Thursday, 6 November 2014

पारण

नीरसता की झुर्रियों और
विरसता के घोसलों से
भरे चेहरों से अब कामनाओं
के सेहरे उजड़ने लगे हैं.
थकावट की सिलवटों से सिले
मुख सूख रहे हैं और
तुमको मुझसे उबास आने लगी ?



थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.



आज जबकि ज़रूरत थी
मेरे अरमानों को
तुम्हारे सांसों की गरमाहट की
मेर प्यार को
तुम्हारे स्नेह की थपकियों की
मेरी आखों को
तुम्हारे सपनों की



मेरे मन के कण कण को
तुम्हारे अपनेपन के आभुषण की


मेरी अंतर्दृष्टि को
तुम्हारे दिव्यालोक की और
मेरी इंद्रियों को
तुम्हारे शाश्वत स्पर्श की
इस विशिष्ट वेला मे
मेरे साहचर्य की कामना
तुम्हारी क्लांतता में खो गयी.


थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.


रात्रि के प्रथम प्रहर की प्रतीक्षा
यूं तो रोजमर्रा है मेरा.
किंतु आज यह इंतज़ार
तुम्हारे प्यार के प्रतिदान की आशा मे लिपटा
मेरे मन मे
तुम्हारे समर्पण का संगीत था,
जिसे पिछले दशकों से जोर जोर से
गाकर जार-जार हो रहा है यह.






क्योंकि इसकी तीव्रता, मेरे साथी
तुम्हारी वीरसता मे खो जाती है .
फिर
मेरा यह प्रणय गीत
तुमसे
अनसुना लौटकर मेरे दिल में
सूनापन भर जाता है और


यह रिक्तता वंचित है-
तुम्हारी प्रणय रागिनियों के स्वर से.
जो, सम्भवतः मंद हो चले हैं मिलकर
तुम्हारी थकावट की सिलवटों में .


थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.


आशायें कभी मरती नहीं और
उनका न मरना ही मेरे जीने
का बहाना बन गया है.






साथी
तुम्हरा मन उबा है
क्योंकि डुबा नहीं मुझमें,

अब उठो साथी ,
विश्राम की वेला विदा हुई
नया सवेरा हुआ.

अरमानों ने फिर से अंगड़ाईयां ली
मनचला फिर मचला
चेहरे पर आशाओं की कोपलें निकली
विरसता की झुर्रियों को झाड़ो.
नव भविष्य के इस भोर प्रहर में,
देवी, प्यार के स्नेह सप्तक
अपनी मन वीणा पर बजाओ.


अपनी प्रणय उत्कंठा को
मेरे स्वप्निल सुरों से सजाओ
अपने चिर यौवन का श्रृंगार
मेरी कामनाओं के कुमकुम से कर लो.


प्रणीते, उठो और द्वादश के द्वार पर

इन अरमानों का पारण कर लो.

Friday, 31 October 2014

कवि रसिक!

दिल रीता है स्पंदन से,
जैसे गगन का मिलन न घन से.
अश्रू नम न मिले नयन में,
रूठी  नींदिया, शयन-सदन में.


जीव-द्रव्य, पर जीव नहीं है,
दिखे सजीव ! निर्जीव वहीं है.
मन का कण-कण टूट चला है,
जीने की यह शुष्क कला है.




घृणा की घनघोर घटा है,
लिप्सा की मनोहारी छटा है.
दृग चंचल, पर कुछ नहीं दिखे,
लीपे लेखनी, कुछ नहीं लिखे.



भाव-शून्य विचार बहुल है,
संस्कार रिक्त आर्य संकुल है.
पर पीड़ा का भान नहीं है,
स्वांतःसुखाय बस ज्ञान यही है.


 
लालच मोह कपट विकराल,
  कौआ चले हंस की चाल.
गतानुगतिका  बसी रची है,
भागदौड़ गलकाट मची है.



