Thursday, 1 April 2021

अहसास और निजता!

पत्ते पुलकित हैं। हिलते दिख रहे हैं। कौन है उत्तरदायी? हवा। पत्ते स्वयं। आँखें। कोई झकझोर तो नहीं रहा पेड़ को! या फिर, ‘हिलना’ स्वयं एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में! किसी एक को हटा लें तो सारा व्यापार ख़त्म! और यदि सभी साथ इकट्ठे हों भी और मनस के चेतन तत्व को निकाल लिया जाय तो फिर वही बात – “ढाक के तीन पात”!

चेतना कुछ ऐसा अहसास छोड़ जाय जो समय, स्थान या किसी भी ऐसे भौतिक अवयव से जो बाँधते हों मुक्त हो जाय, तो वह अहसास रुहानी  हो जाता है। एक छोटी उम्र का बालक अपने खेलने-खाने की शैशव अवस्था में अहसास की उस उम्र में पहुँच जाए जहाँ से सन्यास के द्वार की साँकले खुलती हैं, तो वह फिर शंकराचार्य बन जाता है। मैथुन क्रीड़ा  में रत क्रौंची  के प्रेमी क्रौंच  की वधिक के  द्वारा हत्या से उपजा विषाद कल के एक लुटेरे को अभी उस अवस्था में धकेल देता है कि वह आदि कवि वाल्मीकि बन जाता है। यह भावनाओं के स्तर पर  महज़ एक मनुष्य के एक पक्षी से  जुड़ने की घटना नहीं है बल्कि रूहों के स्तर पर एक प्राणी के दूसरे प्राणी से एक हो जाने का संयोग है जिससे राम कथा का जन्म होता है।
प्रेम का संगीत भी मुक्ति के कुछ ऐसे ही राग छेड़ता है जो रूह को देह से छुड़ाकर परमात्मिक आकाश में छोड़ देता है। दादा-दादी, नाना-नानी बनी देह के भीतर  का मन प्रेम में पगकर अपने कैशोर्य की कमनीय कलाओं में रंगने लगे तो वह ‘विदेह’ हो जाता है। समय, स्थान, अवस्था, देह सबसे मुक्त हो जाता है। फिर चेतना के स्तर पर वह वृंदावन की गोपिकाओं के अहसास में समा जाता है जहाँ तर्क-वितर्क के खूँटे में बँधे उद्धव जड़वत दिखायी देते हैं।
इधर निजता की बातें ज़ोर-शोर से की जा रही हैं। संस्कृति का सभ्यता के सामने घुटने टेक देना समष्टि  के व्यष्टि  की ओर ताकने और व्यक्ति  द्वारा समाज  को घूरे जाने की कहानी कह रही है। यह सोचने का विषय है कि निजता आख़िर है क्या चीज़! यह कोई प्रकृति  प्रदत्त सम्पदा है या मनुष्य की अपनी निर्मित धारणा। सच पूछें तो निजता की सोच ही व्यक्ति के किसी बंधन में बँधे होने का अहसास है। किसी बंधन से मुक्त होने की छटपटाहट! अपने में दूसरों से इतर एक अलग सता के आरोपण का अहसास और पृथकता का भाव! टाइम और स्पेस के अनंत वितान में एक अलग घोंसले की चाह! वह घोंसला भी पूरी तरह से एक मानसिक परिकल्पना! आदमी भीड़ में भी तो अकेला हो जाता है। या फिर जब उसका आत्म अहसास के स्तर पर ऐकांतिकता के अनंत  में कुलाँचे भरने लगे जहाँ वह फैलकर स्वयं अनंत बन जाए तो वह स्वयं भी कहाँ रह पाता है। भला, अनुभवों की जलराशि में तैरते आर्किमिडिज को ‘युरेका, युरेका’ चिल्लाते नग्न अवस्था में सड़क पर दौड़ते समय निजता के इस भाव ने क्यों नहीं पकड़ा। या तो वह अपनी निजता को त्याज्य अनंत के अहसास में फैल गए थे या फिर निजता की चिर समाधि में विलीन होकर अपने भौतिक अस्तित्व से मुक्त हो गए थे। ‘कंचुकी सुखत नहीं सजनी, उर बीच बहत पनारे’ का प्रलाप करती गोपियाँ अपने मोहन के मोहपाश में अपनी निजता कहाँ छोड़ आती हैं।
जहाँ अहसास रुहानी होता है वहाँ ‘अयं निज: परो वेत्ति’ की बात नेपथ्य में ही रह जाती है। वहाँ सब कुछ एक हो जाता है – ‘ तत् त्वम असि। सो अहं।। एकोअहं, द्वितियोनास्ति।।।‘

23 comments:

  1. हमें अहम ब्रह्मस्मी का अहसास हो रहा है क्या कहें?

