Friday 21 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(४)

भाग -(३) से आगे 

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (क)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

[ यहभारतीय-आर्य-बहिर्गमन सिद्धांतके प्रतिपादक अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त प्रकांड इतिहासवेत्ता और शोधकर्मी श्री श्रीकान्त गंगाधर तलगेरी द्वारा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नयी दिल्ली के २०१८ के सम्मलेन में प्रस्तुत शोधपत्र का उन्ही के द्वारा  २० जुलाई २०२० को परिमार्जित और संशोधित आलेख का हिंदी अनुवाद  है जो अबतक अप्रकाशित है। यह  सम्पूर्ण  शोध पत्र पाठकों की जानकारी के लिए एवं उनके विचारार्थ  (माननीय तलगेरी जी की सहमति सेप्रस्तुत किया जा रहा है। ]


सच कहें, तो भारत ही नहीं, वरन समस्त  भारोपीय (भारत-यूरोपीय) भूभाग का प्राचीनतम ग्रन्थ है - अपना 'ऋग्वेद' भारोपीय और भारतीय सभ्यताओं के पुरातन इतिहास का सुराग पाने में इस ग्रन्थ की महत्ता का कोई सानी नहीं है। भारतीय इतिहास लेखन की सभी शैक्षणिक धाराओं में यह तथ्य सर्वमान्य है।
फिर भी, इस बात को लेकर तीव्र मतभेद उभरे हैं कि इतिहास में ऋग्वेद और उसके रचयिता वैदिक आर्यों की सही स्थिति क्या है और ऋग्वेद हमें इतिहास के उन पन्नों को टटोलने में किस सीमा तक सहायता करता है।
इस बात को ठीक-ठीक समझने के हमारे सामने दो नजरिये हैं:

१.      'आक्रान्ता-आर्यों' का परिप्रेक्ष्य

इसमें वैदिक आर्यों को एक आक्रामक प्रजाति समझा गया है। वैदिक साहित्य का यह अंतराल भारतीय इतिहास के प्रवाह की निरंतरता में  एक ऐसा विराम माना गया  है, जहाँ 'हड़प्पा' या 'सिन्धु-घाटी' नाम की एक पुरानी सभ्यता का अवसान होता है और उसकी जगह पर 'आर्य' नामक हमलावरों की एक नस्ल भारत के बाहर से आकर १५०० ईसा पूर्व में भाषा और धर्म आधारित एक सर्वथा नवीन  सभ्यता का बीजारोपण करती है। 

२.      स्थानीय 'भारतवंशी-आर्यों' का परिप्रेक्ष्य

इसमें वैदिक आर्यों को भारत की मिट्टी  में ही जन्मा भारतवंशी माना गया  है और इनकी संस्कृति को  भारत ही नहीं, बल्कि समस्त वैश्विक-सभ्यता का स्थानिक बीज और मूल माना जाता है।
'आक्रान्ता-आर्य परिप्रेक्ष्य' औपनिवेशिक काल में यूरोपीय विद्वानों की उस छानबीन पर आधारित है कि उत्तरी भारत की प्रमुख भाषाओं का संबंध ईरान, मध्य एशिया और यूरोप की भाषाओं से है। पिछली कुछ सदियों में हुए भाषाई अध्ययनों से ऐसा आभास मिलता है कि ये सारी भाषाएं आपस में मिलकर एक 'भाषा-परिवार' से अपना ताल्लुक रखती हैं। इस भाषा-परिवार का नाम 'इंडो-यूरोपियन' (भारोपीय) दिया गया है। पूर्व में इसे 'आर्यन' कहा गया था क्योंकि इस परिवार की दो प्राचीनतम  कृतियों, भारत के 'ऋग्वेद' और ईरान के 'अवेस्ता', की रचना करने वाले अपने को 'आर्य' कहा करते थे।
उत्तर भारत की भाषाएँ यथा कश्मीरी, पंजाबी, सिन्धी, हिंदी, बंगाली, असमिया, उड़िया, गुजराती, मराठी आदि और साथ-साथ नेपाली तथा सिंहली भारोपीय भाषा-परिवार की 'भारतीय-आर्य' शाखा से उद्भूत हैं और वैदिक संस्कृत इसकी सबसे पुरानी मानी हुई और दर्ज की गयी भाषा है।
भारत की बाकी भाषाएँ अन्य पांच चिन्हित  भाषा-परिवारों के सदस्य हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं: द्रविड़ (तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ आदि), ऑस्ट्रिक (संथाली, मुंडारी, निकोबारी, खासी आदि), चीनी-तिब्बती (लद्दाखी, लेपचा, मिती, गारो, नागा आदि), बुरुशास्की और अंडमानी
ये भारोपीय भाषाएँ बारह शाखाओं में विभाजित हैं: इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लाविक, अल्बानी, ग्रीक, एनाटोलियन, अर्मेनियाई, टोकारियन, ईरानी और भारतीय-आर्य। इनमें से दो, एनाटोलियन (मुख्यतः हिटाईट भाषाएँ) और टोकारियन अब विलुप्त हो गयी हैं और इनकी जानकारी अब मात्र पुरातात्विक अवशेषों में संरक्षित शाब्दिक अभिलेखों और संदर्भों से ही मिलती है। भाषाई साक्ष्य यह प्रदर्शित करते हैं कि इन बारह भाषाओं के आद्य और पैतृक स्वरूपों को बोलने वाले लोग एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में  साथ-साथ रहते थे, जहाँ से ३००० ईसा पूर्व उन्होंने अलग होना शुरू किया।    
भारोपीय भाषाओं की मूल मातृभूमि के भूगोल की तलाश में भटकते भाषाशास्त्रियों ने लगभग एक मत से जिस भूभाग की तलाश की है वह है - दक्षिणी रूस।

- इस बात से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय-आर्य भाषाएं या यूँ कहें कि सबसे पुरातन पैतृक भाषा, वैदिक संस्कृत, निश्चित तौर पर भारत के बाहर से ही आयी होगी।

-  ३००० ईसा पूर्व अपनी तथाकथित मातृभूमि, दक्षिण रूस से इस भाषा के प्रस्थान और लगभग ६०० ईसा पूर्व बुद्ध के काल तक उत्तर भारत के विस्तृत भूभाग में इसकी व्यापक देशज उपस्थिति के मध्य के २४०० वर्षों के अंतराल को अंशांकित कर इन भाषाविदों ने यह तय किया कि भारत में इस भारतीय आर्य भाषा के कल्पित अवतरण का समय १५०० ईसा पूर्व है और ऋग्वेद, जो कि प्राक-बुद्धकालीन विशाल वैदिक साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है, का रचना काल १२०० से १००० ईसा पूर्व है।

-  हड़प्पा के उत्खनन-स्थलों की खोज २०वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुई। उनकी पुरातात्विक  काल-गणना ३५०० ईसा पूर्व या इससे भी पहले से शुरू होती हुई की गयी जो पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर धीरे-धीरे १८०० ईसा पूर्व के आते-आते तक दम तोड़ती पायी गयी। इन स्थलों से उत्खनन में प्राप्त कलाकृतियों पर अंकित गुढाक्षरों को आज तक नहीं समझा जा सका है। किन्तु, इसका यह मतलब निकाल लिया गया कि भाषाई तौर पर यह एक अलग तरह की अज्ञात आर्य-पूर्व संस्कृति थी जिसे १५०० ईसा पूर्व में 'हमलावर आर्य प्रजाति' ने उखाड़ फेंका।

