Tuesday 4 May 2021

समय की चाल

 कभी नहीं होता कुछ जग में,

 अकारण अकाल!

समय सदा से चलता आया,

अपनी अद्भुत चाल।


जब दिखता है जहाँ ये सूरज,

कहते हुआ है भोर।

होती हरदम पथ परिक्रमा, 

कहीं ओर न छोर।


और ओझल होते ही इसके,

रजनी धरा पर छाती।

पूनम अमा की चक्र कला में, 

अँधियारा फैलाती।


निहारिकाओं को निहार कर,

जब चंदा मुस्काता।

चंदन-सी चूती चाँदनी,

चट चकोर पी जाता।


फिर छाते ही नभ में मेघिल,

घटाटोप घनघोर।

कुंज वीथिका विहँसे मयूरी,

वन नाचे मन-मोर।


लट काली नागिन-सी बदरी,

पवन प्रचंड इठलाती।

प्रेम पिपासु प्यासी धरती,

पानी को अकुलाती।


विरह-व्यथा में विगलित बादल,

 गरज-गरज कर रोता।

अविरल आँसू से अपनी,

आहत अवनि को धोता।


पीकर पिया के पीव-पीयूष,

धरती रानी हरियाती। 

रेश-रेश और पोर-पोर में,

तरुणाई अँखुआती।


वसुधा के उर में फिरसे,

नव जीवन छा जाता।

कभी अकारण और अकाल,

नहीं काल यह आता।






49 comments:

  1. अकारण तो काल नहीं आता लेकिन अभी ऐसा काल चल रहा जिससे सब अनभिज्ञ हैं ।


    कविता में बहुत सुंदर प्रकृति का वर्णन है । मन को सुकून देती सी रचना ।

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    1. यह समय भी गुजर जाएगा। जी, अत्यंत आभार।

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  2. अकारण और अकाल ये समय नहीं आता पर कई बार लम्बा ज़रूर हो जाता है ...
    समय का लम्बा पन कई दुःख या दुःख भरी यादें छोड़ जाता है ...

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    1. वक़्त के छोड़े घावों पर मरहम भी वक़्त ही लगाता है। जी, अत्यंत आभार!!!

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  3. जी बिल्कुल सही कहा आपने। इस सृष्टि में अकारण कुछ भी नहीं होता है।

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  4. कभी नहीं होता कुछ जग में,
    अकारण अकाल!
    समय सदा से चलता आया,
    अपनी अद्भुत चाल।
    ...इस सत्य को साकार करती हुई आपकी अनेकों तर्क व सत्यार्थ को कौन नकार सकता है। बेहद सुन्दर रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएँ आदरणीय विश्वमोहन जी।

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    1. आपकी बातें हमेशा उत्साहवर्द्धक होती हैं। जी, अत्यंत आभार।

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  5. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -5-21) को "शिव कहाँ जो जीत लूँगा मृत्यु को पी कर ज़हर "(चर्चा अंक 4057) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. जी, बहुत आभार आपका। 'चर्चा मंच' को अपने नाम के अनुरूप गद्य लेखों पर भी ध्यान केंद्रित कर समान प्रतिनिधित्व देना चाहिए, ऐसा हमें लगता है। या फिर आपलोग गद्य रचनाओं के लिए एक अलग कोई और मंच आरम्भ कीजिये। साहित्य की हर विधा से पाठक रु ब रु हों तो अच्छा है।

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    2. मैं आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ और व्यक्तिगत तौर पर मेरी पूरी कोशिश होती है कि गद्य और पद्य दोनों ही रचनाओं को सम्मिलित कर सकूँ। मैं तो स्वयं ही ज्यादा गद्य ही लिखती हूँ। बाकी निर्णय तो व्यवस्थापको का है। आपके इस बेहतरीन सुझाव के लिए आभार आपका ,सादर नमन

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    3. जी बहुत आभार मेरी बातों पर गौर फरमाने के लिए।

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  6. सृष्टि का यही सनातन सत्य है विश्वमोहन जी जो आपने इस असाधारण काव्य के द्वारा सभी के सम्मुख रखा। अकारण इस संसार में कुछ नहीं होता। प्रकृति का प्रत्येक अंग कोटि-कोटि वर्षों से अपने नियत पथ पर निष्ठापूर्वक चल रहा है। इस लयबद्ध क्रम में व्यवधान उत्पन्न कर के संसार को कष्ट की अग्नि में झुलसाने का अपराध तो मानव करता है। करता ही आ रहा है शताब्दियों से। न जाने मानव का विवेक कब जागृत होगा तथा वह प्रकृति का सम्मान करना एवं उसके प्रति कृतज्ञ होना सीखेगा?

