Sunday 25 July 2021

देहरी से द्वार तक




पुस्तक का नाम – देहरी से द्वार तक

                       बिहार की महिला विभूतियाँ

                        (रेडियो रूपक एवं डॉक्यु-ड्रामा) 

लेखक – डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेय 

प्रकाशक – कौटिल्य  बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड ,  दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२

पुस्तक का अमेजन लिंक :

https://www.amazon.in/dp/8194823307?ref=myi_title_dp




प्रोफ़ेसर पांडेय की यह कृति ‘देहरी से द्वार तक’ कई मामलों में एक विलक्षण कृति है। पहली बात तो यह कि यह पुस्तक हमारी नयी पीढ़ी को उनकी  उस महान विरासत से परिचित कराती है जो इस पुस्तक के मुख्य किरदार के रूप में उनके सामने उपस्थित हुई  है। और, दूसरी एक और महत्वपूर्ण बात यह कि पुस्तक का कथ्य रेडियो  रूपक की रोचक शैली में है जो पाठकों का परिचय एक नयी विधा से भी कराती है। पुस्तक के वर्ण्य-विषय के रूप में लेखक ने परतंत्र भारत में जन्मी उन नारी चरित्रों को चुना है जिन्होंने समकालीन पुरुष-प्रधान समाज के रूढ़ आडंबरो, मिथ्या दंभ, प्रतिगामी परम्पराएँ  और जड़तापूर्ण मिथकों  को मुँह चिढ़ाते हुए सार्वजनिक जीवन में अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा, अदम्य साहस और दृढ इच्छा-शक्ति के दम पर  न केवल अपनी उपस्थिति का दमदार अहसास दिलाया है बल्कि आनेवाली संततियों के लिए आशा के नए बीज का रोपण कर उसे प्रेरणा  की भागीरथी से सिंचित भी किया है।  इन नारियों का जन्म-क्षेत्र या कर्म-क्षेत्र बिहार रहा है। 


  आर्यावर्त की सनातन परम्परा नारियों की गरिमामयी उपस्थिति से सदा सिंचित रही है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तंत्र रमंते  देवा:’ इस भूमि की संस्कृति का सूत्र वाक्य रहा है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह सूक्त की रचना अपने ही परिणय संस्कार में पढ़े जाने के लिए सावित्री के द्वारा की गयी थी जो अद्यतन विवाह संस्कार में मंत्र के रूप में उच्चरित होते चले आ रहे हैं। गार्गी, मैत्रेयी, लोपमुद्रा, अपला, अहल्या, आम्रपाली, भारती, विद्योतमा, संघमित्रा  आदि ऋषिकाओं  एवं विदुषियों ने अपनी अद्भुत विद्वता एवं कृतित्व  से इस भारत भूमि को चमत्कृत किया है। आदि काल में समाज के ताने-बाने में शीर्ष स्थान पर आसीन सबला नारियों की स्थिति तदंतर काल के प्रवाह में धूमिल होती चली गयी और मध्य काल के आते-आते उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। सामाजिक कुरीतियों और छद्म पौरुष के दम्भी आचरण में जकड़ी  नारी ‘असूर्यपश्या’ और ‘अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी’ की स्थिति में पहुँच गयी। विद्वत सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी की संततियाँ अब देहरी के भीतर सिमट कर रह गयीं। वेद की ऋचाओं को रचने वाली सृजन की देवियाँ अब अज्ञानता और अशिक्षा के तिमिर गह्वर में सिसकने लगी। पर्दा, सती और बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं के छल-जाल में समष्टि-रथ का यह पहिया उलझ गया। 


