Sunday, 21 March 2021

रूपसी का भ्रमजाल!


 




नागिन-सी जुल्फों का जलवा,

चमके चाँद-सा चेहरा।

टँके नयन सितारों जैसे,

शुभ्र सुभग-सा सेहरा।


पंखुड़ी-सी होठों की लाली,

ग्रीवा ललित सुराही।

शाखों-सी बाहों की शोखी,

निरखे ठिठके राही।


अलमस्त कुलाँचे मारे,

हिरणी जैसी चाल।

शायर की मदमस्त मदिरा,

रूपसी का भ्रम जाल।


अक्षर आसव आप्लावित,

शब्द छंद मकरंद।

कलि कुसुम मन मालती,

मधु मिलिंद सुगंध।


पद पाजेब पखावज बाजे,

उझके अंग मृदंग।

कंचुकी कादम्बरी चुए,

भंगिमा भीगे भंग।


राजे वो ऋतुराज-सी,

अंग-अंग अनंग।

चारु-चंद्र-सी चपल-चमक,

देख दामिनी दंग।


माया की मूर्ति मृदिका की,

क्षणभंगुर श्रृंगार।

रूह रुखसत हो देह से,

जीव-जगत निस्सार।

Thursday, 18 March 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२०


(भाग – १९ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (थ)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


अन्य भारतीय जंतु 

यह भी उतना ही ध्यान देने योग्य तथ्य है कि ऋग्वेद में वैसे ढेर सारे पूरी तरह से देशज भारतीय-आर्य नाम उन पशुओं या जंतुओं के हैं जो केवल पूर्वी भाग के तो नहीं कहे जा सकते, लेकिन हैं खाँटी भारतीय:

सिंह (शेर), शिम्शुमार (गांगेय डॉल्फ़िन), सालावृक (लकड़बग्घा)

समूचे ऋग्वेद में इनका विवरण मिलता है।

मंडल सूक्त/ऋचा 

६४/८, ९५/५, ११६/१८, १७४/३

२/११, ९/४, २६/५

१६/१४

७४/४, ८३/३

१८/७

८९/३, ९७/२८

१० २८/(४, १०), ६७/९, ७३/३, ९५/१५


कुछ ऐसे भी जानवरों के नाम हैं जो ऋग्वेद में जानवर के नाम के रूप में तो उपस्थित नहीं होते किंतु किसी ख़ास व्यक्ति के रूप में इन नामों का उल्लेख वहाँ अवश्य होता है। हालाँकि यजुर्वेद और अथर्ववेद में यही नाम जानवरों के नाम के रूप में प्रकट अवश्य होते हैं। जैसे – कश्यप (कछुआ), कपि (बंदर), व्याघ्र (बाघ), पृडाकु (चीता)।

ऐसे भारतीय-आर्य नाम वाले कुछ ऐसे अन्य भारतीय जानवर भी हैं जिनका ज़िक्र ऋग्वेद में तो कहीं नहीं आता, किंतु अथर्ववेद और यजुर्वेद में वे ज़रूर मिल जाते हैं। जैसे – शार्दुल (बाघ), खड़ग (गैंडा), अजगर (पाईथन), नाक्र (मगरमच्छ), कृकलास (गिरगिट), नकुल (नेवला), जाहक (काँटेदार जंगली चूहा), शाल्यक (साही), कूर्म (कछुआ), जतु (चमगादड़) आदि।

यहाँ पर ऋग्वेद में चर्चित सभी जंतुओं की सूची प्रस्तुत करना कोई उद्देश्य नहीं है। इन जंतुओं में वैसे कतिपय जानवरों के नाम मिलेंगे जो साझे रूप से भारत और यूरोप दोनों जगहों पर जाने जाते हैं। जैसे – भेड़िया, भालू, बनविलाव, लोमड़ी/ गीदड़, हिरण/बारहसिंगा, साँड़, गाय, खरहा, चमगादड़, चूहा, बत्तख़/हंस, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, खच्चर, साँप, मछली, अनेक प्रकार के पक्षी, कीड़े आदि। इनमें से कुछ जंतुओं के तो ऋग्वेद और अन्य संहिताओं में एक से अधिक नाम हैं। जैसे हिरण के लिए ‘रूरु’ ‘एणी’, ‘ऋष्य’, ‘हरिण’ आदि। यहाँ पर सामन्य तौर पर हम जानवरों के उन्हीं नामों पर अपनी मीमांसा करेंगे जिनकी प्रासंगिकता इन दो अवधारणाओं, ‘बाहर से आए आर्यों का आक्रमण’ और ‘आर्यों का अपनी मूलभूमि भारत से बाहर जाना’, पर छिड़े विवाद से है।  इस विषय में नीचे दिए गए कुछ पक्षियों के भारतीय-आर्य नामों पर विचार करना प्रासंगिक होगा जिनके नाम अथर्ववेद और यजुर्वेद में तथा कहीं-कहीं ऋग्वेद में भी आते हैं :

चक्रवाक (ब्रह्मिनी बत्तख़, २/३९/३), ऊलूक (उल्लू, ७/१०४/२२, १०/१६५/४), अन्यवाप (कोयल), कृकवाक (मुर्ग़ा), कपोत {कबूतर, १/३०/४, १०/१६५/(१, २, ३, ४, ५)}, कपिंजल/ तित्तिरी (तीतर), कंक/ क्रौंच (सारस), चाश (, श्येन/सुपर्ण (गरुड़, ढेर प्रसंग), गृद्ध (गीध, ढेर प्रसंग), शुक (तोता) आदि।


वृक्ष और पौधे


प्रोटो भारोपीय शब्दावली में ‘शीतोष्ण’ आबोहवा के पेड़ पौधों के इन तमाम जुमलों के बावजूद ‘ऋग्वेद में ऐसे किसी एक भी पश्चिमी पौधे का कोई नाम चाहे अपभ्रंश ही सही, कहीं भी नहीं है। सही बात तो यह है कि ऋग्वेद उन पौधों और वृक्षों के वृतांत से भरा पड़ा है जो पूरी तरह से न केवल पूरबिया और खाँटी भारतीय हैं, बल्कि भारत की धार्मिक परम्पराओं से लेकर वाणिज्यिक महत्व तक की सभी चीज़ों में आजतक अपनी जगह बनाए हुए हैं।

ऋग्वेद में ऐसे नामों का विवरण इस प्रकार है :

शिंशप (Dalbergia sissoo, शीशम)

खदिर (acacia catechu, हर्टवुड या काठ) 

शल्मली (salmalia malabaricum, रेशम और सूत के पौधे)

किंशुक, पर्ण (butea monosperma,  जंगल-ज्योति)

शिंबल (salmalia malabaricum,  रेशम और सूत के पौधे)

विभिधक (terminalia bellerica, the beleric myrobalan बहेरा)

अरत्व (terminalia arjuna, अर्जुन)

अश्वत्थ, पीप्पल (ficus religiosa, पीपल)

उर्वारूक (Cucumis sativus, ककड़ी)

वेतस (calamus rotang, बेंत)

दर्भ, मूँज, शर्य, सैर्य, कुशर, वैरिण (भारतीय घास)

ऊपर वर्णित वनस्पतियों का विवरण ऋग्वेद में इस प्रकार है :

पहला मंडल : १३५/८, १६४/२०, १९१/३

तीसरा मंडल : ५३/९, ५३/२२

चौथा मंडल : ५८/५

सातवाँ मंडल : ५०/३, ५९/१२, ८६/६

आठवाँ मंडल : ४६/२७

दसवाँ मंडल : ८५/२०, ९७/५

यजुर्वेद और अथर्ववेद में ऐसे तमाम वृक्षों और पौधों का वृतांत है जिनके नाम विशुद्ध भारतीय-आर्य हैं। जैसे –

इक्षु (saccharum officinale, गन्ना)

बिल्व (aegle marmelos, बेल)

न्यग्रोध (fficus benghalensis, बरगद)

शमी (prosopis cineraria, समी)

पलक्ष (ficus infectora, सफ़ेद अंजीर)

पिप्पली (piper longum,  लम्बी मिर्च)

आर्यावर्त की दीर्घकालीन प्राचीन परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जड़ी-बूटियों एवं आयुर्वेदिक महत्व के अन्य पौधों का उल्लेख करना भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा जिनकी लम्बी सूची हमें अथर्ववेद में मिलती है। सार रूप में हम यहीं कह सकते हैं कि पूरब के भीतरी इलाक़ों में फलने-फूलने वाली वनस्पति ऋग्वेद की चर्चाओं का केंद्र-बिंदु है और इस चर्चा का वृहत विस्तार आगे रची जाने वाली वैदिक संहिताओं यथा, यजुर्वेद और अथर्ववेद में मिलता है।  दूसरी ओर अपेक्षाकृत पश्चिम में पनपने वाले पेड़-पौधों का उन्मेष  ऋग्वेद के क्षितिज पर बहुत बाद में चलकर होता है।    

इत्तफ़ाक़ से, ऋग्वेद के अनुसार अपने रथों को बनाने में वैदिक आर्य जिस भारतीय काठ का प्रयोग करते थे उनमें शिंशप (शीशम या उत्तर भारतीय सीसो), शल्मली, खदिर और किंशुक के वृक्ष प्रमुख हैं। दूसरी ओर, जैसा कि टार ने उल्लेख किया है कि “मिस्त्र के युद्धक रथों के निर्माण में जिस लकड़ी का प्रयोग होता था वे मिस्त्र के न होकर उत्तर के होते थे। रथ की धुरियों और आरे को बनाने में कछार बलूत (holm-oak) के पेड़, खम्बों को बनाने में एल्म नामक एक जंगली वृक्ष, आरे को फँसाने वाले रिम, पहिये और डैशबोर्ड अर्थात नियंत्रण-पट्ट को बनाने में ऐश या सुन के पेड़ और जुए को बनाने के लिए हानबीन या हार्नबीन के पेड़ प्रयोग में लाए जाते थे। रिम के साथ आरे को मज़बूती से लपेटने और बाँधने के लिए संटी या भोजपत्र-वृक्ष के छालों का प्रयोग किया जाता था। मिस्त्र के रथों को बनाने में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ-पदार्थ कॉकसस से लाए जाते थे (टार १९६९:७४)।


३ - पश्चिमोत्तर और उससे आगे का प्रोटो भारोपीय प्राणी एवं वनस्पति-संसार 


पश्चिमी भारतविदों द्वारा पिछली शताब्दियों से प्रचारित की जानेवाली परिकल्पना और ऊपर के आँकड़ों में भारी विसंगति है। ऊष्णकटिबंधीय (tropical) क्षेत्रों, विशेषकर भारत, के प्राणी-जगत और वनस्पति-संसार की अवहेलना कर पक्षपातपूर्ण ढंग से शीतोष्ण (temperate) आबोहवा में ही उनके सिमटे रहने की वृत्ति को यहाँ तक कि आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थक पश्चिमी विद्वानों ने भी अतार्किक क़रार कर अस्वीकृत कर दिया है (वेबर १८५७, कीथ १९३३, डोल्गोपोल्स्की १९८७ आदि)। इनका भी यही कहना है कि जैसे-जैसे भ्रमणकारी जनजातियाँ अपने अप्रवासन के क्रम में आगे बढ़ती जाती हैं, अपनी सदियों लम्बी यात्रा में अपने मौलिक प्राणी और वनस्पति संसार को भूलते जाती हैं और अपनी नयी बसावट के जंतुओं और पेड़-पौधों में अपना आश्रय ढूँढकर उन्हीं को अपनी स्मृति में बसा लेती हैं। दूसरी बात है कि ‘शीतोष्ण-विद्यालय’ के भारतविदों ने अपने भ्रम की निर्मिती में जिन जंतुओं या वनस्पति को सहेजा है, वे समान रूप से भारत और यूरोप दोनों जगह मिलते हैं। इसलिए इससे यह उजागर नहीं हो पाता कि आर्य भारत से यूरोप गए या यूरोप से भारत आए।

विजेल अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए यह कहते हैं कि भले ही ये ‘शीतोष्ण नाम’ ऋग्वेद की भूमि के चारित्रिक लक्षण न रहे हों, लेकिन ऋग्वेद के बाद की संस्कृत-भाषा में वे पाए जाते हैं। और, उनमें से भी कुछ भले संस्कृत में न हों, लेकिन ईरानी भाषा में पाए जाते हैं।  इस आधार पर उनका यह कहना है कि “ऐसे शब्दों का महत्व उनके निर्यात में कम, बल्कि ठंडी आबोहवा की यादों को संजोये रखने में ज़्यादा झलकता है। ठीक वैसे ही, जैसे काफ़ी ऊँचाई पर उगने वाले कश्मीरी भोजपत्रों का संदर्भ ईरान, मध्य एशिया और यूरोप में लिया जाता है (विजेल २००५:३७३)। उनके कहने का मतलब यह है कि प्रोटो भारोपीय भाषा के ढेर सारे आम शब्द ऐसे हैं जो ‘पंजाब या भारत के मैदानी भागों (वैदिक क्षेत्र) के देशज या लाक्षणिक रूप’ नहीं हैं। ये शब्द केवल यूरोपीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि ईरानी भाषाओं में भी पाए जाते हैं। इसलिए ऐसा नहीं लगता है कि पश्चिम की ओर बढ़ने वाली जनजातियों ने इसे वैदिक क्षेत्र से लाया होगा। उनके अनुसार यह ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के साथ ज़्यादा संगत और उचित जँचता है कि पश्चिम से आने वाली ‘भारतीय-ईरानी’ जनजातियाँ यूरोपीय और उसके मैदानी (स्टेपी) शब्दों को अपने साथ संजोये  भारतीय सीमा तक तो पहुँच गयी लेकिन बाद में भारत-प्रवेश के क्रम में मात्र भारतीय-आर्यों ने ही उन्हें विस्मृत कर दिया!

लेकिन विजेल के साथ सबसे बड़ी समस्या कुछ और है। वह दिन-रात इसी बात को काटने में लगे हैं कि भारतीय आर्यों की मूलभूमि भारत है और यहाँ से बाहर निकलकर वे पश्चिम की ओर गए। इस बात को स्वीकारने का मतलब उनके लिए यह मान लेना है कि संसार की सारी भारोपीय भाषाएँ ‘पंजाब और भारत के मैदानी भागों की भाषा, संस्कृत’ की ही संतति हैं। लेकिन उनकी यह अवधारणा उपलब्ध आँकड़ों से मेल नहीं खाती और इसीलिए ठीक नहीं जँचती। उपलब्ध सामग्रियाँ तो यही दर्शाती हैं कि हरियाणा और उससे पूरब में रहने वाले वैदिक आर्य उस क्षेत्र की ‘पुरु’ बोली बोलते थे। पश्चिम और पश्चिमोत्तर में रहने वाले लोग ‘अणु’ और ‘दृहयु’ भाषाएँ बोलते थे जो भारोपीय भाषाओं का प्रारंभिक रूप था। इन भाषाओं में उन्ही जंतुओं और पेड़-पौधों के नाम आते थे जो पश्चिम और पश्चिमोत्तर के उन क्षेत्रों में पाए जाते थे, न कि वैदिक क्षेत्रों में।

इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसमें से ढेरों शब्द ऋग्वेद या इसके शुरुआती भागों में अनुपस्थित पाए जाते हैं। इन शब्दों का वैदिक भाषा में तभी प्रवेश संभव हुआ जब वैदिक लोग अपने फैलने के क्रम में उत्तर की ओर बढ़े। पथ की उसी रेखा पर पड़ने वाले आगे की जगहों में जहाँ वैदिक आर्य नहीं पहुँच पाए, या केवल नाम के लिए ही पहुँच पाए हों, बोली जाने वाली भारोपीय भाषाओं में पश्चिमी शब्दों का ही प्राचुर्य रहा और ये पश्चिमी शब्द वैदिक संस्कृत, बाद के संस्कृत या अन्य परवर्ती भारतीय भाषाओं से भी पूरी तरह नदारद रहीं।

जंतुओं या पौधों के नामों के उपस्थित होने के कालक्रम का भी अपना एक ख़ास अन्दाज़ है :

१ - भारत के अंदरूनी हिस्सों के जंतुओं और वनस्पति ( हाथी, चीता, धारीदार हरिण, भारतीय जंगली भैंस, भैंस, मोर, ब्राह्मिनी बत्तख़, अर्जुन वृक्ष, रेशम और सूत के पौधे आदि) का ज़िक्र ऋग्वेद के पुराने मंडलों (६, ३, ४, ७ और २) से ही मिलना शुरू हो जाता है। इन नामों के पश्चिमोत्तर में बसने वाले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के बीच पाए जाने की संभावना नहीं के बराबर थी और यही कारण है कि हज़ारों वर्षों तक और हज़ारों मील की दूरियों तक जारी रहने वाले उनके अप्रवासन के क्रम में इन शब्दों का उनके साथ शायद ही जाना हुआ। फिर, नए जगह के प्राणी-लोक और वनस्पति-संसार में पहुँचने के उपरांत तो इन शब्दों से उनका कोई नाता ही नहीं रहा। तथ्य तो यह है कि जो भारतीय-आर्य ख़ानाबदोश जिप्सी, सिंटी या रोमानी भी अपनी भूमि से हज़ारों मील दूर जाकर बस गए, उन्होंने भी समय की धार में अपने जंतु और वनस्पति के नाम बहा दिये और अपने साथ कुछ भी बचा नहीं पाए। 

२ – पश्चिमोत्तर जंतु-जगत या वनस्पति-संसार के नामों के ‘साझे भारतीय-ईरानी शब्द’ आश्चर्यजनक ढंग से ऋग्वेद के बाद के नए मंडलों (५, १, ८, ९, १०) में मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर वैदिक शब्द, मेष (भेड़), ऊरा (मेमना), ऊष्ट्र (ऊँट), वराह और सुकर (सुअर), कश्यप (कछुआ), खर (गदहा), जहाक (साही) की तुलना अवेस्ता के शब्द, मेष, ऊरा, ऊष्ट्र, वराज, हुकर, क़स्सीयप, क्षर, दुज़ुक से की जा सकती है। ये शब्द वेद (भारतीय-आर्य) और अवेस्ता (ईरानी) के साझे शब्दकोश का प्रतिनिधित्व करते हैं।

३ – पश्चिम के बहु-प्रचारित ‘शीतोष्ण’ प्रोटो भारोपीय शब्द ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों या फिर उससे भी बाद रचित वैदिक ग्रंथों में ही मिलते हैं :

