Sunday 10 March 2019

फद्गुदी


दौड़ रहा है सरपट सूरज
समेटने अपनी बिखरी रश्मियों को.

घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
नदियाँ अपने ही तीर को.

खेल रही हैं हारा-बाजी टहनियाँ
अपनी पत्तियों से ही.

फूंक मार रही हैं हवाएं,
जोर जोर से अपने ही शोर को.

जला रही है बाती,
तिल-तिल कर अपने ही तेल को.

दहाड़ रहा है सिंह सिहुर-सिहुर कर,
अपनी ही प्रतिध्वनि पर.

लील रही है धरोहर, धरती
काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.

पेट सपाट-सा सांपिन ने,
फूला लिया है खाकर अपने ही संपोलो को.

चकरा रही है चील, लगाये टकटकी,
अपनी ही लाश पर.

सहमा-सिसका है साये में इंसान,
 आतंक के, अपने ही साये के.

और फुद्फुदा रही है फद्गुदी,
चोंच मारकर अपनी ही परछाहीं पर!

31 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-03-2019) को "लोकसभा के चुनाव घोषि‍त हो गए " (चर्चा अंक-3270) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/03/2019 की बुलेटिन, " एक कहानी - मानवाधिकार बनाम कुत्ताधिकार “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  3. लील रही है धरोहर, धरती
    काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.
    बहुत खूब...... हमेशा की तरह ,सादर नमन

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  4. Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  5. बहुत सुंदर रचना, विश्वमोहन जी।

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  6. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  7. बेहतरीन प्रस्तुति

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका.

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  8. शानदार आदरणीय
    सादर

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  9. आपके अंदाज़ से ज़रा हटकर,समसामयिक,सारगर्भित, भावपूर्ण, बेहद प्रभावशाली सृजन विश्वमोहन जी।
    बधाई आम जनमानस के मन को टटोलती रचना के लिए।
    सादर।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  10. बहुत बहुत बधाई एक और सुंंदर प्रभावशाली रचना के लिए

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  11. बहुत सार्थक सृजन। सभी विषय ज्वलन्त और विचारणीय। उलटबांसी सरीखी शैली और अनुप्रास से रचना और प्रभावी हो गई है। शुभकामनाएं।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  12. वाह अद्भुत ¡
    काट रहा हर शख्स उसी डाली को
    बैठा है जिस डाली पर चढ़।

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  13. घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
    नदियाँ अपने ही तीर को.
    बहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन.......
    वाह!!!

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  14. सहमा-सिसका है साये में इंसान,
    आतंक के, अपने ही साये के.

    बहुत सही कहा आपने। बहुत बढ़िया। सार्थक सृजन के लिए आपको बधाई। सादर।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  15. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, विश्वमोहन जी।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  16. वाह..... लाजवाब सृजन आदरणीय

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  17. बहुत सुंदर रचना....आप को होली की शुभकामनाएं...

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका।

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  18. लाज़वाब और सटीक अभिव्यक्ति...

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