डायरी लिखने की परम्परा मेरे स्वभाव में शुमार
नहीं है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की व्यवस्था का मैं कोई विरोधी हूँ. भरसक तथ्य तो
यह है कि लिखने पढ़ने को मेरा मन सदा आकुल व्याकुल रहता है, किंतु निद्रा, तंद्रा और आलस्य इन
तीनो ने मेरी दिनचर्या को ऐसे दबोच रखा है कि नित नित नवोदित नयी नयी सोच अंदर ही
अंदर दम तोड़ देती है. बरसों से शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब हमने यह नहीं सोचा, प्रत्युत प्रण न किया
हो, कि आज के विचारों को पन्नों पर लीप दूंगा. विचार भी बड़े प्रासंगिक और
सार्गर्भित. शायद पृष्ठों पर अवतरित होते तो एक गाथा का रुप ले लेते. किंतु आलस के
सामने सब कुछ नत मस्तक. आज सोचा कि पढ़ने लिखने की आदत डालूँ.
आज
अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध् दिवस है. वृद्ध
समाज की विरासत होते हैं. शाम में अपने जीवन शतक की ओर अग्रसर अपने बाबा से बात
की. आज मैंने भी वृद्धावस्था का स्वाद चखा. मेरे दाँत डॉक्टर ने उखाड़ लिये. आंशिक
रुप से ही सही, दंतहीन हो गया मैं. विषरहित, विनीत और सरल तो मैं, स्वभावतः न विवशता में
ही सही, हूँ. दिनकरजी ने लिखा है:
“क्षमा
शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको
क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो.”
तो, क्षमादान की मेरी क्षमता का क्षरण हो गया. कल
दो अक्टुबर है. गांधीजी का जन्मदिन. निहत्था, विनीत, सरल, गरलहीन और दंतहीन भी. किंतु,हाथ
में ऐसा हथियार जिससे संसार की सर्वोच्च शक्तिमान सत्ता भी सटक गयी. क्षमा का
हथियार, अहिंसा का अस्त्र. धन रहते भी धन न देनेवाला से महान है वह
धनहीन जो अपना सर्वस्व समर्पित करनेको उद्धत रहता है. इसीलिए शायद गांधी महात्मा
हैं. अहिंसा और क्षमा बाह्य
बेबसी के बीज से बढ़े वृक्ष नहीं हैं. ये तो
आत्मिक सबलता और आंतरिक सोंदर्य से अंकुरित कल्पतरु हैं, जिसकी छाया तले भटके
पथिक को जीवन के शाश्वत सत्य के दर्शन होते हैं.
बस, अभी इतना ही. सरस्वती
अपनी वीणा की ज्ञान रागिनी से मन को झंकृत कर रही हैं. बुद्धि का अलख जगा रही हैं.
किंतु, यह मूढ़ मन आलस्य का भला अनावरण
क्यों करे.
--------------विश्वमोहन
(1 अक्टुबर २०१०)
(1 अक्टुबर २०१०)
आपकी लेखनी की समर्थक हूँ
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका!!!
Deleteबस आप यूं ही लिखते रहें और क्या चाहिए एक अदद पाठक को!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका!!!
Deleteविश्वमोहन जी, आप 9 साल पहले बूढ़े हो गए हैं तो फिर मैं पुरातत्व शास्त्र का विषय हो गया हूँ.
ReplyDeleteवृद्ध-दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि हिंदी दिवस की ही भांति यह श्राद्ध-पक्ष के निकट आता है. साल में एक-दिन के स्थान पर इसकी अवधि 365 दिन होनी चाहिए.
अनुभव-जन्य ज्ञान अमूल्य होता है और बहुत से वरिष्ठ नागरिक इसका निस्वार्थ भाव से दान तथा प्रसार करने को तत्पर भी रहते हैं.
जी, आप तो चिरहरित पारस पीपल हैं जिसकी छाया में आते ही मन की बात सुनने को मिल जाती है।
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 2 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी, अत्यंत आभार आपका!!!
Deleteलाजवाब लिखते हैं।
ReplyDeleteबस, आपका आशीष बना रहे!
Deleteबहुत अच्छा व्यक्त किया है
ReplyDeleteजी, आभार आपका।
Deleteबहुत खूब, आदरणीय कविवर, पहले दिन डायरी भी लिखी तो विषय भी बनाया उखड़ गए दांत को , जिससे नयानवेला सत्य उद्घाटित हुआ कि दांत क्षरण से वृद्धावस्था आ जाती है। अपने आप पर हँसना निर्विवाद रूप से व्यंग विधा का सबसे सुंदर और सार्थक रूप है।
ReplyDeleteजी, आभार आपका।
Deleteनीद्रा निद्रा
ReplyDeleteआदत डालू. डालूं
सुधार लिया। अत्यंत आभार आपका।
Deleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमन
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