसफ खान ने सन 1633 ईस्वी में  की थी । बाग का पृष्ठ भाग ज़बरवां के पहाड़ों में मिल जाता है । पिछले भाग में  ही गोपी तीर्थ नामक एक लघु निर्झर  है  जो इस गुलिश्ते को जल आपुर्ति करता है । कतिपय मुगल कालीन अवशेष भी यहां दृष्टिगोचर होते हैं ।
शालिमार बाग डल झील के पुर्वोत्तर छोर पर अवस्थित एक सुंदर उद्यान है । छठी शताब्दी में प्रवरसेना द्वीतीय द्वारा निर्मित यह उद्यान पहले हिंदुओं का पवित्र स्थान था । बाद में इस उद्यान को निखारने  में जहाँगीर, ज़फर खान और महाराजा हरि सिंह ने अपने अपने समय मे अपना योगदान दिया । शल  मार  यानि ‘मुहब्बत  का आशियाना’ । अपने परिणय के रजत काल में अपनी परिणीता व पुत्रियों के संग मुहब्बत के इस आशियाने में आना एक सुखद एह्सास था । डल झील के पश्चिम में भाष्कर अपनी रश्मियॉ समेट रहे थे । पूनम  अम्बर के आंचल में अपनी प्रणय रंजित रजत चांदनी का चंदवा बिछा रही थी । अंतरिक्ष से ताल के वक्ष तक रजनीश ने दूधिया आभा का विस्तार कर दिया था । नीचे चिड़ियों की चहचहाहट थी । उपर नीलांक में निहारिकायें हिमांशु  से आंखमिचौनी खेल  रही थी । पुन्नो की  चांदनी से  सरोवर  सराबोर  था । ‘ शल मार ’ का प्रत्येक परमाणु राग विलास की चरम समाधि में था । पुनम की स्निग्ध प्रेम सुधा से सिंचित विश्व विमोहित था ।  सौंदर्य का यह चिरंतन दृश्य चिरकाल तक मेरी स्मृति को सम्मोहित करता रहेगा ।
चश्मे-शाही वीथिका और युथिका को काफी भाया । जलधारा  सीढ़ीनुमा ढ़लान पर अनुशासित ढ़ंग से ढ़लक रही थी । बच्चे उसके इर्द गिर्द मचल रहे थे । वीथिका ने कश्मीरी परिधान में तस्वीरें खिंचवायी । पुनम के संग हमने शीतल जल का स्पर्श सुख लिया । रोशनियां जगमगने लगी थी । सामने डल झील के प्रशस्त पटल पर प्रकाश की परत पसर रही थी और अब हम डल झील के किनारे किनारे अपने वाहन से वापस चल दिये ।
घूमते-घूमते घड़ी की सुइयां भी कब का घूम के दस बजा चुकी थी, पता ही ना चला । श्रीनगर में पश्चिम का क्षितिज थोडा विलम्बित ताल में लाल रहता है । फिर, रात के कजरौटे को पोंछकर तडके भिनसार ही अरुणिमा अपनी शरारत का अभिसार करती है । शनैः शनैः तंद्रिल प्रकृति के अलसाये शांत मनु को गुदगुदाती उसकी चपलता किसलय के आंचल मे चिन्मय चेतना का अक्षत छीटती है ।
अगले दिन हम गुलमर्ग को निकले । गुलमर्ग में बर्फीली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी सपाट  भूमि में मानो सोलहों श्रृंगार रचकर प्रकृति लेट गयी हो । कोंडोला में लटककर इस्पाती रस्सी  पर विद्युत शक्ति से सरककर हम खिलनमर्ग पहूंचे । वहां से उपर का रज्जुमार्ग बंद था ।  