 किंतु काल के प्रतिकूल थपेड़ों में भी नारी चेतना सुप्त  नहीं हुई और झंझा को चुनौती देती दीपशिखा की तरह उन्होंने अपनी लौ की तेजस्विता को जीवित बनाए रखा।  इस उद्योग में नारियों को संघर्ष की किन-किन दुर्गम उपत्यकाओं से गुज़रना पड़ा और इस पुरुष प्रधान दंभी  समाज से कैसे लोहा लेना पड़ा,  आज की सूचना क्रांति और अन्तर्जाल में पली-बढ़ी  पीढ़ी के लिए यह तथ्य कल्पना के बाहर की ही वस्तु है। सोचिए उस  कोमल अबला  ‘कमल कामिनी’  के सबल साहस को जो पहली बार दक़ियानूसी समाज के ज़ंजीरों को काट कर परदे से बाहर निकली होगी और पहुँच गयी होगी परीक्षा केंद्र पर मैट्रिक की परीक्षा देने! उसे देखने के लिए लोगों का मजमा उमड़ पड़ा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से आई ए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद वह  ‘फ़र्स्ट फ़ीमेल ग्रैजूएट ऑफ बिहार’ बनी। उस कमसीन ‘कमरुन्निसा’ की कल्पना कीजिए जिसने  अत्यंत कम उम्र में ही बेवा होने के बावजूद रूढ़ियों के बंधन काट और परदे की सीमा को पार कर बिहार, बंगाल और उड़ीसा मिलाकर बी ए की परीक्षा में टॉप किया। ‘प्रभावती’ की उस दिव्य प्रभा का आभास कीजिए जिसने अपने पूरे जीवन को ही  विवाह के तुरंत बाद ब्रह्मचर्य की अग्नि में तपाकर राष्ट्र की बलिवेदी पर आहूत  कर दिया। न्याय तंत्र को धर्म की शिला पर परखने वाली उस पहली लेडी बैरिस्टर  ‘धर्मशिला’ की कल्पना कीजिए जिसके लिए ‘द सर्चलाइट’ अख़बार ने लिखा, ‘इंडीयन पोर्शिया एंटर्स कोर्ट-रूम’। जितवारपुर गाँव की मिट्टी की दीवारों को  ‘वेजिटेबल-कलर्स’  में रंगी अपनी कूची से खचित सांस्कारिक बिंबों की  अपनी अद्भुत मधुबनी चित्रकला में सजीव करने वाली ‘सीता देवी’ का समर्पण और त्याग आधुनिक पीढ़ी के लिए एक किंवदंती के समान ही है। कल्पना कीजिए क्रांति का सुर बिखेरने वाली उस वीरांगना ‘वीणापाणि’ का जो १९४२ में पटना जंक्शन पर रेल की पटरियों को उड़ाने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर  बम फेंक आयी  थीं। बिना किसी बाहरी सहायता के नारियों को संगठित कर नारी शक्ति के बल बूते उस ज़माने में पटना शहर में ‘वर्किंग वीमेंस हॉस्टल’ खोलना  कामकाजी नारियों के लिए रिहायश का इंतज़ाम मात्र नहीं था बल्कि यह ‘शेफालिका’ के द्वारा नारी स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता की विजय यात्रा का पांचजन्य-नाद  था। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही बिहार की दूसरी मेडिकल ग्रेजुएट और  स्वर्ण पदक प्राप्त ‘डॉक्टर मारी क्वाड्रस’ का मानव सेवा को समर्पित सादगी और त्याग से परिपूर्ण जीवन एक ऐसा दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है जो भविष्य की पीढ़ियों  का पथ अनंत काल तक आलोकित करता रहेगा। घोर अशिक्षा और पर्दानशीन समाज की प्रपंची परम्पराओं से तपते उपवन को अपने कोकिल-स्वर  से हरित करने वाली ‘विंध्यवासिनी’ को लोकगायन और संगीत की कला में शिक्षित होने के लिए किन-किन पापड़ों को बेलना पड़ा होगा – यह तत्कालीन समाज के परिवेश  के परिप्रेक्ष्य में कल्पना की ही बात हो सकती है! नर्सिंग को अपना करियर बनाकर ‘मूक-बघिर-संस्था’, ‘रेड-क्रौस-सोसायटी’ और ‘अखिल भारतीय महिला परिषद’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से   ‘ऐनी मुखोपाध्याय’  ने न केवल मानव सेवा का अलख जगाया बल्कि ‘ऑल पटना वन ऐक्ट प्ले फ़ेस्टिवल सॉसायटी’ के पटल पर  महिलाओं को रंगमच की दुनिया में प्रवेश भी दिलाया। चालीस के दशक से शुरू होकर अस्सी के दशक तक  अपनी विशिष्ट मनोरंजक शैली में  सामाजिक कुरीतियों और अंध परम्पराओं  पर चोट करते प्रसिद्ध रेडियो धारावाहिक नाटक ‘लोहा सिंह’ में ‘खदेरन को मदर’ के नाम से प्रसिद्ध प्रमुख नेत्री ‘शांति देवी’ आज एक किंवदंती बन चुकी हैं। यह भी एक संयोग ही है कि इस पुस्तक के लेखक इसी नाटक में  एक प्रमुख किरदार ‘फाटक बाबा’ की भूमिका भी निभा चुके हैं। आकाशवाणी पटना से प्रसारित ‘नारी जगत’  और ‘बाल मंडली’ की प्रोड्यूसर, ‘निवेदन है’ की पत्र वाचिका’, कई रेडियो नाटकों की प्रमुख किरदार और प्रसिद्ध कार्यक्रम ‘चौपाल’ की  ‘गौरी बहन’ के रूप में ख्यात ‘पुष्पा अर्याणी’ की लगन, निष्ठा, मानवीय संवेदना और संघर्षशीलता एक अद्भुत मिसाल के रूप में चिर काल तक अविस्मरणीय रहेंगी। अपने जीवन की अंतर्व्यथा से तन्तुओं को समेटकर समकालीन समाज की रूढ़ियों के मौन का उच्छेदन करती पाँच सौ से अधिक कहानियों, पाँच उपन्यास और अनेक नाटकों एवं लघुकथाओं को रचने वाली महिला कथाकार ‘बिंदु सिन्हा’ ने इस पारम्परिक मान्यता को चुनौती दी कि बेटियाँ दान की वस्तु होती हैं और अपनी तीन पुत्रियों के विवाह में उन्होंने ‘कन्यादान’ के रिवाज का निषेध किया। उपरोक्त तेरह मनीषियों के रेडियो रूपक को तैयार करने हेतु सामग्रियों को जुटाने में लेखक ने जो अथक प्रयास किए वह किसी भागीरथ की गाथा से कम रोचक नहीं है। प्रामाणिक तथ्यों के संकलन के साथ-साथ लेखक ने वाचक और उद्घोषक के रूप में उन हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया है जिनका सीधा संबंध इन किरदारों से रहा है और उनके संस्मरणों ने किताब के कथ्य में जान डाल दिया है। 


