Friday 14 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (३)


(भाग-२ से आगे)
एक बात और। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है पूर्वाग्रहों से मुक्त, प्रामणिकता, सार्थक तर्क और वस्तुनिष्ठता। हमें दोनों ध्रुवों पर खड़े कट्टरपंथियों से परहेज  करना पड़ेगा जो मात्र समर्थन के लिए समर्थन या विरोध के लिए विरोध करते हैं। हम एक मूलर या मेकौले के लिए पूरे यूरोपीय साहित्यकारों के प्रति भी  अपने मन में कोई नकारात्मक छवि बना लें तो यह भी उचित नहीं। बात चाहे जो भी हो मूलर और विलियम जोंस के इस योगदान को हम  भुला नहीं सकते कि भारतीय वैदिक ग्रंथों को उन्होंने बड़ी प्रमुखता से विश्व के पटल पर रखा और इसकी विवेचना तथा मीमांसा की आधारभूमि तैयार की। साथ ही, यह भी नहीं  कि हमारे मन की बात हो तो ठीक, अन्यथा ग़लत! यहाँ  मन की बात नहीं बल्कि सही-ग़लत के परीक्षण का तर्क की कसौटी पर खरे होने का सवाल है। सही बातों का स्वीकार और ग़लत बातों का अस्वीकार। उदाहरण के तौर पर जब तर्क की कसौटी पर स्वयं मूलर  के सहकर्मियों गोल्डस्टकर, ह्विटनी और विल्सन ने मूलर को चुनौती देते हुए यह समझा दिया कि ऋग्वेद रचे जाने की उसकी काल गणना ठीक नहीं, तो स्वयं मूलर ने बड़ी ईमानदारी से उनकी बातों को मान  लिया और यहाँ तक कह दिया कि उसका  काल-निर्धारण एक थोथी कल्पना मात्र है और वेदों की ऋचाओं की रचना १२०० ईपु (ईसापूर्व) हुई, या १५०० ईपु हुई, या २००० ईपु हुई, या ३००० ईपु हुई इस तथ्य का उद्घाटन इस संसार के किसी भी प्राणी के वश की बात नहीं। 
मज़े की बात यह है कि मूलर तो अपनी ग़लती मान के चले गए लेकिन उनके अनुयायी उसे अभी तक ढो रहे हैं। मूलतः मूलर का सारा किया-कराया चार ही बातों के चारों ओर केंद्रित था। एक तो आर्य बाहर से आरे वाले पहिए के रथ पर सवार होकर अपने घोड़ों के साथ दक्षिण रूस से पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत पर १५०० ईसापूर्व आक्रमण  किए। अपने रथों को हमलावर आर्यों ने  हिंदूकुश और हिमावत  के पार कैसे कराया, इसकी चर्चा तो उसने नहीं की है, लेकिन  सम्भवतः भारतीय पौराणिक कथाओं का वह वृतांत उसके सामने रहा होगा कि अगस्त्य के दक्षिण भारत जाते समय विंध्य पर्वत ने सर झुकाकर उन्हें जाने की राह दी थी!  दूसरेहड़प्पा के लोग द्रविड़ बोलते थे और उन्हें आर्यों ने खदेड़कर दक्षिण भारत पहुँचा दिया। तीसरे, वह संस्कृत भाषा लेकर यूरोप से आए थे और उसी संस्कृत में उन्होंने सप्त-सिंधु क्षेत्र में  वेद की रचना की। उसने इस बात का भी संकेत नहीं दिया कि अपनी  जिस तथाकथित जन्मभूमि से संस्कृत लायी गयी, उस भूमि में संस्कृत की आज दशा और दिशा क्या है।  जिस सरस्वती नदी का  वर्णन ऋग्वेद में है उसे उसने अफ़ग़ानिस्तान की हेमलैंड नदी बताया। और चौथे, हड़प्पा की संस्कृति को आक्रांता-आर्यों ने  नष्ट कर दिया। इन सब बातों पर हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। इसके लिए हम ऋग्वेद के साहित्य में उन श्लोकों को भी देखेंगे जिसमें सरस्वती नदी का परिचय ऐसी  पवित्र  नदी के रूप में किया गया है जो हिमावत पर्वत से नि:सृत होकर आर्य भूमि को सिंचित करते हुए समुद्र में मिल जाती है और साथ ही, वेदों में वर्णित इस सरस्वती नदी के भौगोलिक वितान का अफ़ग़ानिस्तान की भूमि से किंचित भी ताल-मेल नहीं बैठता।       
      अब हम थोड़ा भारत में पुरातात्विक उत्खनन के इतिहास की भी चर्चा कर लें। सबसे पहली खुदायी १९२१ ईसवी में  आज के  पाकिस्तान के  हड़प्पा क्षेत्र  में दयाराम साहनी द्वारा की गयी। इससे बहुत पहले क़रीब सातवीं शताब्दी में पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) में जब ईटें बनाने के लिए लोगों ने मिट्टी की खुदायी की तो उन्हें मिट्टी के अंदर ही दबे साबुत ईंट मिले। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। लोगों ने इसे ईश्वर का चमत्कार माना और उन ईटों का उपयोग घर बनाने में किया था। बात १८२७ की है। ब्रिटिश आर्मी के एक भगोड़े सैनिक थे चार्ल्स मैसेन। उनका शौक़ था ख़ूब भ्रमण करना और पुराने सिक्कों या बहुत पुरानी चीज़ों का संग्रह करना। वह जगह-जगह मिट्टी को खोदकर उसके अंदर से कोई रोचक चीज़, सिक्के या पुरानी वस्तु मिल जाय तो उसे संग्रहित कर लेते थे। कहते हैं कि इस भगोड़े सैनिक ने १८४२ तक वापस इंग्लैंड पहुँचने तक ४७००० पुराने सिक्के जमा कर लिए थे। अपनी इसी रुचि के क्रम में उन्होंने हड़प्पा और उसके आस-पास के कई जगहों की यात्रा की थी, जब वे आगरा कैंट से अपने एक अन्य भगोड़े मित्र के साथ भागे थे। मोहनजोदड़ो से क़रीब १०० मील उत्तर पश्चिम में कलात नामक एक जगह के टीले का भी उन्होंने वर्णन किया है जो हड़प्पा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। कलात में रहने वाले ब्रहुईलोगों का भी उल्लेख उन्होंने किया है जो द्रविण  भाषा बोलते थे। मोहनजोदड़ो के आस-पास भी ब्रहुई लोगों के रहने  का प्रमाण मिलता है। अपनी पुस्तक ‘Narrative of various journeys in Bolochistan, Afganistan and Punjab’  में मैसन ने इन सबका विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने ब्रहुई लोगों की एक लोक-कथा की भी चर्चा अपनी पुस्तक में की है। कुल मिलाकर, चार्ल्स मैसन पहले यूरोपीय थे जिन्होंने  हड़प्पा की जानकारी सबसे पहले दी। बंगाल इंजीनियर ग्रुप में इंजीनियर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने १८५६ में इस स्थल का निरीक्षण किया था। किंवदंती तो यह भी है कि कराची से लाहौर के मध्य रेल लाइन के निर्माण में इन स्थलों से मिले ईटों का भी प्रयोग हुआ था। १८६१ में अलेक्ज़ेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना तत्कालीन वायसराय जॉन केनिंग की सहायता से  हुई। अपने शुरुआती दिनों में यह मूलतः एक सर्वेक्षण संस्थान  था।  कनिंघम ने गया से लेकर अफगनिस्तान की सीमा तक के क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया। पुराने स्मारकों की सूची बनायी गयी। उनकी देखरेख संबंधी नीतियों के निर्माण की दिशा में पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग अपनी भूमिका के क्रम में कई उतार-चढ़ाव देखते रहा। लॉर्ड कर्ज़न के वायसराय बनते ही इस विभाग के दिन बहुर  गए। कर्ज़न ने इस विभाग के लिए महानिदेशक पद का सृजन किया और १९०१ में जॉन मार्शल को इस पद पर नियुक्त किया। १९०२ में मार्शल ने पदभार ग्रहण किया। मार्शल के ही मार्गदर्शन में दया राम साहनी ने   १९२१ में हड़प्पा की  तथा  रखाल दास बनर्जी ने १९२२ में मोहनजोदड़ो (सिंधी भाषा में मुइन जे दाडोअर्थात मुर्दों का टीला’) की खुदाई की।
        उत्खनन में प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक पड़ताल के बाद यह प्रकाश में आया कि  सिंधु-घाटी की सभ्यताके नाम से प्रसिद्ध इस सभ्यता का विनाश १९०० ईसा पूर्व  ही हो गया था। फिर तो १५०० ईसापूर्व आर्यों के भारत में घुसकर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के लोगों को पराजित कर वहाँ से भगाकर अपना डेरा डालने वाली कहानी गढ़नेवाले इतिहासकारों के मुँह पर ताला लग गया। आर्य-अतिक्रमण सिद्धांत को आधुनिक विज्ञान ने  सबसे बड़ा आघात पहुँचाया। तब इन सिद्धांतकारों ने  १५०० ईसापूर्व को संशोधित कर १५००-२००० ईसापूर्व कहा। अब किसी की उम्र का अन्दाज़ करने में ५-१० साल का अंतर तो पच सकता है, लेकिन ५०० साल के अंतर के अन्दाज़ को तो सिर्फ़ गप्पबाज़ी ही कहा जा सकता है। इन वैज्ञानिक तथ्यों के आ जाने के बाद अब आर्य आक्रमण सिद्धांतअर्थात ‘AIT’ (ARYA INVASION THEORY)’ को आर्य अप्रवासन सिद्धांतअर्थात ‘AMT (Arya Migration Theory) कहा जाने लगा। कुछ लोग तो इसे अब ‘ATT (Arya Tourism Theory)’ अर्थात आर्य-पर्यटन  सिद्धांतभी कहने लगे हैं। हम खुदाई से प्राप्त सबूतों पर बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे।
अभी हम इतना ही कहकर इस प्रकरण पर आगे लौटकर आने तक विराम लेना चाहते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यताके क्षेत्रों में जो भी खुदायी हुई वह सारी खुदाई भारत को आज़ादी मिलने (१९४७) से पहले आज के पाकिस्तान वाले ही क्षेत्र में हुई थी। उदाहरण के तौर पर