परिवार के चतुर चतुष्टयों ने  चार चौपयों का सशुल्क सहारा लिया । हम घोडे से बरफ के पास पहूंचे । स्लेज गाडी की सवारी और स्की-इंग का लुत्फ उठाये । दूसरों को बर्फ पर फिसलते और गिरते देखकर बहुत मज़ा आता । पर जब अपनी बारी आती तो सारा मज़ा किरकिरा हो जाता । फिर हम दूसरों के मनोविनोद  का माध्यम  बन जाते । हंसना-हंसाना ही जिंदगी है । यहां हमें अपने  गरम कपड़ों में लिपटना  पड़ा । इस हिमानी प्रदेश में नव संस्कृति के भोज्य परिवार के कुलदीपक ‘ मैगी-नुडल्स ’ को उदरस्थ कर हमने अपनी भूख शांत  की और अवरोहण को उधत हुए ।  रात्रि विश्राम गुलमर्ग में सघन वन की गोद में  काष्ठ-निर्मित एक  सुंदर और सुविधा-सम्पन्न कुटिया में था । यह शांतमनुजी का आयोजन था । मै पहले ही बता चुका हूं कि हमारी कश्मीर यात्रा के निर्माता , निदेशक एवं संचालक सब कुछ वहीं थे । उस  नीरभ्र  नीरव वनकुटिर में हमने निशा-निमंत्रण स्वीकार किया । उस विश्राम गृह के केयरटेकर अकबरजी  से हम पारिवारिक स्तर तक घुलमिल चुके थे ।  वह भी प्यारी पुत्रियों के पिता थे और उनकी शिक्षा के प्रति समर्पित थे । मेरी पत्नी के मिलनसार स्वभाव का जादू यहां भी चल गया था ।  हमसे पहले वहां ठहर चुके अनेक देशी और विदेशी सैलानियों की रोचक कथायें अकबरजी ने हमें सुनायी । उन्होने बताया कि आस्ट्रेलिया और न्युजीलैंड के सैलानी दिसम्बर महीने में   आकर दो तीन महीने रुकते हैं । तब पूरा इलाका बर्फ की मोटी चादर  में ढ़का होता है । उस समय ठंड से निजात पाने के लिये बुखारे का इंतज़ाम किया जाता है । हमारी पुत्रियों ने बडे मनोयोग से बुखारे की वास्तुकला और तकनीकी संरचना का सांगोपांग श्रवण किया । अकबरजी से बातचीत में हमने कश्मीर के सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन के  दर्शन किये । बातों की मिठास में चलभास क्रमांक की अदला बदली हुई और हम पहलगांव के लिये  सस्नेह विदा हुए ।
गुलमर्ग से पहलगांव जाने में श्रीनगर  को  पार  करना होता है । श्रीनगर से बाहर निकलते समय थोड़ी दूर  तक  यातायात व्यवस्था दम तोड़ती नज़र आती है । यह शासक दल के विजयी चुनावी क्षेत्र का हिस्सा था । शायद इसी वजह  व्यवधान के कारणों पर विजय पाने में प्रशासन पंगु हो जाता है । खैर, हम झेलम की ताल पर पवन प्रकम्पित पत्तों  का क्रीड़ानाद सुनते आगे बढ़े । सेव बगान की स्मृति कैमरे में  कैद की । पहलगांव  पहुँचकर पहले पेट पूजा की । फिर, काले हिरणों के  सुरम्य अभयारण्य के रास्ते  उरु घाटी पहुंचे । ऊपर पहाड़ी पर पैदल ही चढ़े ।
