Friday, 16 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१०)

(भाग - ९ से आगे)


ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( छ  )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)




अन्य भारोपीय शाखाओं के अपनी जगह छोड़ने का इतिहास 

जैसा कि भाषायी आँकडें यह दिखाते हैं क़ि अपनी मूल मातृभूमि में भारोपीय-भाषी बोलियाँ बोलने वाले समूहों में से ही एक भारतीय आर्य भी थे। इस तरह की अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले अन्य समूह भी ३००० वर्ष ईसा पूर्व निवास करते थे और आज का ज्ञान यह बतलाता है कि  इस भारोपीय भाषा परिवार में अलग-अलग ११ शाखाएँ विकसित  हो गयी थीं।

पौराणिक इतिहास से यह भी पता चलता है कि  उस समय उस क्षेत्र में निवास करने वाली भारतीय-आर्यों की अनेक जनजातियों में से एक थी – ‘पुरु’ जनजाति। ऋग्वेद के मंडलों में उनकी पहचान पुरुओं  के एक ख़ास वंश की उपजाति  ‘भरत-पुरु’ के रूप में है। ये ‘भरत-पुरु’ ईसा से ३००० साल पहले पश्चिमोत्तर उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के मूल निवासी थे। उनके आस-पास रहने वाली अन्य जन-जातियाँ भी थीं। इस आशय की तार्किक परिणति  तो इसी बात में होती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपने हरियाणा और उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मातृभूमि में पुरु जनजाति रहती थी और इनके परित: अन्य बोलियाँ बोलने वाली जो जनजातियाँ निवास करती थीं, उनकी ही बोलियों ने भारोपीय भाषा- परिवार की अन्य शाखाओं को जन्म दिया।

अगर उत्तर भारत को  भारोपीय लोगों का मूल-स्थान मान  लिया जाय, तो इर्द-गिर्द रहने वाली जनजातियों के अपनी जगह से खिसककर अगर किसी दिशा की ओर  बढ़ने की संभावना जाती है तो वह दिशा है – ‘पुरुओं’ के पश्चिम की ओर । ऐसा इसलिए भी सही है कि भारोपीय भाषाओं की शाखाओं की  बहुलता भारत के सुदूर पश्चिम में ही पायी जाती है।  और सबसे अधिक यदि कोई सम्भावना जगती है तो इन ‘अणु’ और  ‘दृहयु’ जनजातियों पर जाकर आँखें टिकती हैं। आइए इस तथ्य की जाँच करें:

दोनों जनजातियों की भौगोलिक स्थिति 

पौराणिक आख्यानों के आधार पर ‘अणु’ जनजाति मूलतः ‘पुरुओं’ के उत्तर में आज के कश्मीर से ठीक पश्चिम या इसके आस-पास के क्षेत्रों में रहती थीं और ‘दृहयु’ जनजाति ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में रहती थी। यहीं क्षेत्र  आज का उत्तरी पाकिस्तान है। ऋग्वेद से भी थोड़ा पहले के समय में कुछ ऐसी पौराणिक घटनाओं का पता चलता है जिसके कारण इन दोनों जनजातियों के रिहायशी इलाक़ों में थोड़े फेर-बदल की आहट मिलती है। ‘दृहयु’ अपने विजय अभियान में पूरब और दक्षिण  की ओर बढ़ने लगे और इस क्रम में उनकी अन्य जनजातियों से अनेक  मुठभेड़ें हुई। इसका नतीजा यह निकला कि  सब विरोधी जनजातियाँ एकजुट होकर उनसे टक्कर लेने लगी और उन्हें  खदेड़ते-खदेड़ते पूरब से ही वापस कौन कहे, बल्कि अपनी मूल भूमि से भी दूर और पश्चिम  में अर्थात आज के पाकिस्तान में उन्हें फेंक दिया। इस भाग में ‘अणु’ जनजाति  की एक बड़ी शाखा रहती थी जो अब पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर खिसक गयी। “उसिनर के नेतृत्व में एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमा  के क्षेत्र तक कई साम्राज्यों की नींव डाल दी। उसके लोकप्रिय पुत्र ‘शिवि’  ने शिवपुर में शिवि साम्राज्य की स्थापना की। इसे ही ऋग्वेद के सातवें मंडल के १८/(७)  में ‘शिव’  कहा गया है। पश्चिम की ओर शिवि के साम्राज्य विस्तार का अभियान चालू रहा और उत्तर-पश्चिमी कोने को छोड़कर उसने क़रीब-क़रीब समूचा पंजाब जीत लिया और इस राज्य का नाम ‘गांधार’ रखा ।“ (पार्जिटर १९६२-२६२)

इस तरह से ‘अणु’ अब दो स्थानों में बस गये – पहला उत्तर  की ओर कश्मीर और कश्मीर के पश्चिमी क्षेत्र में, तथा दूसरे ‘पुरु’ के पश्चिम  अर्थात आज के उत्तरी पाकिस्तान के क्षेत्र में।

दूसरी तरफ़,  अपने मूल स्थान में कुछ बचे-खुचे अवशेषों को छोड़कर बाक़ी सारे ‘दृहयु’ पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ओर ठेल दिए  गए, जो कि पंजाब का पश्चिमोत्तर कोना और आज का अफ़ग़ानिस्तान है।

अप्रवासी शाखाओं का भाषायी वर्गीकरण 

    अपनी मूल भूमि (जहाँ कहीं भी हो) से हटने के कालक्रम के अनुसार बारहों भारोपीय शाखाओं की  भाषिक विशिष्टताओं के  विश्लेषण करने के उपरांत उन्हें लगभग तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

१ – शुरू की शाखाएँ, अनाटोलियन (हिटायट/हित्ती) शाखा और टोकारियन शाखा।

२ – यूरोपीय शाखाएँ, इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाएँ।

३ – अंतिम शाखाएँ, अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय-आर्य। इनके अपनी मातृभूमि से बाहर निकलने का कालक्रम बिल्कुल स्पष्ट नहीं है, इसलिए इन्हें अपने उन स्थानों के पश्चिम से पूरब की ओर के क्रम में यहाँ रखा गया है जहाँ के इतिहास की ये शाखाएँ सांस्कृतिक पहचान हैं। 

भाषा के आधार पर विश्लेषण किए जाने के मुख्य आधार बिंदु निम्नलिखित हैं : 

अ  – अनाटोलियन शाखा की अपनी मातृभूमि से शुरू में ही विदायी हो जाने के बाद वहाँ बची बाक़ी शाखाओं में कुछ ऐसी साझी भाषिक लक्षणों का उदय हुआ जिससे अनाटोलियन शाखा वंचित रह गयी । ये भाषिक लक्षण इस प्रकार हैं :

क़ – ‘आ’, ‘ई’ और ‘ऊ’ से अंत होने वाले शब्दों में स्त्रीलिंग का भाव। (गमक्रेलिज १९९५:३५)

ख – ‘ओईस’ से अंत होने वाले बहुवचन पुल्लिंग  कर्ता। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

ग – स्थिति को दर्शाने वाले संकेतवाचक निश्चयात्मक सर्वनाम में *सो, *सा, तो (बहुवचन थो) (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

आ – शुरू की और अंत की शाखाओं में वृहत पैमाने पर कोई साझे भाषायी लक्षण नहीं दिखते हैं। केवल ऊपर वर्णित लक्षण ही टोकारियन और अन्य  सभी ग़ैर-अनाटोलियन भाषायी शाखाओं में पाए जाते हैं। इससे यह पता चलता है कि अपने मूल स्थान से निर्वसन के पश्चात  भाषा परिवार की इन प्रारम्भिक और अंतिम शाखाओं  में आपसी मेल-मिलाप नहीं के ही बराबर रहा।

इ – प्रारम्भिक  भाषा-शाखा (अनाटोलियन और टोकारियन) के निकल जाने के बाद बची यूरोपीय और अंतिम शाखाओं में अपनी मातृभूमि में गहरा मेल-मिलाप रहा। इसी कारण इन दोनों शाखाओं के भाषायी लक्षणों में काफ़ी साझेदारी दिखती है।

१ - *ओई, *म्वॉ में मध्य। जर्मन-बाल्टिक-स्लावी, अल्बानी- ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

२ - *त्तर  और *इष्ट  में विशेषणों की तुलना। जर्मन, ग्रीक-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

३ – संकेतवाचक एकवचन पूलिंग *ओ। जर्मन-बाल्टिक, ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

४ – सीटी-सी ध्वनिकारी तालव्य शब्द। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४- १५)

५ – ‘स’ और ‘श’ की ध्वनियों का ‘रुकी का नियम’। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक   १९९९ a :१४-१५)

६ – कंठ के पास नरम तालु  और होठ से निकलने वाली ध्वनियों का मिश्रण। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४-१५)

७ – स्थानिक विभक्ति (उदाहरणार्थ संस्कृत में सप्तमी विभक्ति) *सु/षु  बाल्टिक-स्लावी, गीक-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

८ – संबंधवाचक सर्वनाम *योस। स्लावी, ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

९ – संबंध-अधिकरण  द्वैत *ओस। स्लावी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)।

१० – उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम: कर्ता, संबंध और कर्म कारक। स्लावी,ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

ई  – कुछ भाषायी लक्षण यूरोपीय शाखा और शुरू की दो सदस्यों वाली शाखाओं में समान रूप से विद्यमान हैं:

संबंधवाचक सर्वनाम *खोईस। अनाटोलियन-टोकारियन, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

संबंधवाचक एकवचन *इ। टोकारियन, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

संयोजक *अ, *ए। टोकरियाँ, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

कर्मवाच्य मध्यक *र। अनाटोलियन-टोकरियाँ, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

अपूर्ण काल *मो। अनाटोलियन बाल्टिक-स्लावी। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

रूपात्मक भाव या क्रिया भाव द्योतक  *ल। अनाटोलियन-टोकारियन। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)  

उ  – कुछ ऐसे भाषिक लक्षण हैं जो यूरोपीय शाखायें बाद की शाखाओं के साथ तो साझा करती हैं लेकिन भारतीय आर्य भाषाओं से यहाँ वह दूरी बनाए हुए हैं।

१ – मूल प्रोटो-भारोपिय का ‘त्त’ बाल्टिक-स्लावी और ग्रीक-अल्बानी=ईरानी में बदलकर ‘स्स’ हो गया है। (भारतीय आर्य शाखा का यही ‘त्त’ अनाटोलियन में ‘त्स्त’ फिर इटालिक-सेल्टिक-जर्मन में त्स’ हो गया।) 

२ – अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण। जर्मन-बाल्टिक-स्लावी। (लुबोत्सकी २००१:३०२)

ऊ – शुरू की शाखाओं और यूरोपीय शाखाओं के अपने मूल स्थान से प्रस्थान कर जाने के बाद अंतिम शाखाओं के आपसी मेलजोल और पारस्परिक प्रभावों ने उनके भाषिक लक्षणों और विशेषताओं में बड़े आमूल-चूल प्रभाव और  प्रमुख परिवर्तन देखे।

१ – विरासत में मिली  ‘क्रियापदों’ की संरचना स्वरों के  गण, वृद्धि या पुनरुक्ति के कारण पूरी तरह से बदल गयी। ग्रीक, अल्बानी, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०-३४१, ३४५)

२ – कर्म कारक ‘-भि-‘। अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०-३४१, ३४५)

३ – नकारात्मक या निषेधात्मक क्रियापद *मे । अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (मिलेट १९०८/१९६७:३९)

ओ – अंतिम शाखाओं की भाषाओं में से कुछ ने स्वरों के उच्चारण संबंधी कतिपय भाषिक लक्षण विकसित कर लिए जो भारतीय आर्य भाषाओं में अनुपस्थित रहे। जैसे स्वर  के पहले आनेवाले ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ हो जाना। ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी। (मिलेट १९०८/१९६७:११३)

इतिहास में दर्ज प्रवास 

‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजातियों का अपना मूल स्थान छोड़कर दूसरे जगह पर बस जाने की घटना इतिहास में  अप्रवासन के दृष्टांत के रूप में दर्ज  है। पुराणों में वर्णित पाँच ‘ऐला’ जनजातियों के निवास-स्थान के आधार पर, ‘दृहयु’  जातियों का मूल स्थान ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में था,  जो सप्त-सिंधु प्रदेश का आज का उत्तरी पाकिस्तान है। बाद में जब ‘अणुओं’ ने उन्हें वहाँ से ठेल दिया तो ऋग्वेद की रचना से पहले ही ‘दृहयु’  खिसक कर और पश्चिम की तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान में घुस गए जिसे गांधार देश कहा जाता था। (परजाइटर १९६२:२६२)।

बाद में वे और भी आगे उत्तर की ओर खिसकते-खिसकते मध्य एशिया के और भीतर तक घुस गए। “भारतीय परम्पराओं में भी इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि दृहयु लोग ऐला जनजातीय क्षेत्रों से  उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर निकलकर काफ़ी दूर के देशों में चले गए, जहाँ उन्होंने कई साम्राज्यों को बसाया। (परजाइटर १९६२:२९८)।

पाँच पुराण इस गाथा से गुंजित हैं कि प्रचेता के वंशज उत्तर की ओर भारत से बाहर म्लेच्छों के देश तक फैल गए थे और वहाँ पर  उन्होंने  अपने साम्राज्य स्थापित कर लिए। (भार्गव १९५६/१९७१:९९)

कुछ समय बाद, जनसंख्या के दवाब के काफ़ी बढ़ जाने से दृहयु जाति के लोग भारत की सीमा के पार उत्तर में म्लेच्छों के क्षेत्र में घुस गए थे और वहाँ अपनी ढेर सारी प्रशासनिक इकाइयाँ स्थापित कर ली थीं। इस तरह अपनी आर्य-संस्कृति को भी वे अपने साथ अपनी सीमाओं से बाहर जाकर रख आए थे। (मजूमदार १९५१/१९९६:२८३)

पौराणिक ठिकानों के अनुसार ‘अणु’ कश्मीर के उत्तर और पश्चिम के इलाक़ों के मूल निवासी थे। ऋग्वेद की रचना से पहले उसिनर के नेतृत्व में उनकी एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमाओं पर अपना साम्राज्य बसा लिया था। अनंतर, जब तक ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलों (६, ३ और ७) की रचना पूरी हुई, उनका विजय-अभियान पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते समूचे पंजाब को पार कर इसकी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को छू गया। (परजाइटर १९६२:२६४)