उत्खनन-स्थल
उत्खनन वैज्ञानिक
उत्खनन-वर्ष
स्थान
नदी
हड़प्पा
दयाराम साहनी
१९२१
पंजाब(पाकिस्तान)
रावी
मोहनजोदेड़ो
रखालदास बनर्जी
१९२२
लरकाना ज़िला, सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
सुतकाजेंदर
आर एल स्टीन
१९२७
बलूचिस्तान(पाकिस्तान)
दस्क
चांहुदारो
एस गोपाल मजूमदार
१९३१
सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
       हमने ऊपर के उदाहरण से केवल यह समझाना  चाहा है कि आज़ादी मिलने से पहले तक खुदाई वाले हड़प्पा-स्थल का कोई भी भाग भारत में नहीं था और सारे-के सारे स्थल पाकिस्तान में ही थे। सच कहें तो आज़ादी मिलने के बाद भी बहुत दिनों तक तो हमारे उत्खनन-वैज्ञानिक ख़ाली ही बैठे रहे। उलटे, पाकिस्तान में पड़ने वाले स्थलों से भी उनका सम्पर्क भंग हो गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद थोड़ी देर ही सही, जब भारतीय क्षेत्रों में खुदाई का काम शुरू हुआ और हड़प्पा-संस्कृति के स्थल का विस्तार एक-एक कर के हरियाणा से राजस्थान होते हुए गुजरात तक मिलता चला गया और साथ-साथ वैज्ञानिक तकनीक की प्रगति होने से भी रहस्यों के परत एक-एक कर के खुलते चले गए तब तो सारा पासा ही उलटता-सा  प्रतीत होने लगा। हड़प्पा संस्कृति के भूगोल का मात्र एक तिहायी ही पाकिस्तान के हिस्से आया। बाक़ी दो तिहायी भारत में दृष्टावती और  सरस्वती   नदी  के बीच सरस्वती के बेसिन पर पसरा हुआ था। कुल २००० उत्खनन स्थलों में १५०० स्थल सरस्वती के बेसिन पर पाए गए।
हरियाणा के राखीगढ़ी की खुदायी ने तो मानों सारे प्रश्नों के सरल हल ही ढूँढ दिए हों। आपको बताते चलें कि  इस खुदायी का कुल क्षेत्रफल ५५० हेक्टेयर है जो उस समय तक के सबसे बड़े उत्खनन-क्षेत्र मोहन-जो-दड़ो के क्षेत्रफल का दुगुना है। राखीगढ़ी का उत्खनन और अध्ययन निरा इतिहासकारों की कथावाचन शैली पर आधारित नहीं था, बल्कि इसके कार्यान्वयन, मिली सामग्रियों के वर्गीकरण और उनके विश्लेषण में आधुनिक विज्ञान के समस्त तथ्यों का समावेश किया गया। इसमें सर्वेयिंग की अत्याधुनिक तकनीक जीपीआर (Ground Penetration Radar) प्रणालीका प्रयोग किया गया।  भौगोलिक आँकड़े, भू-गर्भीय और भू-भौतिक सर्वेक्षण के अर्वाचीनतम तकनीक, उपग्रह से लिए गए चित्रों और अन्य भूगर्भीय परीक्षणों से ज़मीन के अंदर के जल प्रवाह का अध्ययन जो नदियों के इतिहास का उद्घाटन करते हैं, जल-विज्ञान (हाईड्रोलौजी), जीवाश्मों का वैज्ञानिक विश्लेषण, मानव-जाति का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों (ऐन्थ्रॉपॉलॉजिस्ट) के द्वारा खुदाई में मिली सामग्रियों का वैज्ञानिक विश्लेषणखुदाई में मिले नरकंकालों का जेनेटिक विश्लेषण, संसार के अन्य भुभागों में हुए उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों से तुलनात्मक अध्ययन, खुदाई के भिन्न-भिन्न स्तरों की वैज्ञानिक काल-गणना और उन सभी वैज्ञानिक तत्वों का इस पुरातात्विक सर्वेक्षण में समावेश करने के बाद ही उचित नतीजे पर पहुँचने की कवायद की गयी है। उदाहरण के तौर पर राखीगढ़ी में खुदाई की गहरायी अब तक की सबसे अधिक २५ मीटर है जिसमें प्राप्त टीलों के भिन्न-भिन्न काल खंड में परत-दर-परत बैठे सतहों (डिपोज़िशन) की न केवल उम्र निकाली गयी, बल्कि उस परत के समकालीन सांस्कृतिक और भौतिक तत्वों का सम्पूर्ण अध्ययन भी किया गया। सबसे नीचे की परतें ५५०० ईसापूर्व की पायी गयी। बीच की परतें २६०० ईसापूर्व पायी गयी और सबसे उपर  की परतें १९०० ईसापूर्वकी पायी गयी, जिसके भिन्न-भिन्न आयामों के वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद यह प्रकाश में आया कि १९०० ईसापूर्व के बाद उनका नागरीय जीवन समाप्त हो गया। भिन्न-भिन्न परतों में दबे नर-कंकाल अपने-अपने काल में काल-कवलित होने के कारणों, महामारी और मौसम के प्रकोपकी भी गाथा कहते हैं। सघन वैज्ञानिक विश्लेषणों के बाद यह पाया गया कि इन कंकालों की हड्डियों के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की चोट या तेज़ धारदार हथियार के प्रहार से किसी भी प्रकार के काटने या टूटने के चिह्न नहीं थे।  मनुष्य जाति के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने इन कंकालों के आँकड़े इकट्ठे कर उनकी मुखाकृति का भी विकास कर लिया है जो आश्चर्यजनक  तौर पर आज के उस क्षेत्र के निवासियों से तनिक भी अलग नहीं है। साथ ही अतीत के टीले में दबे अन्य सांस्कृतिक तन्तुओं  को बटोरकर आज के जीवन के उन तन्तुओं से तुलना कर के यह प्रमाणित किया जा चुका है  कि काल-क्रम के सांस्कृतिक  प्रवाह की निरंतरता में कोई अवरोध या टूटन कहीं नहीं दिखता। जीवन-यापन की शैली की वही धारा आज भी उसी प्रकार बहे जा रही है। ऐसा कहीं भी कोई संकेत नहीं मिलता कि बीच में कोई बाहरी  आक्रमण आकर उस जीवन धारा की निरंतरता में कोई बड़ा शून्य डाल गया  हो। और तो और, खुदायी में मिले कंकालों के जेनेटिक परीक्षण  और आज के उस क्षेत्र के निवासियों से उसकी तुलना ने यह भी साबित कर दिया है कि दोनों के नमूनों में ७५ प्रतिशत समानता पायी गयी है अर्थात दोनों एक ही पूर्वज की संतति हैं।  हम आगे इन सभी तथ्यों को और टटोलेंगे लेकिन पहले वापस ऋग्वेद पर आते हैं, क्योंकि हमारी मौलिक चर्चा ही इस बात को लेकर शुरू हुई है कि ऋग्वेद और इसके परवर्ती वैदिक ग्रंथों की रचना कब हुई। निस्सन्देह, इसके निर्धारण में ऊपर की चर्चाएँ भी सार्थक भूमिका निभाएँगी।
वेद के गहन अध्येताओं ने वेद की भाषा-रचना, व्याकरण, शब्द-संरचना, छंद, अलंकार, उनमें वर्णित देवी-देवताओं के नाम, जगहों के नाम, ऋषियों के नाम, वंशों के नाम, राजाओं के नाम, भौगोलिक विशेषताओं, पात्रों के नाम आदि का न केवल विशद  विश्लेषण किया है, बल्कि उपलब्ध अन्य प्राचीन सभ्यताओं की साहित्य सामग्रियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। उनके इस अध्ययन ने भी इस विषय पर बहुत कुछ दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। इसी कड़ी में हम  डॉक्टर श्रीकांत तलगेरी की चर्चा करेंगे जिन्होंने अपने मौलिक शोध से न केवल आर्य-आक्रमण सिद्धांतका बहुत पांडित्यपूर्ण खंडन  किया है, उलटे यह साबित कर दिया है कि आर्य इसी मिट्टी में जन्मे थे और वह यहाँ से बाहर जाकर अपने साहित्य और दर्शन का तत्व बाहरी मिट्टी में छोड़ आए थे। इस विषय पर उन्होंने दो साल पहले भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) में अपना एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था जिसे  २० जुलाई २०२० को परिमार्जित और पुनर्संशोधित कर  प्रस्तुत किया है। यह मूलतः अंग्रेज़ी में है और अबतक अप्रकाशित है। इससे हम अपने पाठकों को परिचित कराना अपना पुनीत  कर्तव्य समझते हैं। इसके हिंदी अनुवाद और पाठकों के पास ले जाने की उन्होंने सहर्ष अनुमति भी दी है। इसके लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। लेकिन, उनके पास चलने से पहले हम पाठकों को एक प्रश्न छोड़ जाते हैं कि क्या ऐसा दृष्टांत कहीं इतिहास में उपलब्ध है कि आक्रांताओं ने पराजित देश के नदियों, पहाड़ों या जंगलों के भी  नाम बदल दिये हों, या आगे भी ऐसा कभी सम्भव हो! ये नदी, पहाड़, जंगल, झरने और  सरोवर ही  कहीं वे असली जीवित पात्र तो नहीं, जो अनंत काल तक अपने असली पूर्वजों के द्वारा रखे गए अपनी संस्कृति में सुवासित अपने मूल नाम को ढोते रहते हैं! सियासतें बदल जाती हैं, रियासतों के नाम बदल दिए जाते हैं, राजाओं के नाम बदलते हैं, शहरों, क़स्बों और नगरों के नाम बदल जाते हैं, कैलेंडर की तिथियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन नदी वही, पहाड़ वही, जंगल वही! तो ऋग्वेद में वर्णित नदियों पहाड़ों, का नामकरण संस्कार भी क्या उन हमलावर आर्यों ने ही किए!  
                                                                क्रमशः …………