 नीचे का दृश्य नयनाभिराम था । उत्तर दिशा के पहाड़ बेवजह  घनघोर घटाओं से उलझ पड़े । हमारी उपस्थिति से उत्साहित श्याम घन उत्तेजना में घनीभूत होने लगे और अपनी रणभेरी की पहली फुहार नीचे फेंकी । चेतन नयन , मुग्ध मसृण मन , शिथिल तन और उपर कजरारे गगन से श्याम घन का जल आक्रमण । हम आधे सुखे आधे भींगे नीचे दुकान में भागे । बरखा की रिमझिम में पेटों को रशद पूर्ति की । वापस पहलगांव को चले ।  नीचे अभयारण्य का निर्जन एकांत था । घनघोर घटा की श्यामल छटा फैली थी । शीतल बयार किशोर वय शांत पेड़ों को छेड़ रही थी । झेलम की धारा बरसाती यौवन में मदमत्त अपनी प्रणय कलाओं का विस्तार कर रही थी । बयार उन्मादित किशोर तरु उझक उझक कर नीचे प्रणयोन्मत्त  चंचल सरिता  में समाने का साहस बटोर  रहे थे ।  फिर हम कैसे दबा पाते  अपने अनुरागी चित्त  को ! ग़ाड़ी रोककर दौड़ पड़े उस प्रेम पीयूष परिपूर्ण प्रवाह का पाणिग्रहण करने । हम पानी, पवन, पहाड़ और पेड़ की इस प्रेम पंगत में पूरी तरह पगे और अपनी रूहानी प्यास बुझायी । वही बैठे बैठे  कुछ स्थानीय लोगों तथा एक बिहारी फोकचा विक्रेता से काफी आत्मीय बातें  हुई ।  क्षेत्रीय सूचनायें काफी मिली । संवैधानिक  प्रावधान, राजनीतिक प्रपंच , प्रशासनिक संशय , सैन्य बल बर्बरता और आतंकी क्रूरता ;  इन सबके आगोश में अकुलाती इस मनोहारी प्रांत की सामाजिक  संरचना --- मन में   ऐसी सुगबुगाहट छोड़  गयी जिसकी आहट मेरी इतर  रचनाओं मे  शायद सुनायी दे ।  इस प्रांतर में प्रकृति ने विविध प्रकारांतरों में अपने अप्रतिम सौंदर्य के अगणित राज खोल रखे थे – “ ज्यों ज्यों डुबे श्याम रंग ,त्यों त्यों उज्जल होय “ । हर अगली जगह पिछले पड़ाव को अपनी विलक्षणता  से पछाड़ने  को तत्पर थी । बॉबी हट जैसे बहुचर्चित स्थलों  को निहारते देर रात हम अपने मित्र के निर्मल निवास  पहूंचे  जहां  अपनेपन का  अजस्त्र प्रवाह था ।
हमारा परिवार अब अगले दिन  विश्राम का मन बना रहा था लेकिन शांतमनु का मन क्यों शांत बैठने  दे ? अरुणिमा की आभा का आस्वाद शांतमनु के प्रशांत चित्त को विलक्षण विचारों से प्रदीप्त कर  देता था । उसी प्रदीपन के आलोक में उसने हमारी सोनमर्ग यात्रा का शंख बजा    दिया । उस समय तो हमारे शिथिल- तंद्रिल तन ने बुझे मन से उसका उद्घोष  सुना किंतु जब हम सोनमर्ग  से लौटे तो मन ही मन उसे अपनी यात्रा विजय  का पाञ्चजन्य नाद माना । मैं पहले ही बता चुका हूं कि प्रत्येक परवर्ती गंतव्य पूर्ववर्ती पड़ाव को अपने प्रतिमानो से पराजित  कर देता था । सोनमर्ग भी  पर्यटन की इस प्रतिष्ठित परम्परा का अपवाद न रहा । सिंध  के  समानांतर करगिल को जाती सड़क के किनारे स्थित है सुरम्य सोनमर्ग । वहां से कुछ आगे ही अमरनाथजी की पवनहंस यात्रा का उद्गम है । वाहन चालक जो अबतक हमारे परिवार का अभिन्न सदस्य बन चुके थे, हमे वहां से भी आगे ले गये जहां हम पर्वतशिखर से नि:सृत, वसुधा को आद्योपांत आलिंगन में लिये, ग्लेशियर में परिणत चश्मों के चश्मदीद बने । सोनमर्ग में भोजन करने के उपरांत हमने लगभग एकाध घंटे की सघन घुड़सवारी की, बरफ तक  पहूंचने के लिये । ये