पुस्तक की चौदहवीं नायिका के रूप में ‘कैप्टन मिस दूर्वा बनर्जी’ के जीवन-वृत्त को एक आलेख के रूप में इस पुस्तक में शामिल किया गया है। बिहार की बेटी ‘दूर्वा बनर्जी’ भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की पहली महिला पायलट थी, जिसने वर्ष १९५८ से वर्ष १९८८ तक, बिना किसी रुकावट के हवाई जहाज़ उड़ाकर १८५०० ‘फ़्लाइंग आवर्स’ पूरे किए और विश्व कीर्तिमान स्थापित किया।


रेडियो रूपक या डॉक्यु-ड्रामा एक ऐसी विधा है जिसमें ध्वनि और संगीत के समन्वित प्रभाव में सजे कथ्य के केंद्र में व्यक्ति विशेष, स्थान या घटना होते हैं। लेखक ने बड़े ही विलक्षण शिल्प में अपने रूपक के ताने-बाने को बुना है। लेखक का नैतिक उद्देश्य साफ़ है – इन मनीषियों  के कृतित्व को आज की पीढ़ी के सामने रखना ताकि वह प्रेरणा के तन्तुओं को बटोर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लेखक ने रेडियो की इस रचनात्मक रूपक शैली को गीत, संगीत ध्वनि-प्रभाव और अत्यंत आकर्षक तरीक़े से इसमें कतिपय अभिराम नाटकीय तत्वों का समावेश कर  अत्यंत जीवंत बना दिया है। इस तरह ‘एक पंथ दो काज’ के मुहावरे को चरितार्थ करती हुए यह पुस्तक एक ओर जहाँ  नारी विभूति की हमारी महान विरासत से हमारा परिचय कराती है, वहीं दूसरी ओर लुप्तप्राय होने की कगार पर खड़ी रेडियो रूपक की रचनात्मक विधा को संजीवनी प्रदान की है। 

लेखक के इस संजीवन यज्ञ में आकाशवाणी पटना के कार्यक्रम अधिशासी श्री किशोर सिन्हा  जैसे कुशल प्रोड्यूसर  ने अपनी कुशल रेडियो  प्रस्तुति से  सोने में सुहागा लगा दिया है। महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों के साक्षात्कार के संकलन से लेकर इस रूपक-सह-डॉक्यु ड्रामा की प्रस्तुति तक दोनों के मणि-कांचन संयोग ने इस यज्ञ को अपने सम्पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचा दिया है। 'हमीं सो गए दास्ताँ कहते.....कहते ...!' शीर्षक से इस पुस्तक की भूमिका में श्री किशोर सिन्हा जी ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि  "सोलह दिनों के रिकार्ड-समय (११ मार्च २००८  से २७ मार्च २००८) में यह धारावाहिक रिकार्ड हुआ और ४ अप्रैल २००८ से २७ जून २००८ के बीच प्रसारित हुआ।

अपने अद्भुत कथ्य, विषयवस्तु, शिल्प और शैली के आलोक में यह पुस्तक पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की कसौटी पर पूरी तरह से खरी उतरती है। ‘सोद्देश्यता कला की आत्मा होती है’ इस कथन के मर्म की अनुगूँज पुस्तक को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात हमें विशुद्धानंद जी द्वारा लिखे गए इसके शीर्षक गीत में सुनायी देती है जिससे हरेक रूपक का श्री गणेश होता है :

‘रोशनी फैलाएगी जो दीपिका संसार तक,

क्यों समेटे हम उसे इस देहरी के द्वार तक!

रोज़ की ताज़ा हवा परदे से टकराकर फिरे क्यों?

वर्जनाएँ, बंदिशें कुहरा घना बनकर घिरे क्यों?

जो सहज ही दूर कर सकती अँधेरा ज़िंदगी का,

वही क्यों है आज चौखट में फँसी घर-बार तक!

क्यों समेटे हम उसे इस देहरी से द्वार तक!’