Friday 7 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (२)


(भाग-१ से आगे)

मूलर  के पिता विलहेम मूलर स्वयं एक बड़े कवि थे। चार वर्ष की अल्पायु  में ही मूलर के  पिता, विलहेम मूलर , की मृत्यु हो गयी थी। बाद में अध्ययन काल के दौरान मूलर ने ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि भाषाओं में महारत हासिल कर ली। १८४६ में मूलर इंग्लैंड पहुँच गए थे और उन्होंने ऋग्वेद का अनुवाद भी शुरू कर दिया था। १८४८ में आक्स्फोर्ड प्रेस ने इसका मुद्रण भी प्रारम्भ कर दिया था। १८५० में ही वह आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में यूरोपीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए थे। उनकी इच्छा  तो संस्कृत विभाग के आचार्य बनने की थीकिंतु  विदेशी होने के कारण उनका चयन नहीं हो पाया था। इस बात का उन्हें गहरा मलाल भी था।  हालाँकिबाद में उनकी नियुक्ति हो गयी थी। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। हम  मूलर और मेकौले की भेंट तथा मूलर के व्यक्तित्व से जुड़े कुछ पहलुओं की जानकारी के लिए विकिपीडिया’  में इस प्रकरण के उद्धृतांश से  थोड़ा परिचित हो लेते हैं  : -

इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया।  इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक लैंग सायनेमें स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है ! उसने दुखित मन से लिखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्‌पटु व्यक्ति है।  मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्‌देश्यों की भी पूर्ति होती रहे  और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्‌देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्‌देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्‌मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्‌देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात्‌ मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है !
हाँ, तो प्रोफ़ेसर विल्सन की सिफ़ारिश पर मैक्समूलर को भारतीय ग्रंथों के अनुवाद और उनके अर्थ की अपेक्षित व्याख्या हेतु किराए पर नियोजित किया गया। किराया था प्रति पेज अनुवाद ४ पाउंड।  अब बातों को और विस्तार देने के बजाय हम यह बता दें कि १८५३ में आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में प्रति  वर्ष की तनख़्वाह पुरुष प्रोफ़ेसरों की ९० पाउंड और महिला प्रोफ़ेसरों की ६० पाउंड हुआ करती थी। उस ज़माने में मूलर को एक अत्यंत महँगे पैकेज पर इस कार्य के लिए लिया गया था। मूलर ने दो कारणों से इस कार्य में अपनी पूरी जान लगा दी। एक तो अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का इतना बढ़िया मौक़ा वह गँवा नहीं सकता था और दूसरे,  यह कार्य पूरी तरह से उसकी रुचि, प्रतिभा (संस्कृत और भारतीय ग्रंथों का ज्ञान) और मनोविज्ञान (हिंदू धर्म को समूल नष्ट कर ईसाइयत की भारत में स्थापना) के साँचें में फ़िट बैठता था। मैक्समूलर ने अपने को सौंपे गए इस अति महत्वपूर्ण दायित्व के साथ भरपूर न्याय किया।
  मूलर ने आर्य आक्रमण सिद्धांतका प्रतिपादन किया। उसके सामने बाइबल की यह पंक्ति थी कि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण ईसा से ४००० वर्ष पूर्व किया था। इसलिए किसी क़ीमत में वह ऋग्वेद को ४००० वर्ष ईसा पूर्व या उससे पहले की रचना मान नहीं सकता था। उसने सूत्र-ग्रंथों के काल को बुद्ध के काल के क़रीब  ६०० ईसापूर्व का माना क्योंकि बुद्ध से सम्बंधित आलेखों के प्रमाण तब मौजूद थे। पीछे की ओर बढ़ते हुए उसने अरण्यक, ब्राह्मण-ग्रंथों और ऋग्वेद  की रचना के काल की गणना के लिए दो-दो सौ वर्षों के अंतराल का अन्दाज़ लेते हुए वेद का रचना काल १२०० ईपु (ईसा पूर्व) से १००० ईपु माना। ऋग्वेद की पंक्ति कृणवतोविश्वमार्यमअर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्यबनाओमें आर्यका अर्थ उसने एक सात्विक और सद्गुणी मनुष्य’’ के बजाय  एक रेसअर्थात प्रजाति के रूप में प्रतिपादित किया और आर्यों का मूल स्थान यूरोप बताया। विलियम जोंस के प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरीके साथ साम्य बिठाते हुए उसने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि  दक्षिण  रूस में अपनी मातृभूमि में रहने वाले पतली, खड़ी और नुकीली नाक वाले आर्यरेस के गोरे युरोपीय लोग पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत में घोड़ों और रथ पर सवार होकर १५०० ईपु घुसे। उन्होंने वहाँ के मूल निवासी चपटी नाक वाले द्रविड़रेस के काले लोगों को युद्ध में हराकर खदेड़ दिया। द्रविड़ रेस  के काले दासया दस्युमूल भारतीयों ने  भागकर विंध्य के पार दक्षिण भारत में पनाह ले ली और गोरी-चिट्टी खड़ी नाक वाली विजेता आर्य प्रजाति धीरे-धीरे समूचे उत्तर भारत में पसरकर राज करने लगी। यही आर्य जाति अपने साथ यूरोप से घोड़े और रथ के साथ-साथ  संस्कृत भाषा लेकर आयी थी और उसी भाषा में उन्होंने ऋग्वेद और अन्य वेदों तथा पौराणिक ग्रंथों की रचना की। इस सिद्धांत द्वारा वह यह साबित करना चाहता था कि भारत में शासन करना यूरोपियों (अंग्रेज़ों) का नैसर्गिक अधिकार है। उसने यह काम इतनी सफ़ाई से किया कि भारतीय लोग इस तथ्य से भी अपनी आँखें मूँदे पाए गए कि  जिस वेद की महिमा का खंडन करने  के लिए उसे किराए पर लिया गया था उसे उसने स्वयं अपनी ही रेस आर्यकी रचना साबित कर दिया और समूचे भारत की पाठ्यपुस्तकें अपनी पीढ़ियों को यहीं पढ़ा-पढ़ाकर उन्हें इतिहासबोध कराती रही कि उत्तर भारतीय बाहर से आए  लुटेरे आर्यों की संतान हैं और दक्षिण भारतीय पराजित और खदेड़े गए द्रविड़ रेस की संतान हैं। मूलर अपना काम कर १९०० ईसवी में इस संसार से विदा हो गए।
  मूलर की मृत्यु के बाद  आनेवाले बीस-बीस  वर्षों के अंतर पर  विज्ञान में दो  महत्वपूर्ण प्रगतियाँ हुई। पहली प्रगति पुरातात्विक विज्ञान के क्षेत्र में हुई कि बीसवीं  शताब्दी के दूसरे दशक अर्थात १९२० से भारत में पुरातात्विक उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ।  और दूसरी प्रगति हुई अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में चौथे दशक अर्थात १९४० के बाद, जब विलर्ड लिबी ने कार्बन के एक समस्थानिक परमाणु कार्बन-१४की विद्यमान मात्रा के आधार पर किसी जैव वस्तु की आयु निर्धारित करने की तकनीक कार्बन-डेटिंगकी खोज की जिसके लिए उन्हें १९६० में रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। कहने का अर्थ है कि उत्खनन पर आधारित पुरातत्व विज्ञान के विश्लेषणों  और कार्बन डेटिंग की तकनीक के बिना ही आर्यों के आक्रमण  और ऋग्वेद की रचना का काल निकाल लिया गया जो आज तक पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जा रहा है। और, यहीं पर एक बात और जोड़ दें कि इन सामंती विचारकों पर विज्ञान का एक और घातक प्रहार हुआ। विज्ञान ने रेसजैसी अवधारणा को सिरे से ख़ारिज  कर दिया जिसे  बाद   में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने संकल्प में शामिल कर लिया। ऐसे आगे चलकर हम इस प्रसंग पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
                                                 ........................क्रमशः ....

Monday 3 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (१)