घुड़सवारी रोचक और रोमांचक थी । हमारे पथ प्रदर्शक अश्वपाल ने  घोड़े के सीधी  ऊंचाई पर चढ़ने और नीची ढ़लान पर उतरते समय बरते जानेवाले एहतियातों और अश्वारोहण की अन्य बरीकियों से बखूबी रु-ब-रु किया । विज्ञान का छात्र होने के कारण गुरुत्व क्रेद्र और संतुलन के समीकरण की इस प्रयोगशाला में अनायास ही प्रशिक्षित हो गया । हमारे अश्वपाल बडे व्यवहारकुशल और सहृदय इंसान थे । उनमे से एक ने गुजरात और बिहार का भ्रमण भी किया था । वह बडे कौतुहल से अपने परदेस प्रवास के संस्मरण  सुनाकर हमारे संस्मरण को सिंचित कर रहा था । गुजरात में गार्ड की ड्युटी बजाने  के  क्रम में आये संकट का शूरतापूर्ण सामना करने की उसकी कहानी वीर रस से ओत प्रोत थी । उसकी बिहार वंदना  से भी हम फूले न समाये । कश्मीरियों  का दिल सैलानियों के लिये मुहब्बत से लबरेज़ होता है । उसने कई ऐसे मुकाम भी दिखाये जहाँ फिल्मी उल्फतें कैमरों में परवान चढी थी । मैं और मेरी छोटी बेटी, वीथिका, बहुत  आगे  तक  पैदल भी गये । विदित हुआ कि उतर पश्चिम दिशा में खडे हिममंडित शैल शिखर के पीछे ही अमरनाथजी की पहाड़ियां प्रारम्भ हो जाती हैं और पास में बहने वाली शीतल जलधारा का उत्स भी उन्ही पहाड़ियों में है । अत्यंत श्रद्धा भाव से मैंने उस पवित्र जल से अपना मुख प्रक्षालन किया । सुरज देव अस्ताचल जा चुके थे । संध्या रानी  रजनी-अभिनंदन  हेतु प्रस्तुत थी । बादल दल-बल सस्वर हलचल मचा रहे थे । बर्फ के प्रशस्त परत चांदी की तरह चमक रहे थे । हल्की हवा सिहर रही थी । मौसम में सर्दी घुलती जा रही थी । लघु सरिता का शीतल जल कल कल छल छल कर मचल रहा था । विधाता ने मानो नैसर्गिक सौंदर्य की सारी कलाओं को एक साथ उड़ेल दिया था और मेरी हृदयहारिणी अर्धांगिनी, पुनम, सम्पूर्ण तन्मयता से प्रकृति की इस चिरंतन चित्रकला का रसपान कर रही थी । मेरी बडी पुत्री, यूथिका , ने इस अद्भुत दर्शन का सेहरा शांतमनु अंकल के सिर बांधा जिनकी पहल पर हम यहां के लिये प्रस्थान किये थे । हम घोड़ों से वापस अपने वाहन के पास पहुँचे और श्रीनगर के लिये लौट चले । हमारे संग बरखा की रिम झिम फुहार और हवा की सिहरती सीत्कार भी रास्ते भर हमजोली बन कर चले । वायु पर तैरते जलकण गाड़ी से निकले प्रकाश पुंज में छितराये पारद पुंज का बिम्ब बन आलोकित हो रहे थे । मैं और मेरी पत्नी इस चर्चा में रस ले रहे थे कि आते वक्त ढ़ाबे में खाकर बिना भुगतान किये आगे बढ़ जाने की घटना को किसकी भुल्लक्कड़ प्रवृति का परिणाम माना जाय । यह परिणाम परम्परा के प्रतिकूल मेरे पाले आया । खैर, वापसी में पुनः हम उस ढ़ाबे में गये और पैसे अदा किये । दूकानदार इसलिये गदगद था कि उसे भी याद नही था ।  प्रसन्नचित्त हम घर लौटे ।