नहीं घड़ी के पास वक़्त है,
पत्रहीन पीत ठूंठ दरख़्त है.
सब कुछ जड़, पर भ्रम चेतन का,
अज्ञान अहं संग मणि-कंचन का


अचल वदन, चपल मन भागे,
सुप्त अंतस, इतर सब जागे.
भ्रम में जागे, भ्रम में सोये,
भ्रम में पाये, भ्रम में खोये.




चला बटोही बाट नहीं है,
जीवन नैया का घाट नहीं है.
बहे बयार पतवार नहीं है,
संसार निस्सार मंझधार यहीं है.




संग नहीं अब कोइ मेरा,
चला मुसाफिर छूट गया डेरा.
मैं नीतांत एकांत पथिक हूँ,
            नीरस दुनिया का कवि रसिक हूँ.

ब्रह्म-प्रहर

लघु ऊर्मि बन दीर्घ उच्छवास,
सागर के वक्ष पर करे हास.

चढ़े श्रृंग, फिर गर्त उतर,
सरपट दौड़े नाचे तट पर.

कर सैकत राशि से आलिंगन,
लहरें टूटें बिखरे जलकण.

तीर पर एकत्रित शीप-शंख,
कर चली लौट तंवंगी तरंग.

मटके झटके लघु जलचर जीव,
दृश्य झिलमिल शाश्वत सजीव.

जलनिधि का पुनः नव सुभग रास,
लहरें फेनिल, वैभव विलास.

छेड़छाड़ तट से सागर का,
प्रेम-किल्लोल ये रत्नाकर का.

उल्लसित चुम्बन तट-बाहुपाश,
योग वियोग उत्कर्ष विनाश.

  संसार समंदर जीव लहर है,
भींगे जब कूल ब्रह्म-प्रहर है.

