Friday, 28 April 2017

मौन !

 मैं राही, न ठौर ठिकाना,
जगा सरकता मैं सपनो में ।
डगर डगर पर जीवन पथ के
छला गया मैं बस अपनो से ।

भ्रम विश्व में, मैं माया जीव!
अपने कौन, बेगाने कौन?
संसार के शोर गुल में
सृष्टि का स्पंदन मौन।

मौन नयन, मौन पवन,
मौन प्रकृति का नाद।
मौन पथ और मौन पथिक
मौन यात्रा का आह्लाद।

मन की बाते निकले मन से
मौन मौन मन भाती।
और मन की भाषा मे,
मन मौन मीठास बतियाती।

मौन हँसी है, मौन है रुदन
मौन है मन की तृष्णा।
दुर्योधन की द्युत सभा मे,
मौन कृष्ण और कृष्णा।

जन्म क्रंदन और मौन मरण,
मौन है द्वैत का वाद।
मन ही मन मे मन का मौन,
मौन पुरुष प्रकृति संवाद।

12 comments:

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  2. अत्यंत आभार आपका!!!

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  3. गोपेश मोहन जैसवाल6 February 2019 at 07:37

    बहुत सुन्दर कविराज ! मौन के माध्यम से तुमने सब कुछ तो कह डाला !

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  4. अत्यंत आभार आपका!!!

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  5. बहुत खूब !!मौन की भाषा ,बहुत कुछ कह जाती है ।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका!!!!!

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  6. जन्म क्रंदन और मौन मरण,
    मौन है द्वैत का वाद।
    मन ही मन मे मन का मौन,
    मौन पुरुष प्रकृति संवाद।
    ... बिलकुल सच...मौन ही स्वयं से साक्षात्कार करा सकता है... बहुत सुन्दर

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    1. जी, अत्यंत आभार आपका!!!!!

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  7. अद्भुत ...
    बेहतरीन सृजन

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  8. मन की बाते निकले मन से
    मौन मौन मन भाती।
    और मन की भाषा मे,
    सादर मन मौन मीठास बतियाती।////
    🙏🙏🙏🙏

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