उस रात हमारी गपशप गोष्ठी  में  शांतमनु के मौसाजी और मौसीजी भी शामिल हुए । बातचीत के  बडे आत्मीय क्षण थे । अगर कोई एक प्राणी इस वाग्विलास में समग्र तल्लीनता से अपनी उपस्थिति का अहसास  करा रहा था तो वह टफी था । अपने सुनहरे शरीर को फर्श पर फैलाये आंखों को मंद-मंद मूंदे बातों के बतरस में डुबने का सरस अभिनय कर रहा था । बीच-बीच मे  चतुर  श्रोता की भांति अपने श्वान सुलभ मुखमंडल को घ्राण मुद्रा में उपर उठाता । उसकी चौकन्नी निगाहें मेरे मन में भय का संचार करती । हम जड़वत स्थिर रहते ।  उससे हमारी नज़रें बिना किसी प्रयास के हट जातीं । वह चतुर चौपाया हमारी बेबसी  ताड़ जाता । अपनी कष्टदायक क्रीड़ा से हमारे मन को पीड़ा  देता और फिर आत्मगौरव से अपनी आंखे मुंद लेता । तब जाकर मुझे होश आता । मैं भी चतुराई से इस धारावहिक को किसी के समक्ष प्रकट नहीं होने देता । अक्सर अपना ध्यान हटाने  हेतु मैं विगत रात की कवि चर्चा में खो जाता । शांतमनु ने अपनी कुछ चुनींदा कविताओं का पाठ किया था । सांसारिकता की कड़ाही में पकी एवं आध्यात्म की चाशनी में पगी इन सुस्वादु रचनाओं में कर्म ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी के  सुदर्शन होते । आध्यात्म  के  इस अध्येता ने अपनी कविताओं में जीवन के दर्शन का आख्यान सुनाया । उसके आग्रह को मैं पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मन के गीत को कागज पर उतारते ही मेरे मस्तिष्क का उनसे नाता टूट जाता है। मैंने वादा किया कि अपनी रचनाएं उसे प्रेषित कर दूंगा । उनकी अर्धांगिनी, अरुणिमा, आर्ट ऑफ लिविंग की उपदेष्टा तो हैं ही; उनकी  पुत्री ,भार्गवी, में भी आध्यात्मिक संस्कारों के बीज दिखे । इस अल्प वय में शिव-साहित्य से सान्निध्य शुभ लक्षण हैं । पुत्र, शिवम, गायन कला में निष्णात हैं ।  उनकी माताजी की वटवृक्ष छाया का भी वरदान इस परिवार को प्राप्त है । लोकगीतों की वह मृदुल गायिका हैं तथा ब्रह्मकुमारी  परम्परा में शिव की उपासना करती है । इस मंडली का साहचर्य मानों सरस्वती की वीणा से निःसृत सप्तक से साक्षात्कार है ।
अब तक टफी को कारावास मिल  चुका था । हम अपने शयन कक्ष को प्रयाण किये । बतियाने का क्रम वहां भी चलता रहा ।
अगली सुबह हम सपरिवार नहा-धोकर  किंतु बिना खाये पीये शंकराचार्य पर्वत स्थित  महादेव के मंदिर के दर्शनार्थ निकल गये । ग्यारह सौ फीट ऊंचाई पर अवस्थित  देवों के देव महादेव का यह  मंदिर राजा गोपादित्य द्वारा (371 ई.पू.) स्थापित किया गया था । मंदिर तक पहुंचने के लिये सीढियों का निर्माण डोगरा राजा गुलाब सिंह ने करवाया था ।  इसे ‘पास-पहाड़’ या ‘ज्येष्ठेश्वर मंदिर’ भी कहते हैं । ‘तख्त-ए-सुलेमन’ के नाम से भी इसे जाना जाता है ।  भारतीय दर्शन में कश्मीरी शैव दर्शन की अपनी अलग पहचान है । इस सुरम्य स्थान से सम्पूर्ण श्रीनगर के  विहंगम  और मनोरम दृश्य के दर्शन होते हैं । नीलकण्ठ के दर्शन कर हमने जलपान किया और फिर हज़रत बल को देखने चल दिये ।