-  इन्हीं बातों नेआर्य-हमला-सिद्धांतयाआर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ (AIT Aryan Invasion Theory) के परिप्रेक्ष्य का जन्म दिया। हमलावर आर्यों ने अपनी पहली चौकी पश्चिमोत्तर भारत में डाली। वहीं उन्होंने अपने प्रवेश के शुरुआती दौर में सबसे पुरानी कृति, ऋग्वेद, की रचना की। फिर, वहाँ से वे समूचे उत्तर भारत में पसरते चले गए। ऋग्वेद के क़रीब-क़रीब समानांतर ही ईरान में अवेस्ता की भी रचना हुई। इससे एक और सिद्धांत को बल मिला कि भारोपीय भाषाओं की बारह शाखाओं में से दो, भारतीय-आर्य और ईरानी, साथ-साथ ३००० ईसा पूर्व के आसपास दक्षिण रूस से प्रवासित हुए और मध्य एशिया में बहुत दिनों तक साथ-साथ पनपते रहे। यहीं पर उन्होंने ऋग्वेद और अवेस्ता की संस्कृतियों के बीज-तत्व के प्रारम्भिक तन्तुओं का विकास किया और फिर कालांतर में एक दूसरे से अलग हो गये। भारतीय-आर्य सप्त-सैंधव प्रदेश में घुस गये। यह आज के उत्तरी पाकिस्तान के वृहत पंजाब का क्षेत्र है। यहीं पर उन्होंने ऋग्वेद की रचना की।
यह परिकल्पना कुछ गम्भीर दोषों से संक्रमित है :
१-     भारत के बाहर कहीं भी किसी भी सूरत में आद्य-भारोपीय या ऋग्वेद की भाषा या उसकी संस्कृति के कोई भी पुरातात्विक, शिलालेखीय या शाब्दिक अवशेष नहीं पाए गए हैं। चाहे दक्षिण रूस की बात कर लें, मध्य एशिया की बात कर लें या दक्षिण रूस से मध्य एशिया होते हुए सप्त-सैंधव प्रदेश के उनके भ्रमण-पथ की बात कर लें!
२-     ऋग्वेद में कहीं भी किसी भी तरह की परदेस की बातों का लेशमात्र भी वर्णन नहीं मिलता है भारत के बाहर की बात क्या करें, यहाँ तक कि उस  भूली-बिसरी किसी भूमि का भी कोई ज़िक्र नहीं मिलता जिसने उनके मन में पूर्वजों की कोई स्मृति संजोकर रख दी हो। बल्कि, उल्टे ऋग्वेद के रचनाकारों ने अपनी इस महान कृति में उस पवित्र  भूमि के प्रति अपनी सारी श्रद्धा-भावनाएँ उड़ेल कर रख दी हैं जिसकी गोद में बैठकर इसे रचा गया। ऋग्वेद की ऋचाएँ इस तथ्य का प्रबल उद्घोष करती हैं कि रचनाकार ऋषि इस वैदिक क्षेत्र के ही मूल निवासी थे।
३-     भारोपीय भाषा बोलने वाले लोगों का सबसे पुराना साहित्यिक कलेवर ऋग्वेद को ही माना जाता है। यह भी माना जाता है कि  वे बाहर से एक ग़ैर भारोपीय भाषायी क्षेत्र में आये। यह भी सत्य है क़ि वह क्षेत्र पहले से एक और पुरानी और समुन्नत सभ्यता, हड़प्पा की महान सभ्यता, का स्थल रह चुका था। किंतु, समूचे ऋग्वेद में कहीं भी किसी भी ऐसे व्यक्ति, ऐसी सत्ता, शत्रु या मित्र का कोई ज़िक्र नहीं मिलता जो इस बात का तनिक भी आभास दे सके कि उनका सरोकार द्रविड़, औस्ट्रिक, बुरुशास्की या किसी अन्य ग़ैर भारोपीय भाषाओं से हो। तो किसी देशज-विदेशज संघर्ष जैसा कोई वृतांत मिलता है और ही किसी ऐसी ऋचा से साक्षात्कार होता है जो यह संकेत करती हो कि उसके सर्जक उस भूमि के मूल बाशिंदे नहीं थे जहाँ उसे रचा गया हो।
४-     यहाँ तक कि उस काल-खंड में भी स्थानीय नदियों और पशुओं के जिन नामों की चर्चा हुई है वे सभी भारतीय आर्य नाम हैं और पक्के तौर पर उनमें कोई द्रविड़, औस्ट्रिक, बुरूशास्की या अन्य ग़ैर भारतीय-आर्य-भाषा के नाम नहीं मिलते। संसार में कहीं भी और किसी भी तरह के आक्रमण की घटना में यह एक अनोखा दृष्टांत है।
५-     अगर थोड़ी देर के लिए हम तथाकथित बाहरी आर्यों के हमले, उनके प्रवास और समूचे उत्तर भारत में उनके उत्तरोत्तर पसरने के प्रसंग पर अपनी आँखें मूँद भी लें तो भला इस तथ्य को नज़रंदाज़ कैसे कर सकते हैं कि तो बाद के वैदिक साहित्यों में और यहाँ तक कि परवर्ती संस्कृत इतिहास परम्पराओं में भी, और ही किसी ग़ैर भारतीय आर्य भाषा बोलने वाले समुदाय की उपस्थिति के रूप में, ऐसी घटना का कोई संकेत या आभासमात्र भी भला कहीं मिलता हो!
६-     ऋग्वेद से पहले से लेकर बुद्ध तक के आर्य इतिहास की समूची प्रक्रिया को १००० साल की अवधि में निचोड़कर परोस देना पूरी तरह से भ्रामक, तथ्यों से बेमेल और सच्चाई से मुँह चुराना है।

इन सभी विसंगतियों के बावजूद आज सारे संसार में और भारत में भी बाहरी लोगों द्वारा भारत पर किए गए इस तथाकथितआर्य-आक्रमण-सिद्धांत’ (एआइटी)  को एक स्थापित ऐतिहासिक गल्प के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इस साजिश के पीछे अंतराष्ट्रीय शिक्षा जगत का दबाव, भारत में स्थापित वामपंथी बुद्धिजीवियों का प्रभुत्व, हिंदू-विरोध का ज़हर और  निहित राजनीतिक स्वार्थ है। फिर, यदि एरडोसी (ERDOSY,1995 x)  के शब्दों में कहें तोपिछली दो शताब्दियों की विराट विद्वता का बोझ है यह!’
इसका एक और कारण यह है कि इस कहानी के पारम्परिक कट्टर प्रतिद्वंद्वियों ने भी जो अपनी कहानी गढ़ी हैं, उसमें भी दो भारी ग़लतियाँ दिखती हैं :
१-     एक तो वे इस बात को पुरज़ोर से नकारते हैं कि वैदिक भारतीय आर्य-भाषा एक ख़ास भारोपीय  भाषा-परिवार की अनेक शाखाओं में से अपनी पहचान लिए एक अलग शाखा है जो दूसरे परिवार की द्रविड़, औस्ट्रिक सरीखे भाषा वाली भारतीय भाषाओं से भी अलग है। और तो और, वे समस्त भारोपीय भाषाओं का उत्स वैदिक भाषा में ही देखने लगते हैं।
२-     दूसरे कि वह इस बात को पचा नहीं पाते कि ऋग्वेद के भौगोलिक संदर्भों से यह साफ़ है कि उत्तर भारत का एक सीमित भूभाग ही जो पूरब में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान की सीमा को छूता है, वैदिक आर्यों का निवास था और शेष भारत में, उस काल में अन्य लोग भी निवास करते थे जो उन वैदिक आर्यों से भिन्न थे। बाद के वैदिक साहित्य में, इस क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार के कारणों का पता चलता है जो कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के प्रसंग में समाहित हैं।
भरसक एआइटी की मुख़ालफ़त  करने वाले तो एक जगह इसके हिमायतियों से सुर में सुर मिलाते नज़र आते हैं, जब वे यह मानने लगते हैं कि शेष भारत और हिन्दू सभ्यता के लिए वैदिक भाषा और संस्कृति एक तरह कीपूर्वजों द्वारा दी गयी पैतृक संस्कृतिहै।  उदाहरण के तौर पर, आज कीआर्य-भाषा’,  हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के वे तत्व जो ऋग्वेद या अन्य वैदिक संहिताओं में नहीं पाए जाते, उन्हें वे वैदिक भाषा, धर्म और संस्कृति से विकसित होने वालेबाद काअर्थातपरवर्तीस्वरूप मानते हैं। इस तरह का नज़रिया तो फिरआर्य-आक्रमण-सिद्धांतअर्थात एआइटी को मानने के सिवा और कोई चारा भी नहीं छोड़ता।
अतः भारत के इस प्राचीन इतिहास का बिलकुल सही और तर्कसंगत संदर्भ में अन्वेषण करने के लिए हमें कुछ मूल बातों को  भली-भाँति समझना होगा :
१-     वैदिक-आर्यकौन थे? -  सही पड़ताल,
२-     ऋग्वेद का सही रचना काल,
३-     ऋग्वेद की ऋचाओं से झाँकते भौगोलिक साक्ष्य,
४-     अन्य भारोपीय शाखाओं के अप्रवासन का इतिहास और
५-     भारत में वैदिक धर्म के प्रसार की प्रकृति।
अंग्रेज़ी में लिखे हमारे हाल के दो लेखों ‘India’s Unique Place in the World of Numbers and Numerals’ (संख्या और अंकों की दुनिया में भारत की ख़ास जगह) औरThe Elephant and the Proto-Indo-European Homeland’ (हाथी और प्राक-भारोपीय मातृभूमि) में इस बात के बहुत ही महत्वपूर्ण, ठोस, अत्यंत अर्वाचीन और निर्णयात्मक सबूत पेश किए हैं जो इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि आर्य कहीं बाहर से भारत आये नहीं थे, बल्कि भारत से वे बाहर गए थे। इसेOut of India Theory’ (भारत से आर्यों का बहिर्गमन सिद्धांत) कहते हैं। उन साक्ष्यों के सारांश यहाँ दो परिशिष्टों में प्रकट होंगे।
६-     परिशिष्ट : भारोपीय संख्याओं और अंकों का साक्ष्य
७-     परिशिष्ट : जंतुओं और वानस्पतिक नामों का साक्ष्य 
और अंत में, दो और परिशिष्ट जो २० जुलाई २०२० को ग्रंथसूची के नीचे जोड़े गए।
८-     परिशिष्ट : विद्वत शास्त्रार्थों के कपटपूर्ण अखाड़े
९-     परिशिष्ट : जालीजेनेटिक (आनुवंशिक) साक्ष्य