और अब लेखक परिचय 

नेतरहाट विद्यालय और पटना साइंस कॉलेज से शिक्षा प्राप्त पूर्णिया जिले के 'सरसी' ग्राम में अवतरित हुए प्रोफेसर नरेंद्र नाथ पांडेय अनेक मामलों में एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। पटना विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे अद्भुद वैज्ञानिक सूझ-बूझ के धनी डॉ पांडेय ने 'रंगमंच एवं फिल्मों का एक-दूसरे पर प्रभाव एवं इनकी सामाजिक जिम्मेवारी' जैसे गूढ़ साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विषय पर अनूठा शोध प्रबंध रच डाला, जिसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें डी लिट् की उपाधि से विभूषित किया। रेडियो, टेलीविजन, रंगमंच एवं फिल्मों में अभिनय और निर्देशन के वृहत अनुभवों को समेटे डॉ पांडेय ने सम्पूर्ण भारत में एक साथ अनेक भाषाओं में प्रसारित, सबसे लंबी रेडियो श्रृंखला 'मानव का विकास' की सर्वाधिक किस्तों का सफल लेखन किया। 'रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक' इनकी बहुचर्चित प्रकाशित पुस्तक रही है।
'राज्य शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान , बिहार' के निदेशक रह चुके डॉ पांडेय अखिल भारतीय स्तर पर अनेक नाट्य प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं निर्देशक के पुरस्कार सहित 'शिखर सम्मान' के आभूषण का गौरव बटोर चुके हैं। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के संचालन से लेकर डॉक्यु ड्रामा, रेडियो पर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं के निर्माण और प्रसारण, शिक्षाप्रद वार्ताएँ और  रेडियो रूपक की रचना तक का इनका सफर बड़ा ही रोचक और प्रेरक रहा है।
और अंत में, यह भी बताते चले कि इनकी धर्मपत्नी प्रो०डॉ० सुषमा मिश्रा, विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, ने पटना साइंस कॉलेज में हमें पढ़ाया भी है। इस नाते अत्यंत मृदुभाषी और आत्मीय प्रो० पांडेय हमारे 'गुरूपति' भी हुए। इस गुरुयुगल को सादर चरण स्पर्श।


 



41 comments:

  1. नमन गुरुयुगल को। आपका लेखन इसी तरह रोशनी बिखेरता रहे।

    ReplyDelete
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-7-21) को "औरतें सपने देख रही हैं"(चर्चा अंक- 4137) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

    ReplyDelete
    Replies
    1. कृपया २६ की जगह २७ पढ़े
      कल थोड़ी व्यस्तता है इसलिए आमंत्रण एक दिन पहले ही भेज रही हूँ।

      Delete
    2. जी, अत्यंत आभार!!!

      Delete
    3. कोई बात नहीं। हम चंपारण वालों को एक दिन पहिलही से अगोरने की आदत है :)

      Delete
  3. डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेय जी द्वारा रचित " देहरी से द्वार तक" (रेडियो रूपक एवं डॉक्यु-ड्रामा) में बिहार की जिन १४ प्रेरक महिला विभूतियों " कमल कामिनी’ ‘कमरुन्निसा’ ‘प्रभावती’ ‘धर्मशिला’ ‘सीता देवी’ ‘वीणापाणि’ ‘शेफालिका’ ‘डॉक्टर मारी क्वाड्रस’ विंध्यवासिनी’ ‘ऐनी मुखोपाध्याय’ ‘शांति देवी’ ‘पुष्पा अर्याणी’ ‘बिंदु सिन्हा’ और ‘कैप्टन मिस दूर्वा बनर्जी’ का चित्रण किया है वह हम सबके लिए प्रेरक हैं। उस समय जब महिलाओं के लिए कुछ भी कर दिखाना असंभव सा था तब ऐसी सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में भी जिन्होंने अपने अदम्य साहस से नारी मार्ग को प्रशस्त किया, वे सभी वंदनीय हैं नारी जाति के लिए। दुनिया में वे ही पूजनीय और मार्गदर्शक बनते हैं जो अपने समय में भीड़ से हटकर कुछ कर देखने का जज्बा रखते हैं।
    पांडेय जी की इस अमूल्य कृति को हम सबके साथ साझा कर सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुति हेतु आभार!