क – जैसा कि देखा गया है कि ‘आवि-‘ और ‘ऊर्ण-/ऊर्णा‘ जैसे ‘पुराने’ प्रोटो भारोपीय शब्द, या अन्य भारोपीय शाखाओं में उनके सजातीय और सपिंडी शब्द, ऋग्वेद के तीन सबसे पुराने मंडलों में नहीं मिलते हैं। वे बाद के मंडलों में ही विशेषकर सबसे पहले चौथे मंडल में दिखायी देते हैं। यह भारतीय-आर्यों के पश्चिम की ओर बढ़ने के उस चरण को इंगित करता है जब सुदास के वंशज सहदेव और सोमक के काल में अपने विस्तार-अभियान में आक्रमण करते-करते वे ‘सरयू के पार’ (४/३०/१८) अफगनिस्तान में पहुँच गए।

ख – विजेल ने ‘भेड़िए’ और ‘बर्फ़’ का ‘ठंडी आबोहवा की भाषिक-स्मृति’ के रूप में उल्लेख किया है। हम पहले ही देख चुके हैं कि भेड़िए समूचे भारत में बहुतायत में पाए जाते थे। जहाँ तक ‘बर्फ़’ की बात है तो इसका उल्लेख भी ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में ही मिलाता है।

ग – विजेल ने भोजपत्र के लिए जिस ‘भुर्ज’ शब्द का उल्लेख किया है वह भी ऋग्वेद में कहीं नहीं पाया जाता और सबसे पहली बार यजुर्वेद में उपस्थित होता है जो ऋग्वेद से बाद का ग्रंथ है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस शब्द का प्रयोग एकदम सीमांत उत्तर और पश्चिमोत्तर दर्दिक, नुरिस्तानी और ईरानी भाषाओं में मिलता है। “पश्चिमोत्तर भारत के पहाड़ों में बसने वाली जनजातियों की दर्दिक भाषा में ‘भोजपत्र’ के लिए ‘फलुर बढ़ुज’, ‘दमेलि ब्रुश’ और ‘गवार-बटी ब्लज़’ (मेरहोफ़र १९६३:११.५१४-१५),  बरेज, वैगली ब्रुझ (मोरजेंसटायर्न १९५४:२३८), खोतानिज सक ब्रमजा, ब्रुमजा, वाखी फुर्ज, संगलेची, शुगनी बरुज़, पश्तो बर्ज, ताजिक बर्ज,  और बुर्स ‘जेनिपर’ (ग़मक्रेलिज १९९५ : ५३१-५३२)  जैसे शब्द पाए जाते हैं। इस बात की पुनरावृति यहाँ अपेक्षित है कि पश्चिमोत्तर के इन शब्दों के ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों और अन्य परवर्ती वैदिक संस्कृत ग्रंथों में मौजूदगी के तमाम सबूत हैं और यह तब हुआ जब भारतीय आर्य अपने साम्राज्य विस्तार के अभियान में उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़े।

४ – अवेस्ता के शब्दकोश की शुरुआत ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना-काल के समकालीन है। इस बात की विशद चर्चा श्री तलगेरी की पुस्तक ‘The Recorded History of the Indo-European Migrations – Part2, The chronology and the geography of the Rigveda’ में की गयी है। किंतु, नए मंडलों के रचना काल से भी बहुत आगे बढ़कर अवेस्ता का समय ठहरता है। अवेस्ता की रचना होने के समय तक आद्य-ईरानी (प्रोटो-ईरानी) अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश कर गए थे और उनका सम्पर्क अब पश्चिमी दुनिया तथा भारोपीय भाषाओं के पश्चिमी शब्दों या यूँ कहें कि ‘अणुओं’ के उन शब्दों से होने लगा था जो ग्रीक, अर्मेनियायी और अल्बानी शब्दों के साथ मिलकर अपने नए विकसित रूप में गढ़ चुके थे।  इन शब्दों के विकास और गढ़ने में उनसे सटे उत्तर में रहने वाले  स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक जैसे ‘दृहयु’ समुदाय के लोगों की स्थानीय भाषा का भी योगदान था। भारतीय-आर्य भाषा से पूरी तरह अनुपस्थित रहने वाले दृहयु और ईरानियों के इन साझे शब्दों का उद्भव अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के हिमाच्छादित पर्वतीय इलाक़ों में हुआ। निम्नांकित कतिपय शब्दों में यह स्थिति साफ़-साफ़ झलकती है।

अवेस्ता – बेरेज- ‘पहाड़ी’, ‘पहाड़’। इसके सजातीय शब्द  स्लावी, जर्मन और सेल्टिक में भी हैं।

अवेस्ता – स्नाएजेटि ‘बर्फ़ बनना’ (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियायी भाषाओं में          भी मिलते हैं।

अवेस्ता – ऐक्षा ‘शीत’, ‘बर्फ़’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में भी हैं।

ओस्सेटिक – तज्यन पिघलना (क्रिया)। इसके सजातीय शब्द स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक और अर्मेनियायी में भी हैं।

अवेस्ता – उद्र ‘ऊद’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक और जर्मन में हैं।

अवेस्ता – बावरा-/बावरी- ‘ऊदबिलाव’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक में मिलते हैं।

ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न ‘साही’। इसके सजातीय शब्द स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियायी में मिलते हैं।


विजेल बार-बार एक उदाहरण सामने लेकर आते हैं – अ-भारतीय ऊदबिलाव का। इसे अंग्रेज़ी में ‘बेवर’, पुरानी अंग्रेज़ी में ‘बेब्र’, ‘बेओफ़ोर’, लैटिन में ‘फ़ाइबर’, लिथुआनियायी में ‘बेब्रस’, रूसी में ‘बोब्र’ या ‘बेब्र’ और अवेस्तन में ‘बब्री’ बोलते हैं। भारतीय नेवले के संस्कृत नाम, ‘बभ्रु’ से इसकी तुलना कर वह ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ को सही ठहराते हैं (विजेल २००५:३७४)। लेकिन ये जितने भी साझे अ-भारतीय नाम हैं, ये सभी भारतीय आर्यों के समूह को भारत-भूमि से बाहर निकलने के क्रम में उनके रास्ते में पड़ने वाले अफगनिस्तान और मध्य एशिया की ज़मीन पर जन्मे-पले और बढ़े तथा यूरोपीय और प्रोटो-ईरानी बोलियों तथा भाषाओं में शामिल हो गए। साथ ही, ऐसे किसी भी नाम के भारत की भूमि में प्रवेश का कोई दृष्टांत नहीं है। ऋग्वेद और मित्ती भारतीय-आर्य में ‘बभ्रु’ शब्द पाया जाता है, किंतु वहाँ यह घोड़ों के ख़ास रंग के रूप में प्रयुक्त हुआ है। पूरब में बहुत बाद के संस्कृत में रंग के लिए आने वाला यह शब्द ‘नेवले’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किंतु इसका मतलब आर्यों के भारत-प्रवेश के संदर्भ में भी नहीं लिया जा सकता। इस संदर्भ में गमक्रेलिज की ये बातें ध्यान देने योग्य है कि ‘भारतीय-ईरानी भाषा के विभाजन की सीमा रेखा यदि खिंची जाय तो संस्कृत ने  अपने शब्दों के अर्थों में पुरातन कलेवर को सुरक्षित रखा है जब कि अवेस्ता ने शब्दार्थों में नवोन्मेष की परम्परा का सूत्रपात किया है।‘ (गमक्रेलिज १९९५:४४८)

गमक्रेलिज और इवानेव (गमक्रेलिज १९९५:५२५-५३१) ने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि प्रोटो-भारोपीय भाषा की मूलभूमि अफगनिस्तान और मध्य एशिया के पर्वतीय क्षेत्र ही थे। इस मूल भूमि में वे बलूत अर्थात ‘ओक’ के वृक्षों के प्रमुख स्थानों को इंगित करते हैं। बादल की घोर गर्जना से दहलाती ऊँची चोटी वाली ‘ओक’ के वृक्ष से अच्छादित पर्वत-मालाओं की ओर ध्यान खींचते हुए उसमें वे मेघों के तड़ित-देव का निवास बताते हैं (गमक्रेलिज १९९५:५२९)। सही कहें तो इस मूल भूमि को थोड़ा और पश्चिम की ओर खिसकाकर वे ‘अनाटोलिया’ के पास ले आते हैं लेकिन उपलब्ध आँकड़ों पर आधारित जो परिदृश्य उभरता है उसका इशारा अफगनिस्तान, ईरान और ट्रान्स-कौकेसियन अर्थात जौर्जिया, आर्मेनिया और अज़रबैजान के क्षेत्रों से है। इन भू-भागों में ओक के वृक्ष का बहुत ही अहम स्थान है। इसीलिए इस भाग के प्रमुख लक्षणों को चिन्हित करने के लिए गमक्रेलिज ने ओक के पेड़ को ही चुना है।  इन्हें उस क्षेत्र में ‘ट्री’ या ‘वुड’ (संस्कृत – द्रु-/द्रुम-/दरु-/तरु-) के  लिए ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ जैसे अपभ्रंश रूप में लिया जाता है। इनके सपिंडी और सजातीय शब्द आठों अन्य शाखाओं (अनाटोलियन, टोकारियन, बाल्टिक, स्लावी, जर्मन, भारतीय-आर्य, ईरानी और ग्रीक) में भी पाए जाते हैं। किंतु, ऐतिहासिक विविधताओं से सम्पन्न सेल्टिक, अल्बानी और ग्रीक जैसी भाषाओं में उन्हीं अपभ्रंश रूपों में ही ये व्यक्त होते हैं। ग्रीक भाषा में ‘ट्री’ और ‘ओक’ दोनों प्रचलित हैं।  अर्मेनियायी और इटालिक शाखाओं ने ‘वुड’ के लिए अर्थ अपने विशेषण ‘हार्ड’ शब्द में संजो लिया है।  

‘ट्री’ ( ‘टे/ओर-‘ या *ट’रे/ओऊ) के लिए मौलिक शब्द ‘ट्री/वुड’ बारह में से नौ शाखाओं में यथावत बना रहा लेकिन बाक़ी तीन शाखाओं में इसका अर्थ ‘ओक’ हो गया। इनमें सेल्टिक भी एक है। इसी मूल में ऋग्वेद और पुराणों के नाम दृहयु का रहस्य भी छुपा हुआ है जो इन पाँच यूरोपीय शाखाओं -  स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक – को बोलने वाली जनजातियाँ थी और इन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के इन्ही पहाड़ी क्षेत्रों में थीं। यहाँ तक कि  इन जनजातियों के पुरोहितों  के लिए भी ‘द्रु-इ/द्रु-इद’ शब्द प्रचलित थे जो आयरलैंड की सेल्टिक भाषा में आज भी सुरक्षित है। 

५ – एक अन्य अपभ्रंश शब्द है – ‘पेर्क’। इसका अर्थ इटालिक, सेल्टिक और भारतीय-आर्य भाषा में ओक होता है। संस्कृत में ‘पर्कटी’ शब्द का अर्थ अंजीर होता है। पंजाबी में ‘पर्गाइ’ शब्द पवित्र ओक के लिए आता है। ‘पेर्क’ का अर्थ जर्मन में ‘फर (fir)’ अर्थात देवदार का वृक्ष होता है। इसी शब्द से अंग्रेज़ी के ‘फ़ॉरेस्ट’ शब्द की निष्पति हुई है। आद्य भारोपीय शब्द संस्कृत और हित्ती में पाए जाने वाले मूल शब्द *पेरु-‘ (पहाड़/चोटी/चट्टान) से व्युत्पन्न है जिससे हम संस्कृत शब्द ‘पर्वत’ पाते हैं। मेघों की गर्जना के भारोपीय देवता के नाम की निष्पति भी दो शब्दों - ‘पेर्क/न’ और ‘पेरू/न’ से हुई है। भारतीय-आर्य (वैदिक) भाषा में  ‘पर्जन्य , बाल्टिक भाषा में ‘पेरकुनस’,  स्लावी भाषा में ‘पेरूँ’ और जर्मन भाषा में ‘जोरगिन’ (मेघ देवता की माता का नाम ‘थोर’) इसके दृष्टांत हैं। मेघ-देवता के लिए आद्य-भारोपीय शब्द ‘पेरकूँ’ और पर्वतीय ओक, पर्वतीय शिखरों पर ओक के जंगल, पर्वत या पर्वतों की चोटी के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द ‘पेरू’ के बीच के संबंधों को हम आसानी से समझ सकते हैं, यदि पौराणिक कथाओं में आसमान से गिरने वाली बिजली के हम पर्वत शिखरों पर खड़े ओक के वृक्षों में लिपटने के दृश्य को अपने मन में उतारें। यह दृश्य इन पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी प्राचीन भारोपीय जनजातियों के जीवन में बार-बार घटित होने वाले परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करता है (गमक्रेलिज १९९५:५२८)।

तो, क्या यह मान लें कि प्राचीन भारोपीय जनजातियों की रिहायिश, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया की इस पर्वतीय भूमि (या, फिर उससे और आगे!), की ‘भाषायी यादें’ ऋग्वेद में समाहित हैं! जबकि सही बात तो यह है कि :

१ – ऋग्वेद या किसी भी वैदिक ग्रंथ में ओक या किसी अन्य नाम से भी इस तरह के किसी पेड़ की कोई चर्चा नहीं है। बाद के शास्त्रीय संस्कृत ग्रंथों में ‘पर्कटी’ शब्द का प्रयोग अवश्य हुआ है जिसका अर्थ भारतीय वृक्ष श्वेत अंजीर (फ़ाइकस इंफ़ेक्टोरा) है। अथर्ववेद में ‘पलाक्ष’ के वृक्ष का ज़िक्र आता है। बहुत बाद में चलकर पंजाबी भाषा में ‘पर्गाइ’ शब्द मिलता है जो ओक की  भिन्न प्रजातियों में से एक पवित्र प्रजाति ‘क्वेर्कस आइलेक्स’ के नाम के लिए आता है। यह पवित्र प्रजाति भूमध्य-सागर के आस पास पायी जाती है। अतः कालांतर में पश्चिम से यह नाम पंजाब पहुँचा है।

२ – स्पष्ट तौर पर ऋग्वेद में दो ‘मेघ-देवताओं’ की चर्चा है। एक ‘इंद्र’ और दूसरे ‘पर्जन्य’। ‘इंद्र’ शब्द की व्युत्पति ‘इन्दु’ शब्द से हुई है। इसका अर्थ होता है – बूँद। अतः वर्षा की बूँदों से इंद्र का रिश्ता है। इस बात के अलावा कि इंद्र भारतीय- आर्य शाखा में ही सिमटे हुए हैं यह भी उतना ही सत्य है कि वह हरियाणा और इसके अंदरूनी हिस्सों के मानसून क्षेत्रों के ही देवता हैं। पर्जंय शब्द की व्युत्पति के बीज तो हम पहले ही  ओक से आच्छादित पर्वतीय क्षेत्रों और तीन यूरोपीय शाखाओं में पा चुके हैं।

आर्य-आक्रमण अवधारणा के पैरोकार भारतशास्त्री अपने तर्कों में पर्जंय को मूल आद्य भारोपीय, और साथ-साथ भारतीय भी, मेघ-देवता के रूप में चित्रित करते हैं तथा इंद्र को बाद में पर्जंय की जगह लेनेवाले भारतीय मेघ-देवता के रूप में स्थापित करते हैं। इसका कारण वह स्लावी, बाल्टिक और जर्मन पौराणिक कथाओं में भी मेघ-देवता के रूप में पर्जंय की उपस्थिति को देखते हैं। किंतु, सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। 

अ – इंद्र ऋग्वेद के सबसे प्रमुख देवता हैं। ऋग्वेद में कुल १०२८ सूक्त हैं। इनमें से २५० सूक्त इंद्रदेव की महिमा के मंडन में समर्पित हैं। पर्जंय की गौरव-गाथा में मात्र तीन सूक्तों का योगदान है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इंद्रदेव ऋग्वेद के नए और पुराने सभी मंडलों में उपस्थित होते हैं। इनके पर्यायवाची नामों को तो छोड़ दें, ‘इंद्र’ नाम से ही ५३८ सूक्तों में २४१५ बार इनका वर्णन है। दूसरी ओर २५ सूक्तों में पर्जंय मात्र ३६ बार वर्णित हुए हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:

पूराने मंडल (६, ३, ७, ४ और २) 

चौथा मंडल – ५७/८

छठा मंडल – ४९/६, ५०/१२, ५२/(६, १६), ७५/१५

सातवाँ मंडल – ३५/१०, १०१/५, १०२/(१, २), १०३/१

नए मंडल (५, १, ८, ९, १०)

पाँचवाँ मंडल – ५३/६, ६३/ (४, ६), ८३/(१, २, ३, ४, ५, ९)

पहला मंडल – ३८/(९, १४), १६४/५१

आठवाँ मंडल – ६/१, २१/ ८, १०२/५

नौवाँ मंडल – २/९, २२/२, ८२/३, ११३/३

दसवाँ मंडल – ६५/९, ६६/(६, १०), ९८/(१, ८), १६९/२

यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि सातवें मंडल के ३५/१० को छोड़कर बाक़ी जितने भी सूक्त हैं, वे या तो पुराने मंडलों के पुनर्संशोधित सूक्त हैं (इन्हें अधोरेखित किया गया है) या फिर नए मंडलों के सूक्त हैं। पुराने दूसरे और तीसरे मंडल में तो इनका ज़िक्र तक भी नहीं आया है। ७/३५/१० का भी जो एकमात्र अपवाद स्वरूप वर्णन है वह विश्वदेव (सभी देवताओं) की लम्बी सूची में उद्धृत हुआ है।

इससे तो यहीं बात सामने आती है कि पर्जन्य  पश्चिमोत्तर से अवतरित  ऐसे देवता हैं जो नए मंडलों की रचना के युग में ऋग्वेद में प्रवेश कर गए। यह तब की बात होगी जब हरियाणा और उसके पूरब के मानसूनी क्षेत्रों से उत्तर-पश्चिम दिशा में चलकर वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर पर्वतीय प्रदेशों में पहुँचे होंगे। अब एक बात और ग़ौर करने वाली है कि यह पर्जन्य देवता मात्र स्लावी, बाल्टिक और जर्मन क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। इससे इस अवधारणा को बल मिलता है कि ऋग्वेद के नए मंडलों की रचना के समय मध्य एशिया में स्लावी, बाल्टिक और जर्मन बोलियों के अवशेष मात्र ही सही ज़रूर बचे रहे होंगे। 

आ – कुछ और महत्वपूर्ण बातें भी ग़ौर फ़रमाने लायक़ हैं। केवल भारतीय आर्य परम्परा में ही इंद्र देवता के रूप में चित्रित होते हैं। अवेस्ता की प्रतिद्वंदी ईरानी परम्परा में इंद्र एक दैत्य है। हित्ती पुराण में तो ‘इनर’ नामक एक देवी की चर्चा है जो बिना नाम वाले बरसात के देवता को उन नागों को मारने में सहायता देती है जो बरसात होने से रोकते हैं। हित्ती (अनाटोलियन) भारोपीय शाखा से अपनी कल्पित मूलभूमि से अलग होने वाली पहली भाषा थी। इस परिप्रेक्ष्य में हित्ती पुराण में इनर देवी की उपस्थिति से तो एक बात पूरी तरह से साफ़ हो जाती है कि या तो इंद्र पर्जन्य से पुराने हैं या फिर वैदिक आर्यों के पश्चिमोत्तर में पसरने के दौरान वहाँ हित्ती भी मौजूद रहे होंगे या फिर दोनों बातें एक साथ भी सही हो सकती हैं।

यदि हम वानस्पति जगत, प्राणियों के वृहत संसार और पहाड़, बर्फ़, पर्जन्य जैसे उनसे सम्बद्ध समग्र सांस्कृतिक तत्वों का गहरायी से परीक्षण और उनकी विवेचना करें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि पश्चिमोत्तर के शब्दों का प्रवेश ऋग्वेद के बाद में रचित नए मंडलों में तब हुआ जब वैदिक आर्य पसरते- पसरते पश्चिम की ओर पहुँच गए और उनके साथ-साथ ईरानी लोग भी और पश्चिम की ओर बढ़े जा रहे थे। इसी क्रम में ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जैसी यूरोपीय बोलियाँ भी नए प्राणियों और नए वनस्पतियों के देश में काफ़ी दूर तक पहुँच गयी। 


Thursday, 4 March 2021

इंद्रधनुषी दुनिया: बूढ़ा सुग्गा पोष नहीं मानता!


