Saturday, 20 December 2014

मानस की प्रस्तावना

मानस की प्रस्तावना

किसी भी ग्रंथ के प्रारम्भ की पंक्तियाँ उसमें अंतर्निहित सम्भावनाओं एवं उसके उद्देश्यों को इंगित करती हैं . कोई यज्ञ सम्पन्न करने निकले पथिक के माथे पर माँ के हाथों लगा यह दही अक्षत का टीका है जो उस यज्ञ में छिपी सम्भाव्यताओं की मंगल कामना तथा उसके लक्ष्यों की प्रथम प्रतिश्रुति है . दुनिया के महानतम ग्रंथों में शुमार महाकवि तुलसीदास विरचित रामचरितमानस एक लोक महाकाव्य है जो जन जन के  होठों पर अपनी पवित्र मीठास लिये चिरकाल से गुंजित है और अनंत पीढियों तक श्रद्धा और विश्वास की अमर रागीनियाँ बिखेरता रहेगा .
आदिकवि वाल्मीकि की तुलना तुलसी से करें तो हम पाते हैं कि वाल्मीकि में कवित्व की वाग्धारा अकस्मात क्रौंच-वेदना की चोट ‍से फूटी थी. करुणा-रस का वह तरल प्रवाह अपनी स्वाभाविक लय में फैलता चला गया, पसरता चला गया और अपने परिवेश को अपनी ज्ञान-गंगा से आप्लावित करता चला गया . सत के चित से साक्षत्कार ने मन के कोने कोने को भावनाओं के रस से सिक्त कर दिया . न किसी भूमिका के लिए अवकाश , न किसी निष्कर्ष की तलाश ! कोई प्रबन्ध नहीं, कोई उद्योग नहीं, कोई उद्यम नहीं .  सबकुछ अनायास, स्वाभाविक, स्वच्छन्द, उन्मुक्त,अविच्छिन्न और अविरल.
तुलसी ने वाल्मीकि को पढ़ा . बालक रामबोला बाबा नरहरि की साया में पला, फला और फूला. उनकी आभा से निःसृत संस्कार की भागीरथी में भींगा, काशी के पाण्डित्य-परिपूर्ण प्रांगण में परम्परागत वेद को सीखा और तब जाकर वाल्मीकि रचित रामायण-गीत को जन-जन के मन में लोकभाषा और राम धुन में गुनगुनाया .गाँव-गँवई की ज़ुबान में तुलसी का  यह महाकाव्य ‘ रामचरितमानस ‘ विश्व साहित्य का सबसे सफल, सार्थक और अप्रतिम उद्यम रहा. लोकभाषा के लोकलुभावन प्रतीक और बिम्ब की मनमोहक अभिराम छटा में तुलसी ने आध्यात्म की अखंड सत्ता के परत-दर-परत खोल दिये . आम आदमी को अपनी ज़ुबान में अनोखी दास्तान मिली जिसे पढ़कर, गाकर और सुनकर वह धन्य-धन्य हो गया. जितनी बार पढ़े, उतने नये रहस्यों का उद्घाटन ! उतने नये सत्य से साक्षात्कार ! बिम्ब वही, अर्थ नवीन ! और वो नवलता भी ऐसी  जिसका पुराने से कोई विरोध नहीं, बल्कि ऐसा मानों पुण्डरिक में नया दल जुट गया हो.
तुलसी अपनी रचना यात्रा पर अपने रसात्मक भावों की पूर्णता के साथ प्रयाण करते हैं . सबकुछ साफ साफ झलकता है उनके मानस पटल पर . रचना के आरम्भ में ही रचना की दशा और दिशा एवं इसके लक्ष्यों को परिलक्षित कर देते हैं. और शायद यह भी एक कारण हो कि जिस मानस की अभिव्यक्ति का मूल लोकभाषा हो, जहाँ अवधी के बगीचे में यत्र तत्र भोजपुरी और ब्रजभाषा के पुष्प मुस्कुराते हों उसका श्री गणेष तुलसी ने देवभाषा संस्कृत के सात श्लोकों की सुरभि बिखेरकर किया. बालकाण्ड के ये सात शुरुआती श्लोक इस पुनीत ग्रंथ के उद्देश्य, उसकी सजावट, लिखावट, बनावट और अदावत के सुस्पष्ट संकेत हैं . तुलसी ने आगे भी इसी अदा से अपने आख्यान की शैली को अलंकृत किया है. इतर काण्डों में भी देवभाषा में प्रस्तावना-स्तुति-गान की मंगल परम्परा का निर्वाह किया गया है .