प्राचीनतम मंडलों के रचे जाने के समय, भरत-पुरु राजा सुदास और उसकी संततियों  की विस्तारवादी हरकतों ने  ‘अणु’ जाति के अधिकांश को पश्चिम की ओर धकेल दिया था। दसराज्ञ युद्ध में ‘भरत’ लोगों ने ‘अणुओं’ को लगभग बेदख़ल कर दिया। हम पहले भी देख चुके हैं हैं कि उनका (अणुओं का) वर्णन [७/{१८/(१३)}] ऐसे पराजित लोगों के रूप में किया गया है जो अपना सबकुछ छोड़कर पश्चिम दिशा [७/[६/(३)}] में भागे और  परदेश [७/{५/(३)}] में जाकर बिखर गए।

साफ़ तौर पर दो महत्वपूर्ण अप्रवासन नज़र में आते हैं। पहला, उत्तर की तरफ़,  मध्य एशिया में थोड़ा अंदर  पश्चिम की ओर बढ़कर, ‘दृहयु’ जाति  के लोगों का जाकर बस जाना और दूसरे, पश्चिम दिशा में अफ़ग़ानिस्तान के अंदर  कुछ और पश्चिम में घुसकर, ‘अणु’ जाति के लोगों का जाकर बस जाना।

यह भारोपीय शाखाओं के दो वर्गों की पहचान करता है। पहला तो पुरानी शाखाओं के साथ मिलकर एक संगठित जातीय समुदाय वाली यूरोपीय शाखा द्वारा  बनायी गयी भारोपीय भाषाओं की उत्तरी पट्टी। और दूसरे, अंतिम शाखाओं द्वारा निर्मित दक्षिणी पट्टी।

इसलिए, दृहयु की पहचान कम-से-कम यूरोपीय शाखाओं के साथ होती है ( नामकरण से संभव हो कि शुरू की शाखाएँ भी उनमें शामिल हों)। और अणु की पहचान अंतिम शाखाओं के साथ होती है, जिनमें पुरु भारतीय आर्य शामिल नहीं हैं।

ऋग्वेद के ग्रंथ और उसकी भाषा से निकले साक्ष्य 

प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मूलस्थान को दक्षिण रूस में बताते हैं। क्रमशः अनाटोलियन शाखा को सबसे पहले  दक्षिण दिशा में, फिर टोकारियन शाखा को पूरब दिशा में और यूरोपीय शाखाओं को पश्चिम दिशा में विस्थापित हुआ मानते हैं। बहुत बाद में  अल्बानी और ग्रीक शाखाएँ दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर, अर्मेनियायी शाखा दक्षिण दिशा की ओर और ईरानी तथा भारतीय-आर्य शाखाएँ पूरब की ओर चल पड़ीं।

भारत में इनके मूल-स्थान होने के सिद्धांतकारों  का यह मानना है कि  जहाँ तक अनाटोलियन और टोकारियन शाखाओं के अप्रवासन का संबंध है तो वे अफ़ग़ानिस्तान से निकलकर उत्तर की ओर मध्य एशिया के क्रमशः पश्चिमी और पूर्वी भागों की ओर बढ़ गयीं। बाद में  उसी क्रम में इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाओं ने मध्य एशिया में अपने पैर फैला दिए। पहली दो शाखाओं का वजूद  मध्य एशिया में काफ़ी दिनों तक बना रहा।  टोकारियन भाषा तो अपने लुप्त होने तक वहीं बनी रही। अनाटोलियन शाखा भी बहुत बाद में वहाँ से पश्चिम की ओर खिसककर कजकिस्तान के रास्ते दक्षिण दिशा में कैस्पियन सागर के आस-पास अनाटोलियो (तुर्की) में समा गयी। यूरोपीय शाखाएँ उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़कर अंततः यूरोप में प्रवेश कर गयीं।

अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी शाखाएँ अफगनिस्तान से पश्चिम की ओर बढ़ चलीं। इस विस्थापन में ईरानी शाखा तो पहले  पिछड़कर अफ़ग़ानिस्तान में ही छूटी रही, लेकिन बाद में यह भी उत्तर की ओर चलकर मध्य एशिया में पसर  गयी। भारतीय आर्य शाखा अपने मूल-स्थान से लेकर अफगानिस्तान  के पूरब तक बनी रही। भारत के मूल-भूमि होने के  सिद्धांत से संबंधित जो साक्ष्य पुरातन ग्रंथों में मिलते हैं उनसे रूस की मूल-भूमि वाली अवधारणा पर न केवल ग्रहण लग जाता है, बल्कि उनका वजूद एक कपोल-कल्पित कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं बचता। और तो और, भाषिक लक्षणों के आधार पर हुई विवेचनाएँ भी इस बात को बल देती हैं कि  भारतीय मूल-स्थान की बात इन विवेचनाओं के ढाँचे में जहाँ एक ओर बिल्कुल फ़िट बैठती  है वहीं दूसरी ओर दक्षिणी रूस वाली बात बिल्कुल असंगत। जैसे कि :

१ – भारतीय मूल-स्थान की अवधारणा इस विवेचना में खरी उतरती है कि  सभी शाखाओं की यात्रा की दिशा एक ही तरफ़ रही। दूसरी ओर, दक्षिण रूस की अवधारणा में सारी शाखाएँ सारी दिशाओं में बिखर जाती हैं।

२ – यह बात भी उतनी ही तार्किक है कि मूल-स्थान तो वहीं रहा होगा जहाँ अंतिम पाँच  में से एक शाखा  बाक़ी चार के वहाँ से प्रस्थान कर जाने के बाद भी वहीं बची रही होगी। इस  बात की भारतीय मूल-स्थान की अवधारणा के साथ पूरी तरह से संगति  बैठती है। दूसरी ओर दक्षिण रूस के मूल स्थान वाली अवधारणा में सारी की सारी शाखाएँ वहाँ से प्रस्थान करती पायी जाती हैं। 

३ – अपने मूल स्थान से निकलने वाली शाखाओं में से सबसे पहली शाखा अनाटोलियन शाखा थी। बाक़ी अन्य शाखाएँ एक समूह के रूप में एक साथ किंतु अलग-अलग अनाटोलियन और सम्भवतः टोकारियन शाखा से भी निकलीं। एक और दिलचस्प बात हमें इन शाखाओं के आपसी भाषिक लक्षणों का अध्ययन करने पर  पता चलती  है। सबसे पुरानी और यूरोपीय भाषा-शाखाओं के भाषिक  लक्षणों में हमें कई जगह समानता के तत्व मिलते हैं। वैसे ही, यूरोपीय और परवर्ती अंतिम शाखाओं के बीच भी ऐसे दृष्टांत मिलते हैं। लेकिन सबसे पुरानी और सबसे बाद की शाखाओं के भाषायी लक्षणों में ऐसी समानता के कोई तत्व नहीं पाए  जाते। रूसी मूल-भूमि की अवधारणा में अनाटोलियन शाखा दक्षिण की ओर, टोकारियन पूरब की और यूरोपीयन शाखा पश्चिम की ओर निकलती हैं। आगे चलकर अल्बानी  और ग्रीक दक्षिण-पश्चिम, अर्मेनियायी दक्षिण और ईरानी तथा भारतीय-आर्य शाखाएँ पूरब की ओर निकल गयीं। भिन्न-भिन्न दिशाओं में पसरने वाली इन शाखाओं के परस्पर भाषिक लक्षणात्मक समानता या असमानता   के संबंध में कोई भी प्रामाणिक व्याख्या न तो मौजूद है और न ही जुट पाती  है। अब देखें कि :

अ – भाषिक लक्षणों के मामले में क्रमशः दक्षिण और पूरब की ओर जानेवाली पहले की शाखायें पश्चिम की ओर जानेवाली यूरोपीय भाषाओं के संग कतिपय  महत्वपूर्ण  समानताओं के तत्व स्थापित कर लेती हैं।

आ – पश्चिम दिशा की ओर विस्थापित होने वाली यूरोपीय शाखा ने भाषिक लक्षणों में अपनी समानता दक्षिण-पूर्व, दक्षिण और पूरब दिशा की ओर बढ़ने वाली बाद की शाखाओं के साथ कर ली है।

इ – लेकिन यदि आप दक्षिण और पूरब की ओर निकली पहले की शाखाओं के भाषिक लक्षणों की तुलना यदि दक्षिण-पूर्व, दक्षिण और पूरब की ओर जाने वाली बाद की शाखाओं से करें तो समानता के ऐसे कोई तत्व दोनों में नहीं मिलते  हैं।

अब यदि एक नज़र हम भारतीय मूल-स्थान वाले सिद्धांत पर डाल कर देखें तो वहाँ इस प्रकार की कोई विसंगति नहीं दिखायी देती और भाषायी लक्षणों में परस्पर समानता या असमानता के इन तत्वों की बड़ी सरल व्याख्या भी मिल जाती है। वहाँ शुरू की शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान की उत्तर दिशा की ओर बढ़कर मध्य एशिया में जम गयीं। बाद की शाखाएँ अपने उद्भव काल में कभी उत्तर की ओर बढ़ी ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि  उनकी संगति उत्तर में  शुरू की शाखाओं से कभी बैठ ही नहीं पायी। दूसरी तरफ़ यूरोपीय शाखाएँ लम्बे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में थमी रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि  इस अति दीर्घ कालमें भाषा के उद्भव और विकास यात्रा में इसने बाद की शाखाओं वाली भाषा के साथ ढेर सारे लाक्षणिक तत्वों की साझेदारी कर लीं। अनंतर,  जब यूरोपीय शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर उत्तर दिशा में मध्य एशिया की ओर बढ़ीं तथा आगे भी मध्य एशिया से पश्चिमोत्तर बढ़कर यूरोप में घुस गयीं, तो इस क्रम में उन्होंने पहले से मध्य एशिया में जमी पहले की शाखाओं के भी अनेक भाषिक लक्षण समेट लिए। 

४ – रूसी मूल-स्थान सिद्धांत में ‘भारतीय-आर्य’ और ‘ईरानी’ शाखाओं को एक साथ ‘भारतीय-ईरानी’ शाखा के रूप में लिया गया है। इसे दक्षिण रूस से पूरब की ओर चलता माना गया है। यह शाखा अन्य शाखाओं से काफ़ी अलग है। फिर भी जहाँ तक अकेले में ईरानी शाखा का सवाल है इसके कुछ  भाषिक लक्षण बाद की शाखाओं से और कुछ लक्षण तो संयुक्त रूप से बाद वाली और यूरोपीय दोनों ही शाखाओं से मिलती है। भारतीय-आर्य शाखा के साथ ऐसी कोई बात नहीं है।   अब इसके कारणों का कोई जवाब ‘रूसी मूल-स्थान’ सिद्धांत में नहीं मिल पाता है। इसका बड़ा सीधा जवाब ‘भारतीय मूल-स्थान’ सिद्धांत में मिल जाता है कि ईरानी शाखाओं की उपरोक्त समानता वाले तत्व उसे अफ़ग़ानिस्तान के पश्चिम प्रवास काल में मिले जो भारतीय आर्य शाखा को वहाँ नहीं जाने के कारण नसीब नहीं हो सका। भारतीय आर्य शाखा पूरब में ही पड़ी रही। अतः हिमाच्छादित पर्वतीय प्रदेश के कुछ ‘पश्चिमोत्तर अफ़ग़ानी’ शब्दों की उपस्थिति समान रूप से यूरोपीय शाखाओं और ईरानी अवेस्ता और ओस्सेटिक  में तो पायी जाती हैं, लेकिन भारतीय आर्य शाखाओं में ये अनिवार्य रूप से अनुपस्थित हैं। 

अवेस्ता – ऐक्षा – (शीत तुषार, फ़्रॉस्ट आइस) – स्लावी, बाल्टिक और  जर्मन भाषाओं से सजातीय।

ओस्सेटिक – ताज्यं – (पिघलना, थव, मेल्ट) – स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक तथा अर्मेनियायी भाषा में सजातीय क्रिया शब्द।

अवेस्ता – उद्र – ( ऊद, ऑटर) – स्लावी, बाल्टिक और जर्मन से सजातीय।

अवेस्ता – बावरा/बावरी – (ऊद बिलाव, बेवर) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न – (काँटेदार जंगली चूहा, हेज़हॉग) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियायी से सजातीय।

ओस्सेटिक – लेसेग़ – (सालमन, मछली का एक प्रकार) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन और अर्मेनियायी से सजातीय।

अवेस्ता – थ्बेरेस – (सूअर, बोअर) – सेल्टिक से सजातीय।

अवेस्ता - पेरेसा – (सूअर का बच्चा, पिगलेट) -स्लावी, बालटक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

अवेस्ता – स्ताओरा – (बैल, स्टियर) – जर्मन से सजातीय।

ईरानी – वब्ज़ – (हड्डा, वास्प) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

ऊपर वर्णित मूलभूत तत्वों से अलग हटकर भी ऐसे तमाम भाषिक और शाब्दिक सबूतों की भरमार है जो इन तीनों समूहों के भारत भूमि से दूर चले  जाने की पुष्टि करते हैं।


Friday, 9 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (९)

 

(भाग - ८ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( च )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

चौथे मंडल में सुदास के वंशज सहदेव और उसके बेटे सोमक के पश्चिम दिशा में और अंदर तक प्रवेश कर जाने का वृतांत है। उनके पश्चिमोत्तर प्रसार के प्रारंभिक दिनों के मध्य क्षेत्र की नदियों, विपास [४/३०/(११)] और परश्नि [४/२२/(२)]  का भी ज़िक्र इस चौथे मंडल में मिलता है। इन दो सूक्तों में से एक में इस युद्ध की परिणती का वृतांत पश्चिमी  नदी सरयू [४/३०/(१८)] के तट पर मिलता है। ‘हरिरुद’ या ‘हेरात’ के नाम से जानी जानी वाली यह नदी सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)] के पश्चिम में अवस्थित है। चौथा मंडल पूरब की नदियों पर पूरी तरह चुप है। पूरब की एक भी नदी का वर्णन इसमें नहीं आता। यहाँ तक कि सरस्वती तक का नाम इसमें नहीं आता है जो बाक़ी मंडलों की एक प्रमुख नदी है। लेकिन अन्य सूक्तों में पश्चिम की नदियों का वर्णन आता है, जैसे – रसा [४/४३/(६)] और सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)]।

