वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३
(भाग – २२ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (न)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत
शुरुआती दौर में प्रोटो-भारोपीय शाखाओं पर प्रोटो-यहूदी प्रभाव के अपने दावे को मज़बूत करने के सिलसिले में गमक्रेलिज और इवानोव ने ऐसे सत्रह सम्भावित ‘शब्द-ऋणों’ की सूची बनायी है जो यहूदी से अनुदान स्वरूप आए हैं। इन शब्दों की भारोपीय शाखाओं की बोलचाल में सीमित प्रचलन के लक्षणों के आलोक में मैलरी और आडम्स ने इस सूची को और संघटित कर चार भागों में संक्षिप्त कर दिया है और ये महत्वपूर्ण तुलनाएँ इस प्रकार हैं :
प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ (शहद) : प्रोटो-यहूदी ‘*म्वतक-‘ (मीठा)
प्रोटो-भारोपीय ‘*टौरोस-‘ (जंगली साँड़) : प्रोटो-यहूदी ‘*टाव्र-‘ (साँड़, बैल)
प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ (सात) : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम- (सात), और
प्रोटो-भारोपीय ‘*वोईनोम-‘ (वाइन) :प्रोटो-यहूदी ‘*वायन-‘ (वाइन) (मैलरी-आडम्स २००६:८२-८३)।
इसमें से तीन तुलनाएँ ऐसी हैं जो समानताओं का अद्भुत संजोग दिखाती हैं। शहद अर्थ वाले प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ और मीठा अर्थ वाले प्रोटो-यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ के बीच की तुलना तो हम पहले ही देख चुके हैं। ठीक उतनी ही गले नहीं उतरने वाली सात (प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम-‘) वाली तुलना है कि यह बात समझ में नहीं आती है कि दोनों परिवारों ने सात के लिए एक ही शब्द का ऋण एक दूसरे से कैसे ले लिया? उसमें भी तब जब यहाँ पर इस बात की वकालत करने वालों के समक्ष प्रोटो-भारोपीय और प्रोटो-औस्ट्रोएशियायी संख्या प्रणाली के पहले चार अंकों की एक अत्यंत विश्वसनीय तुलना रखी जाती है तो उसे वह सिरे से नकार देते हैं। [{प्रोटो-भारोपीय - *सेम, *द्वोउ/द्वय, *त्रि और क्वेत्वोर : टोकारियन –‘सस’/’से’ (एक), रोमानियन – ‘पत्रु’ (चार), वेल्श – ‘पेडवर’ (चार)} और प्रोटो-औस्ट्रोएशियन { ‘*एस’, ‘*देव्हा’, ‘*तेलु’ और ‘*पति’/’*एपति’ :मलय ‘स’/’सतु’ (एक), ‘दुअ' (दो), ‘तिगा’ (तीन), ‘एपत’ (चार)}]
परंतु, अन्य दो शब्द ऐसे हैं जो भारोपीय भाषा में यहूदी शब्दों के लिए जाने की कहानी को पक्के तौर पर साफ़ कर देते हैं। लेकिन वह भी तब, जब अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय भाषा अभी अपने उद्भव के प्रारम्भ काल में ही थी! तो चलिए इस स्थिति की भी हम जाँच कर लेते हैं :
प्रोटो(आद्य)-यहूदी शब्द ‘*टाव्र’ (साँड़, बैल) सभी प्रमुख यहूदी भाषाओं में अपना स्थान पाता है – अक्कडियन (‘शुर’), युगारिटिक (‘त्र’), हीब्रू (‘शोर’), सीरियायी (‘तव्रा’), अरबी (‘टाव्र’), दक्षिणी अरबी (‘ट्व्र’)।