डल झील के किनारे सफेद संगमरमर से बना हज़रत बल मस्ज़िद कश्मीरी और मुगल स्थापत्य शैली का अद्भुत मिश्रण है । 1623 ईस्वी में इसका निर्माण सादिक़ खान ने पैगम्बर मोहम्मद मोई-ए-मुक्कादस के सम्मान में करवाया था । इसे अस्सार-ए-शरीफ, मादिनात-अस-सेनी और दरगाह शरीफ के नाम से भी जाना जाता है । हज़रत का अर्थ होता है – ‘पवित्र’  या ‘राजसी’ और बल का अर्थ होता है ‘बाल’ । पैगम्बर की दाढ़ी के बाल ‘मोइ-ए-मुक्कादस’ के नाम से यहां रखे हुए हैं । ईद-ए-मिलाद औए मेराज़-उन-नबी के मौके पर इस पवित्र बाल के दर्शन एक सप्ताह तक दिन में पांच बार कराने की परम्परा है ।  कुछ इतिहासकारों का ये भी मत है कि पैगम्बर  के  वंशज सैय्यद अब्दुल्ला नामक व्यक्ति इस बाल को मदीना से भारत लाये थे । उनके पुत्र सैय्यद हमीद से नुर-उद-दीन एशाई नामक एक कश्मीरी व्यापारी ने इसे खरीद लिया था । औरंगजेब ने इस बाल को जब्त कर अजमेर शरीफ में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरागाह में रखवा दिया और एशाई को लाहौर जेल  में । बाद में औरंगजेब को अपने किये पर पश्चाताप हुआ और उसने एशाई  को  बाल  लौटाने  का निर्णय  लिया । तब तक एशाई  का इंतकाल  हो  चुका था ।  अंततः 1699 ईस्वी में एशाई की पुत्री इनायत बेगम अपने पिता के शव और बाल दोनों लेकर  कश्मीर आयी और उसे यहां दफनाकर इस  बाल  को  भी  यहीं  सुरक्षित रख दिया ।.  तब  से,  यह पवित्र राजसी बाल यहीं सुरक्षित है । मेरा अभिप्राय किसी ऐतिहासिक मत की प्रामाणिकता  का उद्बोधन करना नही है, क्योकि मेरी निगाह में  सबसे प्रामाणिक है तो केवल एक ही तथ्य!  और वो, कि ऐसा कोई भी विषय जो भिन्न भिन्न ‘वाद’ के खेमों में बंटकर अपनी वस्तुनिष्ठता से वंचित हो गया हो और स्वार्थप्रेरित आत्मनिष्ठता से संक्रमित हो गया हो, अपनी प्रासंगिकता खो देता है ।
उसके बाद हमारी पुत्रियों ने कश्मीर विश्वविद्यालय की तरफ गाड़ी मोड़वा दी । अद्भुत सौंदर्य को समेटे इस विश्वविद्यालय का मनोरम प्रांगण भी एक दर्शनीय स्थान ही साबित हुआ । योजनाबद्ध ढ़ंग से बने विभागीय भवन खंड, चिरहरित चिनाररचित उद्यान और परिसर में पसरी कमसीन कश्मीरी किल्लोलें मन को बरबस मोह रहे थे । विश्वविद्यालय के ‘अमर सिंह बाग’ परिसर की जमीन इसके दूसरे कुलाधिपति रह चुके डा० कर्ण सिंह से दान में  मिली थी । 1948 में, सर्वप्रथम,राज्य सरकार ने परीक्षाओं के  संचालन के  लिये एक संस्था की स्थापना की जिसके मानद कुलपति बनाये गये न्यायमूर्त्ति जे एन वज़ीर । 1956 में यहीं संस्था विश्वविद्यालय के रुप में परिवर्तित हो गयी और ज़नाब ए ए फैज़ी इसके प्रथम पूर्णकालिक कुलपति बने ।