आदरणीय अपर्णा जी एक जानी-मानी ब्लॉगर हैं। साहित्य सेवा के साथ-साथ समाज-सेवा भी उनके जीवन का महत यज्ञ है जिसे पूरी तन्मयता से मनसा, वचसा और कर्मणा वह झारखंड राज्य के सुदूर आदिवासी इलाक़ों में सम्पादित कर रही हैं। ‘एकजुट’, ‘सहभागी शिक्षण केंद्र’,  ‘पेस’, ‘AID’ इत्यादि सामाजिक संस्थाओं के साथ माता,शिशु, किशोरी और महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और लैंगिक अधिकारों के लिए कार्य करते हुए वर्तमान में स्वतंत्र प्रशिक्षक और सामाजिक अनुसंधानकर्ता के रूप में झारखंड और निकटवर्ती राज्यों में चल रही कुछ परियोजनाओं में वह अहर्निश  संलग्न हैं । बच्चों के व्यक्तित्व में  चारित्रिक और नैतिक पक्ष को विकसीत करने और उन्हें अपनी माटी के सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने के लियी अपर्णा जी ने अपने यू- ट्यूब चैनल ‘इंद्रधनुषी दुनिया’ माध्यम से एक अत्यंत महत्वपूर्ण अभियान चलाया है। बच्चों को सरल और सरस माध्यम से शिक्षित करने में उनका यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है और समाज के सभी शिक्षित जनों के सहयोग की अपेक्षा भी रखता है। उसी क्रम में बच्चों के लिए  उनके द्वारा प्रस्तुत मेरी यह कविता आपके सामने है। 

एक बात और बता दूँ कि अपर्णा जी ने मुझसे आग्रह किया कि सीखने वाले बच्चों को ध्यान में रखते हुए तत्सम शब्दों का प्रयोग कम करें। मेरा यही उत्तर था कि सीखने वाले के लिए सभी शब्द नए और एक समान होते हैं। यह कठिनाई सीख चुके और बड़े- पढ़े लोगों के साथ है। एक कहावत भी है, ‘बूढ़ा सुग्गा पोष नहीं मानता’। 


Wednesday, 24 February 2021

कासे कहूँ- समीक्षा डॉ प्रोफेसर उषा सिन्हा

 



(कृपया आठ मिनट बीतने के बाद के अंश का श्रवण करें। असुविधा के लिए खेद है।)

Tuesday, 23 February 2021

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला!

कई दिनों से रूठी मेरे,

अंतर्मन की कविता।

मनहूसी, मायूसी, मद्धम,

मंद-मंद मन मीता।


शोर के अंदर सन्नाटा है,

शब्द, छंद सब मौन।

कांकड़-पाथर-से भये आखर,

भाव हुए हैं गौण।


थम गई पत्ती, चुप है चिड़िया,

और पवन निष्पंद।

पर्वत बुत-से बने पड़े हैं,

नदियों का बहना बंद।


हिमकाल के मनु-से मेरे,

मन में बैठी इड़ा।

बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!

परखे पीव की पीड़ा?


अभिसार-से सुर श्रद्धा के,

नहीं सुनाई देते।

सुध धरा की व्याकुलता का,

बादल भी नहीं लेते।


चाँद गगन में तनहा तैरे,

आसमान है बेदम।

जुगनू जाकर जम गए तम में,

करे पलायन पूनम।


नि:शक्त शिव शव स्थावर,

निश्चेतन जीव जगत है।

समय चक्र की सतत कला का,

यही नियति आगत है।


प्रलय काल में क्षय के छोर पर,

हो, शक्ति की आहट।

स्फुरण में चेतन के फिर,

जागेंगे शिव औघट।


शिव के डमरू से निकलेगा,

प्रणव-नाद का गान।

और कन्हैया की मुरली से,

प्रणय-रास की तान।


अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,

गढ़े ज्ञान की गीता।

अनहद चेतन अंतर्मन में,

मानेगी मेरी कविता!!!


राह निहारूँ उस पहरी की,

मनमीता मोरी मानें।

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,

जड़-चेतन सब पहचानें।













Thursday, 11 February 2021

कृष्ण-कन्हैया

 पल-पल पुलकित पलकों में,

जो,  प्रीत तू अबतक पाली।

नित नयनों में तेरे उतराए,

वह बिम्ब कौन री व्याली!


उर की धडकन में धक-धक,

जो धड़क-धड़क कर बोले।

चतुर-चितेरा, चहक-चहक,

 मन वेणी,   तेरी  खोले।


कूल-कालिंदी से कलकल,

कलरव करती किल्लोलें।

हिय वह हौले-हौले तेरे,

नेह मधुर रस  घोले।


मूंदे दृग-पट अपना तू,

करता वह  नैन बसेरा।

आँखों के आँगन में,

तेरे, डाला उसने डेरा।


चमके चिर चितवन चंचल,

वह, तेरे कपोल की लाली।

कौन! कहाँ? वह कृष्ण-कन्हैया!

तू,  किस हारिल की डाली!


वैलेंटाइन सप्ताह

11.2.2021

पटना


Monday, 1 February 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१९)

(भाग - १८ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (त)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


शीतोष्ण, अर्द्ध-शीतोष्ण और भारतीय प्राणी एवं वानस्पतिक जगत 

इन खंडन-मंडन करने वाले भाषाविदों के लिए सबसे अधिक विडम्बना और उससे भी अधिक दुर्भाग्य का विषय तो यह है कि प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में पुनर्रचित प्राणी-जगत के कुछ ऐसे नाम हैं जो भारत में तो पाए जाते हैं किंतु यूरोप के मैदानी भागों में नहीं पाए जाते। इस आधार पर तो यह बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि इनकी मूल भूमि भारत है न कि दक्षिणी रूस का मैदानी भाग या यहाँ तक कि अनाटोलिया भी! दृष्टांत के लिए ये जानवर हैं – बाघ, सिंह, चीता, लंगूर और हाथी। सामान्य तौर पर विवेचनाओं में इस बिंदु की अवहेलना कर ये ‘खंडन-मंडन-पारंगत’ विद्वान आगे बढ़ जाते हैं :

बाघ : ‘*विहाघ्रस’, तीन शाखाओं में इसके रुप इस प्रकार हैं –

भारतीय आर्य : व्याघ्र, ईरानी (पारसी) : बब्र, अर्मेनियायी : वग्र ( इसी शब्द को आभारोपीय भाषा कौकेसियन जौरजियन        में ‘विग्र’ के रूप में लिया गया है।

सिंह : ‘*सिंघोस’, दो शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –

भारतीय-आर्य : सिंह, अर्मेनियायी : इंज ( यहीं नाम चीता के लिए है)

चीता : ‘*पर्ड’, चार शाखाओं में इसके नाम इस प्रकार हैं – 

भारतीय-आर्य : प्रदाक़ु, ग्रीक : पार्डस/पर्डलिस, ईरानी पारसी : फ़र्स-, अनाटोलियन (हित्ती) : पर्सना 

बंदर : ‘*क्व्हे/ओप्फ’, चार शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –

शुरू के ‘क्व्हे’ को लेकर भारतीय-आर्य भाषा में कपि-, ग्रीक : केपोस, बिना ‘क्व्हे’ को लिए जर्मन और आइसलैंड की प्राचीन भाषा में ‘अपि’, स्लावी : ओपिका 

और इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण हाथी है।

हाथी : ‘*लहभो-न्थ-‘ या ‘*हभो-न्थ’। इसके रूप कम-से-कम चार शाखाओं में प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं –

भारतीय-आर्य : इभा-, ग्रीक : एलिफ़स, (माइसिनियन ग्रीक : एरेपा), इटालिक (लैटिन) : एबर, हित्ती : लहफ़ा (इनके वैकल्पिक अर्थ भी हैं और एक अर्थ ‘हाथी का दाँत भी है)। ऊँट के अर्थ में यह शब्द दो भाषाओं में प्रयुक्त होता है – जर्मन (गोथिक) : उलबंदुस और स्लावी : वेलिबोदु 

जानवरों के ये प्रोटो-भारोपीय अपभ्रंश नाम इस अवधारणा को पूरी तरह ख़ारिज करते हैं कि इनसे ताल्लुक़ रखने वाली वानस्पतिक आबोहवा या प्राणिक जलवायु उत्तर का ठंडा या शीतोष्ण परिवेश ही रहा होगा। इसलिए आर्य-आक्रमण अवधारणा के अधिकांश पैरोकार अपनी दलीलों में मात्र भारत में पाए जानेवाले इस महत्वपूर्ण बिंदु को नज़रंदाज़ करते हुए कुटिलता से केवल उन्ही प्राणियों या पेड़-पौधों के नामों की चर्चा करते हैं जो शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों के साथ-साथ ‘भारत में भी’ पाये  जाते हैं। 

लेकिन इन सभी नामों में सबसे ज़्यादा प्रमुख हाथी का नाम है :

१ – यह शब्द समूची भारोपीय शाखाओं के पटल पर छाया हुआ मिलता है। यह 

क - एशिया और यूरोप, दोनों में पाया जाता है, 

ख – दक्षिण-पूर्वी सीमांत शाखा, भारतीय-आर्य और पश्चिमोत्तर सीमांत शाखा, जर्मन दोनों में पाया जाता है,

ग – भारोपीय परिवार की प्राचीनतम दर्ज भाषाओं, हित्ती, माइसेनियन ग्रीक और पुरातन भारतीय-आर्य भाषाओं, में पाया जाता है (मल्लोरी-आडम्स २००६ : ९९)

घ – साथ ही, समूचे यूरोप में पुरातन काल की प्रामाणिक यूरोपीय शाखा की लैटिन, गोथिक और गिरिजाघरों में बोली जाने वाली स्लावी भाषाओं में पाया जाता है।

मल्लोरी और आडम्स के अनुसार किसी शब्द के पक्के तौर पर प्रोटो भारोपीय होने की बस एक ही कसौटी है कि ‘यदि अनाटोलियन और किसी भी एक भारोपीय भाषा में उस शब्द के सपिंडी या सजातीय शब्द पाए जाते हों तो वह शब्द निश्चित तौर पर भारोपीय ही है।‘ इसमें आगे वह यह जोड़ देते हैं कि ‘भले ही यह नियम सबको नहीं रुचे लेकिन यहाँ पर यहीं लागू होता है (मल्लोरी-आडम्स २००६:१०९-११०)।‘ यहाँ पर हाथी के सजातीय या सपिंडी शब्द अनाटोलियन  के साथ-साथ पाँच अन्य भारोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं।

२ – ऊपर वर्णित अन्य जानवरों के विपरीत, ऐतिहासिक भारोपीय पर्यावास के मात्र एक ही ठिकाने पर हाथी पाया जाता है – वह है ‘भारतीय-आर्य भूमि।‘ हाथी की दो स्पष्ट प्रजातियाँ हैं। पहली प्रजाति है - भारतीय हाथी (इलेफ़स मैक्सिमस) जो सिर्फ़ भारत और इसके पूरब स्थित दक्षिण एशिया के क्षेत्रों में पाया जाता है। दूसरी प्रजाति है – अफ़्रीकी हाथी (लोक्सोडोंटा अफ़्रीकाना) जो अफ़्रीका के सहारा के आस-पास के क्षेत्रों में पाया जाता है। दोनों प्रजातियों की रिहाईश भारोपीय भाषा की ऐतिहासिक भूमि से सुदूर भारतीय-आर्य भाषी भूमि है।

हाथी और अन्य चार जानवरों के ऊपर दिए गए दृष्टांत की विवेचना से निष्पन्न तथ्य पूरी तरह से न केवल भारत की मूलभूमि होने की अवधारणा को स्थापित करते हैं, प्रत्युत दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में इनकी मातृभूमि की परिकल्पना को पूरी तरह से नकारते भी हैं। ऋग्वेद में भी हाथियों का वर्णन देशी पशु के रूप में एक पालतू प्राणी की तरह मिलता है। किंतु, दुर्भाग्य से पूर्वाग्रही विद्वानों की एक जमात ने इस तथ्य से यूँ अनभिज्ञता प्रकट की है, मानों हाथी कभी इस भूमि में रहा ही नहीं!

विद्वानों  द्वारा हाथियों के इस तथ्य को नज़रंदाज़ करेने के पूर्वाग्रही और पुरज़ोर प्रयासों की विशद विवेचना श्रीकांत तलेगरी ने अपनी पुस्तक ‘The Elephant and the Proto-Indo-European Homeland (हाथी और प्रोटो-भारोपीय मूलभूमि)’  में की है। उसी पुस्तक में हाथियों के अत्यंत प्राचीन काल से भारत भूमि में विचरने के प्रमाण ऋग्वेद की ऋचाओं में तलाशे गए हैं। ऋग्वेद के प्राचीन और अर्वाचीन, दोनों मंडलों में हाथियों का उल्लेख मिलता है। इनके स्पष्ट रूप से तीन नाम पाए जाते हैं – इभा-, वार्णा और हस्तिन। आगे चलकर ऋग्वेद में ही कुछ और भी नामों, जैसे गज, मतंग, कुंजर, दंती, नाग, करी आदि का उल्लेख मिलता है। ग्रिफ़िथ और विल्सन ने हाथी के लिए दो और शब्दों को ऋग्वेद में खोजा है – अप्स: (८/४५/५६) और श्रणी (१०/१०६/६)। 

स्पष्ट तौर पर यह वैदिक लोगों का एक जाना-पहचाना जानवर है जो पूरी तरह से उनके संस्कारों और वैदिक वातावरण में घुला-मिला है। ४/१६/१४ में इंद्र की ताक़त की तुलना हाथी से की गयी है। तीन ऋचाओं (१/६४/७, १/१४०/२ और ८/३३/८) में जंगली हाथी के द्वारा जंगल में घनी झाड़ियों को कुचलते विचरता दिखाया गया है। इसमें तीसरी ऋचा में ‘भीषण ताप से उन्मत्त हाथी इधर-उधर भटक रहा है (ग्रिफ़िथ)’। १०/४०/४ में दो जंगली हाथियों का पीछा करते शिकारियों की टोली दिखायी दे रही है। १/८४/१७ में धनिक व्यक्ति के दरवाज़े पर उसका पालतू हाथी उसके परिवार के सदस्य की भाँति खड़ा है। ४/४/१ में शक्तिशाली राजा के राज जुलूस में सवारी के रूप में शक्तिशाली हाथी का विवरण मिलता है। ९/५७/३ में एक भव्य समारोह में सज़ा-धजा हाथी मिलता है। ६/२०/८ में लड़ाई के मैदान में डटी गज-सेना का ज़िक्र मिलता है। वैदिक संस्कृति और अर्थतंत्र में हाथी और हाथी के दाँतों के महत्व के सिलसिले में तुग्र, भुज्य, इभ्य, वेतसु, दशनी, ऋभु आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है।

हाथी और उसके दाँतों के लिए प्रयुक्त शब्द अपनी व्युत्पति के गर्भ में ही गहरे अर्थ समेटे हुए हैं। प्रोटो भारोपीय भाषा के अपभ्रंश स्वरूप में हाथी के लिए ‘*लभ/*ल्भोंथ-‘ शब्द है। इसकी व्युत्पति का मूल संस्कृत का ‘ऋभ/लभ’ है। ‘भारत-मूलभूमि-परिकल्पना' में न केवल भारोपीय भाषाओं के इस भूमि से बिछुड़कर बाहर चले जाने के समय से, बल्कि उससे भी बहुत पहले के काल से हाथी इस भूमि के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य रहे हैं। इसलिए इनके नामों के शब्द ऋग्वेद के ज़माने से भी बहुत पहले के और भारोपीय भाषा से भी पहले के शब्द हैं।  यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि ‘इभ-‘ शब्द की व्युत्पति का स्त्रोत अज्ञात है। पाणिनि ने इस शब्द के उद्भव का कोई आधार नहीं दिया है। ‘ऊणादि-सूत्र' में ऐसे शब्दों की सूची है जिनकी  व्युत्पति का आधार मालूम नहीं है। वहाँ पर इस शब्द का अर्थ ‘हस्ति’ अर्थात हाथी बताया गया है। सामन्य तौर पर ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ के पैरोकार इसे आक्रांता आर्यों के अपनी स्थानीय बोली से लाया गया शब्द बता देते हैं, लेकिन इस शब्द का ज़िक्र किसी भी अभारोपीय भारतीय भाषा में नहीं मिलता है, हालाँकि इसके सपिंडी और सजातीय शब्द अनेक भारोपीय भाषाओं में मिला जाते हैं। फिर तो यही मानने को बच जाता है कि ‘इभ’ एक असाधारण कोटि का शब्द है जो ऋग्वेद के युग से भी काफ़ी पुरातन है और ऋग्वेद के रचे जाने तक वह अपने प्राकृत रूप को प्राप्त कर चुका था। तार्किक रूप से ‘इभ’ अपनी प्राकृत अवस्था पाने से पूर्व ‘ऋभ’ रूप में ही रहा होगा, जैसा कि आम लहजे में नियमित रूप से ‘ऋभ’ का प्रचलन हाथी की सूँड़ या उसके दाँतों के अर्थ में होता रहा है। हित्ती भाषा में इसके लिए ‘लहफ़ा-‘, लैटिन में ‘एबर-‘ और माइसेनियन ग्रीक में ‘एरेपा-‘ है। ग्रीक भाषा के ‘एलिफ़स’ और ऋग्वेद के ‘इभ’ शब्दों के दो अर्थों में एक अर्थ हाथी ही है। ग्रीक शब्द ‘एलिफ़ंता’ और जर्मन शब्दों (‘उलबंद’ आदि और उनसे संबंधित शब्दों) के प्रत्यय की व्याख्या हम ‘–वंता’ जैसे प्रत्यय शब्दों में ढूँढ सकते हैं। ‘*ऋभ-वंत’ का अर्थ हाथी होता है।

