Saturday, 21 June 2014

चेतना, पदार्थ और ऊर्जा

मैं चेतना को  जीव  के भौतिक तत्व और  उसकी  ऊर्जा से बिल्कुल इतर मानता हूँ. वैज्ञानिक विचार परम्परा में पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं. पदार्थ ऊर्जा में परिणत होता है और ऊर्जा पदार्थ में. द्वैत प्रकृति का सिद्धांत भी यही है कि प्रत्येक वस्तु पदार्थ और तरंग दोनों सा व्यवहार करती हैं. अस्तु, किसी खास समय उसका व्यवहार कितना पदार्थीय है और कितना तरंगीय, यह जानना दिलचस्प है. हाँलाकि, पदार्थ का कोई विशेष अंश कितनी उर्जा मे बदल गया, इसका सूत्र अवश्य मिल गया है.
अब प्रश्न उठता है कि अखिर वह कौन सा  कारक  है  जो पदार्थ  और ऊर्जा की इस पारस्परिक परिवर्तनशीलता को संचालित करता है, जिसके नेतृत्व में परिवर्तनशीलता की संजीदगी अपनी शाश्वतता को बनाये रखती है. जिसका साया हटते ही पदार्थ ऊर्जाहीन होकर पदार्थ मात्र रह  जाता है जिसे मृत्यु की स्थिति कहते हैं.
वह चेतना है.
पदार्थ और ऊर्जा अधिभौतिक विज्ञान के विषय हैं, चेतना अध्यात्म का. जैसे ही विज्ञान अध्यात्म की गोद में आता है, सृजन की लता लहलहाती है. अर्थात चेतना की चिन्मय ज्योति के आलोक में ही भौतिक तत्व (पदार्थ और ऊर्जा) का संघट्ट स्वरुप सजीव जीव कहलाता है. चेतना का लोप होते ही जीव निष्प्राण,  पदार्थ ऊर्जाहीन और फिर नष्टशीलता की गति को प्राप्त! ऊर्जा तो निर्जीव वस्तुओं पर भी आरोपित की जा सकती हैं. ऊर्जा यानि कार्य करने की क्षमता.  विद्युत ऊर्जा निर्जीव पंखे में यांत्रिक ऊर्जा में बदलकर उसमें गति ला देती है. वहाँ पंखे की गति किसी चेतना से संचालित नहीं होती. इसलिये, गतिशील होकर भी पंखा निर्जीव है.
ठीक इसके उलट, साधना में लीन एक साधक की समस्त ऊर्जा उसके ध्यान में घनीभुत होती है जिसका संचालन एक विराट चेतन शक्ति करती है. इसलिये, वह साधक शरीर अचल, स्थिर व जड़स्वरुप होकर भी सजीव है, जीवंत है और चैतन्य है.
अब यह जीव-चेतना एक स्वयम्भू सम्पूर्ण चेतना है या किसी परम चेतना का शाश्वत अंश-स्वरुप, एवम स्वयम में उतना ही परम जितना इसका स्त्रोत! इसकी आहट हमें वेद में सुनायी देती है:-
“पूर्णमदं पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवशिष्यते”.
इस चेतना को यदि हम आत्मा माने तो वह अक्षय स्त्रोत परम चेतना परमात्मा है. सदियों से मानव आत्मा-परमात्मा के इस समीकरण को सुलझाने में उलझा है.       
“आत्मनि एव आत्मनः तिष्ठः यः पश्यति सः पण्डितः”