सूरज तीसरे पहर में दस्तक दे चुका था । मेरी अर्धांगिनी कश्मीरी हस्तशिल्प की दुकान में बड़ी सुरुचिपूर्ण निगाहों से शिल्प चयन कर रही थी । उनकी कलाप्रियता का मैं कायल हो रहा था । हांलाकि सामग्रियों के मूल्य अदा करते समय आर्थिक रुप से घायल महसूस कर रहा था ।  बात जो भी हो, कश्मीरी कसीदागिरी अपनी उम्दा बारीकी के लिये बेनज़ीर है ।
हम घर सूरज ढ़लने के पहले पहूंच गये. निशा विहार का आयोजन शांतमनु ने नौका निवास में  किया था । हमें अगली सुबह हाउसबोट से सीधे दिल्ली के लिये वापस  लौट जाना था । उसी गणित के आधार पर हमने अपनी तैयारी का समीकरण हल किया था । हम दल बल सुसज्जित शिकारे में सवार हुए । हम डल झील की कुंतल लहर लतिकाओं में उदयाचल रजनीश की हिलती लास्य लीलाओं का अवलोकन करते हौले हौले अपने तैरते आशियाने की ओर तिरते जा रहे थे । प्रकृति ने अद्भुत दृश्य परोस दिया था । दूर क्षितिज पर नीलाकाश डल की चंचल लहरों पर डोल रहा था । चिनार की विटपावली के शीर्ष पर रजत-धवल-तुषार की गगनचुम्बी स्पर्श रेखा, उससे शनैः शनैः ढ़लकती पसरती अंधियारे की रोशनाई, झील के तल पर लेटी गुल्म लताओं से लहरों की गलबाहीं, हवाओं का आमोदपूर्ण शोर;  मानों पुरुष अपने चैतन्य की पराकाष्ठा पर हो और प्रकृति रानी अपनी रोमांचकता के चरमोत्कर्ष पर । प्रकृति से आत्मसात होने का यह अद्भुत क्षण था । रात्री निवास के वे क्षण अत्यंत मधुर और अविस्मरणीय थे । सभी अंतेवासियों  ने अपनी निष्णात गायन कला से मन मोह लिया । अपनी सहचरी संग गाये मेरे युगल गीत को  उन्होने धैर्यपूर्वक पूरा सुनने का जो सम्मान दिया, वह मेरे जीवन की अद्वितीय उप्लब्धि थी । क्योंकि, यह पहला क्षण था जब मेरे शास्त्रीय स्वर के श्रवण के लिये न केवल हामी भरी गयी,प्रत्युत उस संगीत-सुधी-कला-प्रवण समाज ने उसे सराहा भी ! हमारी कला-मर्मज्ञ-मंडली ने हमारी यात्रा के उपसंहार को यादगार बना दिया ।
 रजनी का रथ अविराम गति से उषा आलिंगन को तत्पर था ।  विभावरी विदा हुई । हमारी विदाई की वेला आई । हमने अपना सामान समेटा । मित्र परिवार की स्नेहिल भावनाओं से सिक्त होकर सिकारे में सपरिवार आसीन हुए । हम वापस किनारे की ओर चले । डल झील अलसायी मुद्रा में शांत गम्भीर भाव से कश्मीर के इतिहास का गवाह बने अपनी प्रशस्तता में पसरा पड़ा था ।