          
        १ -  ‘वैदिक-आर्यकौन थे? – सही पड़ताल

आर्य-आक्रमण-सिद्धांतके अनुसार वैदिक आर्य पश्चिमोत्तर भारत में और उसके उत्तर-पश्चिम से एक बिलकुल -भारोपीय भू-भाग में घुसे थे। उन्होंने इस क्षेत्र के मूल निवासी जोहड़प्पा के लोगथे, उनको भाषायी और सांस्कृतिक तौर पर उखाड़ फेंका। यह क्षेत्रसप्त-सैंधवयासात नदियों का देशयावृहत पंजाबके नाम से जाना जाता है जो प्रमुख तौर पर आज उत्तरी पाकिस्तान का भाग है। इसी क्षेत्र में उन कथित हमलावरों ने ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना की। तदोपरांत वे शेष भारत में पसरते चले गए और जल्दी ही उन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को अपना  उपनिवेश बनाकर वहाँ अपने धर्म, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति की सत्ता स्थापित कर ली। उनकी भाषा, वैदिक संस्कृत, विकसित होकर आज की भारतीय-आर्य-भाषा बन गयी और उनका वैदिक धर्म फैलकर आज का हिन्दू धर्म बन गया।
इस आक्रमण-सिद्धांत के विरोधी इस सिद्धांत के शुरू की बातों को अस्वीकार करते हैं और वैदिक आर्यों को हड़प्पा-वासियों की तरह ही देशज निवासी मानते है, अप्रवासी नहीं। लेकिन वे भी आज की भारोपीय भाषाओं को वैदिक भाषा का वंशज और आज के हिन्दू धर्म को वैदिक धर्म की संतति मानते हैं। ऐसा करते समय या तो वे ऋग्वेद के भौगोलिक साक्ष्यों की अवहेलना करते हैं या फिर इसे अस्वीकार करते हैं। बात बस केवल इतनी-सी है कि ऋग्वेद के भूगोल की सीमा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उससे हटकर थोड़ा और पश्चिम और उत्तर पश्चिम के बीच सिमटा हुआ है। इसलिए उनके नज़रिये में, हालाँकि स्पष्ट तौर पर इसका कहीं उल्लेख नहीं है, ये भारत के ही उत्तर-पश्चिम में रहने वाले वैदिक-आर्य शेष भारत के भीतर घुस गए और इन्होंने अपना उपनिवेश बनाकर अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति उस सम्पूर्ण क्षेत्र पर थोप दी जो पूरी तरह से मूलतः अभारोपीय उत्तर भारत था। किंतु क्या ऋग्वेद की ऋचाओं में इस धुन की अनुगूँज मात्र भी है कहीं?  
अब आइए पुराणों की बात करें। इसकी पारम्परिक गाथा अपने मिथकीय सम्राट, मनु वैवस्वत, से प्रारम्भ होती है जो समस्त आर्यावर्त पर शासन करते थे और जिन्होंने कथित तौर पर अपनी समस्त भूमि अपने दस पुत्रों के बीच बाँट दी थी। फिर भी, यदि पौराणिक वृतांतों के विस्तार में जाएँ तो आर्यावर्त के उसी भूभाग का उल्लेख मिलता है जो विंध्य पर्वत के उत्तर में है। और साथ ही, इस भूभाग का इतिहास उनके दो पुत्रों, इक्ष्वाकु और इला, के इर्द-गिर्द ही घूमता है। इक्ष्वाकु के वंशजसूर्यवंशीऔर इला के वंशजचंद्रवंशीकहलाते हैं। आठ अन्य पुत्रों की संततियों की  कथाएँ या तो पूरी तरह से ग़ायब हैं या फिर कथाकर की लापरवाही का शिकार बन केवल भ्रम का वितान तानने के लिए इक्ष्वाकुओं और इलाओं के आख्यानों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। चाहेआक्रांता-आर्यसिद्धांत के अनुयायी हो यादेशज-आर्यसिद्धांत के पैरोकार, दोनों इस बात पर एकमत हैं कि अपने पूर्वजों का नाम ढोने वाली बहुतेरी जनजातियाँ वैदिक-आर्यों की संततियाँ हैं या फिर, उन्हीं के कुल-खंड का ही अंश हैं।
फिर भी पुराणों के भूगोल से एक बात साफ़ है कि इक्ष्वाकु की वंशज-जनजातियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में फैली हुई थी। इला के वंशज पाँच जनजातीय समूहों में विभाजित थे। परवर्ती पौराणिक वृतांतों से यह पता चलता है कि  इला के ही वंशज, ययाति, की संतति ये पाँचों जनजातियाँ  थी :
क-    हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश की निवासी, ‘पुरुजनजाति,
ख-    उत्तर में कश्मीर और इसके आस-पास के क्षेत्रों की निवासी, ‘अणुजनजाति,
ग-     वृहत पंजाब के पश्चिमी क्षेत्रों की निवासी, ‘दृहयुजनजाति,
घ-     गुजरात के दक्षिण पश्चिम, राजस्थान और पश्चिमी मध्य प्रदेश में रहनेवालीयदुजनजाति और
ङ-     दक्षिण पूर्व भारत की निवासी, तुर्वसुजनजाति। ये यदुओं की रिहाइश से पूरब दिशा के क्षेत्रों में रहती थीं, जिन्हें अभी ठीक-ठीक तरह से चिन्हित नहीं किया जा सका है।

मनु  के अन्य आठ पुत्रों के ठिकानों की सही-सही जानकारी पुराणों में नहीं मिलती है। तुर्वसु का भी यहीं हाल है, जिनका ज़िक्र भी अक्सर यदुओं के साथ ही आता है। पौराणिक साहित्य, महाकाव्यों और परवर्ती-परम्परा की कथाओं का भी पूरा ज़ोर उत्तरी भारत की पुरु और इक्ष्वाकु कुल-खंडों और उनके दक्षिण पश्चिम बसे यदुवंशियों पर ही है। धृह्यू जनजाति के विषय में  पीछे की बातों  का वृतांत तो मिलता है लेकिन आगे चलकर परिदृश्य से वे पूरी तरह ग़ायब दिखते हैं। इसके कारणों पर आगे चलकर हम प्रकाश डालेंगे। अणु जनजाति को अपेक्षाकृत पुराणों में कम जगह मिली है। इसके भी कुछ स्पष्ट कारण हैं जिनकी पड़ताल हम आगे करेंगे।
अब क्या ऋग्वेद के आँकड़ों से इस बात की पुष्टि हो पाती है किवैदिक-आर्यही इस समस्त पौराणिक समुदायों के पूर्वज थे, या फिर ये  सभी पौराणिक जनजातीय समुदायवैदिक आर्योंके ही अवयवी अंग थे? इसमें पहला परिदृश्य तो बिल्कुल सही नहीं जँचता क्योंकि ऋग्वेद इन सभी जनजातियों को अलग-अलग परस्पर असंबद्ध समुदाय के रूप में चित्रित करता है। दूसरी बात तो और गले नहीं उतरती क्योंकिवैदिक आर्यकी पहचान के रूप में स्पष्ट रूप से ऋग्वेद मात्रपुरुजनजाति को ही इंगित करता है। एक बात और स्पष्ट रूप से ध्यान देने योग्य है कि पौराणिक वृतांतो से यह बिलकुल साफ़ है किपुरुजनजाति की मूल बसावट हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की वही भूमि थी जो ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलों (, और ) के सूक्तों का सृजन-स्थल है। 
ऋग्वेद इस तथ्य का साफ़-साफ़ उद्घाटन करता है किपुरुही वैदिक आर्य थे और उन्ही की एक विशेष उपजातिभरत पुरुने ऋग्वेद की ऋचाएँ रची और उनका निवास-स्थल भी हरियाणा और उसके आस-पास का ही भूभाग था जो छठे, तीसरे और सातवें मंडल का रचना-स्थल था। बाक़ी सभी दिशाओं में बसी पड़ोसी जनजातियाँ भारोपिय भाषाएँ बोलने वालीआर्यजातियाँ तो थी पर वे अवैदिक अर्थात-पुरुथीं।
पुराणों में वर्णित पुरुओं के विस्तार की गाथाआर्योंसे जुड़ी सभी ऐतिहासिक घटनाओं की विवेचना करती है।
पुरु साम्राज्य के पाँचाल से काशी होते हुए मगध तक के पूर्वी विस्तार को ही पश्चिमी विद्वानभारत में आर्यों के पश्चिम से पूरब की ओर फैलनेके रूप में चित्रित करते हैं; अर्थात, पूरब की ओर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ऋग्वेद का क्षेत्र, और पूरब की ओर बढ़कर समूचा  उत्तर प्रदेश यजुर्वेद का क्षेत्र और बंगाल को छूता समस्त बिहार अथर्ववेद का क्षेत्र।
और ऋग्वेद तथा पुराणों में वर्णित पुरुओं के पश्चिम की ओर फैलने की घटना ने ही उस उत्प्रेरक भूमिका का निर्माण  किया जिसकी वजह से अणु और दृहयु  जनजातियों में भारोपीय भाषाएँ बोलने वाले लोगों का  भारत से बाहर की ओर अप्रवासन हुआ। कालांतर में उन्हीं की बोलियाँ भारोपीय भाषा परिवार की अन्य  ग्यारह शाखाओं में विकसित हुईं।

सबूत  
  
ऋग्वेद में बार-बारपंचजनअर्थातपाँच जनजातियोंका ज़िक्र आता है। इन ऐल जनजातियों - दृहयु, अणु, पुरु, यदु और तुर्वसु का पहले मंडल के १०८ वें सूक्त की आठवीं ऋचा (/१०८/) में  एक साथ नाम आता है। ये नाम गणनात्मक ( जैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंगा) शैली या फिर दिशासूचक ( जैसे कश्मीर से कन्याकुमारी तक) शैली में ऋग्वेद में इन जगहों (/४७/, /१०८/, /४६/, //, /१०/) पर उपस्थित  होते हैं।
फिर भी छह जनजातियाँ अपनी स्पष्ट पहचान को लेकर ऋग्वेद में कैसे अवतरित होती हैं, वह इस प्रकार है :

१-     १०// में सूर्य के विशेषण के रूप मेंइक्ष्वाकुशब्द मात्र एक बार आता है।

२-     यदुऔरतुर्वसुक़रीब १९ ऋचाओं में आते हैं। इनमें से १५ बार ये दोनों एक साथ युग्म स्वरूप में  उपस्थित होते हैं, जैसे हम आम तौर पर किसी विशेष समुदाय को अलग से पहचान के रूप में बताते हैं। उदाहरण स्वरूपयूपी-बिहारवाले, पंजाबी-सिंधी, गुजराती-मराठी आदि। और सबसे अचरज की बात तो यह है कि इन्हें एक ऐसे समुदाय के रूप में चित्रित किया गया है जो सुदूर प्रदेश में निवास करते हैं और वहाँ से उन्हें कई नदियों को पार कर वैदिक क्षेत्र में आना पड़ता है। कभी वे मित्र बनकर आते हैं तो कभी शत्रु बनकर!