    पश्चिम की नदियों के चौथे मंडल में जहाँ तक वर्णन का सवाल है वह इस बात में अपने समकालीन दूसरे मंडल से बिल्कुल अलग है कि दूसरे मंडल में मात्र पूरब की नदी सरस्वती [ दूसरे मंडल में १/(११), ३/(८), ३०/(८), ३२/(८), ४१/(१६, १७, १८)] का ही वर्णन है।  इससे यह विदित होता है कि पुराने मंडलों की रचना के उस काल में दो क्षेत्र रहे। पहला पुरुओं के पाँव फैलाने के क्रम में पश्चिम की भूमि पर रचित मंडल संख्या  चार और दूसरा सरस्वती के पूरब उनके गृह क्षेत्र में रचित मंडल संख्या दो।

आर्य आक्रमण सिद्धांत के ढेरों  पैरोकार चौथे मंडल में वर्णित नदियों के पश्चिमोन्मुख होने का फ़ायदा उठाते हुए यह तर्क प्रस्तुत कर देते हैं कि चौथा मंडल सबसे पहले उस काल में रचा जाने वाला सबसे पुराना मंडल है जब आर्य अपने हमले को पश्चिम में अंजाम दे रहे थे। कुछ विद्वान तो ऐसी ही कुछ राय  दूसरे मंडल के बारे में  देते दिखायी देते हैं  कि  उसमें वर्णित सरस्वती अवेस्ता में वर्णित अफ़ग़ानिस्तान की हरोयु नदी ही है। उनका यह तर्क दो मूलभूत तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देता है। एक,  उन पुराने भरत राजा जिनकी पूरब की भूमि की  समस्त गतिविधिययों का हमने ऊपर छठे, तीसरे और सातवें मंडल के संदर्भ में ज़िक्र किया, उनकी ही संतान वे भरत राजा थे जिनकी पश्चिम की भूमि की गतिविधियों का ज़िक्र चौथे और दूसरे मंडल में है। और दूसरे, उनके पूरब से पश्चिम की ओर की विजय-यात्रा के ऐतिहासिक वृतांत को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया जाना।  उनके तर्कों में एक और बड़ी विसंगति यह है कि दूसरे और चौथे दोनों मंडलों में नदियों से इतर जो भी भौगोलिक चरित्र हैं वे सारे-के-सारे पूरब के भौगोलिक तत्व है, उनमें पश्चिम के चरित्र का कोई चिह्न भी नहीं है। ‘नभ-पृथिव्या: [२/३/(७)], इलास्पद [२/१०/(१)], इभा/हस्तिन हाथी [४/४/(१)], महिष, भैंस [२/१८/(११)], ग़ौर, भारिय जंगली भैंस [४/२१/(८), ५८/(२)], प्रस्ती, चीतल [२/३४/(३, ४), ३६/(२)]। बस एक ही पश्चिमी जानवर का ज़िक्र चौथे मंडल में आया है। वह है एक अफ़ग़ानी भेड़, अवि की चर्चा [४/२/(५)]। अन्यथा केवल नए मंडलों, पाँचवें, पहले और दसवें, में ही इन पश्चिमी जानवरों की चर्चा है। 

छठे, तीसरे और सातवें, इन पुराने मंडलों के सम्पूर्ण पूर्वी चरित्र के पक्ष में एक और मज़बूत तर्क है कि सप्त+सिंधु की पश्चिम में बहने वाली सातों नदियों में से किसी एक का भी ज़िक्र इन तीनों मंडलों में कहीं नहीं आया है। बाद में रचे जाने वाले पुराने मंडलों, चौथे और दूसरे, से इनकी चर्चा का शुभारम्भ होता है और आगे के नए मंडलों तक जारी रहता है। [चौथा: २८/(१), दूसरा: १२/(३, १२), पहला: ३२/(१२), ३५/(८), आठवाँ: ५४/(४), ६९/(१२), नौवाँ: ६६/(६), दसवाँ: ४३/(३), ६७/(१२)]। दूसरी ओर मध्य पंजाब में  एक क्षेत्रीय पहचान के रूप में सप्तसैंधव का ज़िक्र केवल एक बार आठवें मंडल [२४/(१७)] में ही आता है। 

ऋषिकुल द्वारा रचित स-कुल मंडलों में सबसे अंतिम और नवीन  मंडलों में सबसे प्राचीन, पाँचवाँ मंडल, बहुत मायनों में पुराने स-कुल मंडलों और नए अ-कुल मंडलों में बीचों-बीच की स्थिति रखता है। इसमें सूक्तों  के गठन का शिल्प तो पुराने मंडलों की व्यवस्था के अनुरूप है, लेकिन सूक्तों का  अपने रचयिता की विरासत से जुड़ने की व्यवस्था नए मंडलों की परम्परा में है। इसमें प्रत्येक सूक्त का सम्बंध अपने वास्तविक रचयिता से है न कि  पुराने मंडलों के समान उस  ऋषि-परिवार या ऋषिकुल से जो विरासत में अपने पूर्वज ऋषि विशेष का ही नाम ढोते चले आ रहे हैं। हम देख चुके हैं कि  ऋग्वेद और मिती -अवेस्ता ग्रंथों के जो साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, वे अपने सर्वोच्च विकसित  रूप में पाँचवें मंडल में प्रकट होते हैं। और यह भी उतना ही स्पष्ट हो चुका है कि इस पाँचवें मंडल की आधारभूमि पूर्वी क्षेत्र में ही गड़ी-पनपी है।

 इस मंडल के दो सूक्त पश्चिमी नदियों का बखान करते हैं। सूक्त ४१/(१५) में रसा नदी का उल्लेख है और सूक्त ५३/(९) में छः नदियों, सरयू, कुभा, क्रमु, अनिताभा, रसा और सिंधु की चर्चा है। पाँचवें मंडल के ५३वें सूक्त में स्यवस्व  ने पश्चिम की अधिकांश नदियों का उल्लेख किया है। इसी सूक्त के क्रमशः नौवें और सत्रहवें मंत्र में उन्होंने मध्य क्षेत्र की नदी परश्नि और पूरब की नदी यमुना का उल्लेख किया है। इस आधार पर विजेल का यह मत है कि रचनाकार ऋषि ने अपने जीवनकाल में ढेर यात्रायें  की हैं और वह घुमक्कड प्रकृति के कवि हैं। “भिन्न-भिन्न सूक्तों में बिखरे ये  भौगोलिक चरित्र बस एक ही ऋषि, स्यवस्व, के द्वारा रचित हैं। यह ऋषि की यायावर प्रकृति की ओर संकेत करता है” (विजेल १९९५ बी :३१७)।  ठीक वैसे ही पाँचवें मंडल के ४१/(१५) में अत्रि ऋषि ने रसा का उल्लेख किया है। बाक़ी जगहों यथा – ४२/(१२) और ४३/(११) में उन्होंने पूरब की नदी सरस्वती का वर्णन किया है। इसी मंडल में दो अन्य रचनाकार ऋषियों ने ५/(८) और ४६(२) में सरस्वती का वर्णन किया है।

पाँचवाँ मंडल पश्चिमी नदियों का ज़िक्र तो करता है लेकिन नदियों को छोड़कर पश्चिम के बाक़ी किसी भी भौगोलिक चरित्र का उसमें नामो-निशान तक नहीं है। बस अपवाद के रूप में मात्र अफ़ग़ानी भेड़ ‘अवि’ का उल्लेख अत्रि ऋषि के द्वारा हुआ है। इसका उल्लेख चौथे मंडल में भी आया है। लेकिन, पाँचवे मंडल में   नदियों को छोड़कर पूरब के अन्य भौगोलिक चरित्रों का चित्रण मौजूद है। ५५/(६), ५७/(३), ५८/(६) और ६०/(२) में स्यावस्व ने प्रस्ती अर्थात चीतल का वर्णन किया है। अत्रि ने भी इसका वर्णन ४२/(१५) में किया है। एक दूसरे ऋषि ने २९/(७, ८) में महिष अर्थात भैंस का वर्णन किया है।

पहले और आठवें मंडल की रचना ऋषि-कुल द्वारा नहीं की गयी। ऋग्वेद के काल-क्रम में इन अ-कुल मंडलों का स्थान दूसरे चरण में आता है। पहले मंडल के कुछ सूक्त आठवें मंडल से पहले रचे गए हैं और कुछ सूक्त उसके बाद में भी  रचे गए।  इन दोनों मंडलों के बाद रचना-काल-क्रम में नौवें मंडल का स्थान आता है। इसकी रचना करने वाले ऋषि का नाम  है – सोम पवमान। मशहूर भारतविद विजेल के शिष्य प्रोफेरस का मानना है कि पवमान का यह संकलन बाद के रचनाकारों द्वारा रचित मंडल १, ५, ८ और बहुत थोड़े अंशों में दसवें मंडल से ली गयी ऋचाओं का संकलन है [प्रोफेरस १९९९:६९]। दसवें  मंडल का समय बहुत बाद का है। जहाँ तक पहले भाषा और उनके सांस्कृतिक तत्व का सवाल है, दसवाँ मंडल शुरू के नौ मंडलों से बिल्कुल अलग-थलग है। हालाँकि उन नौ मंडलों में भी भाषा और सांस्कृतिक तत्वों के स्तर पर उतनी एकरूपता नहीं है। उनके शब्दों की एक लम्बी सूची तैयार कर और उनकी व्याकरण-संबंधी विशेषताओं का गहन अध्ययन करने के बाद घोष ने अपना मंतव्य दिया है कि “ शुरू की बोलचाल की भाषा की थोड़ी बहुत भिन्नताओं के बावजूद कुल मिलाकर पहले के नौ मंडलों की भाषा को हम एक ही प्रकार का मान  सकते हैं। लेकिन दसवें मंडल में यह स्थिति बदल जाती है। इसकी भाषा निश्चित तौर पर थोड़ी अलग है और यह ऋगवैदिक भाषा के परवर्ती स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है [घोष १९५१/२०१०:२४०-२४३]।“

इससे यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि अ-कुल मंडल और साथ में पाँचवाँ मंडल भी दसवें मंडल के साथ मिलकर एक अलग वर्ग में रखे जा सकते हैं। पाँच पुराने मंडलों की अपेक्षा नए मंडलों में व्याप्त मिती  और अवेस्ता की शब्दावली से संबंधित समानता के तत्व भी इस वर्गीकरण के कारणों में शामिल हैं। इससे दो बातें  खुलकर सामने आती है। पहली बात कि नए मंडलों ने अपने पूरे आकार को पाने में एक बहुत लम्बे  कालानुक्रमिक  अंतराल की यात्रा तय की है। और दूसरी बात कि, उनकी यह दीर्घकालिक यात्रा पुराने मंडलों से बिल्कुल पृथक है।


चार अ-कुल मंडलों का भौगोलिक क्षितिज ऋग्वेद की समूची भूमि में फैला हुआ है। चौथे और पाँचवें मंडल में हमें पश्चिम की झलकी मिलती है। लेकिन, चार अ-कुल मंडल पश्चिम के साथ एक नयी तरह की व्यापक घनिष्टता दिखाते हैं जो कि पुराने मंडलों और यहाँ तक कि पाँचवें मंडल में भी दूर-दूर तक नहीं  दिखायी देता।

क – पहली बार इन मंडलों में पश्चिमोतर के निम्नांकित तत्वों का प्रवेश होता है:

‘गांधार’ नामक दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर एक जगह –  १/१२६/(७)

‘सर्यनावत’ नामक पश्चिमोतर की एक झील –  १/८४/(१४), ८/[६/(३९), ७/(२९), ६४/(११)], ९/[६५/(२२), ११३/(१)],१०/३५/(२)

‘अर्जिक’, ‘सुसोम’ और ‘मुजवत’ नामक पश्चिमोतर के पहाड़ – ८/७/(२९, २९), ९[/६५/(२३), ११३/(२)], १०/१३४/(१)

उत्तर-पश्चिम की एक हिमाच्छादित पर्वत चोटी हिमवंत का उल्लेख – १०/१२४//(४)

 ख – इन चार मंडलों में उत्तर-पश्चिम के ढेर सारे नए पशुओं का उल्लेख मिलता है। मेष (मेमना), छाग (पहाड़ी बकरी), ऊरा (भेड़), ऊष्ट्र (ऊँट), मथ्र (अफ़ग़ानी घोड़ा), वराह/वराहु (सुअर) – 

१/[४३/(६,६), ५१/(१), ५२/(१), ६१/(७), ८८/(५), ११४/(५), ११६/(१६), ११७/(१७, १८), १२१/(११), १३८/(२), १६२/(३)]

८[२/(४०), ५/(३७), ६/(४८), ३४/(३), ४६/(२२, २३, ३१), ६६/(८), ७७/(१०), ९७/(१२)]

९/[८/(५), ८६/(४७), ९७/(७), १०७/(११)]

१०/[२७/(१७), २८/(४), ६७/(७), ८६/(४), ९१/(१४), ९५/(३), ९९/(६), १०६/(५)] इनमेंसे अधिकांश नाम ईरानी भाषा और अवेस्ता में पाए जाते हैं।

ग – पश्चिम की नदियों, सिंधु, सरयू, रसा, कुभा और क्रमु के अतिरिक्त चौथे और पाँचवें मंडल में पश्चिम की कुछ और नदियों के नाम पहली बार मिलते हैं – त्रस्तमा, सुश्रतू, श्वेत्य, गोमती, महत्नु, श्वेत्यवारी, सुवत्सु, गौरी, सुसोमा, आर्ज़िक्य।

१/[४४/(१२०, ८३/(१), ११२/(१२), १२२/(६), १६४/(४), १८६/(५)]

८/७/(२९), १२/(३), १९/(३७), २०/(२४,२५), २४/(३०), २५/(१४), २६/(१८), ६४/(११), ७२/(७, १३), 

९/[४१/(६), ६५/(२३), ९७/(५८)], 

१०/[(६४/(९), ६५/(१३), ६६/(११), ७५/(१, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९), १०८/(१, २), १२१/(४)]