यह एक प्रचलित लोकोक्ति है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’। अर्थात,  कोई भी साहित्य अपने समाज के प्रतिबिम्ब को हमारे सामने रखता है। साहित्यकार जिस समाज में जीता है, उसी की मिट्टी से अपनी रचना की उर्वरा शक्ति को प्राप्त करता है । उसी समाज के वे समस्त उपादान जो रचनाकार के रचनात्मक वातवारण  का निर्माण करते हैं, रिस-रिस कर उसकी रचनाओं की सृजन-धारा बन बहते हैं। उसकी रचनाओं में समाज की समकालीन हलचल के शोर सुनायी देते हैं। समाज की संरचना, समाज का अर्थशास्त्र, समाज की राजनीति, समाज का संस्कार, समाज की सभ्यता, मौसम, आबोहवा, नदी-नाला, जंगल-पहाड़, बोली-चाली, प्रेम-मुहब्बत, मार-पीट, गाली-गलौज, खेल-कूद, नाच-गान, शादी-बियाह, रहन-सहन, खेती-बाड़ी, खान-पान, गहना-गुरिया, चिरई-चिरगुन, माल-जाल,  कपड़ा-लत्ता, पूजा-पाठ, रीति-कुरीति, दर्शन-आध्यात्म, चिंतन-शैली, संस्कृति सब की छाप उस युग में उस समाज की धरती पर रचे जाने वाले  साहित्य पर स्पष्ट रूप से पड़ती है। अतः किसी  काल के समाज को भली-भाँति समझने में  हमें उस काल में रचित उस समाज के साहित्य से बहुत सहायता मिलती है। 
              इतिहास में तो ऐसे साहित्य, उत्कीर्ण आलेख, खुदाई में मिले अभिलेख आदि का अत्यंत महत्व रहा है।  बुद्ध काल या मौर्यकाल में मिले आलेख हमें उस काल के बारे में बहुत कुछ समझा जाते हैं। सच कहें तो विशेष रूप से हमारे देश भारतवर्ष में हमारे पूर्वज अपने द्वारा रचित साहित्य में ही हमें इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आद्यात्म, दर्शन, ज्ञान सब कुछ समझा गए। बीच-बीच में बाहर से आए यात्री भले अपने संस्मरणों में कुछ इतिहास की झलकी अलग से छोड़ गए हों तो अलग बात है। हमारे पूर्वजों के द्वारा दी गयी  साहित्य की अपार थाती  हमारे पास श्रुति, स्मृति, वेद, उपनिषद, सूत्र-ग्रंथ, ब्राह्मण, अरण्यक, रामायण, महाभारत, पुराण, त्रिपिटक, बौद्ध और जैन ग्रंथ, संस्कृत  नाटक आदि के रूप में हमारे पास संग्रहित हैं। इतिहास ही इस बात का भी गवाह है  कि पुस्तकों  के  एक विशाल भंडार को नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में शैतान आततायियों ने आग लगाकर स्वाहा कर दिया। कहते हैं कि पुस्तकों का इतना विशाल भंडार था कि तीन महीनों तक पुस्तकें जलती रहीं।
           ऋग्वेद हमारे देश ही नहीं अपितु समूचे विश्व साहित्य की सबसे प्राचीन कृतियों में एक है और अपने अंदर पुरातनकाल के महान इतिहास को समाहित किए हुए है। समस्त वैदिक साहित्य के अध्ययन से न केवल मानव-सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की कथा-धारा के प्रवाह की दशा और दिशा का ज्ञान मिलता है, बल्कि समकालीन भूगोल और इतिहास के आपसी ताने-बाने का भी एक सम्यक् चित्र मिलता है। ऋग्वेद की रचना  के काल के निर्धारण में  जब तक विज्ञान ने अपनी सहायता  उपलब्ध नहीं करायी तबतक इतिहासकार अपनी अटकलबाजियों के घटाटोप अंधकार में भटकते रहे।
             पश्चिमी विद्वानों ने भारत पर बाहर से आर्यों के आक्रमण, अतिक्रमण और भारत में उनके बसने की घटना से ऋग्वेद की रचना को जोड़ा। भारत के देशी इतिहासकारों में दुर्भाग्य से वस्तुनिष्ठ शोध और अनुसंधान की उन्नत परम्परा का विकास अपेक्षित स्तर तक नहीं हो पाया। परिणामतः उन्हें पश्चिमी इतिहासकारों पर ही प्रारम्भ में ज़्यादा निर्भर रहना पड़ा। आगे चलकर इतिहासकारों में भी दक्षिणपंथी और वामपंथी दो खेमे बन गए और दोनों खेमें वैज्ञानिक शोध की परम्परा से भटककर अपनी राजनीति के फेर में ज़्यादा पड़  गए। इससे हमारी पीढ़ियाँ अपने इतिहास के सही स्वरूप को समझने में पिछड़ गयी।  किंतु, सौभाग्य से सूचना-क्रांति की नयी पीढ़ी के हाथ में वैज्ञानिक सोच का एक अमोध शस्त्र है और उसने अपने शास्त्रों की पड़ताल एक तर्कसंगत दृष्टिकोण से नए सिरे से शुरू कर दी  है।
          हम पहले थोड़ा इतिहास को उकटेंगे। फिर सभी पाठकों के साथ मिलकर इस पर एक तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टि डालने की कोशिश करेंगे कि  किस तरह हमारा वैदिक साहित्य हममें एक इतिहासबोध जगाता है।  ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन देश में हो गया था। १७८४ का ज़माना था। विलियम जोंस कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनकर आए थे। वारेन हेस्टिंग्स  'गवर्नर-जनरल ऑफ़ बंगाल' (१८३३ के चार्टर-ऐक्ट तक इस पद का यहीं नाम था) थे। दोनों ने मिलकर कलकत्ता में ‘बंगाल एशियाटिक सॉसायटी’ की स्थापना की। गवर्नर-जनरल  साहब संरक्षक और जज साहब अध्यक्ष बने। सॉसायटी का उद्देश्य भारतीय समाज, संस्कृति और यहाँ के धर्म का सम्यक् अध्ययन कर एक ओर अपने क़ानूनों में उनकी अपेक्षाओं का समावेश करना था तो दूसरी ओर अपनी शासकीय नीति-निर्धारण  में भी उन तत्वों से समुचित फ़ायदा उठाना था। 