पौराणिक,ऐतिहासिक और भूगर्भीय सभी तथ्य इस विषय पर एकमत हैं कि प्राचीन काल में यह  समूचा प्रदेश जलमग्न था ।  नीलमत पुराण के अनुसार ‘का’ अर्थात जल के ‘समीर’ अर्थात हवा के द्वारा  ‘शिमिर’ अर्थात रिक्त किये जाने के कारण यह प्रदेश कश्मीर कहलाया । अन्य कारणों में इस नाम का साम्य ‘कश्यप-मेरु’ (कश्यप पर्वत), या ‘कश्यप-मीर’ (कश्यप झील) या ‘कश्यप-मार’ (कछूये की झील) से बिठाया जाता है । प्राकृत भाषा में ‘कास’ जलमार्ग का द्योतक है । राजतरंगिणी में ऐसा प्रसंग उल्लिखित है कि इस जलमग्न प्रदेश में ‘देवोद्भव’ नामक नाग जाति के  असुर का निवास था । उसके अत्याचार से मुक्ति हेतु मरीची पुत्र कश्यप ने भगवान विष्णु की तपस्या की । विष्णु ने वाराह बनकर असुर का संहार किया । तदोपरांत वाराह  ने अपने घर्षण से पर्वत को काटकर सारा जल बहा दिया । उस पर्वत को ‘वाराह-मुल’ के अपभ्रंश स्वरुप ‘बारामुला’ के नाम से जानते हैं । ऐतिहासिक विचारकों का संकेत इस ओर है कि सेमीटिक जन-जाति की ‘काश’ प्रजाति के लोगों का निवास होने के कारण यह प्रदेश  कश्मीर  कहलाया । भूगर्भीय शोधों पर आधारित  वैज्ञानिक  मत  है  कि करीब दस करोड़ वर्ष पहले यह शीत प्रदेश सैकड़ों फीट गहराई तक जलमग्न था । पश्चिमी छोर पर अवस्थित  बलुआही पत्थर से निर्मित पर्वतों में अनवरत भू-क्षरण की प्रक्रिया और भुकम्पिय जलजलों से पर्वत मे दरार बनी जिससे जल बह गया और कालांतर में मौसम के अनुकूल होने पर खानाबदोश प्रजातियों  ने  इस  भू  खंड को अपना आशियाना बना  लिया ।
सारी मान्यताओं का मूल इस पौराणिक मान्यता से अकाट्य मेल खाता है कि अपनी मूलभुत अवस्था में यह विशाल जलराशि का प्रशस्त सरोवर था और यहां महादेव शिव की सहचरी सती निवास करती थी । अतः पुरा काल में इसे ‘सतीसर’ के नाम से जाना जाता था जो काल प्रवाह  में कश्मीर में परिवर्तित हो गया.
“ प्रचंडं , प्रकृष्ठं , प्रगल्भं, परेशं । अखंडं, अजं, भानुकोटिप्रकाशं ।।” के विराट स्वरूप की आभा से सम्पन्न डल झील अपने अद्भुत मनोहारी रुप में सम्मुख फैला हुआ था । सतीसर का यह सरोवर शिवांगी सती की सुषमा से  तर-ब-तर था । आदिशक्ति के इस प्रकट सौंदर्यरुप की अकथ्य अनुभूति से मेरा  चित्त अनुप्राणित हो उठा । अपने गंतव्य को  लक्षित नौका विहार में समाधिस्थप्राय, मैं,  सरोवर में उठने गिरने वाली छोटी-छोटी तरंगों में अपने जीवन का शाश्वत प्रमाण ढूंढने लगा, पंतजी की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए-
          ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर में आलोकित शत विचार
इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति,शाश्वत संगम.
शाश्वत नभ का नीला विकास,
शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु-लहरों का विकास.
हे जग-जीवन के कर्णधार!
चिर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन नौका-विहार.
मैं भूल गया अस्तित्व-ज्ञान,
जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व-दान .

                                                         -------------------  विश्वमोहन