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    1. कविता के भावों को सार्थक विस्तार देने का आभार!!!

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  7. "कभी अकारण और अकाल,

    नहीं काल यह आता।"

    बिलकुल सही कहा आपने ,काल को हम बुलाते है बिन बुलाये तो वो भी कही नहीं जाता।
    अब रचनाओं के बारे में क्या कहूँ ,शब्द-शब्द अनमोल है,सादर नमन आपको

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    1. इस अप्रतिम आशीष का अत्यंत आभार।

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  8. असाधारण, अद्भुत।
    बहुत सुंदर सृजन! शाश्वत परिदृश्य, प्रकृति के कलापों को आपकी शब्दों की जादूगरी और भी अभिराम कर गई।

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    1. ...और आपके आशीर्वचनों की अद्भुत माधुरी भी!

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  9. लट काली नागिन-सी बदरी,

    पवन प्रचंड इठलाती।

    प्रेम पिपासु प्यासी धरती,

    पानी को अकुलाती।---बेहद गहरी रचना है, ये कसक हममें से हरेक के अंदर होनी चाहिए।

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    1. जी, बहुत आभार आपके सुंदर शब्दों का।

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  10. विश्वमोहन जी आपकी ये रचना अपनी प्रकृति को समर्पित पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ के जून माह के अंक के लिए लेना चाहता हूं, यदि आप बेहतर समझें तो कविता, आपका फोटोग्राफ, संक्षिप्त परिचय हमें मेल कर दीजिएगा या मेरे व्हाटसऐप पर भी आप प्रेषित कर सकते हैं। आभार आपका

    email- editorpd17@gmail.com
    mob/ - 8191903651

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  11. बहुत ही सुंदर रचना सर!

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    1. सरस, मधुर और सुकोमल अलंकृत सृजन आदरणीय विश्वमोहन जी। प्रकृति के नियमित गोचर में एक संकेत और संदेश है, जिसे हम देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं! सदियों से सभी पहरों और दिशाओं का नियमित क्रियाकलाप एक रोमांचक चक्र है सृष्टि का। सृजन से प्रलय तक समय की चाल अटल है। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई एक बेहतरीन रचना के लिए। सादर 🙏 🙏

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    2. आपके आशीष सदैव उत्साह बढ़ाते हैं।

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  12. प्रकृति की सुंदरता देखकर मैंने तो अकाल शब्द पर ध्यान ही नहीं दिया,शायद हमने जो बोया है वही काट रहे हैं, जीवन जिस दृष्टि से देखो,वही दिखता है, आपकी सुंदर कविता ने ऊष्मा का संचार किया,बस ये काफ़ी है, आपको सादर शुभकामनाएँ।

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    1. जी, सही कहा आपने - 'जैसा बोओ वैसा काटो।' अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का!!!

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  13. Mice. Poem 👌👌👌🙏🙏🙏🙏

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  14. There is a not so simplistic but famous quote by Einstein "God does not play dice with the universe". Laws of the universe are fundamental and immutable. When we lament about things being untimely or without a reason, it is because of our temporal and narrow understanding.
    In the larger scheme of this all this is a "cause" and "effect" cycle...whether it applies to nature or humans.

    Well said, Vishwamohan.!!I also like the way you always end things on a positive note.:)

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  15. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।

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  16. कभी नहीं होता कुछ जग में,

    अकारण अकाल!

    समय सदा से चलता आया,

    अपनी अद्भुत चाल।
    बहुत अच्छी कविता |सादर अभिवादन

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  18.  कभी नहीं होता कुछ जग में,

     अकारण अकाल!

    समय सदा से चलता आया,

    अपनी अद्भुत चाल।

    बहुत सुन्दर

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  19. सौभाग्य से ही ऐसे रचनाकार का साथ मिलता है । आपकी प्रस्तुति को सादर नमन।

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    1. आपके इस अद्भुत और अनुपम आशीष का हृदय तल से आभार!!!

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