Tuesday 23 February 2021

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला!

कई दिनों से रूठी मेरे,

अंतर्मन की कविता।

मनहूसी, मायूसी, मद्धम,

मंद-मंद मन मीता।


शोर के अंदर सन्नाटा है,

शब्द, छंद सब मौन।

कांकड़-पाथर-से भये आखर,

भाव हुए हैं गौण।


थम गई पत्ती, चुप है चिड़िया,

और पवन निष्पंद।

पर्वत बुत-से बने पड़े हैं,

नदियों का बहना बंद।


हिमकाल के मनु-से मेरे,

मन में बैठी इड़ा।

बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!

परखे पीव की पीड़ा?


अभिसार-से सुर श्रद्धा के,

नहीं सुनाई देते।

सुध धरा की व्याकुलता का,

बादल भी नहीं लेते।


चाँद गगन में तनहा तैरे,

आसमान है बेदम।

जुगनू जाकर जम गए तम में,

करे पलायन पूनम।


नि:शक्त शिव शव स्थावर,

निश्चेतन जीव जगत है।

समय चक्र की सतत कला का,

यही नियति आगत है।


प्रलय काल में क्षय के छोर पर,

हो, शक्ति की आहट।

स्फुरण में चेतन के फिर,

जागेंगे शिव औघट।


शिव के डमरू से निकलेगा,

प्रणव-नाद का गान।

और कन्हैया की मुरली से,

प्रणय-रास की तान।


अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,

गढ़े ज्ञान की गीता।

अनहद चेतन अंतर्मन में,

मानेगी मेरी कविता!!!


राह निहारूँ उस पहरी की,

मनमीता मोरी मानें।

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,

जड़-चेतन सब पहचानें।













46 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर व दिव्य भावों से ओतप्रोत मुग्ध करती कविता - - साधुवाद सह।

    ReplyDelete
  2. जी, आपके इस महत यज्ञ का विशेष आभार!!!

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर भाव हैं आपके इस काव्य-सृजन में विश्वमोहन जी ।

    ReplyDelete
  4. कवि मन की शानदार कशमकश को आपने वाणी और शब्द दे दिए..अध्यात्म तथा दर्शन ..दोनों का दिव्य दर्शन..

    ReplyDelete
  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  6. रूठने मनाने की प्रगाढ़ प्रेमिल अनुभूतियों से सजी भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी रचना। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

    ReplyDelete
  7. मनु,श्रद्धा,बाँसुरी ,शिव इत्यादि को प्रतीक बना कर कवि की मनःचेतना को अच्छा व्यक्त किया है.

    ReplyDelete
  8. बहुत सुंदर!
    जब कविता रूठती है तब व्याकुल मन की पीड़ा बस यूं ही फूटती है और देखिए कितनी गहन उपमाएं लेकर कविता प्रकट हो जाती है कवि से कविता कहां दूर रह पाती है।
    बहुत सुंदर सृजन ।।

    ReplyDelete
  9. हिमकाल के मनु-से मेरे,

    मन में बैठी इड़ा।

    बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!

    परखे पीव की पीड़ा?
    नाद और तान के साथ सब पीड़ा भी बाहर आएगी ।
    सुंदर भाव लिए हुए कविता

    ReplyDelete
  10. जब रूठी है तो इतना सुंदर सृजन यदि मान जाएगी तब क्या होगा

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपकी मृदुल शुभकामनाओं के लिए!!!

      Delete
  11. अनहद नाद की गूंज हृदय को झंकृत कर रही है । अति सुन्दर सृजन । हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, हार्दिक आभार!!!!

      Delete

    2. सुंदर छंदों से सुसज्जित सुंदर रचना!
      शोर के अंदर सन्नाटा है,
      शब्द, छंद सब मौन।
      कांकड़-पाथर-से भये आखर,
      भाव हुए हैं गौण।

      Delete
  12. आपके अंतर्मन की कविता रूठी हुई हो सकती है मगर बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी है। आपको बहुत-बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  13. बेहतरीन रचना आदरणीय।

    ReplyDelete
  14. बहुत भावपूर्ण रचना आदरणीय सर। सुंदर। हार्दिक आभार व आपको प्रणाम।

    ReplyDelete
  15. अति सुन्दर..अनंत तक जाती आपकी रचना अनुपम है..
    सादर नमन..

