Saturday 25 January 2014

मेरा भारत महान



लेखनी की ग्रीवा से प्रवाहित
क्रांति की धारा थम गयी है.

कुसंस्कारों की कपटता
कलम के गले मे अटक गयी है.

                       
                        सरकंडे का सरकना थम गया है
और अद्यतन प्रवहमान निर्झरिणी मे
जड़ता के जगहजगह थक्के जम गये हैं.

अब विचारों में क्रांति का आलोड़न नहीं
नव जागृति का कोई आंदोलन नहीं.
जहर, कपट और वाक्पटुता की त्रिगुणी हुंकार,
मानो, मानवता को निगलती दानवता की डकार.

जीसस के सलीब  के संगीत अब नहीं गुंजते,
गौतम के अहिंसा के अष्टांग गीत नहीं बजते
महावीर के शांति पलक अब नहीं खुलते
गांधीगिरी सिसकती है हिंसा के गलियारों में
खून से लाल पंजों के ताल स्वरित होते हैं
उदारवाद के नव परिभाषित नारों में .



परिवर्तन का नया मोहरा चल गया है
आंदोलन का चेहरा बदल गया है,
दिल बदलने की बात अब नहीं होती
मतलब के खातिर दल बदले जाते हैं.
भारत माता को हलाल करने से पहले
इंकलाब और जय भारती के संगीत बजाये जाते हैं.




लोकलुभावन  मंत्र और भ्रष्ट तंत्र से
लोक को पालते हैं
जनतंत्र के  नाम पर
जन का जनाजा निकालते हैं
दूषित धन, मलीन मन और
भ्रष्ट जमीर पर खद्दर आवरण.


दूसरी ओर, मैला, कुचला और फटा वसन
कोख से ही गरीबी और गुलामी को भोगता बचपन
जम्हूरियत की तपन मे तड़पता यौवन
जिंदगी की हकीकत का उपसंहार अधेड़ मन
और कर्म फल के  आध्यत्मिक जीवन दर्शन
की अर्थी पर कफन से लिपटा निस्तेज तन.
फिर भी, हर १५ अगस्त और हर गणतंत्र पर
दम भर, भारत माता की  जय और जन गण मन.

तंडुल के तिनके तिनके को तरसती मासुम जान
फिर भी दिल--जान से गरजे- मेरा भारत महान.

आज  फिर गोले गरजे, बंदुकों ने धूआं थूका
बारुदी गंधों से बोझिल हूई हवा, हाय !
धाँय, धायँ, धाँय, धाँय, धाँय, धाँय, धाँय.
सात शरीर हुए वसुधा के अंक शाय.

दो लाल जान और पांच खाकी जवान.
रंग कोई भी हो, गरीब ही हूआ कुर्बान.

अजीब दास्तान है कि जब भी
क्रांति की ऐसी घटा छाती है,
बेबसों के लहू से सिंचित धरा
उर्वरा और हरी हो जाती है.



नेता, समाजशास्त्री, बुद्धिजीवी, विचारवान
सभी बन जाते हैं, इस धरती के किसान.

फिर शुरु होती है इस उर्वरा धरा मे फसलों की कटाई,
योजना, शोधधर्मिता, समालोचना, पत्रकारिता,वैचारिक गवेषणा
 सारी विधाएं लेती है एक साथ क्रंतिकारी अँगड़ाई


अब ऐसे नहीं चलेगा.
दोनों ओर विचार मंथन हुआ है
विशेष दस्ता का गठन होगा और
सुरक्षाकर्मी मोर्चेबंदी की नयी विधा जानेंगे.
ईधर नक्सल्पंथी भी के ४७ सीधा तानेंगे.

तय हुआ है अब पांच नहीं
पूरे पांच सौ खाकी की जान लेंगे
ईधर खद्दरधारी बगुला भगत अपने
मत्स्यभोज का फिर पुख्ता इंतज़ाम करेंगे.

सुना है, दोनों कैम्प के नेताओं ने
अपनी दूकान और बड़ी करने का मंसूबा बनाया है
इसलिए दोनों ने दूसरे को ठोस बात चीत के लिये बुलाया है.

कुछ दलबदलु भी हैं जो पहले उस दूकान पर थे,
अब इस दूकान पर गये  हैं.
इन्ही के हाथ मे होगी मध्यस्थता की कमान.
इन पर दिल-- जान से कुर्बान है आला कमान.

क्योंकि इनके हाथ, आला कमान के साथ
और आला कमान के हाथ, इनके साथ

इन्हे ठेका मिला है कि बढायेंगे
अपनी अपनी दूकानों की शान.
अपनी मरघटी तांडव से चीत्कार भरेंगे
लहू से लाल निस्तब्ध श्मशान में---मेरा भारत महान.

                --------------- विश्व मोहन कुमार



डायरी

डायरी लिखने की परम्परा मेरे स्वभाव में शुमार नहीं है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की व्यवस्था का मैं कोई विरोधी हूँ. भरसक तथ्य तो यह है कि लिखने पढ़ने को मेरा मन सदा आकुल व्याकुल रहता है, किंतु निद्रा, तंद्रा और आलस्य इन तीनो ने मेरी दिनचर्या को ऐसे दबोच रखा है कि नित नित नवोदित नयी नयी सोच अंदर ही अंदर दम तोड़ देती है. बरसों से शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब हमने यह नहीं सोचा, प्रत्युत प्रण न किया हो, कि आज के विचारों को पन्नों पर लीप दूंगा. विचार भी बड़े प्रासंगिक और सार्गर्भित. शायद पृष्ठों पर अवतरित होते तो एक गाथा का रुप ले लेते. किंतु आलस के सामने सब कुछ नत मस्तक. आज सोचा कि पढ़ने लिखने की आदत डालूँ.
              आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध्  दिवस है. वृद्ध समाज की विरासत होते हैं. शाम में अपने जीवन शतक की ओर अग्रसर अपने बाबा से बात की. आज मैंने भी वृद्धावस्था का स्वाद चखा. मेरे दाँत डॉक्टर ने उखाड़ लिये. आंशिक रुप से ही सही, दंतहीन हो गया मैं. विषरहित, विनीत और सरल तो मैं, स्वभावतः न विवशता में ही सही, हूँ. दिनकरजी ने लिखा है:
          “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
          उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो.”
तो, क्षमादान की मेरी क्षमता का क्षरण हो गया. कल दो अक्टुबर है. गांधीजी का जन्मदिन. निहत्था, विनीत, सरल, गरलहीन और दंतहीन भी. किंतु,हाथ में ऐसा हथियार जिससे संसार की सर्वोच्च शक्तिमान सत्ता भी सटक गयी. क्षमा का हथियार, अहिंसा का अस्त्र. धन रहते भी धन न देनेवाला से महान  है वह धनहीन जो अपना सर्वस्व समर्पित करनेको उद्धत रहता है. इसीलिए शायद गांधी महात्मा हैं. अहिंसा और क्षमा बाह्य
बेबसी के बीज से बढ़े वृक्ष नहीं हैं. ये तो आत्मिक सबलता और आंतरिक सोंदर्य से अंकुरित कल्पतरु हैं, जिसकी छाया तले भटके पथिक को जीवन के शाश्वत सत्य के दर्शन होते हैं.
              बस, अभी इतना ही. सरस्वती अपनी वीणा की ज्ञान रागिनी से मन को झंकृत कर रही हैं. बुद्धि का अलख जगा रही हैं. किंतु, यह  मूढ़ मन आलस्य का भला अनावरण क्यों करे.
                                      --------------विश्वमोहन
                                       (1 अक्टुबर २०१०)