(१)
चटकीली चाँदनी की
दुधिया धार में धुलाई,
बांस की ओरी में टंगी सुतली.
हवा की सान पर
झुलती, डोलती
रात भर खोलती,
भ्रम की पोटली
मेरी अधजगी आँखों में.
किसी कृशकाय कजराती
धामिन सी धुक धुकाकर,
बँसवारी सिसकारती रही
मायावी फन की फुफकार.
(२)
कुतूहल, अचरज, भय, विस्मय
की गठरी में ठिठका मेरा 'मैं'.
बदस्तूर उलझा रहा,
माया चित्र में, होने तक भोर.
उषा के अंजोर ने
उसे फिर से, जब
सुतली बना दिया.
सोचता है मेरा 'मैं'
इस भ्रम भोर में,
वो सुतली कहीं
मेरे होने का
वजूद ही तो नहीं?
(३)
दृश्यमान जगत
की बँसवारी में
मन की बांस
से लटकी सुतली
अहंकार की.
सांय सांय सिहरन
प्राणवंत पवन
बुद्धि की दुधिया चांदनी
में सद्धःस्नात,
भर विभावरी
भरती रही भ्रम से
जीवन की गगरी.
(४)
परमात्मा प्रकीर्ण प्रत्युष
चमकीली किरण
की पहली रेख
मिटा वजूद, प्रतिभास सा,
जो सच नहीं!
शाश्वत सत्य का
सूरज चमक रहा था
साफ साफ दिख रहे थे
बिम्ब अनेक,
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय
हो गए थे किन्तु
सिमटकर एक!