जहाँ तक भारोपीय भाषाओं की बात है, वहाँ इसकी उपस्थिति इस प्रकार है – इटालिक (लैटिन ‘तौरस’), सेल्टिक (गौलिश ‘तर्वोस’), आइरिश (तर्ब), जर्मन ( पुरानी आइसलैंड की बोली ‘पज़ोर्र’), बाल्टिक (‘ताऊरस’), स्लावी (पुरानी स्लावी ‘तरु’), अल्बानी (‘तरोक’), और ग्रीक अर्थात यूनानी (ताऊरोस)। ‘साँड़’ के लिए कोई हित्ती शब्द उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी यहूदी चित्रलिपि द्वारा निर्दिष्ट होती है जिसका हित्ती अनुवाद नहीं पढ़ा जा सका है (गमक्रेलिज १९९५ :४८३)। अर्मेनियायी भाषा ने ‘साँड़’ के लिए एक कौकेसियन शब्द (‘त्सुल’) उधार ले रखा है। संक्षेप में कहें, तो हमें यहाँ फिर से एक बार पश्चिमी शाखाओं पर ही यहूदी प्रभाव दिखायी पड़ता है, जबकि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन, इन तीनों पूर्वी शाखाओं में यहूदी प्रभाव के लेशमात्र भी लक्षण नहीं दिखते। एक बार फिर से यह दृष्टांत भारतीय-यूरोपीय (भारोपीय) शाखाओं के पूरब से पश्चिम की यात्रा की कहानी को ही कहता है।
‘शराब’ (वाइन) शब्द से संबंधित साक्ष्य तो ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ केलिए और अधिक प्रतिघाती है। यह शब्द या तो एक यहूदी ‘शब्द-ऋण’ है या फिर एक ‘पुरातन अप्रवासी प्राच्य’ शब्द के आस-पास है (गमक्रेलिज १९९५ : ५५९)। यह यहूदी और दक्षिणी कौकेसियन, दोनों भाषाओं में पाया जाता है।
यहूदी भाषा – ‘*वायन-‘, अक्कडियन (‘*ईनु-‘), युग्रेटिक (‘*यं-‘), हीब्रू (‘*यायीं-‘) हमीटिक-मिस्त्र (‘*वंश-‘)।
दक्षिणी कौकेसियन – ‘*विनो-‘ (वाइन), जौरजियन (‘*विनो-‘), मिंग्रेलियन (‘विन’), पुराने जौरजियन (वेनाक)।
गमक्रेलिज ने ट्रान्स-कौकेसस क्षेत्रों में अंगूर की खेती और शराब बनाने की तकनीक के विकास की भी चर्चा की है (गमक्रेलिज १९९५:५६०)। हालाँकि, वह यह भी मानते हैं कि प्रोटो-भारोपीयों ने इस शब्द का इजाद पश्चिमी-एशिया और ट्रान्सकौकेसस क्षेत्रों में ही किया।
अब चाहे यह मूल रूप से यहूदी शब्द हो या कौकेसियन शब्द, इसका भूगोल निस्सन्देह पश्चिम एशिया और ट्रान्स-कौकेसियन क्षेत्रों का ही भूगोल है।
और फिर –
१ – यह शब्द पूरब की तीनों शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन में नहीं पाया जाता, जबकि पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में पाया जाता है।
२ – स्वर-साधना (वोकालिज़्म) के दृष्टिकोण से पश्चिम की नवों शाखाओं में पाए जाने वाले इस शब्द की तीन श्रेणियाँ हैं (गमक्रेलिज १९५५:५५७-५५८)। ‘*वीयोनो-‘ में स्वर-साधना शून्य स्तर का है, ‘*वेनो-‘ में स्वर-साधना ‘ए’ स्तर का है, ‘*वोईनो- में स्वर-साधना ‘ओ’ स्तर का है। ये सभी भारीपीय शाखाओं के कालानुक्रमी समूह हैं :
क – शुरू की शाखाएँ जो पश्चिम की ओर चली गयीं, उनमें शब्दों की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – अनाटोलियन (वीयोनो), हित्ती (वियन), लुवियन (विनियंत), हाईराटिक लुवियन (वीयन)।
ख – पाँच पश्चिमी शाखाओं में इस शब्द की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – वीयोनो : इटालिक (लैटिन ‘उईनुम’), सेल्टिक (पुरानी आइरिश ‘फ़िन’, वेल्श ‘ज्विं’), जर्मन (जर्मन ‘वेन’ और अंग्रेज़ी ‘वाइन’), बाल्टिक (लिथुयानियन ‘व्यंस’, लात्वियन ‘वींस’), स्लावी (रूसी ‘विनो’, पोलिश ‘विनो’)
ग – तीन अंतिम शाखायें जो पश्चिम की ओर चली गयीं उनमें इस शब्द की व्युत्पति का विज्ञान इस प्रकार है – ‘*वोईनो-‘ : ग्रीक अर्थात यूनानी (माइसेनियन ग्रीक ‘वो-नो’, होमेरिक ग्रीक ‘ओईनोस’), अल्बानी (वीन), अर्मेनियायी (जिनी)।