Wednesday, 15 October 2014

देवालय

विज्ञान, पुराण और इतिहास सभी इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि कश्मीर  पुरा काल में जलोत्प्लावित था और सतीसर के नाम से जाना जाता था. बारामुला (वाराह मूल) में पर्वत-खंड के शिला द्वार खुलने से यह भाग जलरिक्त हुआ था और इस सुरम्य घाटी में सभ्यता का विकास हुआ. इस वर्ष सितम्बर महीने में भीषण बाढ़ की वीभिषिका से दंशित यह क्षेत्र पुनः अपने सतीसर स्वरुप में उपस्थित हुआ. सर्वत्र जलमग्न!
इसी त्रासदी में यह खबर आयी कि भारतीय सेना के सपुत रण-बांकुरो के सह्योग से शंकराचार्य निर्मित शिव मंदिर परिसर में श्रीनगर के मुसलमनों ने शरण ली. ये तो था प्रकाशन और प्रसारण समाचार माध्यमों में छपने और बंचने वाली खबरों का पत्रकारी स्वरुप. सही बात ये होती कि बाढ़ पीड़ित इंसानों ने पनाह ली. एक बेघर बेघर होता है और एक भूखा भूखा! न वह हिंदु होता है, न मुसलमान. मदद को उठे इंसानी हाथ भी उसकी रुह में बैठे खुदाई खिदमतगार की रहमत होती है.
फिर मंदिर मंदिर होता है- देवालय. वहां ईश्वर का निवास होता है. ईश्वर का कोई धर्म नहीं होता. उसकी कोई जाति नहीं होती. ये तो उसके पास जाने के लिये इंसान के द्वारा गढ़े गये रास्ते या जीवन-पद्धतियां हैं. तो फिर देवालय का शरणागत भी प्राणी मात्र ही होता है. वह हिंदु मुसलमान नहीं होता. वहां पहुंचने पर उसका सर्वस्व पीछे छूट जाता है. याद करें, क्या कहा भगवान कृष्ण ने गीता में-
      “ सर्वांधर्मान परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज “
सामान्यतः, मेरा ऐसी किसी घटना से पाला नहीं पड़ता कि किसी दंगाग्रस्त इलाके में किसी मंदिर ने किसी पीड़ित अहिंदु को या किसी मस्जिद ने किसी गैर मुसलमान को पनाह दी हो. इसलिये एक आम इंसान होने के नाते ऐसे  मंदिर-मस्जिद के ठेकेदारों के प्रति मेरी कोई श्रद्धा नहीं. मुझे उस बंगाली हिंदु पति को भी धर्मभ्रष्ट काफिर कहने में कोई संकोच नहीं होता, जिसका सामना अज्ञेय की कहानी रमंते तत्र देवताः में सरदारा विशन सिंह से कलकत्ते के शामपुकुर लेन में होता है.     
 ऐसे में, ईश्वर के दूत इन सैनिकों को शत शत नमन!
हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है. यह मानव आत्मा के समष्टि विलयन के सांस्कारिक श्रृंगार की शाश्वत प्रणाली है.
       “अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम
       उदार चरितानांतु  वसुधैव   कुटुम्बकम.”
इसके मूल में यह सार्वभौमिक मान्यता है कि आत्मवतसर्वभुतेषु यः पश्यति सः पण्डितः’. हिंदु दर्शन का आधार है प्रकृति के समस्त परमाणु में परम पिता परमेश्वर का वास होता है. तो फिर, उसके आवास यानि देवालयों में भी प्रत्येक परमाणु समान हैं. वहां कोई भेदभाव क्यों? चर-अचर, जड़-चेतन, सजीव-निर्जीव सभी वस्तुएं उसकी नैसर्गिक आभा के विस्तार हैं. तो फिर शिव निवास में शरणागत को किसी धर्म या सम्प्रदाय की संज्ञा के उच्छृंखल बंधन में क्यों बांधे! यह सतीसर के  उस अखंड, प्रचंड व प्रगल्भ भगवान शिव की अपार महिमा का खंडन होगा जिसका मूल स्वरुप है- सत्यम, शिवम, सुंदरम.
भगवान ईंट, गारे और प्रबलित कंक्रीट की अट्टलिकाओं में नहीं बसते. वे तो उन पवित्र भावनाओं में रमते हैं जो आत्मा और परमात्मा के बीच की चिरंतन कड़ी है. आइये, कबीर को सुनें-
       पाथर पूजे हरी मिले तो मैं पूजु पहाड़
                 और
       “कांकड़-पाथर जोड़ी के, मस्जिद दियो बनाय

       ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरे भयो खुदाय.”  

न जाने कलम क्यों जाती थम!

कर अवलोकन इतिहास सृष्टि का, 
दैहिक, दैविक, भौतिक दृष्टि का. 
काल, कल्प, कुल गाथा अनंत की,
सार, असार,सुर, असुर और संत की.
जीव जगत स्थावर जंगम
तत त्वम असि एवम सो अहम.

न जाने कलम क्यों जाती थम!

मधुर मिलन कल, आज विरह है,
मृदुल आनंद, अब दुख दुःसह है.
जीते जय, आज पाये पराजय,
कल निर्मित, अब आज हुआ क्षय.
पहले प्रकाश, अब पसरा है तम,
खुशियों को फिर घेरे हैं गम.

न जाने, कलम क्यों जाती थम!

नदियां पर्वत से उतर-उतर,
मिलते कितने झरने झर-झर.
जल-प्रवाह का राग अमर,
कभी किलकारी, कभी कातर स्वर.
उपसंहार सागर संगम,
क्या, यहीं जीवन का आगम-निगम?

न जाने कलम क्यों जाती थम!

जाड़ा, गर्मी और बरसात,
दिव्य दिवस, फिर काली रात.
जड़- चेतन कण-कण गतिमान,
जीव-जगत का यहीं ज्ञान.
सृष्टि-विनाश अनवरत, ये क्रम,
प्रकृति-पुरुष का है लीला भ्रम.


अब जाने, कलम क्यों जाती थम.