लघु ऊर्मि बन दीर्घ उच्छवास,
सागर के वक्ष पर करे हास.
चढ़े श्रृंग, फिर गर्त उतर,
सरपट दौड़े नाचे तट पर.
कर सैकत राशि से आलिंगन,
लहरें टूटें बिखरे जलकण.
तीर पर एकत्रित शीप-शंख,
कर चली लौट तंवंगी तरंग.
मटके झटके लघु जलचर जीव,
दृश्य झिलमिल शाश्वत सजीव.
जलनिधि का पुनः नव सुभग रास,
लहरें फेनिल, वैभव विलास.
छेड़छाड़ तट से सागर का,
प्रेम-किल्लोल ये रत्नाकर का.
उल्लसित चुम्बन तट-बाहुपाश,
योग वियोग उत्कर्ष विनाश.
संसार समंदर जीव लहर है,
भींगे जब कूल ब्रह्म-प्रहर है.
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ReplyDeleteKusum Kothari
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+2
वाह लाजवाब ।
शब्दो का सुंदर चक्रव्यूह।
प्रकृति का सहज कीलोल दिखती रचना अन्तिम चरण मे अचानक पूर्ण आध्यात्मिक रूप ले उत्कृष्ट भाष देती है, बहुत ही उत्तम रचना।
मंच पर स्वागत है आपका।
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Oct 14, 2017
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Vishwa Mohan
+Kusum Kothari आपके सुंदर शब्दों का आभार!
Oct 14, 2017
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Urmila Singh
+1
अप्रतिम रचना
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Oct 15, 2017
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Vishwa Mohan
+Urmila Singh आभार आदरणीय
Ravindra Singh Yadav: वाह! अप्रतिम।
ReplyDeleteVishwa Mohan: +Ravindra Singh Yadav आभार एवं शुक्रिया!!!