         विलियम जोंस  ने संस्कृत भाषा और भारतीय ग्रंथों का विशद अध्ययन किया। वह सोसायटी के वार्षिक समारोह में हर साल अपना अध्यक्षीय भाषण देते थे और उसमें सोसायटी द्वारा किए गए शोध कार्यों पर प्रकाश डालते थे। १७८६ के भाषण में उन्होंने भाषा-विज्ञान  के बारे में अपने एक सिद्धांत का ख़ुलासा किया, जिसे ‘प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरी’ कहा जाता है। इसमें उन्होंने भाषाओं की उत्पति, परिवार और पारस्परिक सम्बन्धों का बड़ी गहरायी से विश्लेषण किया। अपने गहन अनुसंधान के बाद उन्होंने ग्रीक, लैटिन, गोथिक और अन्य यूरोपीय भाषाओं के परिवार का ही संस्कृत  को भी एक सदस्य बताया और इस बात की ओर इशारा किया कि संस्कृत भारत में जन्मी भाषा नहीं है। १७९३ में उनका अंतिम अध्यक्षीय भाषण हुआ और महज़ ४८ साल की उम्र में उनकी  १७९४ में मृत्यु हो गयी। अपने दस वर्षों के भारत प्रवास  के दौरान विलियम जोंस ने भारतीय धर्म ग्रंथों यथा वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, पुराण सभी का संग्रह कर लिया था और उनका पूरा शोधपरक  अध्ययन भी  किया। इन ग्रंथों के अंग्रेज़ी अनुवाद की भी पहल उन्होंने  की।
              आगे चलकर  १८३० में अपने भारत विरोधी रवैए के लिए मशहूर मेकौले साहब गवर्नर-जनरल की कौंसिल में 'लॉ-मेंबर'  बनकर आए। उनका कार्यक्रम भारत की शिक्षा और संस्कृति को पूरी तरह ध्वस्त कर इस देश का पूर्ण ईसाईकरण करना था। यह कोई आरोप-प्रत्यारोप की बात नहीं है क्योंकि इस बात का उद्घाटन स्वयं उन्होंने ही अपने पत्रों में किया है। उन्हें वेद की महिमा और इसके प्रभाव का आभास था। इसलिए फ़ौरी तौर पर इससे वह जल्दी कोई छेड़छाड़ करना नहीं चाहते थे। वह अंग्रेज़ी माध्यम और अपनी  शिक्षा नीति के क्रूर दंशों द्वारा इसे धीरे-धीरे डसना चाहते थे। वह वेद का अनुवाद अपनी योजना के आलोक  में चाहते थे। लेकिन अपना  यह मिशन पूरा होने के पहले ही  वह विलायत लौट गए। 
             उनकी आस अभी भी  बुझी नहीं थी। उन्होंने ईस्ट इंडिया  कम्पनी से अपने इस मिशन के लिए कुछ पैसे जुगाड़े और आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफ़ेसर हॉरिस विल्सन से सम्पर्क साधा। उन्होंने आग्रह किया कि यदि प्रोफ़ेसर विल्सन  जैसा स्थापित विद्वान इस विषय पर उनके विचारों को लिखेगा तो उसे स्वीकृति और वैधता मिलेगी। उनका विचार था कि  वेदों के बारे में ऐसा कुछ चित्रित किया जाय कि यह खानाबदोश, बर्बर और जंगली जनजातियों द्वारा  लिखा गया एक पूजा-पाठ या ढोंग-प्रपंच  के मिथक-गल्प से बढ़कर कुछ ख़ास ज़्यादा नहीं है। प्रोफ़ेसर विल्सन ने इससे कन्नी काटते हुए यह कह दिया कि अगले ही सत्र में वह सेवा-निवृत होने वाले हैं। उन्होंने अपनी बला टालने के लिए अपने विभाग के एक नए तेजस्वी और युवा सदस्य का नाम आगे बढ़ा  दिया। इस युवा प्रोफ़ेसर का नाम  ‘मैक्स मूलर’ था, जो मेकौले के लिए  वेद की महिमा से ‘मोक्ष’ और ईसायीयत के बीजारोपण  का  ‘मूल’ था।
               अब थोड़ा मैक्स  मूलर के बारे में जान लें। मैक्स मूलर जर्मन मूल के एक कट्टरवादी ईसाई थे। वह जाने माने भाषविद और संस्कृत भाषा के प्रकांड अध्येता थे। भाषा-शास्त्र  को वह ‘भौतिक विज्ञान’ मानते थे। संस्कृत जाने बिना भाषा-शास्त्र का अध्ययन करना उनकी निगाह में गणित जाने बग़ैर ज्योतिष शास्त्र के अखाड़े में प्रवेश पाने के समान था। जब १८७७ में थौमस अल्वा एडिसन ने ग्रामोफ़ोन का आविष्कार किया तो उन्होंने मैक्स मूलर से आग्रह किया कि  इसमें रेकर्ड  करने के लिए कुछ विशेष शब्दों का चयन करें जो इस मौक़े को एक ख़ास गरिमा प्रदान कर सके। मूलर ने जो सबसे पहले शब्द रेकर्ड किए वे ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के आरंभिक  मंत्र थे, “ॐ अग्निम इले पुरोहितम”।
                                                                                                                ……क्रमशः……..