ऋग्वेद में हमारा परिचय ‘ऋभु’ शब्द से होता है। इसका संबंध पारलौकिक शिल्पकारों की एक प्रजाति से है। अपनी पौराणिक व्युत्पति में ये जर्मनी की पौराणिक लोककथाओं में पायी जाने वाली योगिनियों के समकक्ष बैठती हैं। मैकडौनेल के अनुसार ‘ऋभु’ शब्द का उद्भव ‘रभ’ शब्द अर्थात ‘मुट्ठी’ से हुआ है जिसका मतलब होता है हाथों की निपुणता (मैकडौनेल १८९७ :१३३)। वैदिक भाषा में ‘र’ और ‘ल’ शब्द के आपसी अदला-बदली की प्रवृत्ति के कारण इस मूल शब्द के ऋग्वेद में दो रूप पाए जाते हैं –‘रभ’ और ‘लभ’। दोनों का एक ही अर्थ होता है। ‘रभ’ का अर्थ होता है – पकड़ना, मुट्ठी में बाँधना, आलिंगन (मोनियर-विलियम्स १८९९ : ८६७) और ‘लभ’ का अर्थ होता है – लेना, ज़ब्त कर लेना, पकड़ना (मोनियर- विलियम्स १८९९ : ८९६)। ‘ऋभु’ शब्द के लिए प्रचलित विशेषण ‘सु-हस्त:’ है जिसका अर्थ होता है ‘कुशल हाथों वाला’ (४/३३/८, ३५/३/९, ५/४२/१२, १०/६६/१०)। इस तरह से ‘इभा’ और ‘ऋभा’ दोनों शब्द ‘रभ’ और ‘लभ’ से व्युत्पन्न हैं। इस मामले में हमें पाणिनि की तुलना में एक अतिरिक्त सहूलियत यह है कि बाक़ी भारोपीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों की तुलना से प्राप्त अर्वाचीन साक्ष्य हमारे सामने मौजूद हैं। यह ‘इभ’ शब्द की वैदिक व्युत्पति पर तो प्रकाश डालता ही है, साथ-साथ प्रोटो-भारोपीय भाषा के व्युत्पति-विज्ञान की भी स्पष्ट समझ दे देता है जैसे कि ग्रीक और हित्ती संस्करणों में ‘ल’ तत्व की व्याख्या (और प्रोटो भारोपीय के अपभ्रंश रूप में ‘लेभ-’ शब्द!)। [ यहाँ यह ग़ौर करने वाली बात है कि ‘इभ’ शब्द की व्युत्पति भी ‘कुशल हाथ’ वाले अर्थ से ही हुई है और इसका भी भाव वहीं है जो ‘हस्तिन’ शब्द का है। लेकिन विडम्बना का विषय तो यह बेजान और बेस्वाद तर्क है कि इस साफ़-साफ़ समझ में आने वाले ‘हस्तिन’ शब्द का अर्थ भी आक्रमणकारी आर्यों द्वारा अपने साथ लाए एक नए जानवर के रूप में परोस दिया गया]।

भारत में हाथियों के दाँत के व्यापार के प्राचीन महत्व से ‘इभ-‘ शब्द के दो अर्थ प्रकट होते हैं। ऋग्वेद में ‘इभ-‘ का अर्थ  ‘हाथी/हाथी का दाँत (‘रभ’, ‘लभ’ से व्युत्पन्न ‘ऋभा’) है। ‘इभ्य’ का अर्थ धनवान, धनिक या अमीर (रभ्य, लभ्य) है। मूल शब्द ‘लभ’ बाद में लाभ, धन-दौलत या समृद्धि के अर्थ में प्रकट होने लगा। धन की देवी ‘लक्ष्मी’ को हाथियों से घिरा प्रदर्शित किया जाने लगा और यहाँ तक कि उनके नाम का विस्तार कर उन्हें ‘लाभ-लक्ष्मी’ और ‘गज-लक्ष्मी’ भी कहा जाने लगा। 

“ठीक वैसे ही ‘ऋभु’ को ‘धन या सम्पत्ति भी कहा जाता है जैसा कि ऋग्वेद के ४/३७/५ और ८/९३/३४ में हम पाते हैं’(मोनियर विलियम्स १८९९ : २२६) और दो सूक्तों (४/३७/५ और ८/९३/३४) में इसका अनुवाद धन-दौलत के रूप में किया गया है (विल्सन और ग्रिफ़िथ)।

“ सारत:, अकेले हाथी ही इस बात का पर्याप्त सबूत दे देता है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि अपनी मूल जन्मभूमि  भारत से ही बाहर की ओर फैले थे। 

२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र 

ऋग्वेद के पुराने और नए मंडलों में वर्णित प्राणी और वानस्पतिक जगत का अवलोकन अत्यंत शिक्षाप्रद है।  

 पूर्वी जगत  

 सबसे पहले तो पूर्वी भारत के भीतरी भागों में बसने वाले ऐसे प्राणियों पर ध्यान केंद्रित करें जो सामान्य तौर पर पश्चिमोत्तर सीमा या उससे सटे अफगनिस्तान और अन्य पश्चिमी भागों के बाशिंदे नहीं हैं। जैसे – हाथी (इभा-, वारण, हस्तिन), भारतीय बाइसन या बिजोन या गवल (गौर), मोर (मयूर), भैंस (महिष) और धारीदार हिरण या चीतल (पृष्टि/पृश्दश्व)


पश्चिमी जगत

 ऋग्वेद के संदर्भ में पश्चिमी जगत के प्राणियों से तात्पर्य उन जंतुओं से है जो भारत के पश्चिम अर्थात कश्मीर और इसके आस-पास के क्षेत्रों से उत्तर की ओर, पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेशों में और अफ़ग़ानिस्तान में पाए जाते हैं।  वैसे तो जंगली बकरियाँ पूर्वी हिमालय में, नीलगिरी तहर (जंगली बकरियों की एक प्रजाति) तमिलनाडु में नीलगिरी की पहाड़ियों के दक्षिण में और जंगली सुअर दक्षिण तथा पूरब के भूभागों में भी पाए जाते हैं। पश्चिमी जगत के जंतुओं में पहाड़ी बकरी (छग), भेड़ (मेष), मेमना (ऊरा), बैक्ट्रियायी ऊँट (ऊष्ट्र), अफ़ग़ानी घोड़ा (मथ्र) और जंगली सुअर (वराह) आदि उल्लेखनीय हैं। पश्चिमोत्तर में पाए जाने वाले इन जंतुओं में से अधिकांश, जैसे कि ‘माएस’(भेड़), ‘ऊरा’(मेमना), ‘ऊष्ट्र’(ऊँट) और ‘वराज’(सुअर), का विवरण अवेस्ता में भी मिलता है। ठीक इसके उलट, जिन पूर्वी जंतुओं का ऊपर हमने ज़िक्र किया उसमें किसी का भी विवरण अवेस्ता में नहीं मिलता। 

अब इन पश्चिमी जंतुओं का ज़िक्र भी नए मंडलों में ही मिलता है। यहाँ तक कि नए मंडलों में भी जो सबसे पुराना पाँचवाँ मंडल है, उसमें भी ये नदारद हैं। इससे एक बात तो साफ़ हो जाती है कि जबतक वैदिक आर्य अपनी मूल पूरबिया भूमि से पश्चिमोत्तर की ओर नहीं बढ़े थे तबतक वे इन पश्चिमोत्तर प्राणियों से बिल्कुल अनजान ही थे। इन जंतुओं की चर्चा का ऋग्वेद में वितरण इस प्रकार है :

१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं 

२ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुनर्संशोधित सूक्तों में : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं।

३ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३३ सूक्त, ३५ मंत्र या ऋचायें 


यदि हम तथ्यों की थोड़ी और गहरायी में जाकर पड़ताल करें तो पश्चिमी पालतू जानवरों में गदहों (गर्दभ, रासभ) और सुअरों (सुकर) का ज़िक्र तो हमें पुनर्संशोधित और नए मंडलों में तो मिलता है लेकिन पुराने मंडलों में नहीं मिलता। यहाँ पर अवेस्ता के ‘हुकर’ और टोकारिया के ‘केर्चापो’ की चर्चा भी समीचीन होगा। गदहे के लिए अवेस्ता का शब्द ‘क्षर’  सूत्रों में ‘खर’ के रूप में पाया जाता है।

पुनर्संशोधित मंडल :

तीसरा मंडल – ५३/(५, २३)

सातवाँ मंडल – ५५/४

नए मंडल :

पहला मंडल – ३४/९, ११६/२, १६२/२१

आठवाँ मंडल – ८५/७

यद्यपि पूरब के वैदिक आर्य भेड़ों से परिचित नहीं थे किंतु पश्चिम से आयातित ऊन से वे अवश्य परिचित थे जिसमें वे ‘सोम’ को छानकर पीते थे। जैसे-जैसे पश्चिम की ओर वे बढ़ते गए उनका यह परिचय गहराता गया। ‘भेड़’ के लिए प्रोटो-भारोपीय भाषा में नियमित शब्द ‘आवि-’ है। ऋग्वेद में सोमरस को छानने के लिए ऊनी कपड़े के लिए ‘आवि-‘ और इससे व्युत्पन्न शब्द ‘आव्य-‘, ‘आव्यय-’ और ‘अव्याय-‘ का प्रयोग हुआ है। ‘ऊन’ के लिए प्रोटो भारोपीय शब्द ‘ऊर्ण-’ या ‘ऊर्णा-‘ है, जिसके सजातीय और सपिंडी शब्द अधिकांश भारतीय-आर्य भाषाओं में मिल जाते हैं। ‘आवि-‘ शब्द का प्रयोग हमें ऋग्वेद में इस प्रकार मिलता है – तीन सबसे पुराने मंडल ६, ३ और ७ के पुराने सूक्तों में यह शब्द कहीं नहीं मिलता। केवल बीच के मंडल ४ और २ के पुराने सूक्तों, पुनर्संशोधित मंडलों और नए मंडलों में ही यह शब्द पाया जाता है।

पुराने सूक्त (मंडल ४ और २)  :

चौथा मंडल – २/५, २२/२

दूसरा मंडल – ३६/१

पुनर्संशोधित मंडल :

छठा मंडल – १५/१६

नए मंडल : 

                                                                                                                               (क्रमशः)



Friday, 15 January 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१८)

(भाग - १७ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ण)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


प्राणी और वनस्पति  जगत के नामों के साक्ष्य 

 प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के मूल स्थान से संबंधित भाषायी गवेषणाओं और शास्त्रार्थों में वनस्पति एवं जीव-जंतुओं के समाविष्ट स्वरूप की चर्चा एक विशेष स्थान रखती है। मल्लोरी और ऐडम्ज़ का विचार है कि “अमूमन हाथ में शब्दकोश थामकर  भारोपीय मूलभूमि की तलाश में निकले लोग प्राणी और वनष्पति जगत से मिले सबूतों पर ही अमल करते हैं।“ [मल्लोरी-ऐडम्ज़  :२००६:१३१]

इन सबूतों की जाँच हम नीचे करेंगे :

१ – शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र  

२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र 

३ – पश्चिमोत्तर और उसके आगे का प्रोटो(प्राक/आद्य) भारोपीय क्षेत्र 

४ – सोम का सबूत 

५ – शहद का सबूत 

६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत 

७ – घोड़ों का सबूत 

८ – गायों का सबूत 

[तलगेरी जी की पुस्तक ‘हाथी और आद्य-भारोपीय मूलभूमि (The elephant and the Proto Indo-European Homeland)’ में उपरोक्त सबूतों का वृतांत विस्तार में मिलता है।]

१- शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र  

शीतोष्ण क्षेत्र का प्राणी और वनष्पति जगत 

साधारण तौर पर यह दलील दी जाती है कि प्राणियों और पेड़-पौधों के नाम पर आधारित सबूत यहीं स्थापित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं का मूल-स्थान भारत के बाहर के मैदानी भाग हैं। इसका कारण यह है कि भारोपीय परिवार की भिन्न-भिन्न शाखाओं में जीव-जंतुओं और पौधों के वही एक तरह के नाम हैं जो शीतोष्ण क्षेत्रों के नाम हैं न कि भारत जैसे ऊष्ण-कटिबंधीय या उप-ऊष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों वाले नाम। 

उदाहरण स्वरूप हम विजेल की इन बातों का स्मरण कर सकते हैं कि “सामान्यतया, आद्य-भारोपीय प्राणी-जगत और पौधों का संसार शीतोष्ण जलवायु का है [विजेल २००५:३७२] और ऋग्वेद में ‘भेड़िये’ और ‘बर्फ़’ के लिए आने वाले शब्द ठंडी आबोहवा की भाषायी यादों की ओर इशारा करते हैं [विजेल २००५ :३७३]

विजेल और आगे बढ़कर यह भी जोड़ते हैं कि ‘चाहे वह पड़ोस में सटा पुराना इरान हो या पूर्वी या पश्चिमी यूरोप का कोई क्षेत्र, दक्षिण एशिया से बाहर कोई भी पुराना खाँटी भारतीय शब्द हमें कहीं नहीं मिलता है। आर्यों के भारत से बाहर जाने के परिदृश्य में आम धारणा यह ज़रूर बनती है कि शेर, बाघ, हाथी, चीता, कमल, बाँस और स्थानीय भारतीय वृक्षों के लिए भारतीय शब्दों में कम-से-कम कुछ तो यहाँ भी बचे रहते [विजेल २००५:३६४-३६५]। अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए विजेल कहते हैं, ‘पश्चिम में कमल, बाँस और अन्य भारतीय पौधों के भारतीय नाम (अश्वत्थ, बिल्व, जंबु आदि) को खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम वहाँ कदापि नहीं मिलते।‘

इस बात में इस तथ्य को बिलकुल नज़र अन्दाज़ कर दिया गया है कि अधिकांश भाषाएँ सामान्य तौर पर उन्हीं जंतुओं और पौधों के नाम को बचा कर रखती हैं जो उसी भाषायी क्षेत्र में पाये जाते हैं। उन प्राणियों या पौधों के नाम वे संरक्षित नहीं कर पाती जो उनके क्षेत्र में नहीं पाए जाते या फिर बाहर के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।  संक्षेप में हम यह भी कह सकते हैं कि दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में पाए जाने वाले या फिर भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाने वाले किसी भी प्राणी या पौधों के नाम भारतीय आर्य भाषाओं में नहीं पाए जाते। विजेल की बातों को हम दूसरे रूप में ऐसे भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘भारत में स्टेपी (दक्षिणी रूस के मैदानी भाग) के प्राणियों या पौधों के नाम खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम यहाँ कदापि नहीं मिलते।‘

अब जहाँ तक भेड़ियों और बर्फ़ का सवाल है, तो यह बात भी उतना ही सच है कि ये दोनों भारत के एक बड़े भूभाग में उतने ही स्थानीय और देसी हैं जितना उन मैदानी भागों की ठंडी आबोहवा वाले क्षेत्रों में। रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी किताब ‘जंगल-बुक’ में जब एक बच्चे का भेड़ियों के द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने की कहानी लिखी तो उनका संदर्भ भारतीय बालक, भारत का जंगल और भारतीय भेड़िया था न कि उनकी भाषायी स्मृतियों में संचित कोई ब्रितानी भेड़िया। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किप्लिंग वास्तव में ब्रिटेन के निवासी थे।

बर्फ़ का भी वजूद भारत में भी उतना ही है जितना पश्चिम में। ‘इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ के अनुसार ध्रुवीय क्षेत्रों से बाहर स्थित यदि कोई ऐसा भूभाग है जिसका अधिकतम क्षेत्र स्थायी रूप से बर्फ़ से आच्छादित रहता है, तो वह है भारत का हिमालय। ऐसे भी ‘बर्फ़’ ऋग्वेद में अतीत की किसी भाषायी स्मृति के चिर प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित नहीं है। यह शब्द इसके नए मंडलों में मात्र एक या दो बार आता है जब वैदिक आर्य अपनी मूल भूमि हरियाणा से पश्चिम की ओर पंजाब होते हुए पशिमोत्तर में हिमालय का स्पर्श करते हुए अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ते हैं। ‘हिम’ शब्द ऋग्वेद के दस सूक्तों में जाड़े के मौसम के रूप में आया है। ये दस सूक्त १/३४/१, १/६४/१४, १/११६/८, १/११९/६, २/३३/२, ५/५४/१५, ६/४८/८, ८/७३/३, १०/३७/१० और १०/६८/१० है। जाड़े की ऋतु भारत के सभी भागों में आती है। मराठी में इसके लिए ‘हिवाला’ शब्द है। अतः ‘जाड़ा’ भी कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसे हम ख़ास अर्थों में किसी भाषायी स्मृति के रूप में मान लें।  उसमें भी ऊपर के दस सूक्तिय संदर्भों से चार में तो इसका वर्णन भीषण गरमी से निजात दिलाने वाले मौसम के रूप में आया है न कि किसी सर्द मौसम की याद के रूप में! तीन सबसे पुराने मंडलों में तो बस एक ही जगह ६/४८/८ में यह शब्द आया है, जो कि पुनर्संशोधित मंडल है। इसका अत्यंत अर्वाचीन संदर्भ १०/१२१/४ में है, जहाँ इसका मतलब बर्फ़ है जो पश्चिमोत्तर में हिमालय की चोटियों को चादर की तरह लपेटे हुए हैं। नए मंडल में ८/३२/२६ में इस शब्द का एक और विवरण मिलता है जो बर्फ़ से बने हथियार के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। 

अब आइए हम विजेल द्वारा प्रस्तुत तर्कों की तनिक छानबीन कर लें :

विजेल का कहना है कि ‘भारतीय जंतुओं और फूल-पौधों के नाम भारत के बाहर की किसी भारोपीय भाषा में नहीं मिलते हैं। इसलिए, यह बात ख़ारिज हो जाती है कि इन भारोपीय भाषाओं का उद्गम स्थल भारत था।‘ दूसरी ओर वह यह भी कहते हैं कि ‘भारत के बाहर के किसी भी भारोपीय प्राणी या पौधों के नाम भारत में नहीं मिलते।‘ लेकिन, यहाँ इसका कारण वह ढूँढ लेते हैं कि इन नामों का प्रयोग नहीं होने के कारण इस भारत भूमि से ये नाम लुप्त हो गए। फिर तो, इसी कारण को अपने पहले वक्तव्य में न लागू करने के पीछे उनका पूर्वाग्रही कुतर्क ही दिखायी पड़ता है। हम अब यह भी देखेंगे कि कुछ भारतीय जंतुओं यथा – सिंह, हाथी, चीता, लंगूर के नाम बाहर की भाषाओं में भी पाए जाते हैं।  कहीं-कहीं तो विजेल का तर्क अत्यंत हास्यास्पद हो जाता है। वह कहते हैं कि ‘ख़ानाबदोश जिप्सी लोगों ने बहुत हद तक भारतीय-आर्य भाषा के काफ़ी शब्दों (फ़राल ‘ब्रदर’, पानी ‘वाटर’, करल ‘वह करता है’ आदि) को पिछले हज़ार सालों से संजो कर रखा है। इस दौरान वह पूर्वोत्तर, उत्तरी अफ़्रीका और यूरोप में भटकते रहे (विजेल २००५:३६६)। भारत के काफ़ी भीतरी हिस्से से निकलकर जिप्सी हज़ारों साल पहले बाहर चले गए और उनकी भाषा, रोमानी, एक भारतीय आर्य भाषा है। अब यहाँ तक कि यदि रोमानी भाषा अपने सारे शब्दों को बचा कर नहीं रख पायी, तो भला भारोपीय परिवार की उन अन्य ग्यारह शाखाओं से, जो अपनी पश्चिमोत्तर भारत की बाहरी छोर की भूमि छोड़कर काफ़ी हज़ार साल पहले बाहर चली गयीं, कैसे आशा की जा सकती है कि वे अपने सारे शब्दों को संजो कर रखें! 

भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले अलग-अलग समुदाय अपने जंतुओं और पेड़-पौधों के उन्ही नामों को संजो पाए जो उनके अपने मौलिक और भौगोलिक आवास में पाए जाते थे। वहाँ से बाहर के नामों को बचाए रखने में वे असमर्थ थे। इसीलिए, सामान्य तौर पर सिर्फ़ प्राणियों और वनस्पति जगत के नामों के विश्लेषण के आधार पर हम भारोपीय भाषाओं की मूल जन्मभूमि का निर्धारण नहीं कर सकते। 

शीतोष्ण क्षेत्र में पाए जाने वाले जानवरों के नाम (भेड़िया, भालू, बनबिलाव, लोमड़ी, गीदड़, हिरन, मृग, साँड़, गाय, ख़रगोश, चमगादड़, ऊद, ऊदबिलाव, मूषक, हंस, बत्तख़, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, भेड़, सुअर आदि) भारतीय-आर्य और भारोपीय दोनों भाषाओं में एक जैसे ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि इसमें से सभी जानवर भारतीय भूभाग में पाए जाते हैं। दूसरी बात यह है कि जो जानवर (या नाम) यदि भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाते तो वे निश्चित तौर पर भारत के उन पश्चिमोत्तर प्रांतों में तो अवश्य ही पाए जाते हैं जिन्हें पूरी तरह से भारतीय संस्कृति का ही गुरुत्व-क्षेत्र कहा जा सकता है। साथ ही इन पश्चिमोत्तर क्षेत्रों के साथ यह भी उतना ही सच है कि भारत से बाहर निकलने वाले समुदाय इसी रास्ते अपने नए ठिकानों की ओर प्रस्थान किए थे। 

इस विषय में डाइन्स (Dyens) की बातें भी ध्यान आकर्षित करती हैं, “प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के बोले जाने वाली जगहों के बारे में पर्याप्त संकेत भारोपीय भाषाओं में प्राणी जगत एवं वानस्पतिक जगत के नामों के लिए प्रयुक्त शब्दों में मिल जाते हैं। जानवरों में ‘भालू’ और वृक्षों में ‘बीच’ के पेड़ इसके सुपरिचित उदाहरण हैं। औषधीय महत्व वाले पौधों के प्राकृतिक पर्यावास का वानस्पतिक  मानचित्र खींचने के उपरांत भाषाविदों ने यह साबित कर दिया है कि इन पौधों की क़ुदरती पैदाइश और असली रिहाईश शीतोष्ण आबोहवा की ज़मीन ही है। (ड़ाइंस १९८८:४)”

अब इस वक्तव्य में चर्चित उदाहरण ‘बीच’ के पेड़ और ‘भालू’ पर विचार करें जिनका मूल आवास शीतोष्ण क्षेत्र बताया गया है :

१ – ‘बीच’ का पेड़ केवल यूरोप में पाया जाता है और ‘इसके लिए तथाकथित प्रोटो-भारोपीय शब्द भी सिर्फ़ यूरोप में ही पाया जाता है!’ मात्र पाँच ही ऐसी यूरोपीय भाषाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी) हैं, जिसमें ‘बीच’ के सजातीय और इसके यूरोपीय अपभ्रंश ‘बा:को’ से बने शब्दों का प्रचलन मिलता है। यहाँ तक कि इसके लिये प्रयुक्त बाल्टिक और स्लावी भाषाओं के शब्द भी जर्मन से ही लिए गए लगते हैं (गमक्रेलिज १९९५ :५३४)। ग्रीक और अल्बानी भाषा में ‘बीच’ के लिए अलग शब्द हैं। वे शब्द भी जो अपभ्रंश ‘बा:को’ से व्युत्पन्न प्रतीत होते हैं, उनका मतलब ‘ओक’ के वृक्ष से है। एशियायी शाखाओं की अनाटोलियन, टोकारियन, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय-आर्य भाषाओं में ऐसे  शब्द की कोई आहट मात्र भी नहीं है। फिर भी, ‘बीच’ के वृक्ष और शीतोष्ण जलवायु को आधार बनाकर यह दलील सदियों से दी जाती रही है कि यूरोप ही भाषाओं की मूलभूमि है।

२ – शीतोष्ण जलवायु को भाषाओं की मूलभूमि होने के तर्क के समर्थन में ‘भालू’ को भी खड़ा किया जाता रहा है। मूल तथ्य यह है कि:

क – इस संसार में भालुओं की आठ प्रजातियाँ हैं। उसमें तीन तो अपनी ऐतिहासिक भारोपीय मूलभूमि से बाहर के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। और, पाँच भारत में रहने वाले। भूमंडल में इन सभी प्रजातियों की बसावट को इस सारणी से समझा जा सकता है : 

ऊपर की सारणी से यह स्पष्ट होता है कि आधी से अधिक प्रजातियाँ तो बहुलता में भारत में ही पायी जाती हैं। इसमें आलसी भालू तो प्रमुखता से केवल भारत में ही पाया जाता है। दूसरी ओर इस जनसंख्या वितरण पर बारीकी से ग़ौर करें तो मुख्य रूप से एक ही प्रजाति ‘शीतोष्ण’ जलवायु वाले क्षेत्र में पायी जाती है। इस आधार पर ‘शीतोष्ण- जलवायु में भालू’ वाली दलील दम तोड़ती नज़र आ रही है। 

ख – साथ ही, ‘भालू’ के सजातीय शब्दों की व्युत्पति के जो साझे स्त्रोत हैं वे बाक़ी की ग्यारह शाखाओं में नहीं पाये जाते हैं।

(क्रमशः )


Friday, 1 January 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१७)


(भाग - १६ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ढ)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


दशमलव के विकास की चौथी अवस्था 

दशमलव पद्धति के विकास की चौथी अवस्था मात्र उत्तर भारत की भारतीय आर्य भाषाओं को ही प्राप्त हुई।  यहाँ तक कि सिंहली सरीखी उत्तर भारत की वे आर्य भाषाएँ जो यहाँ कि मिट्टी से बाहर चली गयी, वे भी विकास की इस अवस्था से वंचित रहीं। इस अवस्था में भाषाओं में १ से १० तक की संख्याएँ, दहाई की २० से ९० तक की संख्याएँ और १०० की संख्या के लिए शब्दों की उपलब्धता है। ११ से १९ तक की संख्यायों के लिए एक ख़ास ढंग से शब्दों का गठन है। बाक़ी संख्यायों ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों का गठन दूसरे प्रकार का है। गठन का यह तरीक़ा न तो सीधे-सीधे ढंग से ही है और न ही इनकी कोई नियमित व्यवस्था ही है।  पूरी दुनिया में अपने आप में यह ढंग इतना अनोखा है कि इसमें १ से १०० तक की संख्यायों को रटने के सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहता है। उदाहरण के लिए हम हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओं में संख्यायों के लिए प्रयुक्त शब्दों के गठन पर विचार करें।

 हिंदी   

१-९ : एक, दो तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस। 

११-१९ : ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस।

दहाई अंक १०-१०० : दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ।

अन्य संख्याएँ ‘इकाई रूप + दहाई रूप’ के संयोग से बनाती हैं। जैसे २१ : एक + बीस = इक्क-ईस। यहाँ पर ‘एक’ का ‘इक्क’ और ‘बीस’ का ‘ईस’ में रूपांतरण हो जाता है। इस तरह के रूपांतरण २१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों में देखे जा सकते हैं :


दहाई रूप 

२० बीस : -ईस (२१, २२, २३, २५, २७, २८), -बीस (२४, २६) 

३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)

४० चालीस : -तालीस (३९, ४१, ४३, ४५, ४७, ४८), -यालीस (४२, ४६), -वालीस (४४)

५० पचास : -चास (४९), -वन (५१, ५२, ५४, ५७, ५८), -पन (५३, ५५, ५६)

६० साठ :  -सठ (५९, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सत्तर :  -हत्तर (६९, ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० अस्सी :  -आसी (७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)

९० नब्बे  :  -नवे (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)


इकाई रूप 

१ एक : इक्क- (२१), इकत- (३१), इक- (४१, ६१, ७१), इकी- (८१), इक्या- (५१, ९१)

२ दो : बा- (२२, ५२, ६२, ९२), बत- (३२), ब- (४२, ७२), बे- (८२)

३ तीन : ते- (२३), तें- (३३, ४३), तिर- (५३, ६३, ८३), ति- (७३), तीरा- (९३)

४ चार : चौ- (२४, ५४, ७४), च- (४४), चौं- (३४, ६४), चौर- (८४), चौरा- (९४)

५ पाँच : पच्च- (२५), पै- (३५, ४५, ६५), पच- (५५, ७५, ८५), पंचा- (९५)

६ छः : छब- (२६), छत- (३६), छी- (४६, ७६), छप- (५६), छिया- (६६, ९६), छिय- (८६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सै- (३७, ४७), सड़- (६७), सत- (७७), सत्त- (८७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (३८, ४८, ६८), अठ- (७८, ८८)

९ नौ :  उन- (२९, ३९, ५९, ६९, ७९), उनन- (४९), नव- (८९), निन्या- (९९)


मराठी  

१-९ : एक, दों, तीन, चार, पाँच, सहा, सात, आठ, नौ 

११- १९ : अकरा, बारा, तेरा, चौदा, पंढरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिस 

दहाई अंक १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर 

अन्य संख्याएँ इकाई और दहाई रूपों के संयोग से बनाती हैं। जैसे – २१ : एक + वीस = एक-वीस 

२१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों में भी रुप-परिवर्तन के तत्वों को देखा जा सकता है :

दहाई रूप 

२० वीस : -वीस (२१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८)

३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, २७, ३८)

४० चालीस : -चालीस (३९, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८)

५० पन्नास : -पन्नास (४९), -वन्न (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन्न (५३, ५४, ५६)

६० साठ : -साठ (५९), -सश्ठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सत्तर : -सत्तर (६९), -हत्तर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० अईसी : -अईसी ( ७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८)

९० नव्वद : -नव्वद (८९), -न्नव (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)  

इकाई रूप १ एक : एक- (२१, ३१, ६१), एक्क- (४१), एक्क्या- (८१, ९१), एक्का- (५१, ७१)

२ दों : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), बत- (३२), बे- (४२), बया- (८२, ९२)

३ तीन : ते- (२३), तेह- (३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तरया- (७३, ८३, ९३)

४ चार : चो- (२४), चौ- (३४, ५४, ६४), चव्वे- (४४), चौरया- (७४, ८४, ९४)

५ पाच : पंच- (२५), पस- (३५), पंचे- (४५), पंचा- (५५), पा- (६५), पंच्या- (७५, ८५, ९५)

६ सहा : सव- (२६), छत- (३६), सेहे- (४६), छप- (५६), सहा- (६६), शहा- (७६, ८६, ९६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७), सड़- (३७), सत्ते- (४७), सड़ु- (६७), सत्तया- (७७, ८७, ९७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८), अड़- (३८), अट्ठे- (४८), अड़ु- (६८), अट्ठया- (७८, ८८, ९८)

९ नौ : एकोन- (२९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव्वया- (९९)


गुजराती 

१-९ : एक, बे, त्रन, चार, पाँच, छ, सात, आठ, नव 

११-१९ : अग्यारअ , बारअ , तेरअ, चौदा, पंधरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिश 

दहाई १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर 

बाक़ी संख्यायों का गठन इकाई और दहाई के संयोग से होता है। जैसे – २१ : एक +वीस = एक-वीस।

अब २१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों के गठन में होने वाले परिवर्तन पर हम थोड़ी दृष्टि डाल लें :

दहाई रूप   

२० वीस : -ईस (२५), -वीस (२१, २२, २३, २४, २६, २७, २८)

३० त्रीस : -त्रीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)

४० चालीस : -तालीस (४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८), -चालीस (३९), -आलीस (४४)

५० पचास : -पचास (४९), -वन (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन (५३, ५४, ५६)

६० साठ  : -साठ (५९), -सठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सित्तर : -सित्तर (६९), -ओतेर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० ईसी : -ईसी (७९), -आसी (८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)

९० नेवु : -नु (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९७, ९८, ९९), -न्नु (९६)


इकाई रूप 

१ एक : एक्- (२१, ४१, ६१, ७१), एक- (३१), एका- (५१, ९१), एकी- (८१)

२ बे : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), ब- (३२), बे- (४२), ब् - (७२), बय- (८२)

३ त्रन : ते- (२३, ३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तय- (८३), त्- (७३), तरा- (९३)

४ चार :  चो- (२४, ३४, ५४, ६४), चम- (४४, ७४), चोरय- (८४), चोरा- (९४)

५ पांच : पच्च- (२५), पा- (३५, ६५), पिस- (४५), पंच- (७५, ८५), पंचा- (५५, ९५)

६ छ: : छ- (२६, ३६, ९६), छे- (४६), छप- (५६), छा- (६६), छय- (८६), छ्- (७६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सद- (३७), सुड- (४७), सड़- (४७), सित्य- (७७, ८७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (४८, ६८), अड़ा- (३८), इठ्य- (७८, ८८)

९ नव : ओगण- (२९, ३९, ४९, ५९), अगणो- (६९), ओगणा- (७९), नेवय- (८९), नव्वा- (८९) 


२१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्दों के गठन में इसी तरह की अनियमितता और लचीलेपन की जटिलता से उत्तर भारत की सारी आर्य-भाषाएँ संक्रमित हैं। यह स्थिति सुदूर उत्तर की कश्मीरी भाषाओं में तो है ही, पश्चिम में अफगनिस्तान की ‘पश्तो’ भाषा भी इस लक्षण से अछूती नहीं है जबकि पश्तो भाषा ‘ईरानी-शाखा’ की भाषा है। किंतु साथ ही ध्यान देने वाली बात यह है कि इस तरह का कोई भी लक्षण भारत से बाहर की किसी भाषा में नहीं मिलता है। यह बात भी उतनी ही उल्लेखनीय है कि शब्दों के संयोजन की एक भारतीय-आर्य भाषा की शैली दूसरी भारतीय-आर्य भाषा की शैली से किंचित मेल नहीं खाती है।  उदाहरण के तौर पर २१, ३१ और ६१ में मराठी में १ के लिए एक ही रूप ‘एक-‘ है। हिंदी में इनके लिए तीन अलग-अलग रूप हैं। २१(इक्कीस) के लिए ‘इक्क-‘, ३१(इकतीस) के लिए ‘इकत-‘ और ६१(इकसठ) के लिए ‘इक-‘ शब्दों के रूप हैं। गुजराती में दो शब्द-रूप आते हैं। ‘एक्-‘ (२१ और ६१) में  तथा ‘एक-‘ (३१) में। उसी तरह पाँच के लिए:

हिंदी में एक रूप ‘पै-‘ ३५ (पैंतीस), ४५ (पैतालीस) और ६५ (पैसठ) के लिए।

गुजराती में दो रूप – ‘पा-’ ३५ और ६५ में  तथा ‘पिस-‘ ४५ में। और 

मराठी में तीन रूप – ‘पस-’ ३५ में, ‘पंचे-‘ ४५ में तथा ‘पा-‘ ६५ में।

हमने इन तीन भारतीय आर्य भाषाओं में २१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्द-रूपों गठन को ऊपर की सारणियों में दर्शाया है। लेकिन इन शब्दों को प्रयोग हेतु याद रखने के लिए इन सारणियों से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हैं और इन्हें रटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं है। दुनिया की बाक़ी भाषाओं में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा १ से १० या १९ और दहाई संख्यायों (२०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०) को बस हृदयंगम करने की ज़रूरत है। इनकी ही  सहायता से संयोजन के कुछ ख़ास तरीक़ों से २१ से ९९ तक की बाक़ी संख्याएँ अपने आप दिमाग़ में घुस जाती हैं। यह बात बाहर की भाषाओं के साथ-साथ भारत के अंदर की ग़ैर भारोपीय भाषाओं ( द्रविड़, औस्ट्रिक, चीनी-तिब्बती, बुरूशासकी) पर भी लागू होती है। अंडमान की भाषाओं में तो ३ और ५ के अलावा कोई शब्द ही नहीं है। भारत के बाहर बोली जाने वाली आभारतीय आभारोपीय भाषाओं और यहाँ तक कि भारतीय-आर्य परिवार की ही सिंहली भाषा का भी यही हाल है।

भारोपीय भाषाओं के भारत की भूमि में उद्भव होने की अवधारणा के संदर्भ में निस्संदिग्ध तौर पर निनलिखित बातें स्पष्ट होती हैं : 

१ – मौलिक प्रोटो (प्राक) भारोपीय भाषाओं का प्राचीनतम स्वरूप दशमलव-पद्धति के विकास की पहली अवस्था का है। दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था नहीं आने तक हमारे पास इस बात के साफ़-साफ़ सबूत नहीं हैं कि १० के बाद की संख्याएँ वजूद में कैसे आयीं।

