खिलना चाहूँ जब फूलों में,
काँटों ने नजर गड़ाई।
झूमूँ तनिक तरु लता संग,
मौसम की कड़ी कड़ाई।
घोलूँ मलय सुगंध पवन में,
हो गई, हवा हवाई।
मिले मिलिंद मकरंद चमन में,
हमको मिली तन्हाई।
आफताब भी तनहा-तनहा
आसमान में घूमे।
तन्हाई की ज्वाला जलती,
किरणें धरती को चूमें।
तरणि से तपती धरती की,
जर्जर, जीर्ण - सी काया।
उबड़ - खाबड़ जीवन पथ पर,
कहीं धूप, कहीं छाया।
ताके तृषित, नयन गगन घन,
दंभ दामिनी दमकी।
मन की लहरें दूर व्योम में
चंद्रप्रभा - सी चमकी।
चाँद - से चंचल मन उपवन में,
कभी ज्वार, कभी भाटा।
भाव -भँवर - जाल से भड़के
अराजक सन्नाटा!
आफरीन में मेहताब की,
मायूसी घुलती मन में।
अमा-राका की आइस-पाइस,
चेतन-अवचेतन में।
बहुत सुंदर भाव और चाँद और अमावस्या की आइस पाइस ( आयी स्पाई ) भी ज़ोरदार रही । लाजवाब सृजन ।
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत बढ़िया♥️
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteएकाकी मन के प्रलाप के माध्यम से जीवन-दर्शन का सुन्दर काव्यांकन आदरनीय विश्वमोहन जी। एकान्त में अक्सर हर प्राणी सृष्टि के दोनों रंगों के बारे में व्यापक चिंतन करता है।सदैव की भाँति रचना में यत्र-तत्र अनुप्रास मनभावन है।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏
ReplyDeleteजी, कविता के कथ्य की मीमांसा का आभार!!!
Delete
ReplyDeleteप्रभावी पंक्तियाँ----तरणि से तपती धरती की,
जर्जर, जीर्ण - सी काया।
उबड़ - खाबड़ जीवन पथ पर,
कहीं धूप, कहीं छाया।
👌👌👌👌👌🙏🙏
ज़िंदगी "आइस पाइस" का खेल ही है...कभी खुशी, कभी ग़म।👌👌
ReplyDeleteकविता के मर्म के स्पर्श का अत्यंत आभार!!!!
Delete
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(४-०६-२०२२ ) को
'आइस पाइस'(चर्चा अंक- ४४५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
Wah ! Beautifully expressed ! Loved the caption ' Aais Pais' , is title me hi kitna bachpana chupa hai 🤗 Chand sooraj bhi enjoy kartein hai ye game khelna...😀 Life indeed is a game of hide and seek, nothing is permanent or even predictable... situations keep changing but every cloud has a silver lining...har raat ki subah hoti hai ...aur din bhi dhoop chav ke kashmakash me guzar jaata hai ...
ReplyDeleteबेहद उम्दा तफसील जिंदगी की हकीकत की। बहुत आभार।
Deleteबेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteवाह
जी, अत्यंत आभार।
Delete
ReplyDeleteचाँद - से चंचल मन उपवन में,
कभी ज्वार, कभी भाटा।
भाव -भँवर - जाल से भड़के
अराजक सन्नाटा!... जीवन संदर्भ के यथार्थ को परिभाषित करती मन को छूती सुंदर रचना ।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteवाह कविराज ! गंगा-जमुनी ज़ुबान में, चंद पंक्तियों में ही तुमने तो पूरा जीवन-दर्शन बयान कर दिया !
ReplyDeleteघोलूँ मलय सुगंध पवन में,
ReplyDeleteहो गई, हवा हवाई।
मिले मिलिंद मकरंद चमन में,
हमको मिली तन्हाई।
वाह!!!
आफरीन में मेहताब की,
मायूसी घुलती मन में।
अमा राका की आइस पाइस,
चेतन-अवचेतन में।
मन में उठते इस ज्वार भाटे में लाजवाब आत्मचिंतन एवं जीवन दर्शन ।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteशिकायत करने का खूबसूरत तरीका। बहुत सुंदर 👌
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार😄🙏
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteजी,अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह!! प्रकृति के बिंबों से जीवन को समझना और समझाना ! सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!
Deleteबड़ी मधुरता से आपने ज़िंदगी के रंग और ऋतु की आपा झापी को समझाया है। चलो अपना लेते हैं कुहराम के साथ सन्नाटा भी। सबीना
ReplyDeleteजी, शुक्रिया तहे दिल से🙏
Deleteवाह बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबढिया रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत सुन्दर रचना .पठनीय !
ReplyDeleteहिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
बचपन के इस खेल के माध्यम से मन के एकाकी भाव और कप्लानाओं की मधुर उड़ान का विस्तृत गगन ... बेमिसाल है ...
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
DeleteThis comment has been removed by the author.
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