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  2. साँकले खुलती है--- खुलती हैं
    आस्तित्व-- अस्तित्व
    मोह पाश -------- मोहपाश

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  3. आदरणीय विश्वमोहन जी , समझ में नहीं आता मैं गद्य पढ़ रही हूँ या गद्य काव्य !यदि मैं इसे सही से समझी तो भौतिक जगत से मुक्त हो स्वयं में लीन होना ही रूहानियत है जहाँ दो अवयवों के मध्य समस्त अनुभूतियाँ एकाकार हो जाती हैं | सच कहूं तो ये संवेदनाओं का चरमोत्कर्ष है जहाँ इनके झझकोरने से विषाद का अविरल प्रवाह इस पीड़ा से जुड़ जाता है जो एक प्रेमरत पाखी के लिए उमड़कर एक डाकू को बाल्मीकि बना देती है और संस्कार के महाकाव्य के सृजन की नींव रखवा देती है | ये भी सत्य है कि आत्मसाक्षात्कार किये बिना ना कोई बुद्ध बन सका है ना बाल्मीकि | यूँ तो थोड़ी देर के लिए अस्थायी विषाद अथवा अवसाद में सभी बुद्ध हो जाते हैं पर जो स्थायी बुद्धत्व है वह उन्ही आत्माओं को प्राप्त होता है जो समस्त विकारों से मुक्त हो स्वयं परमसत्ता में डूब जाती हैं | जिस निजता का आधुनिक युग में हो- हल्ला हो रहा है जिसके लिए सर्वोच्च न्यायपालिका को नये कानून बनाने पड़े - ये एकांतवास वो नहीं है | वह निजता तो संचार माध्यमों के हाथों की कठपुतली बन गयी है और जिसकी परिभाषा व्यक्ति ने खुद गढ़ी है | ये निजता घटते संस्कारों के साथ संस्कृति के विघटन का भयावह संकेत है जिसकी नींव सभ्यताओं के विस्तार में रखी गयी | निजता की चिरसमाधि यही है जहाँ व्यक्ति खुद के आगे खड़ा हो - खुद के अस्तित्व का मूल्यांकन कर , स्व से मुक्त हो , रूहानी अनुभूतियों के पथ पर अग्रसर होता हुआ परम सता में एकाकार हो जाता है | अच्छा लगा इस रूहानी एहसासों को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करते लेख को पढ़कर | जिसके बहाने से मुझे भी अपनी बात कहने का सुअवसर मिला | हार्दिक शुभकामनाएं और आभार 🙏🙏

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    1. जी, बहुत आभार आपकी गंभीर और विचारोत्तेजक टिप्पणी की। विशेषकर अपने उपसंहारात्मक अनुच्छेद में आपने मेरे विचारों का जो विस्तार दिया है, वह अद्भुत है। आपने सही कहा, "ये निजता घटते संस्कारों के साथ संस्कृति के विघटन का भयावह संकेत है जिसकी नींव सभ्यताओं के विस्तार में रखी गयी |" एक बार पुनः हार्दिक आभार।

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  4. बहुत उत्तम।
    मनोभावों का सुन्दर चित्रण।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का।

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  5. इति-इति । सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।

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    1. नेति नेति। अथातो ब्रह्म जिज्ञाषा।😀🙏🙏

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  6. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 7 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी, अत्यंत आभार।🙏🙏🙏

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  7. गहन , गंभीर विषय , अभी भी शायद आपके लिखे की तह तक न पहुंच पाई हूँ ।
    निजता से मुक्त हो कर ही ब्रह्म में लीन हुआ जा सकता है ।
    आभार

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    1. 'या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहीं कोय।
      ज्यों-ज्यों बुड़ै श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय!!
      या फिर
      'यस्यामतं मतं तस्य, मतं यस्य न वेद स:।'
      जी, अत्यंत आभार आपकी साधक दृष्टि का।🙏🙏🙏