३-     सातवें मंडल के १८वें सूक्त (/१८) मेंदृहयुका उल्लेख मात्र एक बार आता है और वे ऋचाओं के रचयिता के शत्रु रूप में प्रकट होते हैं।अणुभी चार ऋचाओं में वर्णित हैं। उसमें से दो (/६२ और /१८) दोनों पुराने मंडलों में हैं। वे भी शत्रु ही बनकर आये हैं। शेष दो जगहों (/३१ और /७४, दोनों नए मंडलों) मेंअणु’ ‘भृगुके पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुआ है। भृगु का वर्णन /१८ में भी आता है। वह होता हैं और उन्होंने ही अग्नि-आहुति का अविष्कार किया है।

इन सबके विपरीतपुरुसम्पूर्ण ऋग्वेद में आद्योपांत एक प्रमुख कर्ता के रूप में दिखायी देते हैं। वे ही ऋग्वेद केवयमअर्थातहमहैं। /३८/ और /२०/१० में पुरु प्रथम पुरुष बहुवचन रूप में आते हैं। सारे वैदिक देवता पुरु के देवता हैं। अग्नि’ तो पुरु को संतुष्टि प्रदान करने वाले एक निर्झर रूप में वर्णित हैं (१०//), एक ऐसे होता’ जो पुरु के समस्त पापों को भस्म कर देते हैं (/१२९/), पुरु के द्वारा पूजित एक ऐसे नायक (/५९/) जो उनकी समग्र आहुतियों के संरक्षक हैं (/१७/) और जो पुरु के शत्रुओं के दुर्ग को तहस-नहस कर देते हैं (//) मित्र’ और वरुण’ युद्ध में पुरु के विशेष सहायक और शक्तिशाली मित्र (/३८/, ; ३९/) हैं। इंद्र’ वह देवता हैं जिनका अनुग्रह पाने हेतू पुरु उन्हें आहुति देते हैं (/२०/१०) और जिनको वह सोम अर्पित करते हैं (/६४/१०) इंद्र भी पुरु के शत्रुओं का वध करते हैं (/२१/१०), पुरु की रणभूमि में सहायता करते हैं (/१९/) और पुरु के अरियों के क़िलों को नष्ट कर देते हैं (/६३/, /१३०/, /१३१/) यहाँ तक कि वह पुरु से सिर्फ़ अपने लिए पृथक और अकेले  आहुति माँगते हैं तथा बदले में उन्हें मित्रता, सुरक्षा और करुणा का वरदान देते हैं (१०/४८/) यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि बाइबल के देवताओं द्वाराअहल अल-किताबअर्थात यहूदियों को दिया गया वचन! /१०/ में अश्विन’ से प्रार्थना की गयी है कि अन्य चार जनजातियों ( दृहयु, अणु, यदु और तुर्वसु) को त्यागकर वह पुरु के पास जायें।
.                                                                                                                        ..................................  क्रमशः   .................................

Friday 14 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (३)


(भाग-२ से आगे)
एक बात और। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है पूर्वाग्रहों से मुक्त, प्रामणिकता, सार्थक तर्क और वस्तुनिष्ठता। हमें दोनों ध्रुवों पर खड़े कट्टरपंथियों से परहेज  करना पड़ेगा जो मात्र समर्थन के लिए समर्थन या विरोध के लिए विरोध करते हैं। हम एक मूलर या मेकौले के लिए पूरे यूरोपीय साहित्यकारों के प्रति भी  अपने मन में कोई नकारात्मक छवि बना लें तो यह भी उचित नहीं। बात चाहे जो भी हो मूलर और विलियम जोंस के इस योगदान को हम  भुला नहीं सकते कि भारतीय वैदिक ग्रंथों को उन्होंने बड़ी प्रमुखता से विश्व के पटल पर रखा और इसकी विवेचना तथा मीमांसा की आधारभूमि तैयार की। साथ ही, यह भी नहीं  कि हमारे मन की बात हो तो ठीक, अन्यथा ग़लत! यहाँ  मन की बात नहीं बल्कि सही-ग़लत के परीक्षण का तर्क की कसौटी पर खरे होने का सवाल है। सही बातों का स्वीकार और ग़लत बातों का अस्वीकार। उदाहरण के तौर पर जब तर्क की कसौटी पर स्वयं मूलर  के सहकर्मियों गोल्डस्टकर, ह्विटनी और विल्सन ने मूलर को चुनौती देते हुए यह समझा दिया कि ऋग्वेद रचे जाने की उसकी काल गणना ठीक नहीं, तो स्वयं मूलर ने बड़ी ईमानदारी से उनकी बातों को मान  लिया और यहाँ तक कह दिया कि उसका  काल-निर्धारण एक थोथी कल्पना मात्र है और वेदों की ऋचाओं की रचना १२०० ईपु (ईसापूर्व) हुई, या १५०० ईपु हुई, या २००० ईपु हुई, या ३००० ईपु हुई इस तथ्य का उद्घाटन इस संसार के किसी भी प्राणी के वश की बात नहीं। 
मज़े की बात यह है कि मूलर तो अपनी ग़लती मान के चले गए लेकिन उनके अनुयायी उसे अभी तक ढो रहे हैं। मूलतः मूलर का सारा किया-कराया चार ही बातों के चारों ओर केंद्रित था। एक तो आर्य बाहर से आरे वाले पहिए के रथ पर सवार होकर अपने घोड़ों के साथ दक्षिण रूस से पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत पर १५०० ईसापूर्व आक्रमण  किए। अपने रथों को हमलावर आर्यों ने  हिंदूकुश और हिमावत  के पार कैसे कराया, इसकी चर्चा तो उसने नहीं की है, लेकिन  सम्भवतः भारतीय पौराणिक कथाओं का वह वृतांत उसके सामने रहा होगा कि अगस्त्य के दक्षिण भारत जाते समय विंध्य पर्वत ने सर झुकाकर उन्हें जाने की राह दी थी!  दूसरेहड़प्पा के लोग द्रविड़ बोलते थे और उन्हें आर्यों ने खदेड़कर दक्षिण भारत पहुँचा दिया। तीसरे, वह संस्कृत भाषा लेकर यूरोप से आए थे और उसी संस्कृत में उन्होंने सप्त-सिंधु क्षेत्र में  वेद की रचना की। उसने इस बात का भी संकेत नहीं दिया कि अपनी  जिस तथाकथित जन्मभूमि से संस्कृत लायी गयी, उस भूमि में संस्कृत की आज दशा और दिशा क्या है।  जिस सरस्वती नदी का  वर्णन ऋग्वेद में है उसे उसने अफ़ग़ानिस्तान की हेमलैंड नदी बताया। और चौथे, हड़प्पा की संस्कृति को आक्रांता-आर्यों ने  नष्ट कर दिया। इन सब बातों पर हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। इसके लिए हम ऋग्वेद के साहित्य में उन श्लोकों को भी देखेंगे जिसमें सरस्वती नदी का परिचय ऐसी  पवित्र  नदी के रूप में किया गया है जो हिमावत पर्वत से नि:सृत होकर आर्य भूमि को सिंचित करते हुए समुद्र में मिल जाती है और साथ ही, वेदों में वर्णित इस सरस्वती नदी के भौगोलिक वितान का अफ़ग़ानिस्तान की भूमि से किंचित भी ताल-मेल नहीं बैठता।       
      अब हम थोड़ा भारत में पुरातात्विक उत्खनन के इतिहास की भी चर्चा कर लें। सबसे पहली खुदायी १९२१ ईसवी में  आज के  पाकिस्तान के  हड़प्पा क्षेत्र  में दयाराम साहनी द्वारा की गयी। इससे बहुत पहले क़रीब सातवीं शताब्दी में पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) में जब ईटें बनाने के लिए लोगों ने मिट्टी की खुदायी की तो उन्हें मिट्टी के अंदर ही दबे साबुत ईंट मिले। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। लोगों ने इसे ईश्वर का चमत्कार माना और उन ईटों का उपयोग घर बनाने में किया था। बात १८२७ की है। ब्रिटिश आर्मी के एक भगोड़े सैनिक थे चार्ल्स मैसेन। उनका शौक़ था ख़ूब भ्रमण करना और पुराने सिक्कों या बहुत पुरानी चीज़ों का संग्रह करना। वह जगह-जगह मिट्टी को खोदकर उसके अंदर से कोई रोचक चीज़, सिक्के या पुरानी वस्तु मिल जाय तो उसे संग्रहित कर लेते थे। कहते हैं कि इस भगोड़े सैनिक ने १८४२ तक वापस इंग्लैंड पहुँचने तक ४७००० पुराने सिक्के जमा कर लिए थे। अपनी इसी रुचि के क्रम में उन्होंने हड़प्पा और उसके आस-पास के कई जगहों की यात्रा की थी, जब वे आगरा कैंट से अपने एक अन्य भगोड़े मित्र के साथ भागे थे। मोहनजोदड़ो से क़रीब १०० मील उत्तर पश्चिम में कलात नामक एक जगह के टीले का भी उन्होंने वर्णन किया है जो हड़प्पा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। कलात में रहने वाले ब्रहुईलोगों का भी उल्लेख उन्होंने किया है जो द्रविण  भाषा बोलते थे। मोहनजोदड़ो के आस-पास भी ब्रहुई लोगों के रहने  का प्रमाण मिलता है। अपनी पुस्तक ‘Narrative of various journeys in Bolochistan, Afganistan and Punjab’  में मैसन ने इन सबका विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने ब्रहुई लोगों की एक लोक-कथा की भी चर्चा अपनी पुस्तक में की है। कुल मिलाकर, चार्ल्स मैसन पहले यूरोपीय थे जिन्होंने  हड़प्पा की जानकारी सबसे पहले दी। बंगाल इंजीनियर ग्रुप में इंजीनियर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने १८५६ में इस स्थल का निरीक्षण किया था। किंवदंती तो यह भी है कि कराची से लाहौर के मध्य रेल लाइन के निर्माण में इन स्थलों से मिले ईटों का भी प्रयोग हुआ था। १८६१ में अलेक्ज़ेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना तत्कालीन वायसराय जॉन केनिंग की सहायता से  हुई। अपने शुरुआती दिनों में यह मूलतः एक सर्वेक्षण संस्थान  था।  कनिंघम ने गया से लेकर अफगनिस्तान की सीमा तक के क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया। पुराने स्मारकों की सूची बनायी गयी। उनकी देखरेख संबंधी नीतियों के निर्माण की दिशा में पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग अपनी भूमिका के क्रम में कई उतार-चढ़ाव देखते रहा। लॉर्ड कर्ज़न के वायसराय बनते ही इस विभाग के दिन बहुर  गए। कर्ज़न ने इस विभाग के लिए महानिदेशक पद का सृजन किया और १९०१ में जॉन मार्शल को इस पद पर नियुक्त किया। १९०२ में मार्शल ने पदभार ग्रहण किया। मार्शल के ही मार्गदर्शन में दया राम साहनी ने   १९२१ में हड़प्पा की  तथा  रखाल दास बनर्जी ने १९२२ में मोहनजोदड़ो (सिंधी भाषा में मुइन जे दाडोअर्थात मुर्दों का टीला’) की खुदाई की।
        उत्खनन में प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक पड़ताल के बाद यह प्रकाश में आया कि  सिंधु-घाटी की सभ्यताके नाम से प्रसिद्ध इस सभ्यता का विनाश १९०० ईसा पूर्व  ही हो गया था। फिर तो १५०० ईसापूर्व आर्यों के भारत में घुसकर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के लोगों को पराजित कर वहाँ से भगाकर अपना डेरा डालने वाली कहानी गढ़नेवाले इतिहासकारों के मुँह पर ताला लग गया। आर्य-अतिक्रमण सिद्धांत को आधुनिक विज्ञान ने  सबसे बड़ा आघात पहुँचाया। तब इन सिद्धांतकारों ने  १५०० ईसापूर्व को संशोधित कर १५००-२००० ईसापूर्व कहा। अब किसी की उम्र का अन्दाज़ करने में ५-१० साल का अंतर तो पच सकता है, लेकिन ५०० साल के अंतर के अन्दाज़ को तो सिर्फ़ गप्पबाज़ी ही कहा जा सकता है। इन वैज्ञानिक तथ्यों के आ जाने के बाद अब आर्य आक्रमण सिद्धांतअर्थात ‘AIT’ (ARYA INVASION THEORY)’ को आर्य अप्रवासन सिद्धांतअर्थात ‘AMT (Arya Migration Theory) कहा जाने लगा। कुछ लोग तो इसे अब ‘ATT (Arya Tourism Theory)’ अर्थात आर्य-पर्यटन  सिद्धांतभी कहने लगे हैं। हम खुदाई से प्राप्त सबूतों पर बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे।
अभी हम इतना ही कहकर इस प्रकरण पर आगे लौटकर आने तक विराम लेना चाहते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यताके क्षेत्रों में जो भी खुदायी हुई वह सारी खुदाई भारत को आज़ादी मिलने (१९४७) से पहले आज के पाकिस्तान वाले ही क्षेत्र में हुई थी। उदाहरण के तौर पर