२ – निश्चित तौर पर दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में ही पहली दो शाखाओं ने अपनी मूलभूमि को छोड़ा होगा। अनाटोलियन (हित्ती) भाषा में १० से ऊपर की संख्यायों के हमारे पास कोई प्रामाणिक अभिलेख मौजूद नहीं है, लेकिन टोकारियन बी भाषा में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीनतम भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत और बोल-चाल की सिंहली भाषा में भी हमारे पास लिखित प्रमाण मौजूद हैं। बताते चले कि सिंहली भी अत्यंत प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा है जिसने ‘वाटर’ के लिए ‘वतुर’ शब्द को अभी तक बचाए रखा है जबकि संस्कृत से इस शब्द का लोप हो गया है।

३ – बाक़ी सभी नौ भारोपीय शाखाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, अल्बानियायी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी) तथा भारत भूमि से बाहर निकलने वाली सिंहली भाषा  दशमलव-विकास की तीसरी अवस्था में पहुँच गयी। यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि दक्षिण-पश्चिम यूरोप में सेल्टिक भाषा ने बास्क-भाषा के प्रभाव में आकर विंशमलव पद्धति को अपना लिया।  इससे एक बात साफ़ होती है कि संस्कृत के मानक रूप प्राप्त कर लेने के बाद और दशमलव-विकास की दूसरी अवस्था में हित्ती और टोकारियन भाषा के बाहर निकल जाने के बाद इन सारी नवों भारोपीय शाखाओं और सिंहली भाषा के उद्भव की उत्तरोत्तर प्रक्रिया साथ-साथ दशमलव विकास के तीसरे चरण में जारी रही।

४ – अपनी ख़ुद की भारतीय-आर्य भाषा सिंहली के साथ-साथ अन्य ग्यारहों  शाखाओं के भारतीय ज़मीन छोड़ देने के बाद यहाँ बची रह  गयी।  भारतीय आर्य भाषा ने अब दशमलव के विकास की चौथी अवस्था में प्रवेश कर लिया है।


संख्या ‘१’ पर कुछ ख़ास बात  

भारोपीय भाषाओं की पहली संख्या ‘१’ पर हम थोड़ी नज़रें गड़ाएँ और देखें कि इसके साथ जुड़ी कुछ ख़ास बातें क्या हैं। भारोपीय भाषाओं में ‘१’ के लिए प्रयुक्त शब्दों में अधिकांश की उत्पत्ति का मूल दो संयोजित प्रोटो भारोपीय शब्द हैं – ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’! ये दोनों शब्द ग़ैर-भारतीय-ईरानी और भारतीय-ईरानी, दोनों शाखाओं, में क्रमशः समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन दो शब्द-विभाजनों पर भाषाशास्त्रियों ने ‘प्राचीन भारोपीय’ शब्दों की पड़ताल करने के लिए ज़्यादा ज़ोर दिया है। भारतीय-ईरानी शाखा में ‘ओई-नो’ शब्द के प्रतिनिधित्व का कोई नामो-निशान नहीं है। उसी तरह ग़ैर-भारतीय-ईरानी शाखा में भी ‘ओई-को’ शब्द का कोई अस्तित्व नहीं है (जबतक कि अर्मेनियायी शब्द ‘मेक’ को हम प्रतिनिधि शब्द न मान लें)। 

किंतु, एक भाषा ऐसी है जिसमें इन दोनों, ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की तुलना में वैकल्पिक शब्द-रूप मौजूद हैं। यह अभारोपीय भाषा बुरूशासकी है जो उत्तर में पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में बोली जाती है। बुरूशासकी में ‘वन’ = ‘हिन’ (या हेन) और ‘हिक’। ‘ओई-नो’ से मिलता जुलते शब्द द्रविड़-शाखाओं में पायी जाती है जैसे – तमिल में ‘ओन-रु’, मलयालम में ‘ओन-नु’ और कन्नड़ में ‘ओन-डु’। दूसरी ओर तेलगु में ‘’ओक-टी’ शब्द पाया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि इन दोनों  शब्द-युग्मों ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की उपस्थिति की साफ़-साफ़ आहट  आज भी भारत की भूमि में सुनायी दे रही है।  कहीं यह इस बात का प्रमाण तो नहीं कि वह क्षेत्र जहाँ से ग़ैर भारतीय-ईरानी और भारतीय ईरानी शाखाएँ क्रमशः अपना ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ साथ लेकर एक दूसरे से बिछुड़ गयीं, वह यही भारत की भूमि है। 

कुछ ऐसी भी भारोपीय भाषाएँ हैं जिनमें ‘वन’ शब्द की व्युत्पति में ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ का कोई योगदान नहीं है। परंतु, ये सभी भाषाएँ इस शब्द के लिए संस्कृत के शब्द ‘सम’ और ‘एव’  से किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हैं। इन दोनों शब्दों का अर्थ ‘वही/वहीं (अंग्रेज़ी में सेम) होता है। कश्मीर के उत्तर की टोकारियन ए भाषा में ‘सस’ (पुल्लिंग) और ‘साम’ (स्त्रीलिंग) शब्द आते हैं। टोकारियन बी भाषा में दोनों लिंगों के लिए एक ही शब्द ‘से’ आता है। यूनानी पूलिंग शब्द ‘हेस’ तो टोकारियन शब्द ‘सेंस’ का सपिंडी ही है। भारत से पश्चिम अवेस्ता में ‘एव’ और प्राचीन पारसी भाषा में ‘ऐव’ शब्द है। कुछ अत्याधुनिक ईरानी भाषाओं और दारदी/दर्दु/पिसाच भाषाओं ( यह भाषा मुख्य रूप से उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित, बालतिस्तान, खाइबर पख़्तूनखवाँ, उत्तर भारत की कश्मीर घाटी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान की चेनब घाटी में बोली जाती है) में ‘एव’ शब्द पाया जाता है और ईरानी पश्तो भाषा में ‘यव’ शब्द पाया जाता है। हालाँकि आधुनिक पारसी भाषा सहित अत्याधुनिक ईरानी और दारदी भाषाओं के शब्द ‘यक’, बलूचि शब्द ‘यक’ तजिक शब्द ‘यक’, कर्दिस शब्द ‘येक’ और कश्मीरी शब्द ‘अख’, ये सभी व्युत्पति में ‘ओई-को’ स्वरूप वाले ही हैं। इन सब बातों की पड़ताल करने के उपरांत सारे सबूत तो भारत के ही मूलभूमि होने की ओर संकेत करते हैं। 

दो और शब्द हैं जो हमारा ध्यान खिंचते हैं। पहला शब्द है – ‘मिअ’ जो यूनानी अर्थात ग्रीक भाषा का है। और दूसरा शब्द अर्मेनियायी भाषा का ‘मी’ या ‘मेक’ है। अब इन दोनों शब्दों की तुलना हम औस्ट्रिक परिवार की इन भाषाओं में ‘१’ के लिए आने वाले शब्दों से करें। संथाली में ‘मित’, मुंडारी में ‘मी’, कोरकु में ‘मीअ’, खरिया में ‘मोइ’, सवारा में ‘मि’, जुआंग में ‘मिन’ और गड़बा में ‘मुइरो’। कहीं ग्रीक और अर्मेनियायी भाषा के ये  समानार्थक शब्द औस्ट्रिक परिवार से ही व्युत्पन्न तो नहीं हैं?  जहाँ तक औस्ट्रिक परिवार के शब्दों की मौलिकता का प्रश्न है, तो उनकी निर्विवादता की पुष्टि इस बात से भी मिलती है कि उनका सपिंडी शब्द ‘मोत’ औस्ट्रिक परिवार की वियतनामी भाषा और ‘मुएय’ ख्मेर कंबोडियायी भाषा में मिलता है।


Wednesday, 23 December 2020

काव्य-संग्रह 'कासे-कहूँ' का आभासी लोकार्पण

रविवार दिनांक २० दिसम्बर २०२० को अपराह्न ११ बजे मेरे द्वारा रचित काव्य- संकलन ‘कासे कहूँ’ का प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘लेख्य-मंज़ुषा’ के चौथे वार्षिकोत्सव में आभासी लोकार्पण किया गया। सभा की अध्यक्षता पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष, हिंदी एवं अंग्रेज़ी के मूर्धन्य साहित्यकार, कवि एवं उत्कृष्ट चित्रकार श्री शैलेश्वर सती प्रसाद ने की। ‘हस्ताक्षर’ पत्रिका की संस्थापक-संपादक और ‘लाड़ली मीडिया अवार्ड’ से सम्मानित चर्चित साहित्यकार श्रीमती प्रीति अज्ञात, विश्वगाथा प्रकाशन परिवार की लब्धप्रतिष्ठ गुजराती और हिंदी साहित्यकार श्रीमती भावना भट्ट और कवयित्री पूनम मोहन ने इस अवसर पर अपने बहुमूल्य विवेचनात्मक विचार रखे। ‘लेख्य-मंज़ुषा’ परिवार की प्रमुख श्रीमती विभा रानी श्रीवास्तव ने कैलिफ़ोर्निया से दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया और अतिथियों का स्वागत किया। अपोलो अस्पताल, नयी दिल्ली की वरिष्ठ चिकित्सक डॉक्टर रश्मि ठाकुर के सुमधुर स्वर में पुस्तक के शीर्षक गीत ‘कासे कहूँ हिया की बात ….’  के गायन के साथ कार्यक्रम का प्रारम्भ और समापन हुआ। श्रीमती विभा रानी श्रीवास्तव द्वारा संचालित पूरे कार्यक्रम का सजीव प्रसारण फ़ेसबुक लाइव पर हुआ। 

इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार श्री शिवदयाल ने लिखी है।

इस पुस्तक का कवर डिजाइन चित्रकार श्री राकेश कुमार ने किया है।

हम अपने पाठकों का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं जिनकी बहुमूल्य प्रेरणा एवं प्रोत्साहन ने हमारे अंदर सृजन के संस्कार को पुष्ट किया।


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                                    Kase kahu



Friday, 18 December 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१६)

(भाग - १५ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ड)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


भारतीय-यूरोपीय संख्यायों के सबूत 

‘भारत-भूमि अवधारणा’ के पक्ष में एक और अप्रत्याशित और निर्णायक सबूत बनकर  हमारे सामने  भारतीय-यूरोपीय संख्यायों की व्यवस्था का सच आता है। इसकी विस्तार से चर्चा श्री तलगेरी ने अपनी पुस्तक “संख्यायों और अंकों की दुनिया में भारत का अनोखा स्थान’ ( India’s Unique Place in the world of Numbers and Numerals) में की है। संक्षेप में हम उनकी यहाँ चर्चा करेंगे। भारोपीय भाषाओं में संख्यायों की व्यवस्था दशमलव- प्रणाली में परिचालित होती हैं। इनका आधार अंक १० (दस) होता है। दुनिया की सारी भाषाओं में क़रीब-क़रीब यहीं व्यवस्था दिखायी देती है और शायद इसका एक कारण क़ुदरत की वह व्यवस्था हो सकती है कि उसने मनुष्य के दोनों हाथों में गिनने के लिए कुल मिलाकर दस अंगुलियाँ दी है। ऐसे तो आप हाथ और पैर दोनों की अंगुलियों को गिनने के लिए ले लें तो कुल मिलाकर बीस अंगुलियाँ हो जाती हैं, और इसी कारण कहीं-कहीं दस आधार अंक वाली  ‘दशमलव-प्रणाली’ की जगह बीस आधार अंक वाली ‘विंशमलव-प्रणाली’ के प्रचलन के भी दृष्टांत मिलते हैं। भारोपीय भाषाओं के आने से पहले दक्षिण-पश्चिम यूरोप में बोली जाने वाली बास्क भाषा के प्रभाव में ‘आइरिश’ और ‘वेल्श’ जैसी सेल्टिक भाषाओं में भी यह ‘विंशमलव-प्रणाली’ विकसीत हो गयी थी और यहाँ तक कि इटालिक और फ़्रेंच भाषाओं पर भी इसके छिटपुट प्रभाव देखने को मिल जाते हैं।

यूस्करा (बास्क) 

१–१० : बट, बिगा, हिरूर, लौर, बोर्त्ज़, से, जजपी, ज़ोर्टजी, बेडेरटजि, हमर 

११-१९ : हमेक, हमबि, हमहिरर, हमबोर्टज, हमसे, हमजजपी, हमज़ोर्टजी, हमरेटजि 

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : होगे, बेर्रोगे, हिरुएटनोगे, लुएटनोगे, एहुन 

अन्य संख्या : विंशमलव + टा + १-१९

अतः २१ : होगे टा बट (२० +टा +१), 

९९ : लुएटनोगे टा हमरेटजि (८० + टा + १९)

वेल्श ( भारोपीय – सेल्टिक)

१-१० : उन, दौ, त्रि, पेडवर, पम्प, छवेच, सैथ, वय्ठ, नव, देग 

११-१५ : उन-अर-द्देग, देद्देग, त्रि-अर-द्देग, पेडवर-अर-द्देग, ब्य्म्थेग  

१६-१९ : उन-अर-ब्य्म्थेग, दौ-अर-ब्य्म्थेग, त्रि-अर-ब्य्म्थेग, पेडवर-अर-ब्य्म्थेग 

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : हुगैं, देगैं, त्रिगैं, पेडवरगैं, सेंट 

२१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों के बनने के लिए नियमित व्यवस्था इस प्रकार है – १-१९ + अर + विंशमलव (पुरानी अंग्रेज़ी भाषा की तरह यहाँ भी पहले इकाई संख्या आती है। जैसे २१ के लिए – उन अर हगैं (१ + अर +२०) और ९९ के लिए – पेडवर-अर- ब्य्म्थेग अर पेडवरगैं (१९ + अर + ८०)

आइरिश (भारोपीय-सेल्टिक)

१-१० : आओं, दो, त्रि, केथैर, कूइग, से, सीख़्त, ओख्ट, नोई, देख 

११-१९ : आओं-देग (१ + १०), आदि।

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : फिखे, दा-फिखिद, , त्रि-फिखिद, खेथ्रे-फिखिद, कीद 

अन्य संख्याएँ : १-१९ + इस + विंशमलव ( यहाँ भी इकाई संख्या पहले आएगी)

अतः २१ : आओं इस फिखे, ९९ : नोई-देग इस खेथ्रे-फिखिद (१९ + इस + ८०)

[ किंतु इस भाषा में वैकल्पिक तौर पर दशमलव-प्रणाली का भी चलन पाया जाता है। १०, २०, ३० आदि : देख, फिखे, त्रोखा, देखीद, काओगा, सीसका, सीखटो, ओखटो, नोखा, कीद ]

फ़्रांसीसी (भारोपीय-इटालिक) (किंतु आंशिक तौर पर ही)

१-१० : उन, डू, त्रोईस, कुआत्रे, सिंक, सिक्स, सेप्ट, हुईट, नेफ़, दिक्ष 

११-१९ : ओंजे, डौज़े, ट्रेजे, कुआतोरजे, कुइंजे, सीज़, दिक्ष-सेप्ट, दिक्ष-हुईट, दिक्ष-नेफ़ 

२०-१०० : विंग्ट, त्रेनते, कुआरंते, सिंकुआंते, सोईक्षांते, सोईक्षांते-दिक्ष,  कुआत्रे-विंग्ट्स,  कुआत्रे-विंग्ट-दिक्ष, सेंट 

२१ से लेकर ९९ तक की संख्याएँ इस प्रकार  से लिखी जाती हैं : 

२० : विंग्ट, १ : उन, २१: विंग्ट एट उन 

‘एट’ (और) सिर्फ़ ‘उन’ के पहले आता है। २२ : विंग्ट-डू  आदि। 

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ७०, ८० और ९० के लिए ‘६०+१०’, ‘४*२०’ और ‘(४*२०)+१०’ का प्रचलन है। इसलिए ७१ से लेकर ७९ तक की संख्यायों के लिए सोईक्षांते-एट-ओंजे, सोईक्षांते-डौजे ……… सोईक्षांते-दिक्ष नेफ़ क्रमशः लिखे जाते हैं। उसी तरह ९१ से ९९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-ओंजे, कुआत्रे विंग्ट डौजे (४*२०+११,४*२०+१२) आदि तथा ८१ से ८९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-उन, कुआत्रे-विंग्ट-डू आदि लिखे जाते है।

बाक़ी भारोपीय भाषाओं में तीन चरणों वाली दशमलव पद्धति का चलन है। सही मायने में तो दशमलव पद्धति के विकसित होने की चार अवस्थाएँ हैं, लेकिन विकास के पहले चरण का भारोपीय भाषाओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुछ-कुछ अनजानी प्राक-भारोपीय भाषा वाली स्थिति है। फिर भी, कुछ ग़ैर-भारोपीय भाषाओं में इसका विवरण अवश्य मिलता है और प्राचीनतम प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में इसके उपस्थित होने के पर्याप्त तर्क हैं। 

क – दशमलव-पद्धति की पहली अवस्था : 

दशमलव पद्धति के विकास के प्रथम चरण में मात्र ग्यारह संख्यायों १ से १० और १०० के लिए शब्द थे। बीच की संख्यायों का निर्माण सीधे इन्हीं ग्यारह संख्यायों की मदद से या फिर घुमा-फिराकर किसी दूसरे तरीक़े से किया जाता है। यह पद्धति प्रमुख रूप से साइनो-तिब्बती भाषा (चीनी, तिब्बती, थाई आदि) और औस्ट्रिक परिवार की कुछ भाषाओं (वियतनामी आदि) में पायी जाती है। भारत की संथाली भाषा के साथ-साथ दुनिया की अनेक भाषाओं में भी यह प्रणाली देखने को मिलती है।

संथाली (औस्ट्रिक- कोल, मुंडा)

१ से १० : मित, बार, पे, पॉन, मोरे, तरुई, इया, इरे, आर, जेल 

दहाई २०-९० : बार-जेल, पे-जेल, पॉन-जेल, मोरे-जेल, तरुई-जेल, इया-जेल, इरे-जेल, आर-जेल। १००: मित-साए।

अन्य संख्याएँ : दहाई + खान + इकाई 

जैसे ११ : जेल खान मित, २१ : बार-जेल खान मित, ९९ : आर-जेल खान आदि।

और चाहे तो ‘खान’ को लगाए बिना भी लिख सकते हैं। (अब यदि अंग्रेज़ी में इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता तो बड़ी सहजता से ११ के लिए ‘दस-एक’, बीस के लिये ‘दो-दस’ २१ के लिए ‘दो-दस-एक’, ९९ के लिए ‘नौ-दस-नौ’ लिखा जाता।)