    ReplyDelete
  16. रूठी हुई है तो इतना प्यारा सृजन अगर मान गई तो...
    परमात्मा करें जल्द मान जाए... ताकि हम आपकी और भी अच्छी रचनाओं का आनन्द उठा पाए,सादर नमस्कार

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का।

      Delete
  17. आदरणीय सर,
    सादर प्रणाम।
    आज आपसे एक अनुरोध है। मैं ने प्रतिलिपी पर अपनी दो कहानियाँ डाली हैं 1.वर्षा ऋतु 2. जब कान्हा आये। कृपया उसे पढ़ कर अपना मार्गदर्शन और आशीष दें। मैं अत्यंत आभारी रहूँगी।
    आपकी यह सुंदर रचना पुनः पढ़ी, बहुत आनंद आया।
    आपको पुनः प्रणाम

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार। प्रतिलिपि वाली कहानी का लिंक भेजिए।

      Delete
    2. कैसे भेजूँ?

      Delete
  18. और प्रतिलिपी पर तो आप हैं ही

    ReplyDelete
    Replies
    1. टिप्पणी दर्ज हो गयी है। अपनी प्रतिलिपि खंगाल लें।😀🙏

      Delete
  19. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (११-०७-२०२१) को
    "कुछ छंद ...चंद कविताएँ..."(चर्चा अंक- ४१२२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    ReplyDelete
  20. पुरुषोत्तम जी ने आज एक बार फिर से इस काव्य को पढ़ने का अवसर दिया। वैसे तो ये जितनी बार भी पढ़े जी नहीं भरता मगर वक़्त आभाव के कारण...
    अनमोल कृति है ये आपकी ,सादर नमन

    ReplyDelete
    Replies
    1. आशीष भी अनमोल है ये आपका! अत्यंत आभार।

      Delete
  21. अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
    गढ़े ज्ञान की गीता।
    अनहद चेतन अंतर्मन में,
    मानेगी मेरी कविता!!!
    मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि इस कविता के गूढ़ को समझ पाना मेरे लिए जरा कठिन है। अलग अलग अर्थ हो सकते हैं अपनी समझ के अनुसार। आपकी विद्वत्ता से उपजा इस कविता का शब्द शिल्प और इसकी गूढ़ता ही इस कविता का प्राण है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. एक बार कविता कवि के हाथ से निकल गयी तो वह पाठक की संपत्ति बन जाती है। अब पाठक का अर्थ ही सही अर्थ माना जायेगा।😀🙏 अत्यंत आभार।

      Delete
  22. बहुत बहुत शानदार ।
    पहले भी उतनी ही मोहक आज भी रस से सराबोर।
    सुंदर सृजन।

    ReplyDelete
  23. वाह लाजबाव सृजन

    ReplyDelete
  24. रचना से प्रेरित पंक्तियाँ !!!!

    इकलहर समय की मिलवाती,
    दूजी दूर ले जाती,
    निष्ठुर कान्हा कब पढ़ पाते
    राधा के मन की पाती,
    जाने किसकी खातिर माधव
    मुरली मधुर बजाए ,
    पुकार थकी तरसी राधा
    छलिया कहाँ बस में आये!
    शिव करते मनमानी।
    नयन मूँद ना पलकें खोले,
    ना जाने शक्ति की पीड़ा
    औघड़ बम- बम भोले,
    जब चाहें उठाके डमरू_
    जड़ में चैतन्य भरते
    प्रेयसी भटकी जन्म -मरण में
    ना अमरत्व प्रीत में भरते!!//////////


    😂😂

    ReplyDelete
    Replies
    1. लाजवाब, अद्भुत, विलक्षण!!!

      Delete