चन्द्रमा मन की भावनाओं का प्रतिनिधि देवता माना गया है. पूर्णिमा तिथि को
राकेश अंतरिक्ष में अपनी सम्पूर्ण कलाओं में विराजमान होते हैं. मान्यता है इस
तिथि को जन्मे जीव में वह अपने भाव सौष्ठव की अद्भुत भंगिमा घोल देते हैं. २५ मार्च १९०७, फाल्गुन
पूर्णिमा, को अद्भुत भाव गंगोत्री को अपने में समाहित किये एक विलक्षण कली ने वसुधा
के अंक को सुशोभित किया . इस बिटिया का जन्म उस कुल के लिए एक अद्भुत वरदान था क्योंकि इससे पिछले २००
वर्षों में इस परिवार ने किसी बेटी की मुस्कराहट का सौभाग्य नहीं भोगा था. जाहिर है
पुत्री के लालन पालन और लाड़ प्यार में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी.पितामह फारसी और उर्दू
ही जानते थे . उन्होंने अपने पुत्र को अंग्रेजी पढ़ाई . अंग्रेजी एम ए में विश्वविद्यालय
में उन्होंने प्रथम स्थान पाया. उन्हें हिंदी नहीं आती थी. नन्ही बिटिया की पढ़ाई लिखाई
का पूरा ख्याल रखा इस फर्रुखाबादी परिवार ने. प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा इंदौर में हुई.
संस्कृत, चित्रकला, संगीत आदि की शिक्षा दी गयी. ९ वर्ष की अल्प आयु में हाथ पीले कर
दिए गए. अल्प व्यवधान के अंतराल के पश्चात् पुनः १९१९ में इलाहबाद से फिर पढाई ने पटरी
पकड़ी . १९३२ में प्रयाग विश्वविद्यालय ने संस्कृत में स्नाकोत्तर की उपाधि प्रदान की.
माँ वीणापाणी की यह श्वेत पद्म-कली भारतीय वांगमय की वाक्देवी रूप में महादेवी वर्मा के
नाम से प्रतिष्ठित हुई.
धुर सनातनी परिवेश में पनपी महादेवी के बाल स्वर में रुढिवादिता के प्रति विद्रोह
के ज्वार फूटे.अपने जीवन के सप्तम वसंत में उनको परिवार के पंडितजी ने राधा द्वारा
कृष्ण से बांसुरी मांगने के प्रसंग को समझाकर " बोलिहै नाहीं " समस्या की
पूर्ति करने को कहा. महादेवी ने व्यंग्य उद्घोष कर दिया :-
"मंदिर के पट खोलत का ,
ये देवता तो दृग खोलिहै नाहीं.
अक्षत फूल चढाऊं भले ,
हर्षाये कबौं अनुकुलिहैं नाहीं.
बेर हज़ार शंखहि फूंक ,
पै जागिहैं ना अरु डोलिहैं नाहीं
.
प्रानन में नित बोलत हैं
पुनि मंदिर में ये बोलिहैं नाही.
प्रत्यक्षतः ठाकुरजी के विरोधी स्वर पर माँ और पंडितजी की अप्रसन्नता झेलने
के प्रसंग पर महादेवी ने खुद स्वीकारा है "संभवतः मेरे अवचेतन मन में मेरे दर्शन
या विचार की दिशा बन रही होगी ".
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