Tuesday 30 November 2021

शोर नहीं, सन्नाटा!


सृष्टि, स्थिति
और प्रलय है।
जय में क्षय है,
क्षय में जय है।

कालरात्रि की
काली कोख है।
सभी मौन, पर
समय शोख है।

क्षितिज से छलका
भौचक्क! भोर है।
मौन को मथता
मचा रोर है।


शोर नहीं,
यह सन्नाटा है।
ज्वार अंदर,
बाहर भाटा है।

कल, आज, कल
यूँ घूमता है।
विरह मिलन के,
संग झूमता है।

शांत शर्वरी,
वाचाल दिवस है।
काल चक्र में,
सभी विवश हैं।

जो आगत है,
वही विगत है।
सृष्टि का बस,
यही एक सत है।

22 comments:

  1. सृष्टि के सत्य को कहती भावपूर्ण रचना ।
    सन्नाटे में भी शोर सुनाई देता है ।सुंदर सृजन ।

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  2. जी, अत्यंत आभार!!!

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  3. कालचक्र में बंधे जीवन की द्विरंगी प्रकृति को उद्घघाटित सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय विश्वमोहन जी। दोनों रंग एक दूसरे में गूंथे और एक दूजे के पूरक है चाहे मिलन -वियोग हों ,धूप-छांव अथवा दिन-रात! सृष्टि अपनी लय में निरंतर गोचर करती है। ये पंक्तियां विशेष लगी ---

    शांत शर्वरी,
    वाचाल दिवस है।
    काल चक्र में,
    सभी विवश हैं।👌👌
    हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 🙏🙏

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  4. बहुत बहुत सुन्दर रचना

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  5. श्रृष्टि का गान लिख दिया ...
    जीवन का सार लिख दिया ...स्पष्ट तार-तार लिख दिया ...
    बहुत ही सहजता से गहरी बातों को कहने का प्रयास है विश्वमोहन जी ... नमस्कार ...

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  6. सृष्टि की सत्यता को परिभाषित करती सुंदर रचना के लिए आपको बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  7. सत्य ! हर लम्हा कह लों 'समय शोख है।'
    लाजवाब शब्द संयोजन अर्थ और भावों से छलकती लघु रचनाएं।
    अप्रतिम।

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  8. You have well elucidated the hollow deafening silence which exists within the din and cacophony surrounding us !

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  9. Replies
    1. जी, बहुत आभार आपका।😄🙏

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  10. क्यूँ कर उलझते हो तुम
    इन महीन रेखाओं के मध्यांतर में
    तितिक्षा के गाँव में वास करो

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    1. अटके रहे कब से,
      तितिक्षा के गाँव में।
      गलियारे में ज्ञान की,
      बुभक्षा की छाँह में!
      भूख ये मिटा जाय,
      जोगी कोई राह में।

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