उत्खनन-स्थल
उत्खनन वैज्ञानिक
उत्खनन-वर्ष
स्थान
नदी
हड़प्पा
दयाराम साहनी
१९२१
पंजाब(पाकिस्तान)
रावी
मोहनजोदेड़ो
रखालदास बनर्जी
१९२२
लरकाना ज़िला, सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
सुतकाजेंदर
आर एल स्टीन
१९२७
बलूचिस्तान(पाकिस्तान)
दस्क
चांहुदारो
एस गोपाल मजूमदार
१९३१
सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
       हमने ऊपर के उदाहरण से केवल यह समझाना  चाहा है कि आज़ादी मिलने से पहले तक खुदाई वाले हड़प्पा-स्थल का कोई भी भाग भारत में नहीं था और सारे-के सारे स्थल पाकिस्तान में ही थे। सच कहें तो आज़ादी मिलने के बाद भी बहुत दिनों तक तो हमारे उत्खनन-वैज्ञानिक ख़ाली ही बैठे रहे। उलटे, पाकिस्तान में पड़ने वाले स्थलों से भी उनका सम्पर्क भंग हो गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद थोड़ी देर ही सही, जब भारतीय क्षेत्रों में खुदाई का काम शुरू हुआ और हड़प्पा-संस्कृति के स्थल का विस्तार एक-एक कर के हरियाणा से राजस्थान होते हुए गुजरात तक मिलता चला गया और साथ-साथ वैज्ञानिक तकनीक की प्रगति होने से भी रहस्यों के परत एक-एक कर के खुलते चले गए तब तो सारा पासा ही उलटता-सा  प्रतीत होने लगा। हड़प्पा संस्कृति के भूगोल का मात्र एक तिहायी ही पाकिस्तान के हिस्से आया। बाक़ी दो तिहायी भारत में दृष्टावती और  सरस्वती   नदी  के बीच सरस्वती के बेसिन पर पसरा हुआ था। कुल २००० उत्खनन स्थलों में १५०० स्थल सरस्वती के बेसिन पर पाए गए।
हरियाणा के राखीगढ़ी की खुदायी ने तो मानों सारे प्रश्नों के सरल हल ही ढूँढ दिए हों। आपको बताते चलें कि  इस खुदायी का कुल क्षेत्रफल ५५० हेक्टेयर है जो उस समय तक के सबसे बड़े उत्खनन-क्षेत्र मोहन-जो-दड़ो के क्षेत्रफल का दुगुना है। राखीगढ़ी का उत्खनन और अध्ययन निरा इतिहासकारों की कथावाचन शैली पर आधारित नहीं था, बल्कि इसके कार्यान्वयन, मिली सामग्रियों के वर्गीकरण और उनके विश्लेषण में आधुनिक विज्ञान के समस्त तथ्यों का समावेश किया गया। इसमें सर्वेयिंग की अत्याधुनिक तकनीक जीपीआर (Ground Penetration Radar) प्रणालीका प्रयोग किया गया।  भौगोलिक आँकड़े, भू-गर्भीय और भू-भौतिक सर्वेक्षण के अर्वाचीनतम तकनीक, उपग्रह से लिए गए चित्रों और अन्य भूगर्भीय परीक्षणों से ज़मीन के अंदर के जल प्रवाह का अध्ययन जो नदियों के इतिहास का उद्घाटन करते हैं, जल-विज्ञान (हाईड्रोलौजी), जीवाश्मों का वैज्ञानिक विश्लेषण, मानव-जाति का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों (ऐन्थ्रॉपॉलॉजिस्ट) के द्वारा खुदाई में मिली सामग्रियों का वैज्ञानिक विश्लेषणखुदाई में मिले नरकंकालों का जेनेटिक विश्लेषण, संसार के अन्य भुभागों में हुए उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों से तुलनात्मक अध्ययन, खुदाई के भिन्न-भिन्न स्तरों की वैज्ञानिक काल-गणना और उन सभी वैज्ञानिक तत्वों का इस पुरातात्विक सर्वेक्षण में समावेश करने के बाद ही उचित नतीजे पर पहुँचने की कवायद की गयी है। उदाहरण के तौर पर राखीगढ़ी में खुदाई की गहरायी अब तक की सबसे अधिक २५ मीटर है जिसमें प्राप्त टीलों के भिन्न-भिन्न काल खंड में परत-दर-परत बैठे सतहों (डिपोज़िशन) की न केवल उम्र निकाली गयी, बल्कि उस परत के समकालीन सांस्कृतिक और भौतिक तत्वों का सम्पूर्ण अध्ययन भी किया गया। सबसे नीचे की परतें ५५०० ईसापूर्व की पायी गयी। बीच की परतें २६०० ईसापूर्व पायी गयी और सबसे उपर  की परतें १९०० ईसापूर्वकी पायी गयी, जिसके भिन्न-भिन्न आयामों के वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद यह प्रकाश में आया कि १९०० ईसापूर्व के बाद उनका नागरीय जीवन समाप्त हो गया। भिन्न-भिन्न परतों में दबे नर-कंकाल अपने-अपने काल में काल-कवलित होने के कारणों, महामारी और मौसम के प्रकोपकी भी गाथा कहते हैं। सघन वैज्ञानिक विश्लेषणों के बाद यह पाया गया कि इन कंकालों की हड्डियों के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की चोट या तेज़ धारदार हथियार के प्रहार से किसी भी प्रकार के काटने या टूटने के चिह्न नहीं थे।  मनुष्य जाति के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने इन कंकालों के आँकड़े इकट्ठे कर उनकी मुखाकृति का भी विकास कर लिया है जो आश्चर्यजनक  तौर पर आज के उस क्षेत्र के निवासियों से तनिक भी अलग नहीं है। साथ ही अतीत के टीले में दबे अन्य सांस्कृतिक तन्तुओं  को बटोरकर आज के जीवन के उन तन्तुओं से तुलना कर के यह प्रमाणित किया जा चुका है  कि काल-क्रम के सांस्कृतिक  प्रवाह की निरंतरता में कोई अवरोध या टूटन कहीं नहीं दिखता। जीवन-यापन की शैली की वही धारा आज भी उसी प्रकार बहे जा रही है। ऐसा कहीं भी कोई संकेत नहीं मिलता कि बीच में कोई बाहरी  आक्रमण आकर उस जीवन धारा की निरंतरता में कोई बड़ा शून्य डाल गया  हो। और तो और, खुदायी में मिले कंकालों के जेनेटिक परीक्षण  और आज के उस क्षेत्र के निवासियों से उसकी तुलना ने यह भी साबित कर दिया है कि दोनों के नमूनों में ७५ प्रतिशत समानता पायी गयी है अर्थात दोनों एक ही पूर्वज की संतति हैं।  हम आगे इन सभी तथ्यों को और टटोलेंगे लेकिन पहले वापस ऋग्वेद पर आते हैं, क्योंकि हमारी मौलिक चर्चा ही इस बात को लेकर शुरू हुई है कि ऋग्वेद और इसके परवर्ती वैदिक ग्रंथों की रचना कब हुई। निस्सन्देह, इसके निर्धारण में ऊपर की चर्चाएँ भी सार्थक भूमिका निभाएँगी।
वेद के गहन अध्येताओं ने वेद की भाषा-रचना, व्याकरण, शब्द-संरचना, छंद, अलंकार, उनमें वर्णित देवी-देवताओं के नाम, जगहों के नाम, ऋषियों के नाम, वंशों के नाम, राजाओं के नाम, भौगोलिक विशेषताओं, पात्रों के नाम आदि का न केवल विशद  विश्लेषण किया है, बल्कि उपलब्ध अन्य प्राचीन सभ्यताओं की साहित्य सामग्रियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। उनके इस अध्ययन ने भी इस विषय पर बहुत कुछ दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। इसी कड़ी में हम  डॉक्टर श्रीकांत तलगेरी की चर्चा करेंगे जिन्होंने अपने मौलिक शोध से न केवल आर्य-आक्रमण सिद्धांतका बहुत पांडित्यपूर्ण खंडन  किया है, उलटे यह साबित कर दिया है कि आर्य इसी मिट्टी में जन्मे थे और वह यहाँ से बाहर जाकर अपने साहित्य और दर्शन का तत्व बाहरी मिट्टी में छोड़ आए थे। इस विषय पर उन्होंने दो साल पहले भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) में अपना एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था जिसे  २० जुलाई २०२० को परिमार्जित और पुनर्संशोधित कर  प्रस्तुत किया है। यह मूलतः अंग्रेज़ी में है और अबतक अप्रकाशित है। इससे हम अपने पाठकों को परिचित कराना अपना पुनीत  कर्तव्य समझते हैं। इसके हिंदी अनुवाद और पाठकों के पास ले जाने की उन्होंने सहर्ष अनुमति भी दी है। इसके लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। लेकिन, उनके पास चलने से पहले हम पाठकों को एक प्रश्न छोड़ जाते हैं कि क्या ऐसा दृष्टांत कहीं इतिहास में उपलब्ध है कि आक्रांताओं ने पराजित देश के नदियों, पहाड़ों या जंगलों के भी  नाम बदल दिये हों, या आगे भी ऐसा कभी सम्भव हो! ये नदी, पहाड़, जंगल, झरने और  सरोवर ही  कहीं वे असली जीवित पात्र तो नहीं, जो अनंत काल तक अपने असली पूर्वजों के द्वारा रखे गए अपनी संस्कृति में सुवासित अपने मूल नाम को ढोते रहते हैं! सियासतें बदल जाती हैं, रियासतों के नाम बदल दिए जाते हैं, राजाओं के नाम बदलते हैं, शहरों, क़स्बों और नगरों के नाम बदल जाते हैं, कैलेंडर की तिथियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन नदी वही, पहाड़ वही, जंगल वही! तो ऋग्वेद में वर्णित नदियों पहाड़ों, का नामकरण संस्कार भी क्या उन हमलावर आर्यों ने ही किए!  
                                                                क्रमशः …………