पश्चिम की ओर बढ़ाने के क्रम में भारोपीय शाखाओं के तीनों समूह में अलग-अलग प्रकार के शब्दों का इजाद हुआ, जबकि जो शाखाएँ पूरब में ही रुक गयीं, उनमें किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
७ – घोड़ों का साक्ष्य
अब हम उन सबूतों अर्थात ‘घोड़ों’ की बात कर लें जिसे दक्षिणी रूस के मैदानी भाग को आर्यों की मूल भूमि मानने की अवधारणा के प्रबल पक्षकार अपना अचूक और अमोघ अस्त्र मानते हैं, हालाँकि उनका यह हथियार भी तर्कों की टकसाल पर काग़ज़ी घोड़ा-सा ही है। सही मायने में दोनों पक्षों के बीच इतने बड़े-बड़े और निरर्थक दावे, सिद्धांतों और अवधारणाओं की बौछार तथा आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला है कि सबसे पहले हमारे लिए भी यही उचित होगा कि हम भली-भाँति तथ्यों की गहराई से पहले जाँच-परख कर लें, फिर इसकी विवेचना करें। कुल मिलाकर तीन ऐसी बातें है जो हर तरह के विवादों से ऊपर उठकर है।
१ – प्रोटो-भारोपीय लोगों को घोड़े के बारे में जानकारी थी और घोड़े का सजातीय शब्द कमोवेश प्रत्येक शाखा में पाया जाता है : प्रोटो भारोपीय ‘*एख्वोस’, अनाटोलियन (हाईरेटिक लुवियन) ‘आ-सु-व’, टोकारियन ‘युक/यक्वे’, भारतीय-आर्य (वैदिक) ‘अश्व’, ईरानी (अवेस्ता) ‘अस्प’, अर्मेनियायी ‘एश’ (खच्चर), ग्रीक या यूनानी (माइसेनियन) ‘इको’, (होमेरिक) ‘हिप्पोस’, जर्मन (पुराने अंग्रेज़ी) ’एओह’, (गोथिक) ‘ऐहवा’, सेल्टिक (पुराने आइरिश) ‘एच’, (गौलिश) ‘एपो-‘, इटालिक (लैटिन) ‘एक़ूस’ और बाल्टिक (लिथुयानियन) ‘एश्व’। यह भी एक संयोग ही है कि जिस एकमात्र शाखा में यह शब्द नहीं मिलता है वह है दक्षिणी रूस के उसी मैदानी भाग में बोली जाने वाली भाषा, स्लावी। और अल्बानी भाषा में भी इसका कोई सजातीय शब्द अब नहीं बचा है। लेकिन यह बात तो साबित हो जाती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय लोग घोड़े से बड़ी अच्छी तरह परिचित थे और यहीं वह समय भी था जब भिन्न-भिन्न शाखाएँ उस मूलभूमि से भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटकने लगी थीं।
२ – ग्रंथो के पूरे रचना-काल के दौरान वैदिक लोगों को घोड़े की पूरी जानकारी थी।
३ – भारत घोड़ों का पुश्तैनी वतन तो नहीं था लेकिन उनका यह वतन उत्तरी यूरेशिया के एक वृहत क्षेत्र में फैला था जो पश्चिम में दक्षिणी रूस के मैदानी भाग से लेकर पूरब में मध्य एशिया तक था।
सामान्य तौर पर पहली दो बातों पर कोई विवाद नहीं है। बस तीसरी बात को ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के विरोधी नहीं स्वीकारते हैं। उनका विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित घोड़े मैदानी भागों के उत्तरी घोड़े नहीं हैं, बल्कि देशी प्रजाति के हैं। इस सम्बंध में वे शिवालिक में मिलने वाले ‘एक़ूस सिवालेंसिस’ प्रजाति की चर्चा करते हैं जो प्राचीन काल में उत्तर भारत में पायी जाने वाली तगड़े घोड़ों की एक प्रजाति थी। यह माना जाता है कि ८००० ईसापूर्व या इसके आसपास यह प्रजाति विलुप्त हो गयी। ऋग्वेद के १/१६२/१८ और शतपथ ब्राह्मण के १३/५ में ऐसे घोड़े की बलि की चर्चा है जिसकी