अर्थात, अपने चेतन स्वरुप में स्थित होकर अपनी चेतना से समस्त चेतना को आत्म स्वरुप में जो अवलोकन करता है, वही विद्वान है. इस स्थिति मे सब कुछ आत्ममय है, कुछ भी पराया नही. “अयम निजः परो वेति, गणना लघुचेतषाम”. चित्त अर्थात चेतना लघु नहीं, प्रत्युत विराट है. अंश और सम्पूर्ण एकमय हैं.एकोअहंद्वितीयोनास्ति. नदी प्रवाह है और प्रवाह नदी. यह आध्यात्मिक लोक का अवलोकन है.
भौतिक जगत में हम मैटर (पदार्थ और ऊर्जा) का अवलोकन प्रकाश(ऊर्जा) के माध्यम से करते हैं. यह ऊर्जा अपने पदार्थीय स्वरुप (फोटॉन) का आवेग अवलोकित पदार्थ को देकर उसकी स्थिति में परिवर्तन ला देता है. इस तरह हम उसकी विचलित स्थिति देखकर उसकी मौलिक स्थिति का भ्रम पाल लेते हैं. यह भौतिक जगत का दृष्टि-भ्रम है. इसीलिये आध्यात्म लोक विशुद्ध और शाश्वत है जबकि अधिभौतिक जगत प्रदुषित और भ्रांतिपूर्ण! जरुरत है, हम अपनी आत्मा(चेतना) को जगायें.
हाँ, तो ये जगत पदार्थ और ऊर्जा का विस्तार मात्र है. दोनों हैं तो मूलतः एक ही चीज़. यानि, पदार्थ ऊर्जा में बह जाता है और ऊर्जा पदार्थ में जम जाता है. पदार्थ और ऊर्जा का समंवित स्वरुप है - प्रकृति. पदार्थ और ऊर्जा अपने भिन्न-भिन्न अनुपात में एक से दूसरे में अदल-बदल कर प्रकृति की अगणित वस्तुओं का रुप रचते हैं. उनकी पारस्परिक क्रीड़ा उनका रसायन है और तज्जन्य रुप उनकी भौतिकी! अब यह प्रकृति तबतक संजीदा नहीं, जबतक उसमें अंतःस्फुर्त हलचल न हो. यह हलचल पैदा होती है, चेतना से. यह चेतना उसका पुरुष तत्व है. इसी की छाया में उसकी कलायें विकसित होती हैं, विस्तार पाती हैं और अपने किसिम-किसिम के रुपों से सृष्टि को सजाती हैं. अब किस वस्तु को चेतना का कितना प्रसाद मिला या अपनी विशिष्ट मात्रा रचना के बूते वस्तु चेतना के कितने अंश को ग्रहण करने का पात्र बनी – यह रहस्य बना हुआ है और शोधपरक है. फिर, जैसे चेतना का अजस्त्र प्रवाह परम चेतना से हो रहा है, वैसे ही पदार्थ-ऊर्जा रचित प्रकृति का विस्तार भी अनंत है.
पदार्थ और ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं. प्रत्येक पदार्थ का अपना एक ऊर्जा-स्तर (प्रभामंडल) होता है और प्रत्येक ऊर्जा में संचित उसकी एक विशिष्ट मात्रा(तत्व). पदार्थ का भौतिक स्वरुप उसके पंच तत्व हैं. चेतना के आलोक में उसकी तज्जन्य ऊर्जा तदनुसार पंचानूभुतियां हैं. रुप, दृश्य, गंध, स्पर्श और श्रोत्र – ये पंच अनुभूति पंच भुत में चेतना के योग का परिणाम है. चेतना के विस्तार से अनूभुतियां तीव्र होती हैं और उसके संकुचन से मंद. योगेश्वर कृष्ण उसी चेतना के विराट रुप में प्रकृतिस्थ अर्जुन के समक्ष खड़े होते हैं.            
                                ------ विश्वमोहन