Friday 7 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (२)


(भाग-१ से आगे)

मूलर  के पिता विलहेम मूलर स्वयं एक बड़े कवि थे। चार वर्ष की अल्पायु  में ही मूलर के  पिता, विलहेम मूलर , की मृत्यु हो गयी थी। बाद में अध्ययन काल के दौरान मूलर ने ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि भाषाओं में महारत हासिल कर ली। १८४६ में मूलर इंग्लैंड पहुँच गए थे और उन्होंने ऋग्वेद का अनुवाद भी शुरू कर दिया था। १८४८ में आक्स्फोर्ड प्रेस ने इसका मुद्रण भी प्रारम्भ कर दिया था। १८५० में ही वह आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में यूरोपीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए थे। उनकी इच्छा  तो संस्कृत विभाग के आचार्य बनने की थीकिंतु  विदेशी होने के कारण उनका चयन नहीं हो पाया था। इस बात का उन्हें गहरा मलाल भी था।  हालाँकिबाद में उनकी नियुक्ति हो गयी थी। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। हम  मूलर और मेकौले की भेंट तथा मूलर के व्यक्तित्व से जुड़े कुछ पहलुओं की जानकारी के लिए विकिपीडिया’  में इस प्रकरण के उद्धृतांश से  थोड़ा परिचित हो लेते हैं  : -

इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया।  इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक लैंग सायनेमें स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है ! उसने दुखित मन से लिखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्‌पटु व्यक्ति है।  मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्‌देश्यों की भी पूर्ति होती रहे  और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्‌देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्‌देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्‌मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्‌देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात्‌ मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है !
हाँ, तो प्रोफ़ेसर विल्सन की सिफ़ारिश पर मैक्समूलर को भारतीय ग्रंथों के अनुवाद और उनके अर्थ की अपेक्षित व्याख्या हेतु किराए पर नियोजित किया गया। किराया था प्रति पेज अनुवाद ४ पाउंड।  अब बातों को और विस्तार देने के बजाय हम यह बता दें कि १८५३ में आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में प्रति  वर्ष की तनख़्वाह पुरुष प्रोफ़ेसरों की ९० पाउंड और महिला प्रोफ़ेसरों की ६० पाउंड हुआ करती थी। उस ज़माने में मूलर को एक अत्यंत महँगे पैकेज पर इस कार्य के लिए लिया गया था। मूलर ने दो कारणों से इस कार्य में अपनी पूरी जान लगा दी। एक तो अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का इतना बढ़िया मौक़ा वह गँवा नहीं सकता था और दूसरे,  यह कार्य पूरी तरह से उसकी रुचि, प्रतिभा (संस्कृत और भारतीय ग्रंथों का ज्ञान) और मनोविज्ञान (हिंदू धर्म को समूल नष्ट कर ईसाइयत की भारत में स्थापना) के साँचें में फ़िट बैठता था। मैक्समूलर ने अपने को सौंपे गए इस अति महत्वपूर्ण दायित्व के साथ भरपूर न्याय किया।
  मूलर ने आर्य आक्रमण सिद्धांतका प्रतिपादन किया। उसके सामने बाइबल की यह पंक्ति थी कि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण ईसा से ४००० वर्ष पूर्व किया था। इसलिए किसी क़ीमत में वह ऋग्वेद को ४००० वर्ष ईसा पूर्व या उससे पहले की रचना मान नहीं सकता था। उसने सूत्र-ग्रंथों के काल को बुद्ध के काल के क़रीब  ६०० ईसापूर्व का माना क्योंकि बुद्ध से सम्बंधित आलेखों के प्रमाण तब मौजूद थे। पीछे की ओर बढ़ते हुए उसने अरण्यक, ब्राह्मण-ग्रंथों और ऋग्वेद  की रचना के काल की गणना के लिए दो-दो सौ वर्षों के अंतराल का अन्दाज़ लेते हुए वेद का रचना काल १२०० ईपु (ईसा पूर्व) से १००० ईपु माना। ऋग्वेद की पंक्ति कृणवतोविश्वमार्यमअर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्यबनाओमें आर्यका अर्थ उसने एक सात्विक और सद्गुणी मनुष्य’’ के बजाय  एक रेसअर्थात प्रजाति के रूप में प्रतिपादित किया और आर्यों का मूल स्थान यूरोप बताया। विलियम जोंस के प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरीके साथ साम्य बिठाते हुए उसने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि  दक्षिण  रूस में अपनी मातृभूमि में रहने वाले पतली, खड़ी और नुकीली नाक वाले आर्यरेस के गोरे युरोपीय लोग पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत में घोड़ों और रथ पर सवार होकर १५०० ईपु घुसे। उन्होंने वहाँ के मूल निवासी चपटी नाक वाले द्रविड़रेस के काले लोगों को युद्ध में हराकर खदेड़ दिया। द्रविड़ रेस  के काले दासया दस्युमूल भारतीयों ने  भागकर विंध्य के पार दक्षिण भारत में पनाह ले ली और गोरी-चिट्टी खड़ी नाक वाली विजेता आर्य प्रजाति धीरे-धीरे समूचे उत्तर भारत में पसरकर राज करने लगी। यही आर्य जाति अपने साथ यूरोप से घोड़े और रथ के साथ-साथ  संस्कृत भाषा लेकर आयी थी और उसी भाषा में उन्होंने ऋग्वेद और अन्य वेदों तथा पौराणिक ग्रंथों की रचना की। इस सिद्धांत द्वारा वह यह साबित करना चाहता था कि भारत में शासन करना यूरोपियों (अंग्रेज़ों) का नैसर्गिक अधिकार है। उसने यह काम इतनी सफ़ाई से किया कि भारतीय लोग इस तथ्य से भी अपनी आँखें मूँदे पाए गए कि  जिस वेद की महिमा का खंडन करने  के लिए उसे किराए पर लिया गया था उसे उसने स्वयं अपनी ही रेस आर्यकी रचना साबित कर दिया और समूचे भारत की पाठ्यपुस्तकें अपनी पीढ़ियों को यहीं पढ़ा-पढ़ाकर उन्हें इतिहासबोध कराती रही कि उत्तर भारतीय बाहर से आए  लुटेरे आर्यों की संतान हैं और दक्षिण भारतीय पराजित और खदेड़े गए द्रविड़ रेस की संतान हैं। मूलर अपना काम कर १९०० ईसवी में इस संसार से विदा हो गए।
  मूलर की मृत्यु के बाद  आनेवाले बीस-बीस  वर्षों के अंतर पर  विज्ञान में दो  महत्वपूर्ण प्रगतियाँ हुई। पहली प्रगति पुरातात्विक विज्ञान के क्षेत्र में हुई कि बीसवीं  शताब्दी के दूसरे दशक अर्थात १९२० से भारत में पुरातात्विक उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ।  और दूसरी प्रगति हुई अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में चौथे दशक अर्थात १९४० के बाद, जब विलर्ड लिबी ने कार्बन के एक समस्थानिक परमाणु कार्बन-१४की विद्यमान मात्रा के आधार पर किसी जैव वस्तु की आयु निर्धारित करने की तकनीक कार्बन-डेटिंगकी खोज की जिसके लिए उन्हें १९६० में रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। कहने का अर्थ है कि उत्खनन पर आधारित पुरातत्व विज्ञान के विश्लेषणों  और कार्बन डेटिंग की तकनीक के बिना ही आर्यों के आक्रमण  और ऋग्वेद की रचना का काल निकाल लिया गया जो आज तक पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जा रहा है। और, यहीं पर एक बात और जोड़ दें कि इन सामंती विचारकों पर विज्ञान का एक और घातक प्रहार हुआ। विज्ञान ने रेसजैसी अवधारणा को सिरे से ख़ारिज  कर दिया जिसे  बाद   में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने संकल्प में शामिल कर लिया। ऐसे आगे चलकर हम इस प्रसंग पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
                                                 ........................क्रमशः ....