पसलियों की ३४ हड्डियाँ थीं। आम तौर पर घोड़ों की पसली में ३६ हड्डियाँ होती है लेकिन शिवालिक क्षेत्र के घोड़ों की कुछ क़िस्मों में ३४ हड्डियाँ होने की बात भी मिलती है। इसी बात को वैदिक युग में भारत में शिवालिक-घोड़ों के होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जहाँ तक इनके जीवाश्मों से संबंधित साक्ष्य का सवाल है तो असली घोड़ों का भी जिस काल और जिस क्षेत्र में बहुतायत में होने की बात कही जाती है, उन दोनों स्थितियों में ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। इसी आधार पर शिवालिक घोड़ों के संदर्भ में भी जीवाश्म संबंधी साक्ष्यों को अप्रासंगिक कहकर टाल दिया जाता है। ऐसा भी सम्भव है कि ‘*एखोव-‘ शब्द किसी समान प्रजाति के पशु के लिए प्रचलित हो। ये पशु बहुत तेज़ भागने वाले ओनगा या खच्चर जैसे जंगली गदहों की प्रजाति के हो सकते थे जो अधिकांशतः पुरातन क़ालीन उत्तर भारत में पाए जाते थे और आज भी कच्छ और लद्दख के शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। साथ ही ऋग्वेद में यदा-कदा ‘अश्व’ शब्द का प्रयोग सवारी करने वाले पशु के रूप में हुआ है न कि उन घोड़ों के लिए जो रथ खिंचते थे। चौथे मंडल के ३७/४ में ‘मोटा अश्व’ का निहितार्थ हाथी हो सकता है जब कि ‘दाग़धारी अश्व’ का संकेत मरुत के रथ की ओर है। निश्चित तौर पर इस रथ का मतलब ‘दागधारी हिरण’ से ही लिया गया है। १/(८७/४, ८९/७, १८६/८), २/३४/३, ३/२६/६, ५/४२/१५ और ७/४०/३ के उल्लेखों से हालाँकि यहीं प्रतीत होता है कि धारीदार ‘घोड़े’ का दागधारी ‘हिरण’ में काव्यातक रूपांकन हो गया है। ३४ हड्डियों वाली ये तमाम बातें पक्के तौर पर न केवल अत्यंत रोचक हैं, बल्कि और अधिक छानबीन भी किए जाने लायक़ है। फिर भी तर्कों की इस रोचकता को फ़िलहाल हम तिलांजलि देकर अभी मैदानी भाग के उन असली घोड़ों पर गहरायी से अपनी नज़रें टिकाएँगे जिनका मादरे वतन हिंदुस्तान की ज़मीन नहीं था।
घोड़ों से संबंधित ऊपर के तीनों तथ्यों के आधार पर ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल लेते हैं :
चूँकि न तो हड़प्पा से मिली मुहरों में घोड़ों की कोई उपस्थिति है और न ही हड़प्पा की खुदायी में घोड़ों की हड्डियाँ मिली है, इसलिए यह तय है कि आर्यों के आगमन से पूर्व न तो भारत में घोड़ों की उपस्थिति थी और न ही भारत के लोगों को घोड़ों के बारे में कोई जानकारी थी। इसी आधार पर यह भी तय है कि हड़प्पा की सभ्यता ‘अनार्यों’ की सभ्यता थी और ये आर्य ही थे जो दक्षिण रूस के मैदानी भागों की अपनी मूल भूमि से घोड़ों को लेकर भारत आए। उदाहरण के तौर पर हॉक इसे कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं कि ‘कुछ छोटी-मोटी बातों पर भले ही असहमति हो लेकिन भारोपीय भाषा विज्ञान और जीवाश्मिकी से जो भी परिचित हैं वे इस बात को मानते हैं या फिर यूरेशिया में जो भी पुरातात्विक सबूत मिले हैं उनसे भी इसी बात का संकेत मिलता है कि यूक्रेन के मैदानी भागों से ही पालतू घोड़ों का और साथ-साथ युद्ध में प्रयोग होने वाले घोड़ों से खींचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों का प्रचलन फैला। पुरातन भारोपीय संस्कृति और धर्मों में घोड़ों का बड़ा अहम स्थान है। यूरेशिया के पुरातत्व और भारोपीय ज्ञान की विशेष जानकारी रखने वाले विद्वानों की इसलिए इस बात पर पूरी सहमति है कि भारतीय-आर्यों के आने के साथ-साथ ही घोड़े से संबंधित इन सारे लक्षणों का भारत में फैलाव हुआ।‘ (हॉक १९९९अ :१२-१३)