घ – नए मंडल विशेषकर आठवें मंडल की मिती  सांस्कृतिक तत्व और अवेस्ता के साथ अद्भुत समानता मिलती है। यहाँ हमें संरक्षक राजाओं के ऐसे नाम मिलते हैं जिनके बारे में पश्चिमी भारतशास्त्रियों, विशेषकर विजेल का कहना है की ये सारे नाम वास्तव में ‘प्रोटो-ईरानी’ नाम हैं। जैसे – व्रच्या, कुरुंग, चैत्य, त्रिन्दिरा, परशु, वरोसुसामन, अनर्शनि, कणित। [१/{५१/(१३)}, ८/{४/(१९), ५/(३७, ३८, ३९)}, ६/{४६/(२३, २८), २४/(२८), २५/(२), २६/(२), ३२/(२), ४६/(२१, २४)}, (१०/८६}]

यहाँ [१/{४५/(३, ४)), १३९/(९)}, ८/{३/(१६),४/(२०), ५/(२५), ६/(४५), ८/(१८), ३२/(३०), ६९/(८, १८)}, १०/{३३/(७), ७३/(११))} और रचनाकारों के नाम ५/{२४}, ८/{२, ४, ६८, ६९}, ९/{२८}, १०/{५७, ५८, ५९, ६०, ७५}] पर भी  हमें मिती  और ऋगवैदिक नाम दोनों एक ही तरह के मिलते हैं।

ऋगवैदिक नाम : मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता, प्रियंदा  

मिती  नाम :   मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता,  ब्रियंसदा 

ङ – नए मंडलों में और उसमें भी आठवें मंडल में बड़े विस्तार में हमें जो वर्णन मिलता है वह हड़प्पा     संस्कृति के उन्नत दिनों के सांस्कृतिक तन्तुओं से मेल खाता है। ठीक दूसरी तरफ़, दसवें मंडल के वृतांतों में हड़प्पा के बाद की झलकियाँ मिलती हैं। यदि हड़प्पा की खुदाई  में मिले अवशेषों और निष्कर्षों का सहारा लें तो आठवें मंडल में दो ऐसे शब्द मिलते हैं जो बेबिलोनिया के शब्द हैं और उनका ज़िक्र भार की मापांक ईकाई (मन), [८/{७८/(२)}] और साहूकार (बेकनाता), [८/{६६/९२)}] के रूप में हड़प्पा  और बेबिलोनिया के आपसी व्यापार में हुआ है।

इस हड़प्पन-काल में द्रसद्वती, आपया, हरियुपिया, याव्यवती आदि इस क्षेत्र की कुछ अति प्राचीन पूर्वी नदियाँ थीं, जो आज के खाँटी हरियाणा में बहती थी। इन नदियों के नाम ऋग्वेद के नए मंडलों से ग़ायब हैं। इससे यही अनुमान लगता है कि सरस्वती की पूर्वी सहायक नदियाँ इस काल तक आते-आते सूख गयी होंगी।

इन चार ऐतिहासिक नदियों की चर्चा यहाँ तक कि ‘नदी-सूक्त [१०/{७५}]’ में भी नहीं मिलती है। यद्यपि, इसी सूक्त में गंगा अभी भी ऋगवैदिक क्षितिज के पूर्वी छोर की महत्वपूर्ण नदी के रूप में वर्णित है। सबसे पुराने मंडलों में तीन सूक्त (छठे मंडल का ६१वाँ और सातवें मंडल का ९५वाँ और ९६वाँ सूक्त) पूरी तरह से सरस्वती को समर्पित हैं। लेकिन नदी सूक्त (नया मंडल १०वाँ) में सिंधु सबसे प्रमुख नदी बन गयी है जिसको यह सूक्त पूर्णतया समर्पित है। पहले मंडल ( नया मंडल) के भी अनेक सूक्तों {९४ से ९६,  ९८, १०० से १०३, १०५ से ११५} में भी अन्य देवी-देवताओं के साथ सिंधु की स्तुति की ऋचाएँ मिलती हैं। इसके अलावा  नए मंडलों में और भी कई जगह छिट-पुट रूप में सिंधु नदी का उल्लेख मिलता है। 

अब यदि हम समय (टाइम) के सापेक्ष स्थान (स्पेस) के विस्तार का अवलोकन करें तो हमें यह सबसे पुराने मंडल, छठे मंडल, से शुरू कर  सबसे नए, दसवें मंडल, की रचना की अवधि के मध्य आर्यों की अपने मौलिक रिहाइश ,  पूरब में हरियाणा, से लेकर दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक की यात्रा दिखायी देती है। छठे मंडल की रचना का काल ३००० ईसापूर्व से पहले का ही लगता है जैसा कि ऊपर के प्रमाण इंगित करते हैं।

जैसा कि हम शुरू में ही देख चुके हैं कि कुछ ऐसी मौलिक बातों की अवहेलना हमारे इन प्रकांड भारतविदों ने कर दी जिससे ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’   को बल मिला। पहली बात तो यही है कि ऋग्वेद में कहीं भी उस भूमि से इतर जहाँ इसकी रचना हुई, ऐसी किसी भी विदेशी ज़मीन की कोई चर्चा नहीं है। साथ ही ऐसे किसी पुराने भूभाग का  जो रचनाकारों की स्मृति में अपने पुरखों की ज़मीन हो,  का कोई वृतांत नहीं मिलता। ऋग्वेद में ऐसे किसी पुराने युद्ध या आक्रमण  की चर्चा भी  नहीं मिलती जिसमें फ़तह हासिल कर ऋषियों के पूर्वज आर्यावर्त की इस भूमि पर आ बसे हों और यहाँ से उन्होंने किसी और को मार भगाया हो।

दूसरी बात कि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से,  ऋग्वेद के समूचे ग्रंथ में द्रविड़ या औस्ट्रिक उद्भव के किसी भी शब्द के दर्शन किंचित-मात्र नहीं होते। 

और, तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कि ग्रंथ में नदियों और पशुओं के जो भी नाम आए हैं, वे सभी भारतीय-आर्य तत्व के नाम हैं।

पुराने मंडलों के रचे जाने की तिथि ईसा से कम-से-कम तीन हजार साल पहले की तो लगती ही है, साथ में यह भी स्पष्ट दिखता है कि पूरब में हरियाणा के मूल निवासी इन आर्यों ने अपने क़दम न केवल पश्चिम की ओर बढ़ाए, बल्कि अपनी पूरब की जन्मभूमि से अपने अटूट भावनात्मक लगाव को बड़ी स्पष्टता  से व्यक्त भी किया, ‘हे माँ सरस्वती, आप हमें आशीष दें कि हमारी जन्मभूमि न छूटे और इसे छोड़ हम कहीं दूर न भटक जाएँ!’ {छठे मंडल में ६१/(१४)}। छठे मंडल के ४५/(३१) में गंगा के किनारे फैली लंबी द्रुम-लताओं और झाड़ियों की सघनता को उनके इस गांगेय माटी से अद्भुत लगाव के घनत्व के उपमेय के रूप में प्रदर्शित किया गया है। और, तीसरे मंडल के ५८वें सूक्त की छठी ऋचा में जाह्नवी के तट को ‘देवताओं की  प्राचीन मातृभूमि’ की संज्ञा दी गयी है। अपने उद्गम के पास गंगा जाह्नवी के नाम से जानी जाती है। इन सभी वृतांतों की काल-गणना ईसा से ३००० वर्ष पीछे चले जाने से ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ की परिकल्पना ही खटाई में पड़ जाती है।


Saturday, 3 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (८)

(भाग - ७ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


ऋग्वेद में वर्णित नदियाँ और उनका पूरब से पश्चिम तक का विस्तार 


नदियों के भूगोल रचयिता-ऋषियों के कार्य-क्षेत्र का भी चित्र प्रस्तुत करते हैं। ऋग्वेद में इन नदियों के वर्णन का विवरण इस प्रकार है।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : २४ सूक्त, ४५ मंत्र और ४७ नाम।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३० सूक्त, ३७ मंत्र और ३९ नाम।



   

फिर हम यहाँ भी यही देखते हैं कि भौगोलिक संदर्भों में पूरब की नदियों के वर्णन का विस्तार भी अन्य भौगोलिक तत्वों की भाँति ऋग्वेद के पुराने मंडलों से लेकर नवीन मंडलों तक सर्वत्र फैला हुआ है। इस बिंदु पर एकमात्र अपवाद मंडल ४ में दिखता है जिसके कुछ ऐतिहासिक कारण है और उनकी पड़ताल भी हम शीघ्र ही करेंगे।

अब थोड़ा पश्चिम की नदियों के ऋग्वेद में वर्णन के विवरण पर भी अपनी आँखें हम डालें।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : चार सूक्त और पाँच मंत्र।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : सत्तावन सूक्त और बहत्तर मंत्र।



  

पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) में पश्चिमी नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। अब एक बात फिर यहाँ ध्यान देनेवाली है। पूर्वी नदियों के विवरण सभी मंडलों में है, केवल चौथे को छोड़कर। उसी तरह  पश्चिमी नदियों का ज़िक्र किसी भी पुराने मंडल में नहीं है, बस चौथे को छोड़कर। अर्थात दोनों मामलों में चौथा मंडल अपवाद के रूप में है। चौथे मंडल में पूर्वी नदियों का विवरण नहीं है और पश्चिमी नदियों का विवरण है। इस तरह चौथा मंडल एक विलक्षण चरित्र दर्शाता है कि इसका सांस्कृतिक परिवेश तो अन्य ऋषि-कुल-रचित पुराने मंडलों की तरह पूरबिया है लेकिन इसका कार्य-क्षेत्र पश्चिमी है। इसका प्रमुख कारण आर्यों (पुरु) का पूरब से पश्चिम की ओर ठेला जाना है जिसका वर्णन ऋग्वेद में है और अब हम उसकी चर्चा भी करेंगे। 

ऋग्वेद के पुराने मंडलों का भूगोल पूरी तरह पूरब का भूगोल है। नदियों से इतर पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों का पुराने मंडलों (६, ३, ७, ४ और २) में कोई उल्लेख नहीं मिलता। पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) के किसी भी सूक्त, चाहे वे पुराने हों या संशोधित, में पश्चिम की नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता।

पाँचों  नए मंडलों में अपेक्षाकृत सबसे पुराने पाँचवें  मंडल की स्थिति बीचो-बीच वाली है। नदियों के अलावा   बाक़ी पश्चिमी भौगोलिक तत्वों का उल्लेख इसमें बिल्कुल नहीं आता, लेकिन पश्चिम की नदियों का ज़िक्र आता है। बाक़ी चार नए मंडलों (१, ८, ९ और १०) में, जो ऋषि-कुल रचित नहीं हैं, चाहे नदियों के भौगोलिक संदर्भ हों या नदियों से इतर अन्य भौगोलिक तत्व, पूरब और पश्चिम का समान प्रतिनिधित्व है। ये सारे तथ्य इस बात को बड़ी स्पष्टता से परिलक्षित करते हैं कि पुराने मंडलों से लेकर नए मंडलों के रचे जाने तक ‘आर्यों’ (पुरु) का विस्तार पूरब से पश्चिम की ओर होता रहा और इस ऐतिहासिक विस्तार की आहट  ऋग्वेद के पन्नों में सुरक्षित है। 

पूरब से पश्चिम की ओर फैलने के क्रम में आर्यों ने, निश्चय ही, सरस्वती और सिंधु नदियों के मध्य के क्षेत्रों को पार किया होगा और यह वहीं काल रहा होगा जब अभी वे ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ही रचना कर रहे थे। अब एक नज़र इन पुराने मंडलों में वर्णित इस मध्य क्षेत्र के भौगोलिक तत्वों पर भी फेर लें। इस क्षेत्र के एक भी पहाड़ या सरोवर का कोई नाम नहीं मिलता, और न ही किसी पशु या वन्य-प्राणी का कोई ज़िक्र ऋग्वेद में कहीं आता है। हाँ, इस मध्य क्षेत्र के कुछ नदियों और स्थानों के नाम अवश्य ऋग्वेद में पाए जाते हैं, जिनका विवरण उन विशेष नामों के साथ  इस प्रकार है : 

१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ :सात सूक्त और नौ मंत्र।

२ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : बारह सूक्त और बारह मंत्र।




 इन पाँच पुराने मंडलों का इतिहास क्रम स्पष्ट है :

छठा मंडल सबसे पुराना मंडल है। यह प्राचीन भरत-राजा ‘दिवोदास’ के समय का है। भारद्वाज कुल रचित इस छठे मंडल में मुख्य रूप से भरत कुल और उनके राजा दिवोदास की केंद्रीय भूमिका है। (विजेल १९९५ बी:३३२-३३३)। दिवोदास की चर्चा अनेक बार आती है, [छठे मंडल में १६/(५, १९), २६/५, ३१/(४), ४३/(१), ४७/(२२, २३), ६१/(१)]। सच कहें तो इस पुस्तक का विस्तार पीछे की ओर कई पीढ़ियों तक ऋग्वेद के प्राचीनतम और ऋग्वेद से पहले के भी पुराने राजाओं तक चला जाता है। इसमें दिवोदास के पिता सृंजय का उल्लेख मिलता है [छठे मंडल में २७/(७), ४७/(२५)], जिन्हें छठे मंडल के ही एक अन्य मंत्र [६१/(१)] में एक अत्यंत अपमानजनक शब्द ‘वध्रयस्व’ से सम्बोधित किया गया है। इसका अर्थ नपुंसक होता है। दिवोदास के दादा ‘देवदत्त’ का भी उल्लेख इसी मंडल के मंत्र [२७/(७)] में है और जिनके नाम पर कुल का नाम है उस ‘भरत’ का उल्लेख मात्र एक बार [१६/(४)] में है। इस छठे मंडल के २६वें सूक्त के आठवें मंत्र में दिवोदास के पुत्र ‘प्रतर्दन’ का भी नाम आता है।

कालक्रम में दूसरे और तीसरे सबसे पुराने मंडल तीन और सात हैं। तीसरा मंडल दिवोदास की संतति ‘सुदास’ के समय का है (विजेल १९९५ बी :३१७)। यही हाल सातवें मंडल का भी है क्योंकि इसमें भी सुदास का ज़िक्र बहुत बार आया है। सभी विद्वानों का यह एकमत से मानना है कि  तीसरे मंडल के रचयिता विश्वामित्र पहले सुदास के पुरोहित थे। बहुत आरम्भ में थोड़े दिनों के लिए ही सुदास विश्वामित्र के यजमान रहे थे। बाद में उनके पुरोहित वशिष्ट बन गए जो सातवें मंडल के रचयिता हैं। इन दोनों मंडलों में सुदास की चर्चा बहुत बार हुई  है:

तीसरा मंडल : ५३/(९, ११)

सातवाँ मंडल : १८/(५, ९, १५, १७, २२, २३, २५), १९/(३, ६), २०/(२), २५/(३), ३२/(१०), ३३/(३), ५३/(३), ६०/(८, ९), ६४/(३), ८३/(१, ४, ६, ७, ८)

उनके पिता ‘पिजावन’ का उल्लेख सातवें मंडल के मंत्र १८/(२२, २३, २५) में है।

चौथा मंडल राजा सुदास के वंशज सहदेव और सहदेव के पुत्र सोमक के काल का है। इनकी चर्चा क्रमशः इस मंडल के १५/(७, ८, ९, १०) और १५/(९) मंत्रों में मिलती है। ये चारों मंडल वैदिक इतिहास के एक विशेष कालखंड का निर्माण करते हैं। दिवोदास के दादा देवदत्त का विवरण भी केवल इन्ही मंडलों में मिलता है।

छठा मंडल : २७/(७)

तीसरा मंडल : २३/(२)

सातवाँ मंडल : १८/(२२)

चौथा मंडल : १५/(४)

शुरू के भरत-कुल के राजाओं का भी विवरण इन मंडलों में मिलता है। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में  देवश्रवा नामक एक राजा को अपने पूर्वज देवदत्त के द्वारा निर्मित यज्ञ-वेदी में अग्नि को आहुति देते हुए दिखाया गया है। यह राजा या तो सुदास के समकालीन था या हो सकता है वह राजा स्वयं सुदास ही हो।  सुदास और इन भारत राजाओं को कहीं-कहीं [सातवें मंडल में ३३/(१४)] ‘प्रतर्दन’ की संतति ‘प्रतर्द’ के रूप में भी सम्बोधित किया गया है और उसी मंडल के १८/(७, १३, १५, १९), ३३/(४, ५, ६) और ८३/(४, ६, ८) में ‘तृत्सु’ के रूप में दिखाया गया है। [प्रसंगवश, भरत-राजाओं  का काल ऋग्वेद का प्रारम्भिक काल है। इनकी चर्चा पुराने ऋषि-कुल रचित मंडलों २, ३, ४, ६ और ७ में ही है। बस केवल पहले मंडल में एक जगह ९६/(३) में इनका नाम आता है। पहले मंडल के ‘कुत्स’ उपमंडल (सूक्त-संख्या ९४ से ११५) के ये सूक्त चौथे मंडल में मिले लगते हैं क्योंकि यहाँ भी १००/(१७) में सहदेव का वर्णन मिलता है।

पुराने मंडलों में दूसरा मंडल सबसे अंतिम रचना है। छठे, तीसरे और सातवें मंडलों से तो निश्चय ही बाद की यह रचना है किंतु नए मंडलों ५, १, ८, ९ और १० से यह काफ़ी पुरानी रचना है। ऐसा  हमने ऋग्वेद के मिती  और अवेस्ता से साझे तत्वों के या सामान भौगोलिक संदर्भों के विवरण  में देखा है। हर मामले में दूसरा मंडल अन्य पुराने मंडलों के समकक्ष बैठता है। केवल चौथे मंडल से इसकी तुलना करने पर थोड़े संदेह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे ढेर सारे शब्द, नाम या अन्य तत्व दूसरे मंडल में मिलते हैं जो चौथे मंडल में  तो मिलते हैं, किंतु अन्य तीनों पुराने मंडलों में वे नहीं पाए जाते। इससे कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न होता है कि दूसरा मंडल या तो चौथे मंडल के समकालीन है या फिर उसके थोड़े बाद की रचना है। बस एक ही विशेषता दूसरे मंडल को अन्य मंडलों से थोड़ा ख़ास बनाती है। वह बात है की दूसरे मंडल में सरस्वती के अलावा  किसी अन्य नदी का कोई ज़िक्र नहीं है।


पश्चिम की ओर चरणबद्ध विस्तार की घटना ऋग्वेद के पुराने मंडलों में न केवल नदियों के विवरण-क्रम में, बल्कि ऐतिहासिक वृतांतों में भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होती है।  

छठा मंडल ऋग्वेद का प्राचीनतम मंडल है। इसकी कहानियाँ और वृतांत ‘दिवोदास’ और उसके पुत्र ‘प्रतर्दन’ से भी काफ़ी पीछे के उनके पूर्वजों तक जाती हैं। इसका भूगोल पूरब का भूगोल है। इसमें वर्णित नदी एवं नदी के अलावा  अन्य सभी भौगोलिक तत्वों के वृतांत न तो पश्चिमी क्षेत्र और न ही, मध्य क्षेत्र को छूते हैं। नदियों में सरस्वती [४९/(७), ५०/(१२), ५२/(६), ६१/(१ से ७, १०, ११, १३, १४] के अलावा  इसके पूरब बहने वाली गंगा [४५/(३१)] और हरियूपिया/याव्यवती [२७/(५, ६)] का वर्णन है। [हरियूपिया या याव्यवती दृशद्वती नदी के ही पर्यायवाची नाम हैं और इनका संदर्भ ‘कुरुक्षेत्र के तीर्थ-स्थान’ से भी है (टॉमस १८८३)। महाभारत में 'दृशद्वती' को 'रौप्य' कहा गया है। इसे अफगानिस्तान की 'झोबो' नदी भी बताया गया है, हालाँकि इसका कोई पुख़्ता आधार नहीं बताया गया है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में इस नदी का वर्णन  अन्यत्र कहीं  बस एक पंचविंश ब्राह्मण में आया है, जिसके बारे में प्रसिद्ध पश्चिमी भारतविद विजेल का मत है कि ‘याव्यवती’ नदी का वर्णन ऋग्वेद में मात्र एक बार आया है। इसे पूर्वी अफगानिस्तान का ‘झोब’ नदी भी समझा जाता है। पंचविंश ब्राह्मण के श्लोक २५/७/२ में फिर भी इस नदी के अफगनिस्तान में बहने के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। इस नदी से जुड़े लोगों के बारे में मान्यता है कि वे ‘कुरु-पाँचाल-क्षेत्र’ के ‘विभिन्दूक’ नामक देश के निवासी थे जो हरियाणा में सरस्वती से पूरब हट कर है [ विजेल १९८७:१९३]। 

दिवोदास के पूर्वजों की भी सारी गतिविधियाँ इसी पूर्वी क्षेत्र में केंद्रित थीं। छठे मंडल के सत्ताईसवें सूक्त में 'देववात' के पुत्र 'सृंजय' द्वारा हरियूपिया/याव्यवती के तट पर लड़े गए एक युद्ध का वृतांत है। छठे मंडल के इकसठवें सूक्त में दिवोदास के नपुंसक पिता 'वधर्यस्व' का ज़िक्र आता है जिसने सरस्वती के तट पर पूजा-अर्चना कर अपने पुत्र दिवोदास को वरदान के रूप में पाया था। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में 'द्रसद्वती' और 'अपया' नदी के तट पर मानस झील के पास देववत के द्वारा बनायी गयी यज्ञ वेदी में 'देवश्रवा' के द्वारा की गयी उपासना का विवरण मिलता है। देवश्रवा या तो राजा सुदास का समकालीन था या सम्भव है कि वह स्वयं इस नाम से सुदास ही था। नदियों के इन आँकड़ों या डाटा को किसी रेखाचित्र या ग्राफ़ पर रखकर देखने से पूरब से पश्चिम की यात्रा बड़ी सफ़ाई से समझ आ जाती है। 

मध्य-क्षेत्र की पहली दो नदियों का ज़िक्र पहली बार ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलता है। इस मंडल की रचना दिवोदास के वंशज राजा सुदास के काल में ऋषि विश्वामित्र ने की थी। ये दोनों नदियाँ पंजाब में पूरब में बहनेवाली 'सतुद्री (आज की सतलज)' और 'विपास (आज की व्यास)' नामक नदियाँ हैं। इन दो नामों के अलावा सरस्वती के पश्चिम में स्थित प्रमुख भौगोलिक पहचान वाली किसी और दूसरी चीज़ का कोई ज़िक्र इस मंडल में नहीं आता है। सुदास और उसकी भरत-सेना के इन दोनों नदियों के पार करने के ऐतिहासिक प्रसंग में इनका नाम तीसरे मंडल के ३३वें सूक्त में आता है। इसी सूक्त के ५वें मंत्र के अनुसार उनका यह आगमन पश्चिम के उन क्षेत्रों में जाना था जहाँ सोम की उपलब्धता थी। ठीक वैसे ही जैसे यूरोप के लोग मसाले के आयात के लिए भारत पहुँचने  के लिए समुद्री मार्गों की तलाश में निकलते थे, वैदिक आर्य भी पश्चिम की इस भूमि से सोम का आयात कर ले जाते थे। 

विश्वामित्र  के पौरिहत्य में सुदास की प्रारम्भिक गतिविधियों का क्षेत्र भी पूरब की ही यह भूमि थी। तीसरे मंडल के २९वें सूक्त में वर्णित जिस इलायास्पद के ‘नभ पृथिव्या:’ में विश्वामित्र ने यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्वलित की है, वह सरस्वती के पूरब में हरियाणा का ही क्षेत्र है। तीसरे मंडल के ५३वें सूक्त में उसी अग्नि में वे आहुति देते हैं, ‘वर-आ-पृथिव्या:’‘कुशिकाओं, आगे आओ! जाग्रत हो!    सम्पत्ति- विजय हेतु सुदास के अश्वों के बंधन खोलो! पूरब, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित अपने शत्रुओं का राजा वध करे और फिर इस पृथ्वी पर अपनी अभिलिषित भूमि पर अपनी पूजा-अर्चना करे! (५३/(११) का ग्रिफ़िथ के द्वारा किया गया अनुवाद)। इसी के बाद सुदास अपने साम्राज्य की विस्तारवादी योजना हेतु सभी दिशाओं में प्रयाण करता है। उसके इस अभियान में सुदूर का ‘किकत’ प्रांत भी शामिल है। पारम्परिक विद्वान इस क्षेत्र को बिहार के मगध की भूमि बताते हैं। लेकिन विजेल उतनी दूर न जाकर इसे हरियाणा से दक्षिण-पूर्व – पूर्वी राजस्थान या पश्चिमी मध्य प्रदेश तक ही सीमित रखते हैं (विजेल १९९५ बी:३३३)। 

विश्वामित्र के बाद वशिष्ठ  राजा सुदास के पुरोहित बन गए थे। इस समय अभी राजा सुदास अपने विजय अभियान की मध्य अवस्था में ही थे। वशिष्ठ  के द्वारा रचित सातवें मंडल में पंजाब के पूर्वी क्षेत्र  की तीसरी और चौथी नदियों का ज़िक्र पहली बार आया है। ये नदियाँ 'परश्नि (आज की रावी)' और 'असिक्नी ( आज की चेनाब)' हैं। 'सतुद्री' और 'विपास' के बाद इनका विवरण आया है। 'परश्नि' और और 'असिक्नी' को छोड़कर सरस्वती के पश्चिम स्थित अन्य किसी भौगोलिक चरित्र का नाम इस मंडल में कहीं नहीं आया है। यह प्रसंग दसराज्ञ-युद्ध या दस राजाओं के युद्ध का है। अणु की दस जनजातियों और दृहयु की बची- खुची जनजातियों को साथ लेकर परश्नि के तट पर सुदास ने यह लड़ाई लड़ी थी। पूरब से पश्चिम की ओर प्रसार के क्रम में यह लड़ाई दूसरी कड़ी थी। इससे पहले पूरब में उनके पूर्वजों द्वारा लड़े  गए युद्ध का विवरण आ चुका है। पूरब में आहुति-कर्म के बाद फिर से अपने विजय अभियान में जुटे सुदास के पंजाब के पूरब में बहती उन दो नदियों को पार करने का वृतांत तीसरे मंडल में आया है। उसके बाद परश्नि के तट पर सुदास का युद्ध होता है ( सातवें मंडल का १८वाँ सूक्त)।  सातवें मंडल के ५/(३) से यह पता चलता है कि उनके शत्रु असिक्नी के किनारे रहने वाले लोग थे। इससे यह साफ़ होता है कि सुदास पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे और उनके शत्रु असिक्नी नदी के पश्चिमी तट की ओर से लड़ रहे थे। इस बात का भी स्पष्ट वर्णन है की शत्रु दल अपनी पराजय के बाद अपने सारे माल-असवाब वहीं छोड़कर पश्चिम दिशा [७/६/(३)] में विदेशी भूमि [७/५/(३)] की ओर तितर-बितर हो गए थे। 


Friday, 25 September 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(७)



(भाग - ६ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (घ )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

अन्य वैदिक ग्रंथों का रचनाकाल

दूसरा मुख्य बिंदु है, अन्य वैदिक ग्रंथों यथा – अन्य संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रंथों, अरण्यकों, उपनिषद और ब्रह्म-सूत्रों की रचना के काल को ऋग्वेद के सापेक्ष निर्धारित करना।

क्योंकि अब यदि आप ऋग्वेद को ही १५०० ईसा पूर्व का मानने लगें तो क्या इसका यह मतलब निकाल लें कि बाक़ी ग्रंथ भी अनुवर्ती क्रम में क्रमशः लिखाते  चले गए?