    ReplyDelete
  4. बिहार में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ थी ,और परिवार तथा समाज में उन्हे सम्मान प्राप्त था। बहुत सी बाते जो हम सिर्फ सुनते थे इस किताब द्वारा विस्तार से जान सक। ये बिहार की स्त्री के समानाधिकार, समानता , प्रतियोगिता की सिर्फ बात नहीं करती वह सहयोगिता सहधर्मिती ,सहचारिता की बात करती है। इसी से परस्पर सन्तुलन स्थापित हो सकता है। पौराणिक युग में नारी वैदिक युग के दैवी पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों और याज्ञिक कर्मो में उसकी स्थिति पुरूष के बराबर थी। कोई भी धार्मिक कार्य बिना पत्नी नहीं किया जाता था। श्रीरामचन्द्र ने अश्वमेध के समय सीता की हिरण्यमयी प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। यद्यपि उस समय भी अरून्धती ( महर्षि वशिष्ठ की पत्नी ) , लोपामुद्रा , महर्षि अगस्त्य की पत्नी ) , अनुसूया ( महर्र्षि अ़त्रि की पत्नी ) आदि नारियाँ दैवी रूप की प्रतिष्ठा के अनुरूप थी तथापि ये सभी अपने पतियों की सहधर्मिणी ही थीं।वस्तुतः बिहार में ये पुरानी मान्यतायें सदा रही है।।। गर्व महसूस होता है ।

    ReplyDelete
  5. सारगर्भित समीक्षा।

    ReplyDelete
  6. प्राचीन काल से नारी का जीवन एक विशिष्ट परिधि में बंधा और प्राय पराश्रित ही रहा है | यूँ जैसा कि आपने भूमिका में लिखा है --आर्यावर्त में नारियों को बहुत महत्व मिला | उन्होंने अपनी मेधा का भरपूर दोहन कर वैदिक संस्कृति और साहित्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई | पर कालान्तर में पौरुष वर्चस्व के अधीन उसकी दयनीयता ने सदियों उसे अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रखा | कथित आधुनिक काल में शिक्षा के प्रचार -प्रसार के फलस्वरूप अपनी प्रखर चेतना के साथ अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के बीच आत्मोत्थान की राह बनाना कोई आसान नहीं रहा होगा |पर फिर भी जिन वीरांगनाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में कम साधनों के बाद भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए अपनी ऐसी राह बनायी जो आगत पीढ़ी के लिए प्रेरणा बनी , उन का यशोगान बहुत आवश्यक है | डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेय निश्चित रूप से साधुवाद और सराहना के पात्र हैं जिन्होंने इन जीवटता की धनी नारियों के प्रेरक जीवन को पुस्तक रूप में संकलित किया |बिहार राज्य की पहली स्नातक ‘कमल कामिनी . --तीन राज्यों की पहली टॉपर स्नातक - ‘कमरुन्निसा’,समाज सेविका -- ‘प्रभावती’ शेफालिका और क्रांतिकारी ‘वीणापाणि’ , पहली लेडी बैरिस्टर --‘धर्मशिला’ , मधुबनी चित्रकारा - ‘सीता देवी’, मेडिकल स्नातक -- ‘डॉक्टर मारी क्वाड्रस,लोकगायिका -- ‘विंध्यवासिनी’ ,समासेविका और रंगकर्मी - ‘ऐनी मुखोपाध्याय’ , रेडियो कर्मी -- शांति देवी’और ‘पुष्पा अर्याणी’ कथाकार -- ‘पुष्पा अर्याणी’के साथ उस समय के विपरीत समय में सपनों की सबसे ऊँची उड़ान भरने वाली नायिका -- कैप्टन मिस दूर्वा बनर्जी’ इत्यादि के, सीमित साधनों के बावजूद, कौतुक सचमुच हैरान करने वाले हैं \\\\
    डॉक्टर पांडे जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं इस स्तुत्य प्रयास के लिए और रेडियो रूपक जैसी विधा , जिसमें लेखन प्राय आजकल सुनने में नहीं आता , को इस प्रयास का सशक्त माध्यम बनाने के लिए | आपने अपनी समीक्षा में , बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से पुस्तक और विषय वस्तु का संक्षिप्त परिचय दिया है जो पुस्तक में पाठकों की रूचि जगाने में पुर्णतः सक्षम है | और कदाचित यही उद्देश्य होता है समीक्षा लेखन का | आभार और बधाई इस सुंदर समीक्षा लेखन के लिए |सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, आपके इस सार्थक, सारगर्भित और विस्तृत अवलोकन का अत्यंत आभार।