समूचे ‘आर्य’ विवाद में उपरोक्त निष्कर्ष से ज़्यादा धोखा देने वाली और भ्रम पैदा करने वाली कोई दूसरी बात नहीं हो सकती।
१- पुराने ज़माने में घोड़े भारत में नहीं पाए जाते थे, किंतु अफगानिस्तान के उत्तर मध्य एशिया में मिलते थे। आज तक जो स्थिति बनी हुई है, उसके अनुसार दुनिया में पूरी तरह से पालतू बना लिए गए घोड़ों का पहला सबूत कजकस्तान की बोटाई संस्कृति में मिलता है। इसके मिलने का काल भी उस समय से १००० साल और पहले चले जाता है जिस काल में इनके पाए जाने की मान्यता है। क़रीब ३५०० ईसापूर्व की यह बोटाई संस्कृति पूरी तरह से घोड़ों के प्रजनन की संस्कृति का काल था, जब घोड़ों की नस्लों का जनन होता था, उन्हें दूहा जाता था और फिर उनसे छुटकारा भी पा लिया जाता था। ( उत्खनन क्षेत्रों से प्राप्त जबड़ों की हड्डियों और दाँतों के परीक्षण से यही पता चलता है कि लगाम और नाल भी उस समय चलन में थे।)
यदि थोड़ी और गहरायी से देखें तो इस बात के प्रबल साक्ष्य मिलते हैं कि उससे भी पुराने समय में अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर उज़्बेकिस्तान में घोड़ों को आदमी की बस्तियों में भली-भाँति पाला जाता था और उनसे घरेलू काम लिए जाते थे। संदर्भ लसोटा-मोसकलेवस्का २००९ (अ प्रॉब्लम औफ द अर्लीएस्ट हॉर्स डोमेस्टिकेशन: डाटा फ़्रोम द नियोलीथिक कैम्प अयकाज्ञतमा ‘द साइट’, उज़्बेकिस्तान, सेंट्रल एशिया पृष्ट १४-२१, अर्कियोलौजिया बाल्टिका खंड -११, कलैपेडा विश्वविद्यालय, लिथुयानिया २००९)।
बुखारा शहर से क़रीब १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित उत्खनन-स्थल से प्राप्त सामग्रियों की पुरातत्व एवं पुराजंतु विज्ञानियों ने बड़ा गहन वैज्ञानिक परीक्षण किया है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर विकास की दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है –
पहला चरण है प्रारम्भिक नव पाषाण काल। कार्बन समस्थानिक १४ के आधार पर यह काल अंशांकित ८०००-७४०० साल पूर्व (ca 8000-7000 cal. BP) का है।
दूसरा चरण है अंशांकित ६०००-५००० साल पूर्व (ca 6000-5000 cal. BP)। आगे बढ़ने के पहले हम आपको समस्थानिक कार्बन १४ के आधार पर अंशांकित काल cal BP (Before Present) के बारे में बता दें कि काल गणना की इस पद्धति में १४ परमाणु भार वाले समस्थानिक कार्बन परमाणु के किसी वस्तु में बचे अवशेष के आधार पर उसकी आयु निकालने की कार्बन-डेटिंग पद्धति के आविष्कार हो जाने पर एक मानक तिथि, एक जनवरी १९५०, से पूर्व के समय को इस अंशांकित पैमाने पर व्यक्त किया जाता है।