सच में, ऐसा सोचने के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं  कि इन सभी रचनाओं के  काल का  आपस में कुछ लेना-देना नहीं है। हालाँकि, सभी रचनाओं का एक मान्य अनुवर्ती कालक्रम है, लेकिन तब भी इस बात को मानने का कोई कारण नहीं है कि सभी ग्रंथों की अपनी पूर्णता में रचे जाने का समय एक दूसरे से बिल्कुल  हटकर है। अधिकांश पौराणिक ग्रंथों का या पुराणों के सबसे पुरातन भाग की रचना भी उत्तर वैदिक काल के भिन्न-भिन्न काल-खंडों में ऋग्वेद के नए मंडलों के साथ-साथ ही शुरू हो गयी होगी। पूजा-पाठ में प्रयोग होने के कारण ऋग्वेद की ऋचाएँ अपने मौलिक और शुद्धतम स्वरूप को क़ायम रखने में सफल हो गयीं जबकि अन्य ग्रंथों को यह कामयाबी नहीं मिली। इसी कारण नए मंडल भी भाषा के पुराने आवरण में ही बँधे रहे, जबकि बाक़ी ग्रंथों की भाषा में संशोधन, परिष्करण, और परिमार्जन की प्रक्रिया चलती रही।  अब इनके रचे जाने के काल-क्रम की सही-सही गणना के लिए विस्तार से इनकी जाँच-परख करनी पड़ेगी। विशेष रूप से उन तमाम खगोलीय बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा जिनकी चर्चा इन ग्रंथों में है।


ग्रंथों में उपलब्ध सामग्रियों के भौगोलिक सबूत :

क्या ऊपर वर्णित सामग्रियों के आलोक में ऐसे परिदृश्य की सर्जना सम्भव है जिसमें भारतीय आर्यों का विस्थापन ३००० ईसापूर्व में बाहर से भारत के भीतर  की ओर हो अर्थात उत्तर भारत में उनके विस्तार की दिशा पश्चिम से पूरब की ओर हो?  ऋग्वेद में मौजूद साक्ष्य तो उलटी दिशा में ही गंगा बहाते हैं।  मतलब, भारतीय आर्यों के भारत के अंदर से भारत के बाहर पूरब से पश्चिम की ओर चलने की कहानी कहते हैं।

ऋग्वेद के भौगोलिक विस्तार को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है :-



पूर्वी भाग 

यह सरस्वती नदी के पूरब की ओर, अर्थात आज के हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र हैं।

मध्य भाग 

सप्तसिंधु क्षेत्र जो सरस्वती और सिंधु के बीच का भाग है। यह मुख्य रूप से आज के पाकिस्तान के ऊपर का आधा और उससे सटे  भारत वाले पंजाब का भाग है।

पश्चिमी भाग 

यह सिंधु  और इसके पश्चिम का भाग है जो मुख्यतः अफगानिस्तान और उससे सटा पाकिस्तान का पश्चिमोत्तर भाग है।


पूर्वी भाग वाले वैदिक क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं :- 


नदियों के नाम : सरस्वती, द्रसद्वती/हरियुपिया/याव्यवती, अपय, अश्मावती, अंशुमाली, यमुना, गंगा, जाह्नवी।

जगहों के नाम : किकत, इलास्पद/इल्यास्पद (परोक्ष रूप से ‘वार-अ-पृथिव्या’, ‘नभ-पृथिव्या’)। 

पशुओं के नाम : इभा/वरण/हस्तिन/सरणी (हाथी), महिष (भैंस), ग़ौर (भारतीय बैल), मयूर (मोर), प्रस्ती (चीतल, धारीदार हिरन)।  

झील के नाम : मानस 


मध्य भाग वाले क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं : -

नदियों के नाम : सतुद्री, विपाशा, परस्नी, असिक्नि, वितस्ता, मरूद्वर्धा।

जगहों के नाम : सप्त-सैंधव ( परोक्षत: सप्त+सिंधु)।


पश्चिमी भाग की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं :-

नदियों के नाम : त्रस्तमा, सुस्रतु, अनिताभ, रस, श्वेत्य, कुभा, क्रिमु, गोमती, सरयू, महत्नु, श्वेत्यवारी, सुवत्सु, गौरी, सिंधु (सिंधु नदी), सुसोमा, आर्ज़िक्य।

जगह का नाम : गांधार।

पहाड़ों के नाम : सुसोम, अर्जिक, मुजावत।

पशुओं के नाम : ऊष्ट्र (बैक्ट्रियायी ऊँट), मथ्र (अफ़ग़ानी घोड़े), छाग (पहाड़ी बकरी), मेष (पहाड़ी भेड़), वर्स्नि (मेमना), ऊरा(बकरा), वराह/वराहु (सुअर)

झील के नाम : सर्यानवत(ती)


हम जैसा कि देख चुके हैं कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों के रचे जाने का समय ३००० ईसापूर्व से भी काफ़ी पहले का है। अब यदि भारतीय-आर्य पश्चिमोत्तर दिशा से भारत में घुसे थे और बाद में  पूरब की ओर उत्तर भारत में फैले तो उन्हें उत्तर-पश्चिम के भूगोल का ज्ञान पहले होता और पूरब के भूगोल से परिचय बाद में। फिर ऋग्वेद में भी दोनों भागों के भूगोल का वर्णन भी उसी क्रम में मिलता। लेकिन तथ्य बिल्कुल विपरीत है। ऋग्वेद को पढ़ने पर साफ़-साफ़ दिखता है कि  पुराने मंडलों के लिखे जाने के समय  भारतीय आर्य उत्तर-पश्चिम के भूगोल से बिल्कुल अनजान थे। जैसे-जैसे पुराने मंडलों से नए मंडलों की ओर बढ़ते  हैं वैसे-वैसे उनके भारत के अंदरूनी हिस्सों से पश्चिम की ओर भौगोलिक विस्तार की तस्वीर साफ़ होती  जाती है।


नदियों को छोड़कर पूरब और पश्चिम की शेष भौगोलिक विशेषताओं की तुलना :

पूरब – ऋग्वेद में नदियों को छोड़कर पूरब की बाक़ी भौगोलिक विशेषताओं के वर्णन का विवरण इस प्रकार है।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : २२ सूक्त, २३ मंत्र और २४ नाम।

संशोधित मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : ४ सूक्त, ६ मंत्र और ७ नाम।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ६९ सूक्त, ८१मंत्र और ८५ नाम। 



                  ऊपर के अध्ययनों से यह स्पष्ट दिखता है कि पूरब के भौगोलिक संदर्भों का विवरण पूरे ऋग्वेद में पुराने मंडलों से लेकर नए मंडलों तक छितराया हुआ है। हम इन्हें प्राचीनतम सूक्तों से लेकर सबसे अर्वाचीन मंत्रों तक में समान रूप से उपस्थित पाते हैं। और दूसरी बात यह है कि सिर्फ़ पूरब की इन भौगोलिक विशेषताओं की ऋग्वेद के पुराने से लेकर नए मंडलों में समवेत उपलब्धता तक ही बात सीमित नहीं है, बल्कि जिन संदर्भों में और जितनी स्पष्टता से उनका उल्लेख हुआ है, यह पूरब से उनके प्राचीन और प्रचुर परिचय की प्रगाढ़ता को प्रदर्शित करता है। इन पशुओं का उल्लेख कोई ऐसे ही हल्के में केवल नाम गिनाने के लिए नहीं कर दिया गया है, बल्कि समयुगीन लोक-परम्परा और समकालीन परिवेश में ये पशु वैदिक लोकजीवन के कितने अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग थे, इनका स्पष्ट चित्र ऋग्वेद में इन पशुओं के वर्णन से मिलता है।  उदाहरण के तौर पर मरुत के राजसी रथ को खींचने वाले दागधारी हिरन हैं। भिन्न-भिन्न देवताओं के शौर्य और शक्ति के अलंकरण के रूप में भैंसों और साँड़ों का नाम लिया गया है। यज्ञ की वेदी पर सोमरस का पान करने वाले सोम-पिपासु देवताओं की तुलना उन  प्यासे जंगली भैंसों  के उतावलेपन  से की गयी है जो अपनी प्यास बुझाने वन-सरोवर की ओर दौड़ते हैं।  इंद्र के घोड़े की पूँछ के फैले गुच्छे की उपमा  मोर के पंखों के विस्तार से की गयी है। हाथी तो वैदिक लोगों की परम्परा और संस्कृति में ऐसे घुले-मिले हैं मानों उनके परिवार के सदस्य ही हों। कहीं इंद्र की ताक़त की तुलना हाथी से की गयी है [६/१६/(१४)], कहीं जंगल की झाड़ियों को चीरकर अपनी राह बनाते गजदल का वृतांत है [१/६४/(७), १/१४०/(२)], कहीं भीषण गरमी से मतवाले हाथी के दौड़ने का दृश्य है [८/३३/(८)], कहीं शिकारियों द्वारा जंगली हाथियों के पीछा किए जाने की चर्चा है [१०/४०/(४), कहीं धनिक घर के दरवाज़े पर पालतू हाथियों के परवरिश की कहानी है [१/८४/(१७)], कहीं शक्तिशाली राजा की सवारी के रूप में सजे-धजे ऐरावत की ऐश्वर्य- महिमा है [४/४/(१), कहीं पारम्परिक उत्सवों में उनकी सहभागिता के श्लोक हैं [९/५७/(३) तो कहीं युद्ध-भूमि को प्रयाण कर रही गज-सेना का वृतांत है [६,२०,(८)]।


पश्चिम :   

अब पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों के ऋग्वेद में वर्णन के विवरण को देखें –

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।

संशोधित मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ४४ सूक्त, ५२ मंत्र और ५३ नाम।


उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से यह पता चलता है कि पुराने मंडलों में पश्चिम के भौगोलिक संदर्भ बिल्कुल ग़ायब हैं, जबकि पूरब के इन तत्वों के साथ ऐसी बात नहीं। पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों का तो पाँचवा मंडल जो ऋषिकुल द्वारा ही रचित है लेकिन सबसे अर्वाचीन है, उसमें भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ध्यान रहे पाँचवाँ मंडल बाक़ी मंडल (१, ८, ९ और १०) जो ऋषिकुल द्वारा नहीं रचे गए हैं, उनसे पहले का है। सबसे रोचक तो यह है कि गांधार से मिलता जुलता एक शब्द ‘गंधर्व’ है जो पश्चिम के पहाड़ों में सोम के स्वामी के रूप में प्रकट होता है। यह शब्द भी मात्र नए मंडलों में ही आता है, संशोधित मंडल में मात्र एक बार आया है और पुराने मंडलों में तो कभी भी नहीं आया है।



इस तरह पुराने और नए मंडलों के भौगोलिक धरातल का अंतर साफ़-साफ़ दिखायी देता है। पुराने मंडलों  का भूगोल पूरी तरह से पूरब के तत्वों से पटा हुआ है जब कि नए मंडलों के भूगोल का विस्तार पूरब से लेकर पश्चिम तक है। नदियों से इतर भौगोलिक तत्व वैसे सांस्कृतिक परिवेश की ओर संकेत करते हैं, जिनमें ऋग्वेद के सूक्तों के रचयिता पूरी तरह से रमे हुए थे। पूरब के सांस्कृतिक परिवेश इन ऋषियों के स्वभाव में ऋग्वेद की रचना के हर काल में परिलक्षित होते-से प्रतीत होते हैं। जबकि पश्चिमी तत्व बाद के मंडलों में ही दिखते हैं, पुराने और यहाँ तक कि  पाँचवे मंडल  में भी इनके कोई चिह्न नहीं दिखायी देते। सच कहें तो बाद के वे मंडल जो ऋषिकुलों में नहीं लिखे गए, उनमें ही पश्चिम के भौगोलिक तत्वों का संदर्भ आता है। 


Saturday, 12 September 2020

हम और हमारी हिंदी : लेख्य मंजूषा के मंच से।


हिंदी पखवाड़े में "लेख्य-मंजूषा" के मंच से 'हम और हमारी हिंदी' विषय पर हमारा उदबोधन। १० सितंबर 2020 को हिंदी पखवाड़े के आयोजन में  आदि काल से हिंदी की अद्यतन यात्रा पर यह चर्चा की गयी थी ।


वीडियो को यू-ट्यूब पर २ नवंबर २०२० पर डाला गया।
https://www.facebook.com/lekhymanjoosha/videos/2696514563923915/

Friday, 4 September 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(६)

(भाग - ५ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ग)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


मिती  पुरा(तात्विक)-सामग्री
अब इतनी बात मान लेते हैं कि मिती , भारतीय और ईरानी पहले एक साथ थे। फिर सबसे पहले मिती  अलग हो गए। उसके बाद भारतीय-आर्य और ईरानी भी अलग हो गए।यह भी मान लेते हैं कि मिती  संस्कृति भारतीय आर्य संस्कृति से पहले की है।तो, अगर ऐसा है तो मिती  (और साथ में अवेस्ता भी) के जो तत्व हमारे ऋग्वेद से मिलते हैं उनका यह मिलना ऋग्वेद के पुराने मंडलों के साथ ज़्यादा होना चाहिए क्योंकि  उनके अलग होने की दशा और दिशा के काल-प्रवाह के हिसाब से पुराने मंडल नए मंडलों (जो बाद में रचे गए) की अपेक्षा उनके ज़्यादा नज़दीक हैं। पुराने मंडलों  के संशोधित सूक्त और नए मंडलों की रचना के आते-आते उनके मध्य एशिया में सहवास  की स्मृतियाँ  काल-प्रवाह की लहरों में ज़्यादा धुल चुकी होंगी। लेकिन यह अत्यंत ही आश्चर्यजनक  और रोचक तथ्य है कि असलियत में जो हम पाते हैं वह बिल्कुल उलटा है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पुराने सूक्तों की लेशमात्र भी समानता हमें मिती  या अवेस्ता के साथ नहीं मिलती। पुराने मंडलों के संशोधित सूक्तों की थोड़ी बहुत समानता मिलती है और सबसे हैरतंगेज़ तथ्य यह है कि ऋग्वेद के बाद में रचे गए  नए मंडलों और उनके भी  बाद रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों  के  तो मिती  संस्कृति और अवेस्ता में समानता के प्रचुर तत्व मिलते हैं।
अब आप इन उपसर्गों  और प्रत्ययों की इस झलकी का दृश्यपान करें जो  वैदिक-मिती  नामों में अपनी तात्विक समानता का रस घोलते हैं : -अस्व-, -रथ-, -सेना-, -बंधु-, -उत-, -वसु-,  -र्त-,  -प्रिय- (प्रसिद्ध भारतविद पी ड्यूमौन्ट ने इसे खोज निकाला है), -ब्रुहद-, -सप्त-, -अभि-, -उरु-, -चित्र-, -क्षत्र-, -यम-, यमी- आदि। एक शब्द और मिला है  ‘मणिजो माला या आभूषण के अर्थ में प्रयुक्त  हुआ है।

अ१रचनाकारों के नामों के दृष्टांत  
    
ऋग्वेद में उपरोक्त उपसर्ग एवं प्रत्ययों के संयोग से बने नामों के विस्तार का ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त : १०८ सूक्त।