 प्रस्तावना की औपचारिक परम्परा  का पालन तो पहले और सातवें श्लोक युग्म से ही सम्पन्न हो जाता . यथा – “अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मंगलों की करनेवाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ . अनेक वेद, पुराण और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपनी अंतरात्मा के सुख के लिये अत्यंत मनोहर भाषा मे विस्तृत करता है” .  ठीक वैसे ही जैसे भारत के संविधान की प्रस्तावना पर यदि विचार करें तो बात बस इतने से ही बन जाती है कि – “हम भारत के लोग .. इस संविधान को आत्मार्पित करते हैं .  किंतु संविधान की आत्मा और उसका दर्शन तो बीच की पंक्तियों में छूपा पड़ा है.  इसी तरह तुलसी के मानस के आध्यात्म और दर्शन की पाण्डुलिपि का प्रसार दूसरे से लेकर छठे श्लोक तक है. और यदि इसे हम उलटकर पढ़ें तो पूरी बात सोलहो आने समझ में आ जाती है .
छठा श्लोक : जिनकी माया से वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि, देवता और असुर हैं , जिनकी सत्ता  से यह समस्त संसार रस्से के साँप होने सा भ्रम-सत्य प्रतीत होता है , जिसके चरण ही इस संसार सागर से पार होने की इच्छावालों के लिए एकमात्र नौका है, उन समस्त कारणों से परे राम कहलानेवाले भगवान श्री हरि की मैं वन्दना करता हूँ.
पाँचवा श्लोक : उत्पत्ति, स्थिति(पालन) और संहार के कारण, क्लेश का हरण करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली श्री रामचन्द्रजी की प्रिया श्री सीताजी को मैं प्रणाम करता हूँ .
चौथा श्लोक : श्री सीतारामजी के गुणसमूह रुपी पवित्र वन में विहार करने वाले विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर वाल्मिकी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ .
तीसरा श्लोक : बोधमय, नित्य, शंकररुपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनकी शरण में आकर वक्र चन्द्रमा भी सर्वत्र पूजनीय हो जाता है.
दूसरा श्लोक : श्रद्धा और विश्वास के स्वरुप श्री भवानी और श्री शंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ , जिनके बिना सिद्धिजन अपने अंतःकरण में स्थित परमेश्वर का दर्शन नहीं कर पाते.
अब कुछ बिम्बों पर विचार करें . एक ओर ‘जिसकी माया’ , ‘जिसकी सत्ता’, ‘जिनके चरण’, ‘एकमात्र नौका’, ‘समस्त कारणों से परे’, ‘उत्पति,स्थिति एवं संहार के कारण’, ‘बोधमय’, ‘नित्य’, ‘श्रद्धा और विश्वास के स्वरुप’, आदि आदि .
दूसरी ओर ‘विश्व, देवता, असुर , रस्से के साँप होने सा भ्रम-सत्य, भव-सागर’  आदि आदि. और सबसे महत्वपूर्ण ईश्वरीय आभा से परिपूर्ण पवित्र कानन में विचरण करने वाले ‘विशुद्ध विज्ञान स्वरुप’.. .
उपरोक्त  बिम्बों के आलोक में तुलसी ने अपनी मानस महायात्रा के प्रवेश-द्वार पर ही अपने तीर्थ विवरण की पट्टी लटका दी है. क्या है यह संसार-सागर ? ये ब्रह्मादि, मनुष्य, देवता, किसकी माया के मार्त्तण्ड में तप रहे हैं? किसकी सत्ता की साया इनके संशय का संत्रास है? वह अपरम्पार परमात्मा सभी कारणों के पार है. उसीकी आभा से इस चराचर जगत का कण-कण आभासित है . उसकी भक्ति रसधारा में अपना सर्वस्व क्षय कर उसमें लय हो जाना ही मानस का गंतव्य तीर्थ है.
अनिर्वचनीय महिमा से मंडित वह परम शक्ति तुलसी के राम हैं . बड़ी मासूमियत और आत्मीयता से  राम के नाम को वाचा है - ;राम कहलानेवाले ईश्वर हरि की मैं वन्दना करता हूँ’ . ‘राम कहलानेवाले’ अर्थात जिनका नाम राम है . निहितार्थ में यहाँ नाम राम पर चढ़कर बोलता है . कहीं  इशारा  ये तो नहीं कि नाम की महिमा राम से बढ़कर है . वह भगवान हरि के नाम की वन्दना करते हैं . उस अलौकिक, अमूर्त्त व  अदृश्य आभा को कितनी आसानी से तुलसी ने अपने सरल सांसारिक संज्ञा मे पकड़ लिया है. यही तो तुलसी के कवित्त की खासीयत है . वह मानवीकरण की कला में पारंगत हैं . अलौकिक शक्ति की लौकिक पहचान ! लोकातीत आध्यात्म का लोक सुबोध आख्यान !