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  8. प्रेम का संगीत भी मुक्ति के कुछ ऐसे ही राग छेड़ता है जो रूह को देह से छुड़ाकर परमात्मिक आकाश में छोड़ देता है।

    सुन्दर चित्रण

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    1. जी, अत्यंत आभार बात के मर्म तक पहुँचने के लिए।

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  9. देह से परे आत्मा का आस्वादन ...
    मेरा-तेरा,प्रेम-बंधन,देह-विदेह का सुर वादन।
    श्रेष्ठ चिंतन, बहुत अच्छा लिखे हैं।
    -----
    योगरतो वाभोगरतोवा,सड्गरतो वा सड्गवीहिनः।
    यस्य ब्रहमणि रमते चित्तं,नन्दति नन्दति नन्दत्येव।।
    ----
    सादर।

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    1. जी, आपके अमृतकलश से नि:सृत सुधा रस के सरस आस्वादन के लिए अत्यंत आभार!!!

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  10. "जहाँ अहसास रुहानी होता है वहाँ ‘अयं निज: परो वेत्ति’ की बात नेपथ्य में ही रह जाती है। वहाँ सब कुछ एक हो जाता है – ‘ तत् त्वम असि। सो अहं।। एकोअहं, द्वितियोनास्ति।।।‘"

    सत्य वचन। दर्शनशास्त्र का अध्ययन करा दिया आपने तो। सादर नमन

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    1. जी, बहुत आभार आपके प्रेरक शब्दों का।

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  11. Very interesting treatise of 'जिस्मानियत' se 'रूहानियत' तक का सफ़र!

    My contention is that consciousness of 'निजता' is the starting point of this सफ़र. Awareness of Self leads to understanding of Self in relation to other Selves that we co-exist with and then comes the तड़का of free will. Shall we keep ourself selfish, self contained, self fulfilled or transition towards a selfless, service oriented souls. At know point did Valmiki gave up his Self. He transitioned his self from that of 'लुटेरा' to that of 'संत', poet and narrator of Ramkatha (feminist me wants to see it as सीताकथा 😀

    Om (Aum) directs and leads to that consciousness.... that I am and I am more than my body, senses and mind. That the हवा/ prana that changes the scene and circumstances in our lifetimes is an interplay of what Rabb ordains and what our free will opts for triggering cause and effect phenomenon.... yet another act of 'लीला' thus keeps unfolding in our lives.

    Summarily, I am of view that 'निजता' is an integral part of human evolution from a physical/ material to a spiritual being.

    Sorry if I got carried away with my thoughts. Unravelling the unseen links between physics and metaphysics is a passion for me. Both are essential to attaining a wholesome existence and co-existence. Sabina 🙏🏼

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    1. Apologies for typing error in relation to Valmiki ji. I meant at no point did he lose the sense of निजता or Self. This awareness is crucial to any transition/ transcendence into a spiritual being. After all we are the captain of our souls!

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    2. मैं आपकी बात का उत्तर हिंदी में ही देता हूँ। आपने बिलकुल सही कहा।किंतु निजता (privacy) और 'self awareness' में अंतर है। भारतीय सांख्य दर्शन में मन और बुद्धि के साथ जुड़ने वाले आत्म बोध के इस तत्व को ही 'अहंकार' नाम से अभिहित किया गया है। यह आध्यात्मिक 'अहंकार' भाव उस सांसारिक 'निजता' के भाव से बिलकुल अलग उन अर्थों में है कि 'निजता' पूर्णतः स्वकीय और स्वकेंद्रित (self-centric) भाव है जबकि 'अहंकार' या 'आत्म बोध' (सेल्फ़ अवेर्नेस) पूरी तरह से 'सो अहं' और स्वयं के इस पूर्ण में व्याप्त होने के भाव से भरा हुआ।
      इसलिए 'निजता' (privacy) के भाव ने जहाँ 'रत्नाकर' नाम के लुटेरे को पैदा किया, वहीं आत्म-बोध या अहंकार (self awareness) के भाव के उदित होते ही वह महर्षि वाल्मीकि बन गए। आपकी इस विचारोत्तेजक विवेचना का अत्यंत आभार!!!

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