Monday 3 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (१)





यह एक प्रचलित लोकोक्ति है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’। अर्थात,  कोई भी साहित्य अपने समाज के प्रतिबिम्ब को हमारे सामने रखता है। साहित्यकार जिस समाज में जीता है, उसी की मिट्टी से अपनी रचना की उर्वरा शक्ति को प्राप्त करता है । उसी समाज के वे समस्त उपादान जो रचनाकार के रचनात्मक वातवारण  का निर्माण करते हैं, रिस-रिस कर उसकी रचनाओं की सृजन-धारा बन बहते हैं। उसकी रचनाओं में समाज की समकालीन हलचल के शोर सुनायी देते हैं। समाज की संरचना, समाज का अर्थशास्त्र, समाज की राजनीति, समाज का संस्कार, समाज की सभ्यता, मौसम, आबोहवा, नदी-नाला, जंगल-पहाड़, बोली-चाली, प्रेम-मुहब्बत, मार-पीट, गाली-गलौज, खेल-कूद, नाच-गान, शादी-बियाह, रहन-सहन, खेती-बाड़ी, खान-पान, गहना-गुरिया, चिरई-चिरगुन, माल-जाल,  कपड़ा-लत्ता, पूजा-पाठ, रीति-कुरीति, दर्शन-आध्यात्म, चिंतन-शैली, संस्कृति सब की छाप उस युग में उस समाज की धरती पर रचे जाने वाले  साहित्य पर स्पष्ट रूप से पड़ती है। अतः किसी  काल के समाज को भली-भाँति समझने में  हमें उस काल में रचित उस समाज के साहित्य से बहुत सहायता मिलती है। 
              इतिहास में तो ऐसे साहित्य, उत्कीर्ण आलेख, खुदाई में मिले अभिलेख आदि का अत्यंत महत्व रहा है।  बुद्ध काल या मौर्यकाल में मिले आलेख हमें उस काल के बारे में बहुत कुछ समझा जाते हैं। सच कहें तो विशेष रूप से हमारे देश भारतवर्ष में हमारे पूर्वज अपने द्वारा रचित साहित्य में ही हमें इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आद्यात्म, दर्शन, ज्ञान सब कुछ समझा गए। बीच-बीच में बाहर से आए यात्री भले अपने संस्मरणों में कुछ इतिहास की झलकी अलग से छोड़ गए हों तो अलग बात है। हमारे पूर्वजों के द्वारा दी गयी  साहित्य की अपार थाती  हमारे पास श्रुति, स्मृति, वेद, उपनिषद, सूत्र-ग्रंथ, ब्राह्मण, अरण्यक, रामायण, महाभारत, पुराण, त्रिपिटक, बौद्ध और जैन ग्रंथ, संस्कृत  नाटक आदि के रूप में हमारे पास संग्रहित हैं। इतिहास ही इस बात का भी गवाह है  कि पुस्तकों  के  एक विशाल भंडार को नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में शैतान आततायियों ने आग लगाकर स्वाहा कर दिया। कहते हैं कि पुस्तकों का इतना विशाल भंडार था कि तीन महीनों तक पुस्तकें जलती रहीं।
           ऋग्वेद हमारे देश ही नहीं अपितु समूचे विश्व साहित्य की सबसे प्राचीन कृतियों में एक है और अपने अंदर पुरातनकाल के महान इतिहास को समाहित किए हुए है। समस्त वैदिक साहित्य के अध्ययन से न केवल मानव-सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की कथा-धारा के प्रवाह की दशा और दिशा का ज्ञान मिलता है, बल्कि समकालीन भूगोल और इतिहास के आपसी ताने-बाने का भी एक सम्यक् चित्र मिलता है। ऋग्वेद की रचना  के काल के निर्धारण में  जब तक विज्ञान ने अपनी सहायता  उपलब्ध नहीं करायी तबतक इतिहासकार अपनी अटकलबाजियों के घटाटोप अंधकार में भटकते रहे।
             पश्चिमी विद्वानों ने भारत पर बाहर से आर्यों के आक्रमण, अतिक्रमण और भारत में उनके बसने की घटना से ऋग्वेद की रचना को जोड़ा। भारत के देशी इतिहासकारों में दुर्भाग्य से वस्तुनिष्ठ शोध और अनुसंधान की उन्नत परम्परा का विकास अपेक्षित स्तर तक नहीं हो पाया। परिणामतः उन्हें पश्चिमी इतिहासकारों पर ही प्रारम्भ में ज़्यादा निर्भर रहना पड़ा। आगे चलकर इतिहासकारों में भी दक्षिणपंथी और वामपंथी दो खेमे बन गए और दोनों खेमें वैज्ञानिक शोध की परम्परा से भटककर अपनी राजनीति के फेर में ज़्यादा पड़  गए। इससे हमारी पीढ़ियाँ अपने इतिहास के सही स्वरूप को समझने में पिछड़ गयी।  किंतु, सौभाग्य से सूचना-क्रांति की नयी पीढ़ी के हाथ में वैज्ञानिक सोच का एक अमोध शस्त्र है और उसने अपने शास्त्रों की पड़ताल एक तर्कसंगत दृष्टिकोण से नए सिरे से शुरू कर दी  है।
          हम पहले थोड़ा इतिहास को उकटेंगे। फिर सभी पाठकों के साथ मिलकर इस पर एक तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टि डालने की कोशिश करेंगे कि  किस तरह हमारा वैदिक साहित्य हममें एक इतिहासबोध जगाता है।  ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन देश में हो गया था। १७८४ का ज़माना था। विलियम जोंस कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनकर आए थे। वारेन हेस्टिंग्स  'गवर्नर-जनरल ऑफ़ बंगाल' (१८३३ के चार्टर-ऐक्ट तक इस पद का यहीं नाम था) थे। दोनों ने मिलकर कलकत्ता में ‘बंगाल एशियाटिक सॉसायटी’ की स्थापना की। गवर्नर-जनरल  साहब संरक्षक और जज साहब अध्यक्ष बने। सॉसायटी का उद्देश्य भारतीय समाज, संस्कृति और यहाँ के धर्म का सम्यक् अध्ययन कर एक ओर अपने क़ानूनों में उनकी अपेक्षाओं का समावेश करना था तो दूसरी ओर अपनी शासकीय नीति-निर्धारण  में भी उन तत्वों से समुचित फ़ायदा उठाना था। 
         विलियम जोंस  ने संस्कृत भाषा और भारतीय ग्रंथों का विशद अध्ययन किया। वह सोसायटी के वार्षिक समारोह में हर साल अपना अध्यक्षीय भाषण देते थे और उसमें सोसायटी द्वारा किए गए शोध कार्यों पर प्रकाश डालते थे। १७८६ के भाषण में उन्होंने भाषा-विज्ञान  के बारे में अपने एक सिद्धांत का ख़ुलासा किया, जिसे ‘प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरी’ कहा जाता है। इसमें उन्होंने भाषाओं की उत्पति, परिवार और पारस्परिक सम्बन्धों का बड़ी गहरायी से विश्लेषण किया। अपने गहन अनुसंधान के बाद उन्होंने ग्रीक, लैटिन, गोथिक और अन्य यूरोपीय भाषाओं के परिवार का ही संस्कृत  को भी एक सदस्य बताया और इस बात की ओर इशारा किया कि संस्कृत भारत में जन्मी भाषा नहीं है। १७९३ में उनका अंतिम अध्यक्षीय भाषण हुआ और महज़ ४८ साल की उम्र में उनकी  १७९४ में मृत्यु हो गयी। अपने दस वर्षों के भारत प्रवास  के दौरान विलियम जोंस ने भारतीय धर्म ग्रंथों यथा वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, पुराण सभी का संग्रह कर लिया था और उनका पूरा शोधपरक  अध्ययन भी  किया। इन ग्रंथों के अंग्रेज़ी अनुवाद की भी पहल उन्होंने  की।
              आगे चलकर  १८३० में अपने भारत विरोधी रवैए के लिए मशहूर मेकौले साहब गवर्नर-जनरल की कौंसिल में 'लॉ-मेंबर'  बनकर आए। उनका कार्यक्रम भारत की शिक्षा और संस्कृति को पूरी तरह ध्वस्त कर इस देश का पूर्ण ईसाईकरण करना था। यह कोई आरोप-प्रत्यारोप की बात नहीं है क्योंकि इस बात का उद्घाटन स्वयं उन्होंने ही अपने पत्रों में किया है। उन्हें वेद की महिमा और इसके प्रभाव का आभास था। इसलिए फ़ौरी तौर पर इससे वह जल्दी कोई छेड़छाड़ करना नहीं चाहते थे। वह अंग्रेज़ी माध्यम और अपनी  शिक्षा नीति के क्रूर दंशों द्वारा इसे धीरे-धीरे डसना चाहते थे। वह वेद का अनुवाद अपनी योजना के आलोक  में चाहते थे। लेकिन अपना  यह मिशन पूरा होने के पहले ही  वह विलायत लौट गए। 
             उनकी आस अभी भी  बुझी नहीं थी। उन्होंने ईस्ट इंडिया  कम्पनी से अपने इस मिशन के लिए कुछ पैसे जुगाड़े और आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफ़ेसर हॉरिस विल्सन से सम्पर्क साधा। उन्होंने आग्रह किया कि यदि प्रोफ़ेसर विल्सन  जैसा स्थापित विद्वान इस विषय पर उनके विचारों को लिखेगा तो उसे स्वीकृति और वैधता मिलेगी। उनका विचार था कि  वेदों के बारे में ऐसा कुछ चित्रित किया जाय कि यह खानाबदोश, बर्बर और जंगली जनजातियों द्वारा  लिखा गया एक पूजा-पाठ या ढोंग-प्रपंच  के मिथक-गल्प से बढ़कर कुछ ख़ास ज़्यादा नहीं है। प्रोफ़ेसर विल्सन ने इससे कन्नी काटते हुए यह कह दिया कि अगले ही सत्र में वह सेवा-निवृत होने वाले हैं। उन्होंने अपनी बला टालने के लिए अपने विभाग के एक नए तेजस्वी और युवा सदस्य का नाम आगे बढ़ा  दिया। इस युवा प्रोफ़ेसर का नाम  ‘मैक्स मूलर’ था, जो मेकौले के लिए  वेद की महिमा से ‘मोक्ष’ और ईसायीयत के बीजारोपण  का  ‘मूल’ था।
               अब थोड़ा मैक्स  मूलर के बारे में जान लें। मैक्स मूलर जर्मन मूल के एक कट्टरवादी ईसाई थे। वह जाने माने भाषविद और संस्कृत भाषा के प्रकांड अध्येता थे। भाषा-शास्त्र  को वह ‘भौतिक विज्ञान’ मानते थे। संस्कृत जाने बिना भाषा-शास्त्र का अध्ययन करना उनकी निगाह में गणित जाने बग़ैर ज्योतिष शास्त्र के अखाड़े में प्रवेश पाने के समान था। जब १८७७ में थौमस अल्वा एडिसन ने ग्रामोफ़ोन का आविष्कार किया तो उन्होंने मैक्स मूलर से आग्रह किया कि  इसमें रेकर्ड  करने के लिए कुछ विशेष शब्दों का चयन करें जो इस मौक़े को एक ख़ास गरिमा प्रदान कर सके। मूलर ने जो सबसे पहले शब्द रेकर्ड किए वे ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के आरंभिक  मंत्र थे, “ॐ अग्निम इले पुरोहितम”।
                                                                                                                ……क्रमशः……..

