Saturday 25 January 2014

डायरी

डायरी लिखने की परम्परा मेरे स्वभाव में शुमार नहीं है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की व्यवस्था का मैं कोई विरोधी हूँ. भरसक तथ्य तो यह है कि लिखने पढ़ने को मेरा मन सदा आकुल व्याकुल रहता है, किंतु निद्रा, तंद्रा और आलस्य इन तीनो ने मेरी दिनचर्या को ऐसे दबोच रखा है कि नित नित नवोदित नयी नयी सोच अंदर ही अंदर दम तोड़ देती है. बरसों से शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब हमने यह नहीं सोचा, प्रत्युत प्रण न किया हो, कि आज के विचारों को पन्नों पर लीप दूंगा. विचार भी बड़े प्रासंगिक और सार्गर्भित. शायद पृष्ठों पर अवतरित होते तो एक गाथा का रुप ले लेते. किंतु आलस के सामने सब कुछ नत मस्तक. आज सोचा कि पढ़ने लिखने की आदत डालूँ.
              आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध्  दिवस है. वृद्ध समाज की विरासत होते हैं. शाम में अपने जीवन शतक की ओर अग्रसर अपने बाबा से बात की. आज मैंने भी वृद्धावस्था का स्वाद चखा. मेरे दाँत डॉक्टर ने उखाड़ लिये. आंशिक रुप से ही सही, दंतहीन हो गया मैं. विषरहित, विनीत और सरल तो मैं, स्वभावतः न विवशता में ही सही, हूँ. दिनकरजी ने लिखा है:
          “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
          उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो.”
तो, क्षमादान की मेरी क्षमता का क्षरण हो गया. कल दो अक्टुबर है. गांधीजी का जन्मदिन. निहत्था, विनीत, सरल, गरलहीन और दंतहीन भी. किंतु,हाथ में ऐसा हथियार जिससे संसार की सर्वोच्च शक्तिमान सत्ता भी सटक गयी. क्षमा का हथियार, अहिंसा का अस्त्र. धन रहते भी धन न देनेवाला से महान  है वह धनहीन जो अपना सर्वस्व समर्पित करनेको उद्धत रहता है. इसीलिए शायद गांधी महात्मा हैं. अहिंसा और क्षमा बाह्य
बेबसी के बीज से बढ़े वृक्ष नहीं हैं. ये तो आत्मिक सबलता और आंतरिक सोंदर्य से अंकुरित कल्पतरु हैं, जिसकी छाया तले भटके पथिक को जीवन के शाश्वत सत्य के दर्शन होते हैं.
              बस, अभी इतना ही. सरस्वती अपनी वीणा की ज्ञान रागिनी से मन को झंकृत कर रही हैं. बुद्धि का अलख जगा रही हैं. किंतु, यह  मूढ़ मन आलस्य का भला अनावरण क्यों करे.
                                      --------------विश्वमोहन
                                       (1 अक्टुबर २०१०)


अयोध्या पर ऊच्च न्यायालय लख्ननऊ बेंच का फैसला



लखनऊ खंडपीठ के निर्णय पर राजीव धवन की टिप्पणी पढ़ी. उन्होने फैसले की आलोचना की – “ न्याय का आधार आस्था नहीं हो सकता.” किंतु, जिस आस्था का आधार न्याय हो भला वह आस्था न्याय का आधार क्यों नहीं बन सकती. न्याय-दर्शन (jurisprudence) में केल्सन ने ग्रंड्नौर्म की बात की. सर्वोच्च शिखर पर आसीन ग्रंड्नौर्म आस्था की पराकाष्ठा ही तो है. वही सारी शक्तियों का उद्भव है. राज्य की सारी शक्तियों का आधार वहीं है. उसकी अवस्था या सत्यता का कोई जस्टिफिकेशन नहीं. वही सर्वोच्च आधार है जिसमें न्याय के सारे सिद्धांत अपनी जड़ों को पाते हैं.
              जनमानस की आस्था राम मे इसलिए नहीं थी कि वह राजपुत्र थे. प्रत्युत वह मर्यादा पुरुषोत्तम थे. वह न्याय का आधार थे. उन्होने न्याय की प्रतिष्ठा की. केल्सन के दर्शन मे वह न्याय के ग्रंडनौर्म थे. मेरा मतलब इससे नहीं है कि खंडपीठ की व्यवस्था गलत है या सही? अखिर भारतीय जनमानस की न्यायपालिका में गहरी आस्था ही तो वह आधार है, जिसके बुते जनता ने इस निर्णय को सर हाथों चुमा. और, संभवतः न्याय तंत्र में गहरी आस्था ही वह आधार है जिसने राजीव धवन को आलोचना का अधिकार दिया. इसलिए धवनजी की आलोचना  थोथी और बेदम दलील मात्र प्रतीत होती है.
                                                                                                -------------विश्वमोहन