ख – दशमलव पद्धति के विकास की दूसरी अवस्था 

दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में भाषाओं में १ से १०, २० से ९० के दहाई अंकों और  सैकड़ा १०० के लिए शब्दों का इजाद हो गया था। बीच की संख्यायों का निर्माण सीधे इन बीस शब्दों से या फिर घुमा-फिराकर किसी अन्य तरीक़े से कर लिया जाता है। यह पद्धति मूल रूप से अटलांटिक परिवार की भाषाओं ( तुर्की, मंगोलियाई, मंचु, कोरियाई, जापानी)  के साथ- साथ दुनिया की कुछ अन्य भाषाओं में भी पाया जाता है। भारोपीय भाषाओं की जहाँ तक बात की जाय तो यह सिर्फ़ संस्कृत भाषा में ही पाया जाता है और वहाँ भी अपनी लचकदार शैली में यह कहीं-कहीं भाषा की संधियों के छलजाल में जाकर मिल जाती है। साथ में इनका चलन दक्षिण की सिंहली और उत्तर की टोकारियन भाषा में भी देखने को मिलता है।

संस्कृत : 

१-९ : एक, द्वि, त्रि, चतुर, पंच, षट्, सप्त, अष्ट, नव 

दहाई अंक  ९० तक : दस, विंशती, त्रिंशत, चत्वारिमशत, पंचशत, षष्ठी, सप्तति, असीती, नवती, शतम।

अन्य संख्याएँ : इकाई रूप + दहाई। 

संयुक्त होने की प्रक्रिया में दहाई अंकों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। बस केवल एक अपवाद सोलह (षोडस) का है, जहाँ ‘द’ का ‘ड’ हो जाता है।  संस्कृत-उच्चारण के नियमानुसार शब्दों के संयोजन में ‘अ’ और ‘अ’ की संधि ‘आ’ हो जाती है और ‘इ तथा ‘आ’ की संधि ‘या’ हो जाती है। ८१ के लिए ‘एकासीति’, ८२ के लिए ‘दव्यशीति’ आदि।

इकाई स्वरूप  

१ – एक : एका – (११), एक – (२१, ३१, ४१, ५१, ६१, ७१, ८१, ९१)

२ – द्वि : द्वा – (२२, ३२), द्वि – (४२, ५२, ६२, ७२, ८२, ९२)

३ - त्रि : त्रयो – (१३, २३, ३३), त्रि – (४३, ५३, ६३, ७३, ८३, ९३)

४ – चतुर : चतुर – (१४, २४, ८४, ९४), चतुस – (३४), चतुष – (४४), चतु: - (५४, ६४, ७४)

५ – पंच : पंच (१५, २५, ३५, ४५, ५५, ६५, ७५, ८५, ९५)

६ – षट् : षो (१६), षड (२६, ८६), षट् (३६, ४६, ५६, ६६, ७६), षण  (९६)

७ – सप्त : सप्त - (१७, २७, ३७, ४७, ५७, ६७, ७७, ८७, ९७)

८ – अष्ट : अष्टा – (१८, २८, ३८, ४८, ५८, ६८, ७८, ८८, ९८)

९ – नव : ऊन – (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव (९९)

[ नोट - यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि आज की संस्कृत-गिनती में ‘एकोन’ (अर्थात एक पहले) शब्द का प्रचलन बढ़ गया है। जैसे १९ के लिए एकोनविंश। एकोन (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९) - विश्वमोहन]

बोलचाल की सिंहली भाषा : 

१ - ९ एक, डेक, टुना, हतरा, पसा, हया, हता, अटा, नवय 

दहाई – १० से १०० :  -दहया-, -विस्सा-, -टिसा-, -हतलिस-, -पनस-, -हेटा-, -हेट्टे-, -असु-, -अनु-, सिया-

बाक़ी संख्याएँ दहाई + इकाई मिलकर बनाती है। जैसे ११ : दह-एक, २१ : विसि-एक, ९९ : अनु-नवय 

टोकारियन :

१ – १०  : से, वि, त्राई, सत्वेर, पिष, स्क, सुक्त, ओक्त, न, षक 

११ – १९ : दहाई + इकाई। जैसे,  ११ षक से 

२० : इकम 

[ अब चूँकि यह भाषा लुप्तप्रायः हो गयी है और अब कुछ पुरातात्विक अभिलेखों तक ही ही सीमित है, इसलिए अन्य संख्यायों की जानकारी अब उपलब्ध नहीं है।]

यदि अंग्रेज़ी ने इस प्रणाली को स्वीकारा होता तो संभवतः इसका सरलतम स्वरूप ऐसा होता कि ११ = टेन-वन, २० = ट्वेंटी, २१ = ट्वेंटी-वन, ९९ = नाइनटी नाइन 

दशमलव के विकास की तीसरी अवस्था  

उत्तर-पश्चिम में बुरुशासकी और पूरब की तुरी एवं साओरा सरीखी औस्ट्रिक जैसी विंशमलव संख्या-पद्धति वाली पड़ोसी अभारोपीय भाषाओं के प्रभाव में दशमलव प्रणाली के विकास का तीसरा चरण इस मायने में उल्लेखनीय रहा कि ग्यारह से लेकर उन्नीस तक की संख्यायों का स्वरूप अपने बाद की संख्यायों के समूह अर्थात २१ से २९, ३१ से ३९, ४१ से ४९, ५१ से ५९, ६१ से ६९, ७१ से ७९, ८१ से ८९ और ९१ से ९९, के स्वरूप से भिन्न हो गया। दशमलव के विकास की इस तीसरी अवस्था में भाषाओं में एक से दस, दहाई अंकों बीस से नब्बे और सौ के लिए संख्याएँ आ गयी। ग्यारह से उन्नीस तक की संख्यायों का गठन एक ख़ास ढंग से था। अन्य संख्याएँ ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९ आदि) या तो सीधे या परोक्ष रूप से  अन्य पद्धतियों के सहारे किसी दूसरे तरीक़े से बनती थीं। यह व्यवस्था संसार के दो भाषा परिवारों की ख़ासियत है।  पहला परिवार है - भारोपीय परिवार और दूसरा परिवार है - द्रविड़ परिवार। हालाँकि, संसार की अन्य भाषाओं में भी अलग-अलग छिटपुट तौर पर यह प्रवृत्ति पायी जाती है।

इस मामले में सबसे अनोखी बात तो यह है कि भारतीय-आर्य शाखा और टोकारियन एवं सेल्टिक शाखाओं के अलावा  भारत के बाहर यह प्रणाली समान रूप से भारोपीय भाषाओं की आठ शाखाओं में पायी जाती है। भारतीय-आर्य, टोकारियन और सेल्टिक शाखाओं में पाए जाने का कारण हम पहले ही तलाश चुके हैं कि ये शाखाएँ बास्क की विंशमलव पद्धति को  पहले से ग्रहण कर चुकी थी। भारतीय-आर्य शाखा में भी जिस एक भाषा में यह पद्धति मिलती है वह भाषा है - भारत भूमि के उत्तर से बाहर निकल चुकी साहित्यिक सिंहली भाषा। अब आइए हम भारोपीय परिवार की इन शाखाओं और साहित्यिक सिंहली भाषा के इन लक्षणों की तनिक तुलना कर के देखें।



दशमलव पद्धति के विकास की यह तीसरी अवस्था अपनी दूसरी अवस्था से पूरी तरह रूपांतरित हो गयी थी। इस बात को यदि ठीक-ठीक समझना है तो हम इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करें कि ११ और १२  की संख्यायों  के लिए संस्कृत भाषा में कैसे शब्द-रूप हैं और इन  संख्यायों के लिए बाक़ी भारोपीय भाषाओं या द्रविड़ भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों का रूप क्या है।


हम यहाँ स्पष्ट तौर पर यह देखते हैं कि संस्कृत में ११ और १२ के लिए शब्दों का रूप सीधे-सीधे क्रमशः ‘एक और दस’ तथा ‘दो और दस’ के शब्दों का संयोजन है।  आगे भी लगभग यहीं क्रम रहता है। जैसे, एक (१) + विंश (२०) = एकविंश (२१)।

दूसरी ओर, ऊपर की सारणी में यदि हम ध्यान दें तो संस्कृत के अलावा बाक़ी सभी भाषाओं में ११ और १२ के लिए बिलकुल स्वतंत्र शब्द हैं जिनमें उनके अवयव अंकों १, २ और १० के लिए बने शब्दों का कोई योगदान नहीं है।  कहने का सरलार्थ यह है कि संस्कृत के शब्दों (एकादश और द्वादश) में हम १, २ और १० की उपस्थिति आराम से ढूँढ सकते हैं लेकिन अन्य भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं में यह सुविधा हमें नहीं मिलेगी।

साथ ही, संस्कृत, दूसरे चरण की बोलचाल की सिंहली भाषा, टोकारियन बी, और विकास के चौथे चरण की भारतीय-आर्य भाषाओं के अलावा अन्य सभी भारोपीय भाषाओं एवं द्रविड़ परिवार की भाषाओं में भी एक बात समान रूप से पायी जाती है।  बाद की संख्याओं (२१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों के गठन की प्रक्रिया अत्यंत नियमित  शैली में एक वैज्ञानिक तरीक़े से है। उनका यह स्वरूप ११-१९ की शब्द-शैली से बिलकुल अलग है।


Thursday, 3 December 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१५)

(भाग - १४ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ठ)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


हरियाणा की पुरु जनजाति के आवासीय स्त्रोत से प्रस्फुटित वैदिक धर्म के  इस विशाल आलोक-पुंज से समस्त भारत वर्ष का जगमग हो जाना किसी भी दृष्टिकोण से सांस्कृतिक आक्रमण की श्रेणी में वैसे ही नहीं आता जैसे  कि आगे चलकर ६०० ईसापूर्व के आस-पास बिहार में इक्ष्वाकुओं की भूमि से निःसृत पवित्र बौद्ध और जैन दर्शन की जल-लहरियों से इस देश के ही कोने-कोने का क्या कहना, प्रत्युत सीमा पार की सुदूर भूमि के पोर-पोर का  भी आप्लावित हो जाना!

और ऐसा भी नहीं है कि हिंदुत्व को ये सारे लक्षण उसे बाद में या बहुत आगे चलकर होनेवाले धार्मिक परिवर्तनों की प्रक्रिया के दौरान मिले जैसा कि बहुत लोग सोच लेते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसा माना जाता है कि वैदिक धर्म ही आगे चलकर उपनिषद के दर्शन के रूप में विकसीत हुआ। ऋग्वेद के ‘कर्मकाण्ड’ उपनिषदों के ‘उपनिषद-काण्ड’ में परिवर्धित हो गए। सच तो यह है कि धर्म के वैचारिक दर्शन की ज्ञानमयी धारा से सराबोर होने की यह प्रवृति पूरब के इक्ष्वाकुओं से आयी। ठीक वैसे ही, जैसे अग्नि-आहुति और ऋचाओं का मंत्रोच्चार उत्तर और उत्तर-पश्चिम के हड़प्पा क्षेत्र के पुरु-अणु-दृहयु जनजाति की संस्कृति के ख़ास लक्षण थे। उपनिषद के विचार-दर्शन से संबंधित विषयों पर सारगर्भित चर्चा के अनेक दृष्टांत पूरब के इक्ष्वाकु राजा जनक के राजदरबार में मिलते हैं। आगे चलकर उपनिषद की दृष्टि का विस्तार बुद्ध, जैन, व्रत्य और चार्वाक के दर्शनों में भी हुआ। शाकाहार को पुण्य और पवित्र मानना भी उसी विकास का विस्तार है। इक्ष्वाकुओं से  भी  पूरब की ओर  और आगे बढ़ने पर हमें धार्मिक परम्पराओं, रीति-रिवाज, लोकाचार तथा पूजा-पाठ पर तांत्रिक प्रभाव की गहरी छाप दिखायी देती है। उसी तरह जैसा कि पहले भी चर्चा की जा चुकी है कि दक्षिण के धर्म का मुख्य लक्षण मूर्ति-पूजा और  भव्य मंदिर-निर्माण की संस्कृति थी जो धीरे-धीरे समूचे भारत में भी फैल गयी।  

समूचे भारतवर्ष में पसरे धर्म और संस्कृति के ये हिंदू-तत्व  चाहे वे व्यापक हों या क्षेत्रीय,  भारतीय सभ्यता के संगठित होते जाने और बाद में रचे जाने वाले संस्कृत ग्रंथों में अपनी जगह पाए जाने के कारण यदा-कदा काल-शृंखला में  वे हिंदू धर्म में विकसित  अर्वाचीन लक्षण  या किसी नवीन धार्मिक परम्परा का भ्रम पैदा करते हैं। किंतु, ऐसा सोचना ठीक उसी तरह की भ्रांति पालना होगा जैसे इतिहास के कालक्रम में ‘अमेरिका’ और ‘औस्ट्रेलिया’ के आस्तित्व की खोज बाद में होने के आधार पर उन्हें यूरोप का कोई नया देश मान  लें। इसलिए कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदुत्व के  ये जितने भी धार्मिक तत्व भारत के विस्तृत भू मंडल पर दिखायी देते हैं, वे बहुत हद तक  हड़प्पा या ऋग्वेद-से प्राचीन काल के ही हो सकते हैं या हैं। उस संदर्भ में देखें तो यह कोरी कल्पना प्रतीत नहीं होती कि जैन धर्मावलंबी  अपने तीर्थंकरों की लम्बी परम्परा महावीर से काफ़ी पीछे ले जाते हैं और बुद्ध के अनुयायी भी अपने तथागत के अनेक पूर्व अवतारों की चर्चा करते हैं।


हिंदू धर्म के शास्त्रीय तत्व और समूचे भारत में छाए विविध धार्मिक तत्व आपस में मिलकर ‘अनेकता में एकता’ का बहुरंगी ताना-बाना बिनते हैं। भारत-भूमि की सभ्यता के इस समग्र स्वरूप और पारस्परिक अवगुंठन के ताने-बाने को इतिहासकारों द्वारा इस समावेशी  परिप्रेक्ष्य में पढ़ने और समझने की ज़रूरत है न कि वैदिक संस्कृति से या अन्य समकालीन या परवर्ती संकृतियों से उसके आपसी टकराव से उद्भूत-विकसित और स्थापित सत्ता के रूप में।

ध्यातव्य : अब यदि हम पूरब और दक्षिण में भी हु-ब-हु हड़प्पा के नगरों की अनुकृति ही खोजने लगें  तो संभवतः यह हमारी निरी घृष्टता  होगी। भारत के अन्य भागों के लोगों की सभ्यता और संस्कृति, चाहे वह उत्तर प्रदेश और बिहार  में इक्ष्वाकुओं की हो या फिर दक्षिण में बसी  अन्य जनजातियों की, ज़ाहिर तौर पर अपनी क्षेत्रीय विभिन्नताओं के सौंदर्य से सजी-धजी होंगी और उनका स्वरूप उत्तर तथा उत्तर पश्चिम के पुरु-दृहयु-अणु जनजाति से अलग होगा। समकालीन होने पर भी  इस सभ्याताओं के उत्खनन से प्राप्त सभ्यता और संस्कृति मूलक अवशेषों की प्रकृति में भिन्नता लाज़िमी है। 


जैसा कि हम देखते आ रहे हैं, सम्पूर्ण भारत वर्ष के धार्मिक और सांस्कृतिक तत्वों में अपने समाहरण और हिंदू धर्म का सर्वसमावेशी आकार पाने से पूर्व वैदिक धर्म और संस्कृति का स्वरूप पूरब और दक्षिण के धर्म और संस्कृति से सर्वथा भिन्न था। अब जैसा कि हिंदू विरोधी वामपंथी विचारधाराएँ सोचती हैं, क्या हिंदू धर्म की ये अनेकताएँ उन दिनों एक-दूसरे से बिल्कुल अनजान थीं या यहाँ तक कि परस्पर प्रतिघाती थीं? ऐसा मानने का कोई ठोस कारण नहीं है। ऐसे काल में जब कि पश्चिमी एशिया और वैदिक-हड़प्पा संस्कृति में सम्पर्क के प्रचुर सूत्र थे, हड़प्पा के जहाज़ों की पहुँच खाड़ी देशों के बंदरगाह तक ही सीमित न होकर उससे आगे भूमध्य-सागर को स्पर्श कर रही थी (Talgeri : The Elephant and the Proto-Indo-European Homeland), इस तरह की बात गले नहीं उतरती कि वे आपस में एक-दूसरे से अनजान थीं।

अब आइए हम इस बात की पड़ताल करें कि वैदिक और द्रविड़ सस्कृतियों में कितना सम्पर्क था? पहले यह देख लें कि ऋग्वेद में कोई द्रविड़ शब्द है कि नहीं! यदि हड़प्पा की भौगोलिक स्थिति और द्रविड़ भाषा के आज के भौगोलिक विस्तार-क्षेत्र की तुलना करें तो इस बात को मानना अत्यंत टेढ़ी खीर होगी कि इन दोनों के बीच भी आपस में कुछ लेन-देन हो सकता है।  बलूचिस्तान में ब्रहुई भाषी लोगों की उपस्थिति के आधार पर यह क़यास ज़ोरों से लगाया जाता रहा कि हड़प्पा के क्षेत्र में द्रविड़ लोगों का निवास था। लेकिन अब यह बात मान ली गयी है कि दक्षिण से ब्रहुई भाषी लोगों का अफगनिस्तान की ओर उत्प्रवासन अपेक्षाकृत बाद के दिनों की घटना है। विजेल ने भी स्वीकारा है कि “इनकी उपस्थिति बाद के उत्प्रवासन का परिणाम है, जो हाल की शताब्दियों में हुआ (एलफेंबाइम १९८७)(विजेल २०००: १)।" उसी तरह साउथवर्थ ने भी भले ही हड़प्पन क्षेत्र में द्रविड़ उपस्थिति की वकालत की है, परंतु उन्होंने भी बड़ी स्पष्टता से हॉक (१९७५:८७-८) एवं अन्य विद्वानों की इस उक्ति को स्वीकारा है कि  ब्रहुई, कुरूक्स और माल्टो लोगों की आज की स्थिति बहुत पुरानी न होकर हाल की ही है।“


यह बात भले ही आर्य-आक्रमण-अवधारणा के संस्कृत-प्रेमी आलोचक  न पचा पाएँ, लेकिन ऋग्वेद में दो शब्द ऐसे मिलते है जो निश्चित तौर पर द्रविड़ भाषा के शब्द हैं :

– क्रिया धातु ‘पूज’ ( आदर करना, अभ्यर्थना करना, पूजा करना, स्तुति करना)  की  उत्पति द्रविड़  परिवार की  तमिल भाषा के ‘पु’ (अर्थात फूल) से हुई है। यह आराधना की एक ऐसी पद्धति को इंगित करता है जिसका स्त्रोत दक्षिण के धर्मों में है और वैदिक संस्कृति के लिए यह पूरी तरह से नयी बात है।