                

3 comments:

  1. Kusum Kothari's profile photo
    Kusum Kothari
    +2
    जी आध्यात्म का निश्छल विषय
    सुंदर व्याख्यात्मक प्रवाह, शब्द कुछ क्लिष्ट हो रहे हैं, स्थूल से सूक्ष्म की तरफ जाना ही आत्मा को जानने की कोशिश है जो आत्मा को भौतिक जग से भिन्न दिखाता है आत्मा का स्वरूप विशुद्ध होता है बस सांसारिक मलिन आवरणों से घिरी रहती हैं
    और उन आवरणों की सही कृत्य द्वारा निर्जरा कर हम आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पा सकते हैं।
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    Jul 22, 2017
    sweta sinha's profile photo
    sweta sinha
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    +1
    विश्वमोहन जी, आपके इस लेख पर हम अपनी प्रतिक्रिया दे पाने में असमर्थ है।
    इतना गूढ़ लेख आपकी लेखनी क्षमता और प्रबुद्ध बौद्धिक क्षमता को नमन।
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    Jul 21, 2017
    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
    +1
    +sweta sinha प्रतिक्रिया प्रकटीकरण का नया प्रतिमान! आभार एवं शुक्रिया, श्वेताजी!
    Jul 21, 2017
    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
    +1
    +Kusum Kothari सारगर्भित समालोचना! आभार एवं शुक्रिया , कुसुमजी!

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  2. अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
    अमित जैन 'मौलिक'
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    +2
    आदरणीय विश्वमोहन जी। आप सच में बहुत ज़हीन और विद्वान हैं। आपका चिंतन वर्तमान लेखकों और चितकों से गहन है, उच्च है, अग्रणीय है।

    वस्तुतः लेख का सार यही है कि पदार्थ और ऊर्जा अधिभौतिक विज्ञान के विषय हैं, चेतना अध्यात्म का। निर्विवाद रूप से चेतन, एक इन्द्रिय से लेकर पंचेंद्रिय जीव को स्वरूप अनुसार स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इंद्रियों को प्राप्त होता है और तदनुसार ही जीव चर्या करता है। लेकिन मेरी संकीर्ण दृष्टि में जड़ पदार्थ और चेतन जीव एक ही अविनाशी शाश्वत स्रोत की ऊर्जा से पोषित हैं। केवल व्यवहार में चेतन आता है जड़ नहीं वस्तुतः समग्र ऊर्जा का अदृश्य स्वरूप ही चैतन्यता है।

    पाषाण से पाषण का घर्षण हो या जल तीव्रता से गतिमान हो, वही ऊर्जा, शाश्वत ऊर्जा प्रवाहित होगी। वही, जो चेतन प्राणी में आत्मा स्वरूप में आरोहित है। मूलतः अणु और परमाणु का ही पुराणों और शास्त्रों में तार्किक और अब वैज्ञानिक शोधों में प्रमाणित दर्शन चर्चा में आता है।

    जैन दर्शन में आचार्य मानतुंग द्वारा 11वीं शताब्दी में विरचित श्री भक्तामर स्त्रोत में एक श्लोक में इन ऊर्जा इकाइयों की चर्चा-आलंबन है-

    यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं।
    निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
    तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां।
    यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।

    अंततः मेरी क्षीण बुद्धि कहती है कि ऊर्जा ही चलायमान है, इंद्रीय प्राप्त हुई तो गुण, क्षमता, स्वरूप अनुसार गतिमान दिखती है। इन्द्रिय प्राप्त नही तो गतिमान नहीं किन्तु ऊर्जा विद्यमान है। चेतनता और अचेनता में वस्तुतः यही मूल अंतर है-यही व्याख्या है।
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    Jul 22, 2017
    Vishwa Mohan's profile photo
    Vishwa Mohan
    +1
    वाह! अद्भुत! अमितजी आप मुझे किसी ऐसी पुस्तक का नाम सुझाएंगे जिसमे जैन दर्शन को सरलता से समझाया गया हो।मैंने एक पुस्तक राजस्थान में हिंडन के पास महावीरजी में खरीदकर पढ़ी, लेकिन मेरी अलप बुद्धि में वह समा न सकी। आप अब थोड़ा सह्योग करें। आपकी सारगर्भित और विद्वतपूर्ण टिप्पणी से दांतों तले अंगुली दबा रहा हूँ। आभार और साधुवाद!!!
    J