भव सागर की फाँस क्या है- संसार के समुन्दर मे लीलने को आतुर  माया और भ्रम रुपी तैरते मगर ! और इनके स्त्रोत कहाँ हैं? ‘यन्मायावश्वर्त्तिं ‘ और ‘यत्सत्त्वाद्’...यथाहेर्भ्रमः’ अर्थात माया और भ्रम से मुक्ति पानी है तो उसी की शरण में आत्मसमर्पण जो इसके स्त्रोत हैं !  माँ के क्रोध से बचने के लिये उसीकी गोद में अपने को अर्पित कर बालक जैसे अपने को उसकी ममता के आँचल मे छूपा लेता है . कितना शीतल है करुणा का यह क्रोड़ ! और कितना निश्छल आग्रह है यह समर्पण का ! और फिर इस लोकलुभावन प्रतिबिम्ब में तिरता एक और अलौकिक दर्शन – माया और भ्रम से मुक्ति के कारण भी हैं और इन समस्त कारणों से परे भी हैं ये नामधारी राम . रचयिता भी, और उस रचना से परे भी !
“सर्वेन्द्रिय गुणाभासम , सर्वेन्द्रिय विवर्जितम
असक्तम सर्वभृत च एव निर्गुणम गुणभोक्तृ च”
भव अर्थात संसार . ‘उत्पति, स्थिति और संहार’ इस संसार के ज्यामितिय नियामक हैं. इस वीमा त्रय में सरकती जीवात्मा सांसारिकता के मोहपाश की जकड़न के क्लेश में तड़पती छटपटाती है . इससे मुक्ति ही परम कल्याण है, मोक्ष है. और इस कैवल्य प्राप्ति का कारण भी वही है जो सर्जन , पालन और विनाश का सूत्रधार है. वह हैं सर्वशक्तिसमंविते- आदिशक्ति-मतृरुपेणसंस्थिता-श्रीरामवल्लभा श्रीसीताजी .  जगत-जंजाल एवं जन्म-मरण के चक्र फाँस से महात्राण पाने की अभिलाषा ही मानस का कथ्य है. कवि विशुद्ध वैज्ञानिक भाव के साथ सीता राम के गुण समूह रुपी पवित्र कानन में विचरण करने को उद्धत है.  उसकी भावनाओं में कोई भटकाव नहीं है बल्कि एक ज्ञान दीप्त कार्य-कारण-प्रसूत व्यवस्था है . वाल्मीकि का काव्य कौशल, शिल्प-विधान एवम इतिवृतात्मक भाष्य सम्पूर्ण अर्थों में वैज्ञानिक हैं. साथ ही , राम कथा अतुलित बलधाम हनुमानजी की अद्भुत गाथाओं का आख्यान है. इन गाथाओं में महान भक्त की भावनाओं का अपने आराध्य में चरम समर्पण की लय है .  भावनाओं की अँजुरी उड़ेलता यह  निश्छल भक्त कभी आराजक नहीं होता.  हमेशा प्रशांत, व्यव्स्थित, विचारों में क्रमबद्ध, योजनाओं में वैज्ञानिक और अंतःकरण से विशुद्ध. भक्त भगवान में और भगवान भक्त में . पूर्ण विलय . कोई स्वरुपगत भिन्नता नहीं. भगवान पदार्थ तो भक्त अणु ! और फिर भक्त अणु तो भगवान परमाणु ! तो तुलसी भी  इस पदार्थ-अणु-परमाणु अवगुंठन की अद्भुत लीला का उद्घाटन करेंगे, भक्ति-भाव की विलक्षण छटा को परोसेंगे और आध्यात्म की धड़कनों की वैज्ञानिक पड़ताल करेंगे मानस में . अविनाशी ब्रह्म, अनित्य सृष्टि, मूल पंच तत्व, और समग्र चेतन ऊर्जा – इन सभी पड़ावों से मानस की महायात्रा गुजरेगी.
गुरु के आशीष से ही ज्ञान के मानसरोवर मे डूबकी लगायी जा सकती है. गुरु की कृपा के आलोक से प्रदीप्त शिष्य समस्त विकृतियों से मुक्त हो जाता है और उसका स्वरुप चिन्मय चिरंतन और शाश्वत हो जाता है . भगवान शिव नित्य और ज्ञानमय गुरु हैं . वह समस्त लोकों के कल्याण के कारक हैं. नीलकंठ की शरण में आये चन्द्रमा को अपनी वक्रता के बावजूद पूजा जाता है . अतः मानस यात्रा शिव सदृश शिष्य-वत्सल गुरु के साहचर्य में होगा.
 अपने अतः करण में गहरे पैठे ईश्वर के दर्शन अर्थात  आत्म बोध और इस चरम गंतव्य को छूने के लिये  सबसे महत्वपूर्ण हैं दो कारक – ‘श्रद्धा’ और ‘विश्वास’ . श्रद्धा आध्यात्म का आलम्ब है तो विश्वास विज्ञान का विस्तीर्ण वितान. सम्पूर्ण ‘अर्धनारीश्वर’ स्वरूप में पार्वती आध्यात्म हैं तो शिव विज्ञान .  इस बिम्ब-विधान में मानस आध्यात्म और विज्ञान की महाशक्तियों का आहावन कर अपनी विराट यात्रा का उद्घोष करता है .  

