मेरी छोटी पुत्री वीथिका स्मृति (भूतपूर्व सह-शोधार्थी, आई आई टी, दिल्ली और शोध छात्रा आईआईएम बंगलोर) की कविता
" ज़िंदगी या मैं! "
मैं कुछ मन से चाहूँ
ज़िन्दगी उसे मुझसे छीने,
मैं हार कर गिर जाऊं
और ज़िंदगी मुझपे हंसने लगे.
मैं फिर से खड़ी हो जाऊं
और ज़िंदगी पे हंसने लगूं.
ऐसा फिलहाल
दो तीन बार ही हुआ है
कि कुछ मन ने चाहा है
पर ज़िन्दगी ने
मना कर दिया है.
मज़ा आने लगा है
छीना-झपटी के
इस खेल में.
इस बार और मन से चाहूंगी ,
देखती हूँ
कौन जीतता है
ज़िंदगी या मैं !
_____ वीथिका स्मृति