Sunday 26 July 2020

डिमेंशिया

याद करो !
वह रात बरसाती अंधेरी,
खाँसते-खाँसते और मुझे संभालते,
कितनी विचलित थी, तुम।
कुछ कहती तो लौट जाते शब्द,
अनसुने, अबूझ और खिसीयाए-से।

तैरती-सी शून्य में, जलती बुझती,
तुम्हारी आँखें, ढीबरी-सी ।
भकभकाती पपनियों के नीचे
बुदबुदा रहे थे सूखे होठ,
डिमेंशिया!!!

यही तो बताया था डॉक्टर ने तुझे,
मेरी बीमारी के बारे में।
तुम्हें निर्निमेष निहारती
मेरी पलकों की झील में डूब
कहीं  लुप्त हो गयी थी
मेरी स्मरण-शक्ति!

फिर!
तिनके-तिनके बटोरकर
मेरी भूली-बिसरी यादों को,
और बांधे अपने नयनों के कोर में,
निहारती रही थी तुम,
अग्नि-स्नान मेरा, अपलक।

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

कितनी रातें, गुज़ारी तबसे, निहारता !
घूरती शून्य को, आँखें तुम्हारी, निस्तेज!
बैठा मुँडेर पर मैं, कौए बैठते थे जहाँ,
और उन्हें दौड़ा-दौड़ा  कर उड़ता मैं,
कहीं जूठे न कर दे, सूखते गेहूँ,
तुम्हारी छठी मैया के परसाद  के!


साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

पीट-पीट कर पानी पड़ा और
बैठा रहा मैं मुँडेर पर।
जानती हो!
अब तो मैं भीज भी नहीं सकता ।
बहने दो तेज़ हवाओं को भी,
हमारी यादों की,
अब जब भींग नहीं सकता
तो,  सूख भी नहीं सकता!

अबकी जाड़े तो निहारता रहा
नयन-भर तुम्हें
अलाव तापते।
बटोर रही थी
मेरी यादों की ऊष्मा तुम,
बाँध रही थी उन्हें
अपने आँचल के कोर।
पलकों में बांधे आँखों के लोर!

मैं भी समा गया
लपलपाती  लौ में,
लपटों की जिह्वा से
भरने जिजीविषा तुममें।
अंगरता  रहा आगी में,
तोपता तुम्हारा चेहरा
अपने एहसास के ताप से।
अब जल भी तो नहीं सकता मैं!

सोचा, बजाय देखने के
सैलाब आँसुओं का,
पीस जाऊँ उस जाँते में ख़ुद,
निकाल रही थी जब आटा तुम!
किंतु, अब काटा भी तो नहीं जा सकता मैं!
उफ़्फ़!

साफ़-साफ़ झलक रहा है,
सबकुछ, शफ़्फ़ाक!

फिर!
क्या करूँ?
अब तो  बंद हो गयी है,
तुम्हारी ज़बरदस्ती भी
घोंटाने की मुझे रोज़-रोज़
दवाइयाँ, डिमेंशिया की!!!


Friday 26 June 2020

वचनामृत

क्यों न उलझूँ
 बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
फटकारती पिताजी को।
और बुदबुदाने लगता है
मेरा बचपन,
धीरे से मेरे कानों में।
"ठीक ही तो कह रही है!
आखिर कितना कुछ
सह रही है।
पल पल ढह रही है
रह-रह, बह रही है।"
सुस्ताता बचपन
उसके आँचल में
सहसा सजीव हो उठता है।
और बुझाने को प्यास
उन यादों की।
मैं  चखने लगता हूँ
तुम्हारे  वचनामृत को !

Monday 15 June 2020

क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम!



नियति ने इतना लाड़ दिया प्यार अपार, परिवार दिया। विधुर पिता ने भी तुम पर अपना जीवन निसार किया। माँ भी रह रह कर हरदम किस्मत में तेरी मुस्काई। सफलता की राहों में सरपट तृण भी तनिक न आड़े आयी। फिर भी न जाने कायर-से किस आहट से सिहर गए। तिनके-तिनके-से अंदर से टूट-टूट कर बिखर गए। पता है क्यों ! जीर्ण-शीर्ण और जर्जर-से तेरे सपने थे। नहीं किसी के गलबहियां तुम नहीं किसी के अपने थे। बस खुद को ही खोद खोद कर खुद को यूँ गँवाते थे। मृग-मरीचिका की माया में कोई अपना नहीं बनाते थे। तुम भी सीख लो दुनियावालों नहीं केवल तुम अपने हो। रिश्ते-नाते, अपने-दूजे प्राण-प्राण के सपने हो। 'मेरा-मेरा' रट ये छोड़ो यह 'मेरा' वह 'मेरा' है। ये मत भूलो तन-मन-धन और प्राण नहीं कुछ 'तेरा' है। क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम लड़ो समर में जीवन के। करो आहुति जीवन अपना वीरगति आभूषण-से।

Thursday 4 June 2020

आर्त्तनाद (लघुकथा)

रात भर धरती गीली होती रही। आसमान बीच बीच में गरज उठता। वह पति की चिरौरी करती रही। बीमार माँ को देखने की हूक रह रह कर दामिनी बन काले आकाश को दमका देती। सूजी आँखों में सुबह का सूरज चमका। पति उसे भाई के घर के बाहर ही छोड़कर चला आया। घर में घुसते ही माँ के चरणों पर निढाल उसका पुक्का फट चुका था। वर्तमान की चौखट पर बैठा अतीत कब से भविष्य की बाट जोह रहा था। दो जोड़ी कातर निगाहें लाचारी के  धुँधलेपन में घुलती जा रही थी। सिसकियों का संवाद चलता रहा। दिन भर माँ को अगोरे रही।

पच्छिम लाल होकर अंधेरे में गुम हो गया था। अमावस का काजल धरती को लीपने लगा था। उपवास व्रत के अवसान का समय आ गया था।  बरगद के नीचे पतिव्रताओं का झुंड शिव-पार्वती को नहलाने लगा था। कोयल कौए के घोंसले से अपने बच्चे  को लेकर अपने घर के रास्ते निकल चुकी थी। कालिंदी अपने आर्त्तनाद का पीछा करती सरपट समुंदर में समाने भागी जा रही थी।