लखनऊ खंडपीठ के निर्णय पर राजीव धवन की
टिप्पणी पढ़ी. उन्होने फैसले की आलोचना की – “ न्याय का आधार आस्था नहीं हो सकता.”
किंतु, जिस आस्था का आधार न्याय हो भला वह आस्था न्याय का आधार क्यों नहीं बन
सकती. न्याय-दर्शन (jurisprudence) में केल्सन ने ग्रंड्नौर्म की बात की.
सर्वोच्च शिखर पर आसीन ग्रंड्नौर्म आस्था की पराकाष्ठा ही तो है. वही सारी
शक्तियों का उद्भव है. राज्य की सारी शक्तियों का आधार वहीं है. उसकी अवस्था या
सत्यता का कोई जस्टिफिकेशन नहीं. वही सर्वोच्च आधार है जिसमें न्याय के सारे
सिद्धांत अपनी जड़ों को पाते हैं.
जनमानस
की आस्था राम मे इसलिए नहीं थी कि वह राजपुत्र थे. प्रत्युत वह मर्यादा पुरुषोत्तम
थे. वह न्याय का आधार थे. उन्होने न्याय की प्रतिष्ठा की. केल्सन के दर्शन मे वह
न्याय के ग्रंडनौर्म थे. मेरा मतलब इससे नहीं है कि खंडपीठ की व्यवस्था गलत है या
सही? अखिर भारतीय जनमानस की न्यायपालिका में गहरी आस्था ही तो वह आधार है, जिसके बुते जनता ने इस
निर्णय को सर हाथों चुमा. और, संभवतः न्याय तंत्र में गहरी आस्था ही वह
आधार है जिसने राजीव धवन को आलोचना का अधिकार दिया. इसलिए धवनजी की आलोचना थोथी और बेदम दलील मात्र प्रतीत होती है.
-------------विश्वमोहन
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