Sunday 26 July 2020

डिमेंशिया

याद करो !
वह रात बरसाती अंधेरी,
खाँसते-खाँसते और मुझे संभालते,
कितनी विचलित थी, तुम।
कुछ कहती तो लौट जाते शब्द,
अनसुने, अबूझ और खिसीयाए-से।

तैरती-सी शून्य में, जलती बुझती,
तुम्हारी आँखें, ढीबरी-सी ।
भकभकाती पपनियों के नीचे
बुदबुदा रहे थे सूखे होठ,
डिमेंशिया!!!

यही तो बताया था डॉक्टर ने तुझे,
मेरी बीमारी के बारे में।
तुम्हें निर्निमेष निहारती
मेरी पलकों की झील में डूब
कहीं  लुप्त हो गयी थी
मेरी स्मरण-शक्ति!

फिर!
तिनके-तिनके बटोरकर
मेरी भूली-बिसरी यादों को,
और बांधे अपने नयनों के कोर में,
निहारती रही थी तुम,
अग्नि-स्नान मेरा, अपलक।

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

कितनी रातें, गुज़ारी तबसे, निहारता !
घूरती शून्य को, आँखें तुम्हारी, निस्तेज!
बैठा मुँडेर पर मैं, कौए बैठते थे जहाँ,
और उन्हें दौड़ा-दौड़ा  कर उड़ता मैं,
कहीं जूठे न कर दे, सूखते गेहूँ,
तुम्हारी छठी मैया के परसाद  के!


साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

पीट-पीट कर पानी पड़ा और
बैठा रहा मैं मुँडेर पर।
जानती हो!
अब तो मैं भीज भी नहीं सकता ।
बहने दो तेज़ हवाओं को भी,
हमारी यादों की,
अब जब भींग नहीं सकता
तो,  सूख भी नहीं सकता!

अबकी जाड़े तो निहारता रहा
नयन-भर तुम्हें
अलाव तापते।
बटोर रही थी
मेरी यादों की ऊष्मा तुम,
बाँध रही थी उन्हें
अपने आँचल के कोर।
पलकों में बांधे आँखों के लोर!