      Delete
  7. Going by Mr Vishwamohan`s coinage, Prof Panday happens to be my "gurupati" too!!
    Extremely grateful and indebted to Prof. Panday for choosing to write about these exceptional, spirited and gritty women who took on family and society as underdogs and came out winners.
    We are fortunate to be born in times when these adversities have scaled down considerably. Yet, the stories of these spunky pioneers needs to be told for they are inspirational in nature.It would indeed be a favour to the current generation if this book was made a part of the school curriculum.
    Thanks to Mr.Vishwamohan for introducing us to this book by his excellent review.
    Wishing this book all success.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपके सुंदर शब्दों का अत्यंत आभार, रश्मि!

      Delete
  8. बहुत बहुत सुन्दर व प्रेरक लेख

    ReplyDelete
  9. पांडेय जी की इस अमूल्य कृति 'देहरी से द्वार तक'को हम सबके साथ साझा कर इतनी सारगर्भित समीक्षा हेतु धन्यवाद, विश्वमोहन भाई।

    ReplyDelete
  10. विविध जानकारियों से ओतप्रोत आपके आलेख पाठकों में जागरूकता व स्फूर्ति के बीज अंकुरित किये जाते हैं, प्रभावशाली लेखन के साथ गहरा विश्लेषण - - साधुवाद सह।

    ReplyDelete
  11. रोचक अंदाज़ मेँ लिखी गई पुस्तक समीक्षा पाठकों में ज़बरदस्त दिलचस्पी पैदा कर रही है। पांडेय जी को बधाई। आपको भी शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, अत्यंत आभार।

      Delete
    2. धन्यवाद वीरेन्द्र जी ! अगर पाठकों में दिल्चास्पी पैदा हो रही है, तो यह समीक्षा की उपलब्धि है |

      Delete
  12. संग्रहणीय कृति!--ब्रजेंद्रनाथ

    ReplyDelete
  13. प्राणों में रची-बसी गौरव गाथाओं का अत्यंत भावपूर्ण महिमा मंडन ।