Truth,

The Incarnates come,
And the Demons go.
Past, slides the Present,
And make the Future flow.
On the scars of deminishing Evils,
The resplendence of Divinity glows.
It is the the trimphant Truth,
and the Truth alone, which grows and ever grows



Monday 20 January 2014

मन . दिल और आत्मा

मनुष्य   मनुष्य की आदत है कि बिना पढ़े वह बहुत कुछ लिख जाता हैऔर बिना लिखे 
       बहुत कुछ पढ़ भी जाता है. वस्तुतः जीवन को देखना जीवन को पढ़ना है और
       जीवन को जीना जीवन को लिखना है. जीवन को देखते हुए जीना और जीते हुए
       देखना ही सार्थक जीना है. मन का काम है- पढ़ना, दिल का काम है- लिखना.
       जब मन और दिल सायुज्य में शनैः शनैः साथ-साथ सरकते हैं, तो चैतन्य के 
       चिन्मय संगीत में कृष्ण का योगस्थः कुरु कर्मणि अपने सत्य स्वरुप में 
       साकार होता है.
मन और दिल का संतुलन मनुष्य के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य की कुंजी है. तभी जीवन को सार्थक गति मिलती है. प्रवहमान धारा से ही कलकल-छलछल का नाद निकलता है. यदि स्थिर जल से ऐसा स्वर निकले तो फिर यही समझा जाये कि उसकी गहरी छाती से असंतोष के बुलबुले निकल रहे हैं. मंद मंद डोलती पत्तियाँ और बहता पवनदोनों एक दूसरे से पृथक नहीं होते. वायु के वेग में पत्तियों की थिरकन है, और पत्तियों के सुरीले सर्र सर्र स्वर में पवन के प्रचंड आवेग का अनुमान. बिना पवन के यदि पत्तियां डोले तो फिर पेड़ को कोई झकझोर रहा है. मन पवन है, दिल पत्ता है और पेड़ जीवन.
तुलसीदास ने प्राकृतिक उपादानों के संतुलन से सृजित जीवन की ओर संकेत किया-
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंच तत्व रचित अधम शरीरा
प्रकृति के पंच तत्वों का संतुलित सम्मिश्रण एक भौतिक अस्तित्व का कारण है. मन और दिल तज्जन्य चेतना के अंतर्भुत कारक हैं. ये कारक भीतरी स्तर पर सक्रिय होते हैं. ये ऐसे भीतरी तत्व हैं, जो बाहरी स्वरूप को आवरण देते हैं. इनका रंग इनके बाहरी आवरण को रंग देता है. कबीर ठीक बोले-
मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा
कपड़े पर मन का रंग जरूर चढ जाता है. फगुआ में यदि वासंती बयार सनसनाती है तो मन की मस्तानी में ही. मन अगर रुग्ण हो और दिल थका हो तो फगुआ का गीत अपनी लय नहीं पकड़्ता.
शारीरिक चेतना की अभिव्यक्ति का स्रोत मन और दिल है, तो मन और दिल की चेतना का उत्सआत्मा. आत्मा को समझना बड़ा गुढ़ है.
आत्मा को समझ लेना खुद को जान लेना है. बड़े-बड़े  ज्ञानियों ने आत्मा को जानने के लिए बड़े-बड़े यत्न किये हैं.कौन कहां तक पहुंचा, वहीं जान सका.जो जितनी दूर पहुंचा, उसे उतनी ही और दूर जाने की आवश्यकता मह्सूस हुई. जितनी लंबी यात्रा, उतनी ही अपूर्ण. ठीक उसके उलट, जो जितना कम चला, उसे पूर्णता का उतना प्रबल आभास हुआ.बड़ी विडंबना है- इस नुभू जीवन में.जिसने जितना जाना उसे उतनी अज्ञानता का आभास हुआ और जिसने कम जाना, ज्ञानी होने की भ्रांति उसे ही हुई.
केनोपनिषद के वाक्य अप्रासंगिक कथमपि नहीं हैं:
यस्यामतं मतं तस्य मतं यस्य वेद सः
इस भँवर से निकलकर आत्मा को जान लेना ही वस्तुतः परमात्मा का साक्षात्कार है. इस रहस्यमय ज्ञान को पाने के उपरांत ज्ञानी परमात्मामय हो जाता है. और; फिर स्वयं निर्णय लेने की पात्रता प्राप्त कर लेता है. सारथी कृष्ण अंत में अर्जून को यहीं बोलता है:

इति ज्ञानं आख्यानं गुह्यात गुह्यतमं मया
विमृश्यैतद्शेषेण  यथेच्छसि  तथा   कुरु.”
                             --------विश्वमोहन