Thursday, 18 December 2014

इंसान की दरकार !

मज़हब के पेशेवरों ने पेशावर
में किया मज़हब को शर्मशार।
मरघट में मची हाहाकार,
पथरायी मासूम आँखे ,
चीखते बच्चों के भर्राये स्वर।
जेहादी जानवरो का खौफनाक मंज़र ,
इंसानियत! चिचियाती चीत्कार।
लहू में सने सलोने
सपने स्याह !
उजड़ी कोखों की कातर कराह,
इंशा अल्लाह!
तेरी इस रहनुमाई को धिक्कार!
रख अपने मज़हबी पैगम्बरों को अपने ही घर
हमें तो सिर्फ एक इंसान की दरकार !

Monday, 1 December 2014

काश ! अतीत मेरा भी होता


   काश ! अतीत मेरा भी होता
                     
काश!  अतीत मेरा भी होता

विपिन विहार विरासत वीथि
मैं सुरमई सपनों में खोता
चाहे खट्टे , चाहे मीठे
स्वाद तो कुछ जीवन का होता
भूतकाल के महासागर में
कुछ पल को लग जाता  गोता

काश!  अतीत मेरा भी होता

वर्त्तमान की फटी पोटली
में अतीत के तन्डुल भरता
भर उदर तनिक तिनके से
फिर भविष्य के पथ पर चलता
आशा के बुने ताने बाने
मन मेरा मदमस्त मचलता
   
काश!  अतीत मेरा भी होता

कहते जहाँ इतिहास नहीं है
जीवन का उल्लास नहीं है
जहाँ भूत की रास नहीं है
वर्त्तमान की फाँस वही है
रथ कुपथ! पथिक हो लथपथ
जीवन शकट सड़क को खोता

काश!  अतीत मेरा भी होता

भटका योनि के मकड़–जाल में
मैं अनादि हूँ, मैं अनंत हूँ
ना उपसर्ग और ना मैं प्रत्यय
जीवन शब्द का सिर्फ हलंत हूँ
                                                              मीत जो मेरा भी मिल जाता
ठौर हीन मैं यूँ ना होता

काश!  अतीत मेरा भी होता

पाकर नरम ऊष्मा उषा की
मार्त्तंड के ताप को सहता
चढ़ प्रत्युष की प्रत्यंचा पर
पूनम की गंगा में बहता
चखे जो पावन अमृत जीवन
चेतन मन चिर योग में सोता


काश!  अतीत मेरा भी होता

Thursday, 6 November 2014

पारण

नीरसता की झुर्रियों और
विरसता के घोसलों से
भरे चेहरों से अब कामनाओं
के सेहरे उजड़ने लगे हैं.
थकावट की सिलवटों से सिले
मुख सूख रहे हैं और
तुमको मुझसे उबास आने लगी ?



थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.



आज जबकि ज़रूरत थी
मेरे अरमानों को
तुम्हारे सांसों की गरमाहट की
मेर प्यार को
तुम्हारे स्नेह की थपकियों की
मेरी आखों को
तुम्हारे सपनों की



मेरे मन के कण कण को
तुम्हारे अपनेपन के आभुषण की


मेरी अंतर्दृष्टि को
तुम्हारे दिव्यालोक की और
मेरी इंद्रियों को
तुम्हारे शाश्वत स्पर्श की
इस विशिष्ट वेला मे
मेरे साहचर्य की कामना
तुम्हारी क्लांतता में खो गयी.


थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.