– ‘काना’ शब्द भी स्पष्ट तौर पर तमिल शब्द ‘कन’ से उद्भूत है। ‘कन’ का अर्थ तमिल में ‘आँख’ होता है। वैदिक संस्कृत में ‘काना’ एक आँख वाले या तिरछी निगाह वाले व्यक्ति को कहते हैं।

यह बात भी उतनी ही सही है कि भारत के भिन्न-भिन्न भागों में सभ्यता और संस्कृति का विकास अलग-अलग तरीक़ों से हुआ। इसलिए ज़रूरी नहीं है कि ऋग्वेद के शुरू के मंडलों के रचे जाने के काल में पश्चिमोत्तर भारत की मिट्टी में शेष भारत की संस्कृति के वे समग्र तत्व मौजूद ही हों। लेकिन हड़प्पा-सभ्यता के परिपक्व अवस्था में आ जाने तक इस क्षेत्र के दूरगामी व्यापारिक विस्तार और तिज़ारती रिश्तों से हुए मेल-मिलाप के प्रभाव को भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। २००८ में लिखी गयी तलगेरी की पुस्तक ‘ऋग्वेद और अवेस्ता : अंतिम सबूत (The Rigved and the Avesta : The Final Evidence)’ में इसका ज़िक्र कुछ यूँ मिलता है : “भले ही हम प्रारम्भ में वैदिक संस्कृत या शास्त्रीय संस्कृत पर अनार्य भाषाओं के प्रभाव से आतंकित हो इस पर अपनी आपत्ति दर्ज करते रहे हों लेकिन हमें यह मानना पड़ेगा कि भारतीय-आर्य भाषाओं में अपनी गहरी पैठ बनाने वाले कुछ शब्द द्रविड़ या औस्ट्रिक परिवार से भी आए हैं। उदाहरण के तौर पर ‘एक आँख वाले’ के लिए ‘काना’ शब्द द्रविड़ परिवार के ‘कन’ अर्थात ‘आँख’ शब्द की निष्पत्ति है। ‘दंड’ और ‘कूट’ जैसे अनेक अन्य शब्दों का दृष्टांत भी उपस्थित किया जाय तो तो उपर्युक्त तर्क की कोई अवहेलना नहीं होगी।“ (पृष्ट-२९२)

सही बात तो यह है कि ऋग्वेद के तत्वों और आँकड़ों की सही पड़ताल करने पर यह भली-भाँति ज़ाहिर होता है कि ऋग्वेद की संस्कृति द्रविड़ तन्तुओं से अछूती नहीं है।  अब ये भी यतना ही सत्य है कि ये द्रविड़ तंतु आर्यों के द्रविड़ हड़प्पा पर हमले के बाद पराजित और भागे द्रविड़ों की संस्कृति के कोई बचे-खुचे अंश या हमलावर आर्यों द्वारा रहन-सहन या संस्कृति के अपना लिए गए कुछ द्रविड़ तरीक़े नहीं थे, जैसा कि आर्य-आक्रमण अवधारणा के प्रतिपादक कहते हैं।  इस बात के प्रचुर सबूत हैं कि ये वे मूल द्रविड़ तत्व हैं जिसे उत्तर और पश्चिम-उत्तर के वैदिक आर्य बजाप्ता दक्षिण से सीख कर ले गए थे। इसके पक्ष में प्रबल तथ्य मौजूद हैं :

– पुराने मंडलों में इनका विवरण नहीं मिलता है। पुराने मंडलों के भौगोलिक तत्वों के नाम की पड़ताल करने पर पता चलता है कि द्रविड़ भाषी लोग हड़प्पा के क्षेत्र में चाहे वैदिक काल हो या उसक पहले का समय, कभी रहे ही नहीं।

– संयोग से, नए मंडलों में इन शब्दों से मुलाक़ात हो जाती है। नए मंडलों के रचे जाने समय तक समुद्री रास्तों से दूर-दूर तक वैदिक-आर्य लोगों के व्यापारिक रिश्ते बन चुके थे। उनका व्यापार मेसोपोटामिया तक जा पहुँचा था और इस क्रम में बेबिलोनिया के भी दो शब्द ‘’बेकनात’ अर्थात व्यापारियों को क़र्ज़ देने वाले महाजन (८/६६/१०) और  ‘मन’, जो भार मापने की आज तक प्रचलित ईकाई है (८/७८/२), ऋग्वेद में प्रवेश पा चुके थे। यह काल मित्तियों और अवेस्ता रचे जाने के काल से ठीक पहले का समय है। बाद में उन्हीं ग्रंथों के मंत्रों में इन द्रविड़ तत्वों के साथ-साथ अवेस्ता और मित्ती तत्वों की भी प्रचुर उपस्थिति मिलने लगती है। 

– भारतीय परम्परायें और भाषा-विज्ञान बड़ी सफ़ाई से और बिना किसी भ्रम के इन वैदिक तत्वों का संबंध दक्षिण की भूमि से द्रविड़ पहचान वाले वैदिक ऋषियों के रूप में जोड़ते हैं। और, ये लोग ऋग्वेद की संस्कृति के शत्रु-से न होकर इसके अभिन्न अंग-से हो गए थे।


मूल रूप से द्रविड़ बोलने वाले वैदिक ऋषियों की कम-से-कम दो धाराएँ तो  साफ़-साफ़ दिखायी देती हैं।

– अभी हमने देखा कि ऋग्वेद में दो ऐसे बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द हैं जो अब आज की भारतीय-आर्य भाषाओं और संस्कृत में बहुत आम हो गए हैं और वे बिना किसी संदेह के द्रविड़ परिवार से ही लिए गए हैं। ये हैं क्रिया धातु ‘पूज’ और  ‘काना’ शब्द। ये दोनों शब्द नए मंडलों में इस प्रकार पाए जाते हैं :

– ऋग्वेद के ८/१७/१२ में प्रयुक्त शब्द ‘पूज’, जिसका संबंध 'इरिम्बिठि' ( कन्व ऋषि के कुल) से है,  और 

– ऋग्वेद के १०/१५५/१में प्रयुक्त शब्द ‘काना’, जिसका संबंध 'सिरिम्बिठ' (भारद्वाज ऋषि के कुल) से है  

अब यह महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं है कि दो भिन्न-भिन्न ऋषि कूलों ने अलग-अलग जगहों पर इन शब्दों के लिए बड़े आश्चर्यजनक और असामान्य रूप से एक ही समान अनार्य भाषा परिवार की संज्ञाओं को चुना है। दसवें मंडल में ऋषियों के वर्णन का  बड़ी दुरुहता से आपस में घालमेल कर दिया जाता है। ‘ऋग्वेद – एक ऐतिहासिक विश्लेषण’ (तलगेरी :२०००) में पृष्ट २५-२६ पर यह उल्लेख मिलता है, “दसवाँ मंडल जो कि बहुत बाद में रचा गया, कई मामलों में अन्य मंडलों से काफ़ी अलग हटकर है। इसमें एक सबसे बड़ी बात अपने मंत्र के रचयिताओं के बारे में इसकी  अस्पष्टता है। ४४ मंत्रों और दो अन्य सूक्तों में तो यह भी पता नहीं चलता कि इनको रचा किसने!”  बस इतना स्पष्ट है कि दसवें मंडल के १५५ वें सूक्त और आठवें मंडल के १७वें सूक्त के रचनाकार एक ही ऋषि हैं – 'इरिम्बिठि कन्व'।

यह नाम द्रविड़ मूल का है। वास्तव में आज भी केरल में एक जगह का नाम है – 'इरिम्बिलियम'। कोई अचरज की बात नहीं कि यही जगह या संभवतः इसी के आसपास की कोई जगह आज से ४००० वर्ष से भी पहले ऋग्वेद की ऋचाओं के रचनाकार की रिहाईश हो! यह बात उल्लेखनीय है कि आठवें मंडल के १७वें (८/१७) मंत्र में ही दो और शब्द आते हैं जो एक बार फिर से द्रविड़ व्युत्पति वाले शब्द माने गए हैं। 

अ  – ‘खंड’ (८/१७/१२) और 

– ‘कुंड’ (८/१७/१३)

और इन सबका सिरमौर शब्द ‘मुनि’ पूरे ऋग्वेद में नहीं भी तो कम से कम पाँच बार (दसवें मंडल के एक ही सूक्त में तीन बार) आया है। इस शब्द का स्पष्ट संकेत भारत के अंदर ही पूरब और दक्षिण के अ-वैदिक क्षेत्रों के पवित्र व्यक्तियों से है। ‘कुंड’ वाले मंत्र के अगले ही मंत्र (८/१७/१४) में ही यह फिर से आता है। भले ही, इन तीन लगातार मंत्रों में निहित संकेतों पर हमें सहसा विश्वास न हो, किंतु अपने आप में वे गहरे अर्थ समेटे हुए हैं।

एक बात तो साफ़ है कि यह ‘इरिम्बिठि’ ऋषि दक्षिण के द्रविड़ थे जो अपने क्षेत्र से चलकर विकसित और समृद्ध हड़प्पा क्षेत्र में आ बसे थे और कालांतर में ऋग्वेद की रचना करने वाले ऋषि बन गए। आज भी भारत में  ढेर ऐसे सनातनी साम्प्रदायिक समुदाय हैं जो अपनी मूल भूमि से विस्थापित होकर किसी अन्य क्षेत्र में बसे पाए जाते हैं। 


– भारतीय परम्परा में एक अन्य अति महत्वपूर्ण और  महान ऋषि के दर्शन होते हैं जो समान रूप से उत्तर और दक्षिण दोनों में न केवल पूजे जाते हैं, बल्कि दोनों की परम्पराओं में अपनी गहरी जड़ जमाए हुए हैं। यह महान ऋषि महर्षि 'अगस्त्य' हैं जिनके बारे में किंवदंती है कि वह उत्तर से चलकर दक्षिण में आ बसे। आइए देखें उनके बारे में विकिपीडिया क्या बताता है, 

“अगस्त्य हिंदू धर्म के एक अत्यंत आदरणीय वैदिक ऋषि थे। वह भारतीय भाषाओं के प्रकांड विद्वान और एक अनन्य वैरागी तपस्वी थे। अपनी अर्धांगिनी ‘लोपमुद्रा’ के साथ मिलकर उन्होंने ऋग्वेद के पहले मंडल में १६५ से १९१ सूक्तों (१/१६५ – १/१९१) की रचना की। इसके अलावे अनेक वैदिक साहित्य उनके द्वारा रचे गए। रामायण और महाभारत सहित अनेक वैदिक और पौराणिक प्रसंगों में अगस्त्य  का वृतांत मिलता है। एक ओर सबसे महत्वपूर्ण सात या आठ वैदिक ऋषियों (सप्तर्षि) में उनका नाम आता है तो दूसरी ओर, द्रविड़  शैव परम्परा के वह प्रख्यात तमिल सिद्ध हैं। उन्होंने प्राचीन तमिल व्याकरण ‘अगत्तियम’ की रचना की, ‘तांप्रपर्णियन’ नामक औषधि बनायी और श्री लंका तथा दक्षिण भारत के अनेक जगहों पर शैव साधना केंद्रों की स्थापना की। पुराणों की शाक्त और वैष्णव  परम्परा के वह अत्यंत आदरणीय हस्ताक्षर हैं।  प्राचीन प्रस्तर-प्रतिमाओं और दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया सहित जावा-सुमात्रा तक के शिव मंदिरों में उत्कीर्ण क़सीदों में उपस्थित होने वाले वह दुर्लभ भारतीय ऋषि हैं। जावा के प्राचीन ग्रंथ ‘अगस्त्यपर्व’ के वह प्रमुख नायक किरदार और गुरु हैं। इस ग्रंथ का ११वीं शताब्दी का संस्करण आज भी सुरक्षित है। अगस्त्य ने ढेर सारे ग्रंथों की रचना की, जिसमें  ‘वाराह-पुराण’, और 'स्कन्द-पुराण' के भाग ‘अगस्त्य-संहिता’ तथा ‘द्वैत-निर्णय-तंत्र ग्रंथ’ प्रमुख  हैं। अपनी पौराणिक व्युत्पतियों के आधार पर  ‘मन’, ’कलसज’, ‘कुंभज’, ‘कुंभयोनि’ और ‘मैत्रवारूणी’ आदि कई नामों से उन्हें अभिहित किया गया है।

‘अगस्त्य’ शब्द की व्युत्पति को लेकर अनेक मान्यताएँ हैं। एक मान्यता यह है कि इसका  मूल शब्द एक फलदार वृक्ष ‘अगति गंडिफ़्लोरा’ से निष्पन्न है। यह भारतीय उपमहाद्वीप का स्थानीय पौधा है और इसे तमिल में ‘अकट्टी’ कहते हैं। अगट्टी से ही ‘अगस्ति’ शब्द निकला और इस प्रकार यह इस वैदिक ऋषि के नाम के द्रविड़ मूल की व्याख्या होती है। वह एक अनार्य-द्रविड़ हैं जिनके विचारों से समूचा उत्तर भारत आप्लावित-आंदोलित हुआ। उनका आश्रम तिरुनेलवेली, पोथियाल की पहाड़ी और तंजावर सहित तमिलनाडु के अनेक जगहों पर अवस्थित है।

हालाँकि बाद के पौराणिक वृतांतों में उन्हें उत्तर का एक ऋषि बताया गया है जो चलकर दक्षिण में बस जाता है। किंतु, यह सर्वमान्य और ऐतिहासिक रुप से स्थापित तथ्य है कि अगस्त्य मूलतः दक्षिण के निवासी एक द्रविड़ ऋषि थे। वह और बाद में,  उनके वंशज, दक्षिण से चलकर उत्तर में बस गए और ऋग्वेद की रचना करने वाले ऋषि-कूलों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण और स्वतंत्र ऋषि-परिवार की उन्होंने स्थापना की। 

– ऋषि कुल परम्पराओं में अगस्त्य एक विलक्षण और अपवाद-से ऋषि हैं।  वह एक ऐसे तपस्वी सन्यासी हैं जो नगरों की चकाचौंध और राजप्रासाद के अनुग्रह से कोसों दूर जंगल की अपनी कुटिया में एक वैराग्यपूर्ण वितरागी का  जीवन बिताते हैं।

– वह स्वयं पूरी तरह से ऋग्वेद के वृहतांश से अनुपस्थित हैं। उनके वंशजों का योगदान बाद के मंडल १ के सूक्तों की रचना में मिलता है जिसमें ढेर-से द्रविड़ शब्दों का प्रयोग मिलता है। किंतु ऋगवैदिक परम्पराओं में न केवल ऋग्वेद के बाहर बल्कि ऋग्वेद के अंदर (८/३३/१०) भी अगस्त्य को एक पुरातन ऋषि के रूप में अत्यंत प्रतिष्ठित पद मिलता है। इस मंत्र  में वह वशिष्ठ के समकालीन और उनके साथ-साथ चर्चित हुए हैं।

– नए मंडलों  में १ और ८ {१/(११७/११, १७०/३, १७९/६, १८०/८, १८४/५), ८/(५/२६)} को छोड़कर बस एक जगह अगस्त्य का विवरण मिलता है। यह पुनर्संशोधित सातवें सूक्त में पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सूक्त, ७/३३/११,  उनके ही वंशज के द्वारा पुनर्संशोधित किया गया। इसी सूक्त के ठीक बाद वाले मंत्र में ‘दंड’ नामक द्रविड़ शब्द उपस्थित होता है।  हड़प्पा की सभ्यता के परिपक्व प्रहर में 'इरिम्बिठि' और 'अगस्त्य' के प्रवेश ने ऋग्वेद की धरा पर द्रविड़ शब्दों की लघु-धार बहायी। इस धारा ने  कालांतर में  वैदिक शास्त्रीय संस्कृत को भिगोते हुए एक प्रचंड सैलाब का रूप धारण कर लिया। ऋग्वेद में ऐसे कथित द्रविड़ शब्दों की एक लम्बी सूची है : ‘वैला’, ‘कियांबु’, ‘वृष’, ‘चल’, ‘बिल’, ‘लीप’, ‘कटुक’, ‘पिंड’, ‘मुख’, ‘कूट’, ‘कुट’, ‘खल’, ‘उलुखला’, ‘कानुक’, ‘सिर’, ‘नद’/’नल’, ‘कलफ़’, ‘उखा’, ‘कनारू’, ‘कलाया’, ‘लांगल’। ये शब्द ऋग्वेद के केवल नए मंडलों में और उनके पुनर्संशोधित सूक्तों  में ही पाये  जाते हैं। अपवाद-स्वरूप ही कहें तो, ‘मुख’ शब्द चौथे मंडल के ३९वें सूक्त के छठे मंत्र (४/३९/६) में, ‘कलाया’ शब्द सातवें मंडल के ५० वें सूक्त के पहले मंत्र (७/५०/१) में  और ‘कलफ’ शब्द सातवें मंडल के ५० वें सूक्त के दूसरे मंत्र (७/५०/२) में पाया जाता है। हॉक की निगाहों में इस विषय के प्रखर विशेषज्ञ अर्नौल्ड ने छंद-योजना के परिप्रेक्ष्य में चौथे और सातवें मंडल के इन पुनर्संशोधित श्लोकों का वर्गीकरण किया है। अतः इन द्रविड़ शब्दों में एक के भी दर्शन हमें पुराने मंडलों में नहीं होते! ऊपर के सूक्तों (७/३३/१०, ४/३९ और ७/५०) के अलावा ऐसे संदर्भ हमें निम्नांकित सुतों या श्लोकों में भी देखने को मिलते हैं : 


पुनर्संशोधित सूक्त :





यहाँ पर यह भी बात उतना ही ध्यान आकर्षित करनेवाली है कि जिन नए मंडलों में इन द्रविड़ शब्दों और द्रविड़ ऋषि-कूलों का विवरण आता है, ये सभी ईसा से २००० वर्ष पूर्व लिखे गए थे। इसके बहुत बाद में आगे चलकर हमें सीरिया-इराक़ में मित्ती संस्कृति के और ईरान में भारोपीय-ईरानी संस्कृति (पर्सियन, पर्थियन और मिडियन) के दर्शन होते हैं। साथ में हमें यह भी नहीं विस्मृत करना चाहिए कि ‘तमिल-संगमों’ की रचना का काल भी क़रीब दो शताब्दी बाद ही आ जाता है। इस आधार पर अब और किसी शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि वैदिक और द्रविड़ संस्कृतियों का संबंध न केवल अत्यंत प्राचीन है, प्रत्युत उनका माधुर्य भी अत्यंत प्रगाढ़ है।