मीत मिले न मन के मानिक
सपने आंसू में बह जाते हैं।
जीवन के विरानेपन में,
महल ख्वाब के ढह जाते हैं।
टीस टीस कर दिल तपता है
भाव बने घाव ,मन में गहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
अंतरिक्ष के सूनेपन में
चाँद अकेले सो जाता है।
विरल वेदना की बदरी में
लुक लुक छिप छिप खो जाता है।
अकुलाता पूनम का सागर
उठती गिरती व्याकुल लहरें।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
प्राची से पश्चिम तक दिन भर
खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।
नयन मीत में टाँके रहती,
तपन प्यार का दिनभर सहती।
क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,
अंधियारे जब डालें पहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
वसुधा के आँगन में बिखरी,
मैं रेणु अति सूक्ष्म सरल हूँ।
जीव जगत के माया घट में,
मैं प्रकृति भाव तरल हूँ।
बहूँ, तो बरबस विश्व ये बिहँसे
लूँ विराम,फिर सृष्टि ठहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
सपने आंसू में बह जाते हैं।
जीवन के विरानेपन में,
महल ख्वाब के ढह जाते हैं।
टीस टीस कर दिल तपता है
भाव बने घाव ,मन में गहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
अंतरिक्ष के सूनेपन में
चाँद अकेले सो जाता है।
विरल वेदना की बदरी में
लुक लुक छिप छिप खो जाता है।
अकुलाता पूनम का सागर
उठती गिरती व्याकुल लहरें।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
प्राची से पश्चिम तक दिन भर
खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।
नयन मीत में टाँके रहती,
तपन प्यार का दिनभर सहती।
क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,
अंधियारे जब डालें पहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
वसुधा के आँगन में बिखरी,
मैं रेणु अति सूक्ष्म सरल हूँ।
जीव जगत के माया घट में,
मैं प्रकृति भाव तरल हूँ।
बहूँ, तो बरबस विश्व ये बिहँसे
लूँ विराम,फिर सृष्टि ठहरे।
तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!
वाह ! बहुत सुन्दर आदरणीय
ReplyDeleteसादर
जी, अत्यंत आभार आपका।
DeleteAchhi rachnaa
ReplyDeleteजी, आभार!!!
Deleteतुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!!
ReplyDeleteएक आर्तनाद! नारी मन की अनकही दास्ताँ! हृदय से आभार और शुभकामनाएं आदरणीय विश्व मोहन जी 🙏🙏🌺🌺
हार्दिक आभार🙏🙏
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