स्थल के बाढ़ से प्रभावित होने के कारण इस काल गणना में १५०० वर्षों तक के अंतराल का अनुमान भी हो सकता है। इस काल के जानवरों के बड़ी मात्रा में अवशेष इस स्थल से प्राप्त हुए हैं जो नव पाषाण युग की परतों से निकले हैं। अस्थि और दाँतों के अवशेषों के मामलों में घोड़ों की उपस्थिति यहाँ काफ़ी अहम रही है। सबसे पुरानी परतों से प्राप्त अवशेषों में तीस से चालीस प्रतिशत अश्ववंश (equidae family) के ही अवशेष हैं। नव पाषाण युगीन अन्य यूरेशियायी स्थलों की तुलना में यह संख्या अपने आप में अनूठी है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१४-१५)। अश्व वंश के अवशेषों की बहुत अधिक मात्रा (यहाँ तक कि कहीं-कहीं ४१ प्रतिशत से भी अधिक अवशेष अश्व-वंश के ही हैं), उनके कंधों की ऊँचाई और खुरों की चौड़ाई जैसे अनेक ढेर सारे कारकों और सबूतों के आधार पर यहीं स्थापित होता है कि ये अवशेष किसी ऐसे जानवर के हैं जिनकी ऊँचाई आम जंगली जानवरों की औसत ऊँचाई से काफ़ी अधिक होती थी। बहुत हद तक इनकी आकृति पालतू घोड़ों से मिलती जुलती थी। इन अश्ववंशी जानवरों के साथ-साथ पालतू स्तनपायी अन्य जानवरों यथा – भेड़, बकरी, सुअर और कुत्तों के जीवाश्म के अवशेष भी इन स्थलों से निकाले गए हैं। ये सारे तथ्य इसी बात को स्थापित करते हैं कि घोड़े मध्य एशिया के निचले भागों में नव पाषाण काल के प्रारम्भ से ही पाले जाने लगे थे और यह काल ९००० से ८००० अंशांकित काल पूर्व (cal BP) का समय है। साथ ही हमारे लिए आज की तिथि में घोड़ों को पालतू बनाए जाने के सबसे शुरू के समय के रूप में यही काल स्थापित है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१९-२०)।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस बात में कोई जान नहीं है कि ३००० साल ईसा पूर्व दक्षिण रूस के मैदानी भागों को छोड़कर आने वाले ‘आर्यों’ के साथ घोड़ों का प्रवेश यहाँ हुआ। चाहे पूरी तरह से घरेलू और पालतू पशु के रूप में हों या फिर पालतू और घरेलू बनाने की प्रक्रिया में हों – अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र में बसी सभ्याताओं में ये घोड़े ईसा से ६००० साल पहले से ही पाए जाते रहे हैं। यहाँ यह भी बात उतनी ही ध्यान देने लायक़ है कि भारतीय मूलभूमि का तात्पर्य भारत के अंदरूनी हिस्सों तक ही सिमटा हुआ नहीं है। इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि ऋग्वेद के समय से भी काफ़ी पहले ‘दृहयु’ और ‘अणु’ जनजातीय समुदाय भारत के भीतरी इलाक़ों से निकलकर मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भागों तक फैल चुके थे। ऋग्वेद के पुराने मंडलों का रचना काल ईसा से ३००० साल से भी पीछे तक जाता है। उस काल तक ‘प्रोटो-अनाटोलियन’ और ‘प्रोटो-टोकारियन’ आबादी के साथ-साथ ‘दृहयु’ जनजाति की पहली पंक्ति की बसावट मध्य एशिया में बस चुकी थी। दृहयु-अणु-पुरु आबादी के उत्तर में फैले वितान के दृहयु छोर तक के भूभाग घोड़ों से भरे-पूरे क्षेत्र थे और इस क्षेत्र में पालतू बनकर घोड़े घरेलू जानवर के रूप में रच-बस चुके थे। पालतू घोड़ों का यह काल ३००० साल ईसा पूर्व से पहले तक का काल है। इसलिए उस समय के एक ऐसे अनोखे पशु, चाहे वह जंगली हो या पालतू, के लिए एक ही तरह के प्रोटो भारोपीय नामों के अपनाए जाने या विकसित होने के दृष्टांत यदि मिलते हैं तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।
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