रात्रि के प्रथम प्रहर की प्रतीक्षा
यूं तो रोजमर्रा है मेरा.
किंतु आज यह इंतज़ार
तुम्हारे प्यार के प्रतिदान की आशा मे लिपटा
मेरे मन मे
तुम्हारे समर्पण का संगीत था,
जिसे पिछले दशकों से जोर जोर से
गाकर जार-जार हो रहा है यह.






क्योंकि इसकी तीव्रता, मेरे साथी
तुम्हारी वीरसता मे खो जाती है .
फिर
मेरा यह प्रणय गीत
तुमसे
अनसुना लौटकर मेरे दिल में
सूनापन भर जाता है और


यह रिक्तता वंचित है-
तुम्हारी प्रणय रागिनियों के स्वर से.
जो, सम्भवतः मंद हो चले हैं मिलकर
तुम्हारी थकावट की सिलवटों में .


थोड़ा विश्राम कर लो साथी
प्यार तो बस निर्जला एकादशी है.


आशायें कभी मरती नहीं और
उनका न मरना ही मेरे जीने
का बहाना बन गया है.






साथी
तुम्हरा मन उबा है
क्योंकि डुबा नहीं मुझमें,

अब उठो साथी ,
विश्राम की वेला विदा हुई
नया सवेरा हुआ.

अरमानों ने फिर से अंगड़ाईयां ली
मनचला फिर मचला
चेहरे पर आशाओं की कोपलें निकली
विरसता की झुर्रियों को झाड़ो.
नव भविष्य के इस भोर प्रहर में,
देवी, प्यार के स्नेह सप्तक
अपनी मन वीणा पर बजाओ.


अपनी प्रणय उत्कंठा को
मेरे स्वप्निल सुरों से सजाओ
अपने चिर यौवन का श्रृंगार
मेरी कामनाओं के कुमकुम से कर लो.


प्रणीते, उठो और द्वादश के द्वार पर

इन अरमानों का पारण कर लो.

Friday, 31 October 2014

कवि रसिक!

दिल रीता है स्पंदन से,
जैसे गगन का मिलन न घन से.
अश्रू नम न मिले नयन में,
रूठी  नींदिया, शयन-सदन में.


जीव-द्रव्य, पर जीव नहीं है,
दिखे सजीव ! निर्जीव वहीं है.
मन का कण-कण टूट चला है,
जीने की यह शुष्क कला है.




घृणा की घनघोर घटा है,
लिप्सा की मनोहारी छटा है.
दृग चंचल, पर कुछ नहीं दिखे,
लीपे लेखनी, कुछ नहीं लिखे.



भाव-शून्य विचार बहुल है,
संस्कार रिक्त आर्य संकुल है.
पर पीड़ा का भान नहीं है,
स्वांतःसुखाय बस ज्ञान यही है.


 
लालच मोह कपट विकराल,
  कौआ चले हंस की चाल.
गतानुगतिका  बसी रची है,
भागदौड़ गलकाट मची है.



नहीं घड़ी के पास वक़्त है,
पत्रहीन पीत ठूंठ दरख़्त है.
सब कुछ जड़, पर भ्रम चेतन का,
अज्ञान अहं संग मणि-कंचन का


अचल वदन, चपल मन भागे,
सुप्त अंतस, इतर सब जागे.
भ्रम में जागे, भ्रम में सोये,
भ्रम में पाये, भ्रम में खोये.




चला बटोही बाट नहीं है,
जीवन नैया का घाट नहीं है.
बहे बयार पतवार नहीं है,
संसार निस्सार मंझधार यहीं है.




संग नहीं अब कोइ मेरा,
चला मुसाफिर छूट गया डेरा.
मैं नीतांत एकांत पथिक हूँ,
            नीरस दुनिया का कवि रसिक हूँ.

ब्रह्म-प्रहर

लघु ऊर्मि बन दीर्घ उच्छवास,
सागर के वक्ष पर करे हास.

चढ़े श्रृंग, फिर गर्त उतर,
सरपट दौड़े नाचे तट पर.

कर सैकत राशि से आलिंगन,
लहरें टूटें बिखरे जलकण.

तीर पर एकत्रित शीप-शंख,
कर चली लौट तंवंगी तरंग.

मटके झटके लघु जलचर जीव,
दृश्य झिलमिल शाश्वत सजीव.

जलनिधि का पुनः नव सुभग रास,
लहरें फेनिल, वैभव विलास.

छेड़छाड़ तट से सागर का,
प्रेम-किल्लोल ये रत्नाकर का.

उल्लसित चुम्बन तट-बाहुपाश,
योग वियोग उत्कर्ष विनाश.

  संसार समंदर जीव लहर है,
भींगे जब कूल ब्रह्म-प्रहर है.