मंडल
             सूक्त संख्या
सूक्तों की कुल संख्या
(नया)
से , २४, २५, २६, ४६, ४७, ५२ से ६१, ८१ और  ८२
२१
(नया)
१२ से २३, १००
१३
(नया)
से , २३ से २६, ३२ से ३८, ४६, ६८, ६९, ८७, ८९, ९०, ९८ और ९९
२४
(नया)
, २७ से २९, ३२, ४१ से ४३ और ९७
१०
(नया)
१४ से २९, ३७, ४६, ४७, ५४ से ६०, ६५, ६६, ७५, १०२, १०३, ११८, १२०, १२२, १३२, १३४, १३५, १४४, १५४, १७४, और १७९
४१
उपरोक्त उपसर्ग या प्रत्यय लगे नामों के किसी एक भी रचनाकार का नाम ऋग्वेद के किसी भी पुराने मंडल में नहीं आता है।

अ२नामों के संदर्भों का दृष्टांत

रचनाकारों से इतर उपरोक्त उपसर्ग और प्रत्यय लगे अन्य  नाम औरमणिशब्द के जो संदर्भ ऋग्वेद में मिलते हैं, उनका ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , ६और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : दो सूक्त और दो मंत्र।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त: अठहत्तर सूक्त और एक सौ अट्ठाईस मंत्र।




मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम  
(संशोधित)
३३/()
/
(संशोधित)
३०/(१८)
/
(नया)
१९/(), २७/(, , ), ३३/(), ३६/(), ४४/(१०), ५२/(), ६१/(,१०), ७९/(), ८१/(
१२/१२
(नया)
३३/(), ३५/(), ३६/(१०, ११, १७, १८), ३८/(), ४५/(, ), ८३/(५०, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५, २०), ११६/(, , १६), ११७/(१७, १८), १२२/(, १३, १४), १३९/(), १६३/(), १६४/(४६)
१४
२६/२६
(नया)
/(३०, ३०, ३२), /(३७, ४०), /(१६), /(२०), (२५), /(४५), /(१८, २०), (१०), २१(१७, १८), २३/(१६,२३,२४), २४/(१४, १२, २३, २८, २९), २६/(, ११), ३२/(३०), ३३/(), ३४/(१६), ३५/(१९, २०, २१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४६/(२१, २३), ४९/(), ५१/(, ), ६८/(१५, १६), ६९/(, १८), ८६/(१७), ८७/()
२४
४२/४४
(नया)
४३/(), ६५/()
/
१० (नया)
१०/(, , १३, १४), १२(), १३(), १४/(, , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(), १८/(१३), २१/(), ३३/(), ४७/(), ४९/(), ५१/(), ५२/(), ५८/(), ५९/(), ६०/(, १०), ६१/(२६), ६४/(),७३/(११), ८०/(), ९२/(११), ९७/(१६), ९८/(, , ), १२३/(), १३२/(, ), १३५/(१७), १५४/(, ), १६५/()
२९
४६/४७


पुराने मंडल के मात्र दो संशोधित सूक्तों में ऐसा संदर्भ देखने को मिलता है।
ऊपर के तथ्यों में किसी भी तरह के भ्रम या संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है और अब यह शीशे की तरह बिल्कुल साफ है कि ऋग्वेद और मिती , दोनों ग्रंथों या संस्कृतियों में पाये  जानेवाले  एक समान तत्व या संदर्भ  ऋग्वेद के पूर्व के किसी ऐसे कपोलकल्पित काल में मध्य एशिया की वह सौग़ात नहीं थी जो भारतीय आर्यों को भारतमें घुसनेसे पहले मिली थी। वे ऋग्वेद के बाद के उस काल की उपज हैं जब ऋग्वेद के ही नए मंडलों की ऋचाएँ रची जा रही थी।

– ‘अवेस्ताग्रंथ में उपलब्ध सामग्री

सांस्कृतिक तत्वों की यह एकरूपता केवल वैदिक-मिती  संस्कृति की ही बात नहीं है, प्रत्युत यह वैदिक-मिती-ईरानी लोगों की सांस्कृतिक साझेदारी का प्रकट तत्व है। मसलन, हम अवेस्ता में वर्णित नामों या नामसूचक शब्दों की पड़ताल कर सकते हैं इस बात को परखने के लिए कि ऋग्वेद के नए मंडलों की कितनी छाप  बाद में पनपने  और पसरने वाली  वैदिक संस्कृति पर पड़ी और  इस बात का सीधा  गवाह  ईरान भी है। अवेस्ता की सामग्रियों का आकार मिती  सामग्रियों की तुलना में केवल अपार है, बल्कि बाद में रचित वेदों के मंडलों से शब्दों के साथ-साथ छंदों की एकरूपता के तत्व भी  उसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। पहले बताए गए वैसे उपसर्ग और प्रत्यय जो वेदों के समान मिती  संस्कृति में पाए जाते हैं उनसे भी ज़्यादा ऐसे नामों  और नामसूचक उपसर्ग और प्रत्ययों की अवेस्ता में भरमार है। ‘-अश्व-‘, ‘-रथ-‘, ‘मा-‘, ‘-चित्र-‘, ‘-प्रस-‘, ‘-अयन-‘, ‘-द्वि-‘, ‘-अस्त-‘, ‘-अंति-‘, ‘-ऊर्ध्व-‘, ‘-ऋजु-‘, ‘-सम-‘, ‘-स्वर-‘, ‘-मानस-‘, ‘-सवस-‘, ‘-स्तुत-‘, ‘-सुर-‘, ‘-नर-‘, ‘-विदद-‘, ‘-नर-‘, ‘-प्रसाद-‘, ‘-पृथु-‘, ‘-जरत-‘, ‘-माया-‘, ‘-हरि-‘, ‘-सृत-‘, ‘-स्यव-‘, ‘-तोष-‘, ‘-तनु-‘, ‘-मंत-‘, क्रतु-‘ आदि उपसर्ग और प्रत्ययों के प्रयोग से सजे नामों की अवेस्ता में एक लम्बी सूची है।  कुछ तो ऐसे नाम अवेस्ता में हैं जो हू--हू ऋग्वेद  के उन नए मंडलों से लिए गए प्रतीत होते हैं,  जो बाद में रचे गए थे। जैसेघोड़ा, अपत्या, अथर्व, उसिनर, अवस्यु, बुध, रक्ष, गंधर्व, गया, समाया, कृपा, कृष्ण, मायाव, सास, त्रैतन, उरक्ष्य, नाभानेदिष्ट, वर्षणी, वैवस्वत, विराट आदि। ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्द अवेस्ता में शब्दों के साथ-साथ नामों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हुए हैं और ऋग्वेद के कुछ नाम अवेस्ता में मात्र शब्दों के तौर पर भी प्रयोग में लाए गए हैं। ऐसे शब्दों में उदाहरण के तौर परप्राण’, ‘कुम्भजैसे शब्द और कुछ जानवरों के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अलावा हौपकिंस जैसे पुराने भारतविद और लुबोत्सकी एवं विजेल जैसे आधुनिक भारतशास्त्रियों ने ऐसे प्रचुर शब्दों को चिन्हित कर लिया है जिनके तत्व भारतीय आर्य और ईरानी भाषा-शाखाओं से मिलते  हैं और अन्य भाषाओं से इनका साम्य दूर-दूर तक नहीं बैठता। यथाकद्रु, तिस्य, फल, सप्तर्षि, स्तक, स्त्री, क्षीर, उदर, स्तन, कपोत, वृक, शनै:, भंग, द्वीप आदि।
- रचनाकारों के नाम
ऋग्वेद की  रचनाओं के नाम में प्रयुक्त उपसर्ग और प्रत्ययों से अवेस्ता की समानता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है :
१-      मंडल , , , और के पुराने सूक्तकोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
२-     मंडल , , , और के संशोधित सूक्तएक सूक्त और तीन मंत्र (अठारह मंत्रों में अंतिम तीन मंत्र)
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त३०९ सूक्त और ३३८९ मंत्र।

मंडल
             सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र
(संशोधित)
३६/(१६, १७, १८)
(नया)
, -, , १०, २०, २४-२६, ३१, ३३-३६, ४४, ४६-४९, ५२-६२, ६७, ६८, ७३-७५, ८१, ८२
३९
३६२
(नया)
१२-३०, ३६-४३, ४४-५०, ९९, १००, १०५, ११६-१३९
६१
७१०
(नया)
-, १०, १४, १५, २३-३८, ४३-५१, ५३, ५५-५८, ६२, ६८, ६९, ७५, ८०, ८५-८७, ८९, ९०, ९२, ९७-९९
५२
८७८
(नया)
, , -२४, २७-२९, ३२-३६, ४१-४३, ५३-६०, ६३, ६४, ६८, ७२, ८०-८२, ९१, ९२, ९४, ९५, ९७, ९९-१०३, १११, ११३, ११४
६२
५४७
१०
(नया)
-१०, १३-१९, ३७, ४२-४७, ५४-६६, ७२, ७५-७८, ९०, ९६-९८, १०१-१०४, १०६, १०९, १११-११५, ११८, १२०, १२२, १२८, १३०, १३२, १३४, १३५, १३७, १३९, १४४, १४७, १४८, १५१, १५२, १५४, १५७, १६३, १६६, १६८, १७०, १७२, १७४, १७५, १७९, १८६, १८८, १९१
९५
८९२
  
पुराने मंडल में ऐसे दृष्टांत मात्र तीसरे मंडल के ३६वें सूक्त में दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ अठारह मंत्रों के अंतिम तीन (मंत्र संख्या १६, १७, और १८) में ऐसा हुआ है। यह ऐतरेय ब्राह्मण के छठे मंडल के अठारहवें सूक्त से संबद्ध ऋग्वेद के तीसरे मंडल (पुराने) में किया गया संशोधन है।




- सूक्तों के अंदर के दृष्टांत :

ऋग्वेद और अवेस्ता के सूक्तों  में  प्रयुक्त उपसर्गों और प्रत्ययों की भारतीय-ईरानी तात्विक समानता और समरूपता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है:
१-     मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।
२-      मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : १४ सूक्त और २० मंत्र।
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त : २२५ सूक्त और ४३४ मंत्र।

मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम
(संशोधित)
१५/(१७), १६/(१३, १४), ४७/(२४)
/
(संशोधित)
३८/(), ५३/(२१)
/
(संशोधित)
३३/(, १२, १३), ५५/(, ), ५९/(१२), १०४/(२४)
/
(संशोधित)
३०/(, १८), ३७/(), ५७/(, )
/
(संशोधित)
३२/(), ४१/(, १२)
/
(नया)
१०/(, ), १८/(), १९(, ), २७(, , , ), ३०/(, १२, १४), ३१(१०), ३३(, १०), ३४(), ३५(), ३६(, ), ४१(, ), ४४(, १०, १०, १०, ११, ११,  १२, १२), ४५/(११), ५२/()५३/(१३), ५४/(१३), ६१/(, , , १०, १८, १९), ६२/(, , ), ६४/(), ७४/(), ७५/(), ७९/(), ८१()
२३
४२/४७
(नया)
(), १०/(), १८/(),२२/(१४), २३/(२२), २४/(१२, १३), २५/(१५), ३०/(,), ३३/(, १४, १५)३५/ (), ३६(१०,१०, १०, ११, १७, १७, १८), ३८(), ३९(), ४२(), ४३/(, ), ४४/(), ४५/(, , , ), ५१/(, , १३), ५२/(), ५९/(), ६१(), ६६(), ८०/(१६), ८३/(, ), ८८/(, ), ९१/(), १००/(१६,१७), १०४/(), ११२/(,, १०, १०, ११, १२, १५, १५, १५, १९, २०, २३, २३), ११४/(), ११६/(, , , , १२, १६, १६, २०, २१, २३), ११७/(, , , १७, १७, १८, १८, २०, २२, २४), ११९/(), १२१/(११), १२२/(, , , , १३, १४), १२५/(), १२६/(), १३८/(), १३९/(), १४०/(), १५८/(), १६२/(, , १०, १०, १५), १६३/(, ), १६४/(, १६, ४६), १६७/(, , ), १६९/(), १८७/(१०), १८८/(), १९०/(), १९१/(१६)
५०
९५/११३
(नया)
/(११/३०, ३०, ३२), /(, , ३७, ३८, ४०, ४०, ४१), /(, १०, १२, १२, १२, १६), /(, , , १९, २०), /(२५, २५, ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७), २०/(), २१/(१७, १८), २३/(, १६, २३, २४, २४, २८), २४/(, १४, १८, २२, २३, २८, २८, २९), २५/(, २२), २६/(, , ११), २७/(१९), ३२(, , ३०), ३३/(, १७), ३४/(, १६), ३५/(१९,२०,२१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४५/(, ११, २६, ३०), ४६/(२१, २१, २१, २२, २४, २४, ३१, ३३), ४७/(१३, १४, १५, १६, १७), ४९/(), ५०/(), ५१/(, , , , , , ), ५२/(, , , , ), ५४/(, , , ), ५५/() ५६/(२। ), ५९/(), ६२/(१०), ६६/(), ६८/(१०, १५, १५, १६, १६, १७), ६९/(, १८), ७०/(, ), ७१/(, १४), ७४/(, , १३, १३, १३), ७५/(), ७७/(, , १०, १०), ८०/(), ८५/(, ), ८७/(), ९१/(, ),  ९२/(, २५), ९३/(), ९७/(१२), ९८/(), १०३/()     
५५
१२८/१५७
(नया)
/(), ११/(, ), ४३/(), ५८/(), ६१/(१३), ६५/(), ६७/(३२), ८३/(), ८५/(१२), ८६/(३६, ४७), ९६/(१८), ९७/(, १७, ३८), ९८/(१२), ९९/(), १०७/(११), ११२/(), ११३/(, ), ११४/()
१८
२३/२३
१०
(नया)
/(), /(), १०/(, , , , १४), ११/(), १२/(), १३/(), १४/(, , , , , , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(, , , ), १८/(१३, १३), २०/(१०), २१/(, ), २३/(, ), २४/(), २७/(, १०, १७), २८/(), ३१(११), ३३/(), ३४/(, ११), ३९/(), ४७/(, ), ४८/(), ४९/(, ), ५१/(), ५२/(), ५५/(), ५८/(, ), ५९/(, , १०), ६०/(, , १०, १०, १०,), ६१/(१३, १७, १८, २१, २६), ६२/(), ६३/(१७), ६४/(, , , १६, १७), ६५/(१२, १२), ६७/(), ७२/(, ), ७३/(११), ८०/(), ८२/(), ८५/(, , ३७, ३७, ४०, ४१), ८६/(, , २३, २३), ८७/(१२, १६), ८९/(), ९०(, १३), ९१/(१४), ९२/(१०, ११), ९३/(१४, १५, १५), ९४/(१३), ९५/(, १५), ९६/(, , ), ९७/(१६), ९८/(, , , , , ), ९९/(, ११), १०१(), १०३/(), १०५/(), १०६/(, ), १०९/(), ११५/(, ), १२०/(, ), १२३/(, , ), १२४/(), १२९/(), १३०/(), १३२/(, ), १३५/(, ), १३६/(), १३९/(, ), १४६/(), १४८/(), १५०/(), १५४/(, ), १५९/(), १६४/(), १६५/(, , , , , ), १६६/(), १७७/(), १८९/()     
७९
१४६/१६०