    ReplyDelete
  14. विश्वमोहन जी, आपकी समीक्षा पढ़कर नई अनुभूति हुई | पहली बार जल्दी-जल्दी पढ़ने के बाद संतोष नहीं हुआ, तो दूसरी बार ठहर-ठहर कर आपका लेख पढ़ा | यह पाठ पहले से भी ज़्यादा तर-ओ-ताज़ा लगा | आपने समीक्षा नहीं लिखी है, गागर में सागर भर दिया है | जिन चरित्रों को उतारने में लेखक ने लगभग तीन सौ पृष्ठ ख़र्च किए, उन्हें आपने चन्द शब्दों की परिधि में बाँध दिया ! आपने चरित्रों का ऐसा परिचय दियाः है, मानो वे पुस्तक रूपी सरिता के शांत जल से लघु उर्मियों की तरह निकलकर एक के बाद एक आती जा रहीं हों, और अपनी झलक दिखलाकर पुस्तक के किनारे विलीन होती जा रहीं हों | आपकी लेखनी रोचक है और असरदार भी | समीक्षा का उद्देश्य यही होता है, कि पाठक को उसे पढ़ने के बाद पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो | ऐसा हुआ है | मैंने अपनी छोटी बहन को आपकी समीक्षा भेजी थी, कि देखो, एक सुन्दर समीक्षा कैसी होती है | समीक्षा पढ़कर उसने तत्काल मुझसे पूछा-- 'यह पुस्तक कहाँ मिलेगी ?' मेरी समझ से आपकी समीक्षा, सच कहें, तो समीक्षा की परिधि को पार कर एक स्वतंत्र आलेख हो गई है | शब्दों का कुशल चितेरा ही ऐसा कर सकता है | इस आलेख के लिए आपको जितनी भी बधाई दी जाय, और जितना भी धन्यवाद दिया जाय, वह कम होगा | आपके लिए मेरे पास इन सब के अतिरिक्त आशीर्वाद है | आपके ब्लौग के पाठक बड़े मेधावी हैं, यह उनकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो जाता है | पुस्तक के सम्बन्ध में अपनी ओर से मैं इतना ही कहना चाहता हूँ, कि इसमें वर्णित महिलाएँ केवल बिहार राज्य का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं , बल्कि वे उस सार्वभौम शक्ति-पुंज की परिचायक हैं, जिससे सृष्टि जन्म लेती है | इसी लिए अखिल ब्रह्माण्ड की उस नारी-शक्ति को यह पुस्तक समर्पित है | कथ्य की दृष्टि से इस पुस्तक का व्यापक प्रचार-प्रसार होना ही चाहिए | समीक्षा लिखने के पीछे हमारा-आपका यही अभीष्ट होता है | मेरा दृढ विश्वास है, कि आपकी यह कृति समीक्षा-लेखन में नया कीर्तिमान स्थापित करेगी, और अन्य लेखकों के लिए पथ-प्रदर्शक का काम करेगी | आपके पाठकों में कई आदरणीय शख्सियत ने मेरी प्रशंसा की है | उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए मैं इतना ही कह सकता हूँ, कि मैं उन्हीं में से एक हूँ; उन्हीं का हूँ | संक्षेप में, मैं उनका ही विस्तार हूँ | मेरा अस्तित्व उन्हीं के कारण है | पाठक होते हैं, तभी तो लेखक होता है |ख़ाली प्रेक्षागृह में कौन अभिनेता नाटक करेगा ?

    ReplyDelete
    Replies
    1. कहा गया है :
      "एकम अपि अक्षरं यस्तु गुरु: शिष्ये निवेदयेत।
      पृथिव्यां न अस्ति तत द्रव्यं यत दत्वा ह्यनृणी भवेत।।"
      आपने तो आशीर्वचनों का अक्षय स्रोत प्रवाहित कर दिया। किन्तु वह शिष्य भी भला कैसा शिष्य जो अपने गुरु के आशीष से अघा जाय!भविष्य के आशीष का अनुसंधान जारी रहे, यह आशीर्वाद बना रहे। आपकी लेखन यात्रा भी अनथक प्रगतिमान रहे।सादर प्रणाम और चरण स्पर्श!

      Delete
  15. बहुत सुंदर पुस्तक समीक्षा

    ReplyDelete
  16. बहुत सुंदर समीक्षा, ऐसी विदुषी नारियों से
    मन मस्तिष्क गर्वित हो उठता है

    ReplyDelete
  17. नारी चेतना को जागृत करती हुई पांडे जी की विलक्षण कृति की सुलक्षण समीक्षा,साधुवाद ! संग्रहणीय पोस्ट |

    ReplyDelete
  18. इतिहास के लम्हों को छूटी हुती इस पुस्तक के प्रकाशन की बहुत बहुत शुभकामनायें ...

    ReplyDelete
  19. स्त्री शक्ति की मिसाल इन महान विभूतियों को मेरा सादर नमन, पुस्तक की व्याख्यात्मक एवम विषय परक सारगर्भित समीक्षा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई।

    ReplyDelete
  20. गहन विस्तृत सारगर्भित समालोचना पुस्तक के प्रति रूझान बढ़ा रहा है।
    सटीक समीक्षा और समालोचना के लिए बहुत बहुत बधाई।

    लेखक डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेयजी को पुस्तक की कामयाबी के लिए अनंत शुभकामनाएं।

    ReplyDelete