Friday, 31 October 2014

ब्रह्म-प्रहर

लघु ऊर्मि बन दीर्घ उच्छवास,
सागर के वक्ष पर करे हास.

चढ़े श्रृंग, फिर गर्त उतर,
सरपट दौड़े नाचे तट पर.

कर सैकत राशि से आलिंगन,
लहरें टूटें बिखरे जलकण.

तीर पर एकत्रित शीप-शंख,
कर चली लौट तंवंगी तरंग.

मटके झटके लघु जलचर जीव,
दृश्य झिलमिल शाश्वत सजीव.

जलनिधि का पुनः नव सुभग रास,
लहरें फेनिल, वैभव विलास.

छेड़छाड़ तट से सागर का,
प्रेम-किल्लोल ये रत्नाकर का.

उल्लसित चुम्बन तट-बाहुपाश,
योग वियोग उत्कर्ष विनाश.

  संसार समंदर जीव लहर है,
भींगे जब कूल ब्रह्म-प्रहर है.

Wednesday, 15 October 2014

देवालय

विज्ञान, पुराण और इतिहास सभी इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि कश्मीर  पुरा काल में जलोत्प्लावित था और सतीसर के नाम से जाना जाता था. बारामुला (वाराह मूल) में पर्वत-खंड के शिला द्वार खुलने से यह भाग जलरिक्त हुआ था और इस सुरम्य घाटी में सभ्यता का विकास हुआ. इस वर्ष सितम्बर महीने में भीषण बाढ़ की वीभिषिका से दंशित यह क्षेत्र पुनः अपने सतीसर स्वरुप में उपस्थित हुआ. सर्वत्र जलमग्न!
इसी त्रासदी में यह खबर आयी कि भारतीय सेना के सपुत रण-बांकुरो के सह्योग से शंकराचार्य निर्मित शिव मंदिर परिसर में श्रीनगर के मुसलमनों ने शरण ली. ये तो था प्रकाशन और प्रसारण समाचार माध्यमों में छपने और बंचने वाली खबरों का पत्रकारी स्वरुप. सही बात ये होती कि बाढ़ पीड़ित इंसानों ने पनाह ली. एक बेघर बेघर होता है और एक भूखा भूखा! न वह हिंदु होता है, न मुसलमान. मदद को उठे इंसानी हाथ भी उसकी रुह में बैठे खुदाई खिदमतगार की रहमत होती है.
फिर मंदिर मंदिर होता है- देवालय. वहां ईश्वर का निवास होता है. ईश्वर का कोई धर्म नहीं होता. उसकी कोई जाति नहीं होती. ये तो उसके पास जाने के लिये इंसान के द्वारा गढ़े गये रास्ते या जीवन-पद्धतियां हैं. तो फिर देवालय का शरणागत भी प्राणी मात्र ही होता है. वह हिंदु मुसलमान नहीं होता. वहां पहुंचने पर उसका सर्वस्व पीछे छूट जाता है. याद करें, क्या कहा भगवान कृष्ण ने गीता में-
      “ सर्वांधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज “
सामान्यतः, मेरा ऐसी किसी घटना से पाला नहीं पड़ता कि किसी दंगाग्रस्त इलाके में किसी मंदिर ने किसी पीड़ित अहिंदु को या किसी मस्जिद ने किसी गैर मुसलमान को पनाह दी हो. इसलिये एक आम इंसान होने के नाते ऐसे  मंदिर-मस्जिद के ठेकेदारों के प्रति मेरी कोई श्रद्धा नहीं. मुझे उस बंगाली हिंदु पति को भी धर्मभ्रष्ट काफिर कहने में कोई संकोच नहीं होता, जिसका सामना अज्ञेय की कहानी रमंते तत्र देवताः में सरदारा विशन सिंह से कलकत्ते के शामपुकुर लेन में होता है.     
 ऐसे में, ईश्वर के दूत इन सैनिकों को शत शत नमन!
हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है. यह मानव आत्मा के समष्टि विलयन के सांस्कारिक श्रृंगार की शाश्वत प्रणाली है.
       “अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम
       उदार चरितानांतु  वसुधैव   कुटुम्बकम.”
इसके मूल में यह सार्वभौमिक मान्यता है कि आत्मवतसर्वभुतेषु यः पश्यति सः पण्डितः’. हिंदु दर्शन का आधार है प्रकृति के समस्त परमाणु में परम पिता परमेश्वर का वास होता है. तो फिर, उसके आवास यानि देवालयों में भी प्रत्येक परमाणु समान हैं. वहां कोई भेदभाव क्यों? चर-अचर, जड़-चेतन, सजीव-निर्जीव सभी वस्तुएं उसकी नैसर्गिक आभा के विस्तार हैं. तो फिर शिव निवास में शरणागत को किसी धर्म या सम्प्रदाय की संज्ञा के उच्छृंखल बंधन में क्यों बांधे! यह सतीसर के  उस अखंड, प्रचंड व प्रगल्भ भगवान शिव की अपार महिमा का खंडन होगा जिसका मूल स्वरुप है- सत्यम, शिवम, सुंदरम.
भगवान ईंट, गारे और प्रबलित कंक्रीट की अट्टलिकाओं में नहीं बसते. वे तो उन पवित्र भावनाओं में रमते हैं जो आत्मा और परमात्मा के बीच की चिरंतन कड़ी है. आइये, कबीर को सुनें-
       पाथर पूजे हरी मिले तो मैं पूजु पहाड़
                 और
       “कांकड़-पाथर जोड़ी के, मस्जिद दियो बनाय

       ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरे भयो खुदाय.”  

न जाने कलम क्यों जाती थम!