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  3. Jul 22, 2017
    Kusum Kothari's profile photo
    Kusum Kothari
    +2
    +Vishwa Mohan​ जी+ भाई अमित जैन 'मौलिक'।
    विश्व मोहन जी ने एक गूढ़ विषय की शुरुआत की और अपने विचारों को अपनी व्याख्या द्वारा सुंदर ढंग से समझाया हर धर्मावलंबीयों की मान्यता दुसरे से कुछ भिन्न है और आस्था भी भिन्न है और जैन दर्शन कुछ ज्यादा सूक्ष्म और गहरे मे उतरता है और ज्यादा अलग नजर आता है वो सिर्फ जानने के लिये नही अंदर उतारने पर ज्यादा जोर देता है।
    भाई अमित आपका जैन दर्शन पर अच्छा अध्ययन है और लगता है आप काफी संत मुनियों के सान्निध्य मे रहते हो या फिर तत्वार्थ सूत्र और आगम का स्वाध्याय करते रहते हो
    आपकी विवेचना बहुत सुंदर और स्पष्ट है,
    इससे ज्यादा विस्तार यहां नही हो पायेगा मैं समझ सकती हूं तो नये लोगों को कुछ कठिन लग सकता है पर सच बहुत खुशी हुई आपका सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन पर बखूबी अध्ययन है।
    हर्ष हर्ष जय जय।
    जय जिनेंद्र।
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    Jul 22, 2017
    अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
    अमित जैन 'मौलिक'
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    +1
    +Vishwa Mohan जी, अद्भुत तो आप हैं, आपका चिंतन-आपकी कलमकारी है। यह अवश्य है कि आप सब गुणीजनों की सोहबत रंग लाये-ला रही है, वो अलग विषय है।

    जी जिस तरह की आपकी भाषाशैली है, धनाढ्य शब्द कोष है, मेरे हिसाब से आपको कोई कठिनाई नही जाएगी।

    जी जैन धर्म का दर्शन थोड़ा गहन और वैज्ञानिक है जैसा कि कुसुम दी ने कहा। वैसे तो जैन धर्म में 12 अंग ग्रंथ, 12 उपांगग्रन्थ, 10 प्रकीर्ण ग्रंथ, 6 छेद ग्रंथ, 4 मुलसूत्र ग्रंथ, 2 स्वतंत्र ग्रंथ इस प्रकार से 46 ग्रंथ हैं, 33 सहायक ग्रंथ हैं तथा 4 पुराण हैं।

    आपको रुचि है तो केवल 3 सहायक ग्रंथ आपको अनुशंषित कर रहा हूँ। 1.द्रव्य संग्रह 2. तत्वार्थ सूत्र 3. समयसार। आपके शहर में ही जो जिनालय होगा वहाँ आप समाज के वरिष्ठ लोगों से चर्चा करके यह साहित्य सहज़ रूप से प्राप्त कर सकते हैं। आपका विनम्र आभार।
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    Jul 22, 2017
    अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
    अमित जैन 'मौलिक'
    Owner
    +1
    +Kusum Kothari दी जी, वाह बहुत ही आनंद आ रहा आपसे चर्चा करके। मेरा तो पता नहीं पर आपका अवश्य वृहद अध्ययन है जैन दर्शन का सो अपेक्षित भी है।

    जी दी, सौभाग्य मिलता रहता है। स्वाध्याय तो हम कह ही सकते हैं लेकिन उत्सुकता भी है अपने दर्शन को जानने की इसलिये अध्यन हो जाता है, क्षणिक ही सही। जी इससे ज्यादा चर्चा हो सकती थी। आप हैं तो और वृस्तृत भी किन्तु प्रासंगिक मंच पर ही।

    आनंद आया आगम, तत्वार्थ सूत्र का ज़िक्र छिड़ने पर। आप गहन विद्वता रखतीं हैं और जैन दर्शन में रुचि भी-आस्था भी। जय जिनेन्द्र। आभार मनोहारी चर्चा के लिये।

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