मैं भी समा गया
लपलपाती  लौ में,
लपटों की जिह्वा से
भरने जिजीविषा तुममें।
अंगरता  रहा आगी में,
तोपता तुम्हारा चेहरा
अपने एहसास के ताप से।
अब जल भी तो नहीं सकता मैं!

सोचा, बजाय देखने के
सैलाब आँसुओं का,
पीस जाऊँ उस जाँते में ख़ुद,
निकाल रही थी जब आटा तुम!
किंतु, अब काटा भी तो नहीं जा सकता मैं!
उफ़्फ़!

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

फिर!
क्या करूँ?
अब तो  बंद हो गयी है,
तुम्हारी ज़बरदस्ती भी
घोंटाने की मुझे रोज़-रोज़
दवाइयाँ, डिमेंशिया की!!!


Friday 26 June 2020

वचनामृत

क्यों न उलझूँ
 बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं  चखने लगता हूँ
तुम्हारे  वचनामृत को !

Monday 15 June 2020

क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम!



नियति ने इतना लाड़ दिया प्यार अपार, परिवार दिया। विधुर पिता ने भी तुम पर अपना जीवन निसार किया। माँ भी रह रह कर हरदम किस्मत में तेरी मुस्काई। सफलता की राहों में सरपट तृण भी तनिक न आड़े आयी। फिर भी न जाने कायर-से किस आहट से सिहर गए। तिनके-तिनके-से अंदर से टूट-टूट कर बिखर गए। पता है क्यों ! जीर्ण-शीर्ण और जर्जर-से तेरे सपने थे। नहीं किसी के गलबहियां तुम नहीं किसी के अपने थे। बस खुद को ही खोद खोद कर खुद को यूँ गँवाते थे। मृग-मरीचिका की माया में कोई अपना नहीं बनाते थे। तुम भी सीख लो दुनियावालों नहीं केवल तुम अपने हो। रिश्ते-नाते, अपने-दूजे प्राण-प्राण के सपने हो। 'मेरा-मेरा' रट ये छोड़ो यह 'मेरा' वह 'मेरा' है। ये मत भूलो तन-मन-धन और प्राण नहीं कुछ 'तेरा' है। क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम लड़ो समर में जीवन के। करो आहुति जीवन अपना वीरगति आभूषण-से।

Thursday 4 June 2020

आर्त्तनाद (लघुकथा)

रात भर धरती गीली होती रही। आसमान बीच बीच में गरज उठता। वह पति की चिरौरी करती रही। बीमार माँ को देखने की हूक रह रह कर दामिनी बन काले आकाश को दमका देती। सूजी आँखों में सुबह का सूरज चमका। पति उसे भाई के घर के बाहर ही छोड़कर चला आया। घर में घुसते ही माँ के चरणों पर निढाल उसका पुक्का फट चुका था। वर्तमान की चौखट पर बैठा अतीत कब से भविष्य की बाट जोह रहा था। दो जोड़ी कातर निगाहें लाचारी के  धुँधलेपन में घुलती जा रही थी। सिसकियों का संवाद चलता रहा। दिन भर माँ को अगोरे रही।

पच्छिम लाल होकर अंधेरे में गुम हो गया था। अमावस का काजल धरती को लीपने लगा था। उपवास व्रत के अवसान का समय आ गया था।  बरगद के नीचे पतिव्रताओं का झुंड शिव-पार्वती को नहलाने लगा था। कोयल कौए के घोंसले से अपने बच्चे  को लेकर अपने घर के रास्ते निकल चुकी थी। कालिंदी अपने आर्त्तनाद का पीछा करती सरपट समुंदर में समाने भागी जा रही थी।

Sunday 24 May 2020

पद-तल, मरु थल के!

मनुष्य :

पिता, दान तेरे वचनो का, लेकर आया जीवन में,
संग चलोगे पग-पग मेरे , जीवन के मरु आँगन में।

तेरी अंगुली पकड़ मचला मैं, सुभग-सलोने जीवन में,
हरदम क़दम मिले दो जोड़ी, जैसे माणिक़ कंचन से।

किंतु, यह क्या? हे प्रभु! कैसी है तेरी माया !
घेरी विपदा की जब बदरी, चरण चिह्न न तेरी पाया!

भीषण ताप में दहक रहा था, पथ की मैं मरु-ज्वाला में,
रहा भटकता मैं अनाथ-सा, तप्त बालुकूट  माला में।

हे निर्मम ! निर्दयी-से निंद्य! क्यों वचन बता, तूने तोड़ा?
तपते-से सैकत  में तुमने, मुझे अकेला क्यों छोड़ा?

देख! देख! मरुस्थल में, तू मेरा जलता जीवन देख!
देख घिसटती  संकट में , पाँवों की  यह मेरी रेख!

देख, मैं कैसे जलूँ  अकेला! मरु के भीषण ज्वालों से,
सोंचू! कैसे ढोयी  देह यह, छलनी-से पग-छालों से।

अब न पुनर्जन्म, हे स्वामी,! नहीं धरा पर जाऊँगा,
परम पिता,  तेरी प्रवंचना! नहीं छला अब जाऊँगा।



ईश्वर:

छल की बात सुन,  भगवन के नयनों में करुणा छलक गई।
छौने की निश्छल पृच्छा पर,  पलकों से पीड़ा  ढलक गई।


छोड़ूँ साथ तुम्हारा मैं ! किंचित न सोचना सपने में!
हे वत्स! मरु में पद-चिह्न वे,  नहीं तुम्हारे अपने थे।

डसे   चले,  जब दुर्भाग्य के, कुटिल करील-से डंकों ने,
पुत्र !  सोए तुम रहे सुरक्षित,  मेरी भुजा के अंकों में।

चला जा रहा,  मैं ही  अकेला!  तुम्हें उठाए बाँहों में,
पद तल वे मेरे ही, बेटे!  मरु थल की धिपती राहों में!