कर अवलोकन इतिहास सृष्टि का, 
दैहिक, दैविक, भौतिक दृष्टि का. 
काल, कल्प, कुल गाथा अनंत की,
सार, असार,सुर, असुर और संत की.
जीव जगत स्थावर जंगम
तत त्वम असि एवम सो अहम.

न जाने कलम क्यों जाती थम!

मधुर मिलन कल, आज विरह है,
मृदुल आनंद, अब दुख दुःसह है.
जीते जय, आज पाये पराजय,
कल निर्मित, अब आज हुआ क्षय.
पहले प्रकाश, अब पसरा है तम,
खुशियों को फिर घेरे हैं गम.

न जाने, कलम क्यों जाती थम!

नदियां पर्वत से उतर-उतर,
मिलते कितने झरने झर-झर.
जल-प्रवाह का राग अमर,
कभी किलकारी, कभी कातर स्वर.
उपसंहार सागर संगम,
क्या, यहीं जीवन का आगम-निगम?

न जाने कलम क्यों जाती थम!

जाड़ा, गर्मी और बरसात,
दिव्य दिवस, फिर काली रात.
जड़- चेतन कण-कण गतिमान,
जीव-जगत का यहीं ज्ञान.
सृष्टि-विनाश अनवरत, ये क्रम,
प्रकृति-पुरुष का है लीला भ्रम.


अब जाने, कलम क्यों जाती थम.

Tuesday, 7 October 2014

जीव, तू क्यों मरता जीता है?

जीव, तू क्यों मरता जीता है?

गत कर्मों का बीज अधम ही,
बन प्रारब्ध पनपा करता है।
क्रियमाण के करम-धरम में,
जो करता है , वो भरता है।

उपनिषद  व  वेद-ऋचा में,
ज्ञान-गंगा गुंजित-व्यंजित है।
संरक्षण हो कर्मफल का,
जनम-चकर में जो संचित है।

आसक्ति के बंधपाश में,
लोभ, मोह और दम्भ-त्रास में।
भ्रूण-भंवर और काल-ग्रास में,
रहे सरकता चक्र-फाँस में।

सिक्त-परिग्रह, रिक्त और टूटन,
कुंठा, कुटिल-छल, घर्षण-घुटन।
काम, क्रोध, मोह, मद-मत्सर में,
जड़ जंतु तम भव-सागर में।

भ्रमित जीव कबतक भटकेगा,
जगत-गरल जबतक गटकेगा।
आओ रागी, बन वीतरागी,
फल-बंधन, तू छोड़ बड़भागी!

तन-मनुज प्रसाद में पाया,
योग-निमित्त ये सुंदर काया।
उठ परंतप, त्याजो संशय,
हा, धनुर्धर! कण-कण ब्रह्ममय।

अनासक्ति का भाव जगा ले,
ईश-भक्ति में नेह लगा ले।
छोड़ सब गुण, गुन मुरली की धुन,
कहे कन्हैया, सुन गीता है।

जीव, तू क्यों मरता- जीता है?


Monday, 6 October 2014

तनुजा, तू ही तप जीवन का !

दुहिता दिवस (Daughter’s Day) को समर्पित


तनुजा, तू ही तप जीवन का,
तन, वतन, मन और कण-कण का.
मेरे दिल की हर धड़कन का,
प्रतिबिम्ब मेरे बचपन का.

तुझे देख, मैं भूलूं हर दुख,
तेरी चाहत में पाऊं सुख.
मन्नत मांगु तेरी मुस्कान का,
तनुजा तू ही तप जीवन का.

मैं निहारूं तुममें अपने को,
बेटी, सजा दो मेरे सपने को.
बन जाऊं बलि मैं तुझ वामन का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

जिस दिन तनया तू दिग्वंचित,
रहे न राष्ट्र, धर्म, सृष्टि संचित.
खेल खतम तब जन-गण-मन का.
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

जीवन समर में कभी न थकना,
सकने की सीमा तक सकना.
सौगंध तेरे सुंदर आचरण का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

हर काबा में, हर काशी में,
सतनारायण,  पूरणमासी में.
मांगू आशीष तेरे पल्लवन का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

सृष्टि के नयनों का तारा,
हे समाज की जीवन धारा.
बनो विजेता जीवन रण का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

मेरी याचना न करना विस्मृत,
रचो सफलता का नित नव गीत.
कृपा वृष्टि तुमपर भगवन का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

मधुर स्मृति जीवन वीथि का,
शुभ्र पुनम की चंद्र तिथि का.
धवल यूथिका मेरे चमन का,
तनुजे, तू ही तप जीवन का.

जागो, उठो, अब थामो केतन,
जीत लो पुत्री, सब जड़- चेतन.
यही स्वप्न है विश्वमोहन का,
तनुजे तू ही तप जीवन का.


Friday, 5 September 2014

तू भृंगी, मैं कीड़ा!

जीव-जगत-जंजाल भंवर में,
छल-प्रपंच,  माया गह्वर में.
आसक्ति की शर-शय्या पर,
दिशा-भ्रम में भटकू मैं दर-दर.

हर लौं, मन की पीड़ा
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!

ईश-ज्योति दे दे जीवन में,
सोअहं भर दे तू मन में.
निरहंकार, चैतन्य बना दे,
शिशु अबोध मैं, तू अपना ले.

पिता, आ खेलें ज्ञान की क्रीड़ा,
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!

छवि तेरी नयनों में भासे,
सर्वस्व चरणों पर अर्पित.
ज्ञान-सुधा की निर्झरिणी में,
दिव्य पुनीत, मैं अधम-पतित.

मैनें आज उठायो बीड़ा,
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!

सृष्टि, पालन और संहार,
ज्ञान-जनक, तू सबके पार.
ले गोद में मुझे चला चल,
बहे मोक्ष की गंगा कलकल.

गये जहां कबीर और मीरा,

गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!