पुराने मंडलों के मात्र चौदह संशोधित सूक्तों में ही समरूपता के ये तत्व पाए गए हैं।


ब३अष्टवर्णी या अष्टमातृक छंद

वेद और अवेस्ता दोनों में छंद-योजना को लेकर एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों में आठ वर्णों या मात्राओं वाले छंद विधान का प्रयोग हुआ है।  ऋग्वेद के पुराने मंडलों के आठ-आठ वर्णों के तीन पद वाले गायत्री छंद (++) और चार चरणों वाले अनुष्टुप छंद (+++) के प्रयोग को छोड़कर बाक़ी नए मंडलों और अवेस्ता में पंक्ति (++++), महापंक्ति (+ ++ ++) और शक्वरी (++++++) छंदों की समानता मिलती है। इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:
१-     पुराने मंडल , , , और के सूक्त: कोई सूक्त और कोई मंत्र नहीं।
२-     पुराने मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : एक सूक्त और एक मंत्र।
३-      नए मंडल , , , और दस के नए सूक्त : पचास सूक्त और दो सौ पचपन मंत्र।

मंडल
          सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल मंत्र
(संशोधित)
७५/(१७)
(नया)
/( से १०), /(१०), /(, ), १०/(, ), १६/(), १७/(), १८/(), २०/(), २१/(), २२/(), २३/(), ३५/(), ३९/(), ५०/(), ५२/(, १६, १७)६४/(), ६५/(), ७५/( से ), ७९/( से १०)
४९
(नया)
२९/( से ), ८०/( से १६), ८१/( से ), ८२/( से ), ८४/(१० से १२), १०५/( से और से १८), १९१/(१० से १२)
६०
(नया)
१९/(३७), ३१/(१५ से १८), ३५/(२२, २४), ३६/( से ), ३७/( से ), ३९/( से १०), ४०/( से ११), ४१/( से १०), ४६/(२१, २४, ३२), ४७/( से १८), ५६/(), ६२/( से और १० से १२), ६९/(११, १६), ९१/( और )
८६
(नया)
११२/( से ), ११३/( से ११), ११४/( से )
१९

१०
(नया)
५९/(, ), ६०/(, ), ८६/( से २३), १३३/( से ), १३४/( से ), १४५/(६०, १६४/(), १६६/()
४१
  
पाँच पुराने मंडलों में मात्र एक छठा मंडल है जिसमें काफ़ी बाद का बस एक ही संशोधित सूक्त है जो अपने छंद-शिल्प में अवेस्ता से मिलता है।
कुल मिलाकर ऋग्वेद से अवेस्ता और मिती  ग्रंथों के सांस्कृतिक तत्वों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि
क-    ऋग्वेद के पुराने पाँच मंडलों के २८० सूक्तों के २३५१ मंत्रों में इनसे समानता के तत्व का लेशमात्र भी नहीं है।
ख-    पुराने मंडल के ६२ ऐसे सूक्त जो नए मंडलों के रचनाकाल में संशोधित हुए, उनके ८९० संशोधित मंत्रों में समानता के छिटपुट तत्व मिलते हैं और
ग-     बाद में सृजित पाँच नए मंडलों के ६८६ नए सूक्तों के ७३११ नए मंत्रों और उसी काल में या बाद में रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों या संस्कृत साहित्य में समानता के तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

सारांश रूप में कहें तो नए मंडलों में हुए संशोधनों को भटकाव मानते हुए भी पुराने मंडलों के साथ ऊपर विस्तार में दिए गए विवरणों का एकपक्षीय स्वरूप जो उभरता है वह इस प्रकार है :

सम्पूर्ण ऋग्वेद के समस्त मंडलों में रचनाकारों
के नाम, अन्य नाम और छंद विधान की मिती  ग्रंथ और अवेस्ता के साथ तात्विक तुलना (* पुराने मंडल के संशोधित सूक्तों और मंत्रों को छोड़कर)
पुराने मंडल
(, , , , )
सूक्तों की संख्या
पुराने मंडल
(, , , , )
मंत्रों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
सूक्तों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
मंत्रों  की संख्या
सम्पूर्ण ऋग्वेद *
२८०
२३५१
६८६
७३११
रचनाकारों के नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
३०९
३३८९
अन्य संदर्भों में नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
२२५
४३४
छंद- विधान के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
५०
२५५

ऋग्वेद के नए मंडलों की मिती  ग्रंथों और ईरानी अवेस्ता के साथ ऊपर वर्णित तात्विक समानता हमें ऋग्वेद की रचना के काल में झाँकने की एक वैज्ञानिक दृष्टि देती है।

सीरिया और इराक़ के भूभाग में मिती  साम्राज्य का उदय ईसा से क़रीब १५०० साल पहले के आसपास हुआ था। किंतु जो भी दर्ज सबूत हासिल हैं उनसे यही मालूम होता है कि अपनी साम्राज्य-स्थापना से लगभग दो सौ से भी अधिक वर्षों पहले वे पश्चिमी एशिया में रहते थे। साथ ही १७५० ईसा पूर्व के आसपास बेबिलोन (इराक़) में मिती  लोगों के समान ही कासाइट  लोगों की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है। इन, कासाइट लोगों, के राजा का नामअधिरथ’ (‘-रथ-‘ प्रत्यय लगा हुआ) था।  यह मिती  लोगों में बाद के दिनों में प्रचलित नामों में हुआ करता था।

   ईसापूर्व १८वीं सदी में सीरिया-इराक़ के इलाक़े में जीवन यापन कर रहे मिती  और कासाइट लोगों की ज़िंदगी में ऋग्वेद के नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों के पाए जाने के बाद से ऋग्वेद का रचनाकाल और काफ़ी पीछे की ओर खिसक जा रहा है। ग़ौरतलब है कि मिती  और कासाइट, दोनों की भाषा अभारोपिय भाषा थी। विजेल (२००५:३६१) ने मिती  लोगों की भाषा में उपस्थित भारतीय-आर्य तत्वों का अध्ययन किया है और उन तत्वों के वर्गीकरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि असल में ये तत्व मिती  लोगों द्वारा काफ़ी पहले अतीत में बोली जाने वाली हुर्राइट भाषा के भारतीय-आर्य तत्वों के अवशेष थे। जे पी मेलोरी (१९८९:४२) ने तो इसे एक मरी हुई हुर्रियन भाषा के अंदर से निकलती वह जीवित आवाज़ बताया है जो हमें इतिहास की यह आहट सुनाती है कि सहजीविता की सदियों लम्बी प्रक्रिया की यात्रा तय करने के बाद मिती  भाषा अपने वजूद में आयी होगी। चाहे हम अपने आकलन में  कितनी भी अतिरिक्त सतर्कता बरत लें इतना तो पक्का ही है कि १८०० ईसा पूर्व में ये वैदिक तत्व कम-से-कम पश्चिमी एशिया में तो विद्यमान थे ही।

अब इसमें तो कोई विवाद नहीं कि ऋग्वेद के पुराने मंडल से लेकर नए मंडल तक संस्कृति  की एक ही विराट धारा का अनवरत प्रवाह हुआ है और सच कहें तो अपने नैरंतर्य के तत्व में उसका प्रवाह अद्यतन अछूता ही रहा है। यही सांस्कृतिक निरंतरता उसकी मूल पहचान है। अतः, नए मंडलों में आने वाले नवीन तत्व ऋग्वेद की रचना के भूभाग में पुराने मंडलों (, , , , ) की रचनाकाल से लेकर नए मंडलों (, , , , १०) के रचे जाने के काल तक के सांस्कृतिक विकास  के  निरंतर प्रवाह से निष्पन्न लहरियाँ  हैं। और, तय है कि नए मंडलों के रचना काल में तरंगायित इन सांस्कृतिक लहरियों ने अपने समकालीन भूभाग के एक बड़े विस्तार को भिगोया होगा जिसके तत्व हमें मिती  संस्कृति या अवेस्ता-ग्रंथ के सांस्कृतिक तत्वों की समरूपता में दिखायी दे रहे हैं।  अब ऋग्वेद के भूगोल को भी याद कर लें। इस भौगोलिक वितान का विस्तार पूरब में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान के पूरबी किनारे को छूता था और यहीं वह क्षेत्र है जहाँ से निकलकर  मिती  लोगों के भारतीय-आर्य पूर्वज और अवेस्ता रचने वालों के ईरानी पूर्वज अपनी संस्कृति और विरासत को अपने माथे पर  ढोते अपना  इतिहास रचने अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर बस गए थे।

अब यदि पश्चिमी एशिया अर्थात सीरिया-इराक़ के इलाक़े में १८०० ईसापूर्व के इन  मितानियों के संस्कृति-तत्व अपने भारतीय-आर्य पूर्वजों की संस्कृति केअवशेषयाबचे-खुचे अंशथे, तो उन पूर्वजों का पश्चिम एशिया में कम-से-कम २००० ईसापूर्व तक तो रहना तय है।  इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि  ऋग्वेद की भूमि से निकलकर वे पूर्वज उससे भी कई सदियों पूर्व पश्चिमी एशिया में आकर बस गए थे और ऋग्वेद के तत्कालीन रचित नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों को अपने साथ सहेजकर लेते गए थे। यह काल किसी भी तर्क की कसौटी पर ईसा से तीसरी सदी पूर्व का ही ठहरता है।

जिस संस्कृति को ये पूर्वज अपने साथ पश्चिम एशिया में लेकर गए, वह ऋग्वेद की भूमि पर पूरी तरह से विकसित और खिला हुआ संस्कृति-कुसुम था जिसकी सुरभि आगे कई सदियों तक केवल पश्चिमी एशिया बल्कि उससे मिती  साम्राज्य और अवेस्ता की ईरानी भूमि की ओर बहकर जाने वाली हवाओं  में भी घुलकर उस समस्त भूभाग को आने वाली कई सदियों तक सुवासित करती रही। इस आधार पर ऋग्वेद के नए मंडलों से खिलने वाले इस संस्कृति-कुसुम का काल कम-से-कम २५०० ईसापूर्व के पास तो जाकर ठहरता ही है या उससे भी पीछे यदि चला जाय तो कोई चौंकने की बात नहीं।

अब ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ज़रा बात कर लें। रचना काल के आधार पर इन मंडलों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे पुराने मंडल (, और ) कोसबसे पुरातन कालके और मंडल ( और ) कोबाद के पुरातन कालयामध्य-पुरातन कालका कह सकते हैं। इन दोनों कालों की रचनाओं में नये  मंडलों की रचनाओं के सांस्कृतिक तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित दिखते हैं। अतः इनकी रचनाओं का काल निश्चित तौर पर २५०० ईसापूर्व से काफ़ी पीछे जाएगा और किसी भी स्थिति में यह ३००० ईसापूर्व के बाद का तो हो ही नहीं सकता।

कालक्रम की इस गणना की वैज्ञानिकता को इस बात से भी बल मिलता है कि तीसरी सदी ईसापूर्व के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसे तकनीकी खोजों और प्राद्यौगिक ईजादों का हवाला मिलता है जिसका उल्लेख ऋग्वेद के नए मंडलों में तो है लेकिन पुराने मंडलों में उनका कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है।

उसी काल में मध्य एशिया के आसपास  आरेदार पहिए की खोज हुआ मानते हैं। उसी तरह विजेल ने यह प्रमाण इकट्ठा किया है कि बैक्ट्रियायी ऊँटों को मध्य एशिया में पालतू बनाए जाने का भी समय वही तीसरी सदी ईसापूर्व का अपराह्न काल है। आरेदार पहियों और पालतू ऊँटों की चर्चा ऋग्वेद के बाद के मंडलों में पाए जाने का दृष्टांत इस प्रकार है :

मंडल
सूक्त-संख्या/(मंत्र-संख्या)
(नया)
१३/(), ५८/(
(नया)
३२/(१५), १४१/(), १३८/(), १६४/(११, १२, १३, ४८)
(नया)
/(३७), /(४८), २०/(१४), ४६/(२२, ३१), ७७/()
१०(नया)
७८/()

ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा से लेकर अफगनिस्तान की  पूर्वी सीमा को छूती भूमि तक फैले विस्तृत भूभाग में ३००० साल ईसापूर्व रचे जाने के इस तथ्योद्घाटन से अब दो बड़े ज़रूरी सवाल उभरते हैं।
पहला सवाल तो यह कि  ३००० वर्ष ईसा पूर्व या इसके आसपास का यही काल है जब उस समय यहाँ पर विकसित सभ्यता की पुरातात्विक पहचान की गयी है, जिसे हमसिंधु-घाटी सभ्यतायाहड़प्पा-सभ्यताया अबसिंधु-सरस्वती सभ्यताके नाम से जानते हैं।
और दूसरा सवाल यह कि भाषायी खोजों से प्राप्त सबूत इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं की बारहों शाखाओं को बोलने वाली जनजातियाँभारोपीय भाषाओं की जन्मभूमियाप्राक-भारोपीय-भाषा की अपनी मातृभूमिमें ३००० वर्ष ईसापूर्व तक साथ-साथ रहती थीं। तो, क्या यह मान  लिया जाय कि  समस्त भारोपीय भाषाओं की जननी और जन्मभूमि उत्तर भारत की यहीं भूमि है!