Thursday, 26 May 2022

सो अहं, तत् त्वं असि'!

 धू-धू कर, मैं चिता में जल रही,

धूम्र बनकर, वायु तुम  मंडरा रहे हो।

देही थे तुम, देह अपनी छोड़कर,

नष्ट होने पर मेरे इतरा रहे हो!


सुन लो, हे अज, नित्य और शाश्वत!

चेतना का, दंभ तुम जो भर रहे हो!

छोड़ मुझ जर्जर सरीखी देह को,

भव सागर, आज जो तुम तर रहे हो!


तुम पुरुष हिरण्य बनकर आ गिरे,

मुझ प्रकृति का  ही गर्भ पाए थे।

घोल अपनी चेतना जीव द्रव्य में,

गीत मेरे संग सृजन के  गाए थे।


मुक्ति का जो भाव लेकर जा रहे,

हम निरंतर उस धारा में बह रहे।

पंच मात्रिक  तत्वों की मैं प्रकृति,

राख बन अपने स्वरूप ही दह रहे।


फिर, कोई तुम - सा भ्रमित पथिक,

अहंकार चेतना का लायेगा।

पांच तत्वों की मुझ प्रकृति में,

अपनी बुद्धि और मन को पाएगा।


हे पुरुष, भटके तुम जंगम, सुन लो!

स्थावर रूप मेरा, ही तुम्हारा वास है।

न मैं बंधी, और न हो, मुक्त तुम!

सहवास हमारा, ही समय आकाश है।


मेरी प्रकृति के अणु परमाणु में,

होता पुरुष विराट का विस्तार है।

'सो अहं, तत् त्वं असि', यह मंत्र ही,

सृष्टि की, अद्भुत छटा का सार है।





Monday, 23 May 2022

स्नेह की डोर (लघुकथा)

 

साथ - साथ गिरते - दौड़ते, चौकड़ी भरते दोनों पिछले दो फागुन से एक दूसरे के जीवन मेंअपने स्नेह और अपनापन का रंग भर रहे थे। यह देख-महसूस कर उसका बाल मन अघा जाता कि पिता ने भी उन दोनों पर अपने प्राण निछावर कर दिए थे। 

मेमने के मुँह  की  हरी घास  उसके मुँह में स्वाद भर देती। घंटी टुनटुनाती उसके गले की रस्सी हमेशा मनु थामे रहता। घंटी की रुनझुन पर झूमते दोनों  के सामने न जाने ये तीसरा फागुन  दस्तक देने कब पहुंच गया!  ...........

मनु पछाड़े मारकर रो रहा था। कसाई के हाथों में मेमने का पगहा था। पिता के हाथों में गुलाबी रुपए, मुख पर मुस्कुराहट और आंखों में चमक थी। मेमने की निरीह आँखों में मायूस मनु था। गंगा-जमुना की  धार  मनु की आंखों से बह रही थी।  एक अज्ञात भय उसके मन को कँपा रहा था; कहीं अपने स्नेह से उसको बांधने वाली डोर भी पिता किसी और के हाथों में न थमा दें!

Tuesday, 17 May 2022

फदगुदी

 

(चित्र आधारित कविता, बच्चों के लिए)


फुदक-फुदक कर फदगुदी ने,

फड़-फड़ पर पसराए।

ठोक चोंच तृण नोकों पर,

लोल लाल लसराए।


घासों की हरियाली में,

कीट हरित खप जाए।

चतुर-चंचला गौरैया ये,

झट से गप कर जाए।


गौरैये की दादी ने 

नानी की दाल चुरायी।

बेगारी में मिले अन्न को

खूँटे  में गिरायी।


जब खूँटे ने ना कर दी,

तो गौरैया गुस्साई।

बढ़ई, सिपाही, राजा, रानी

सबको व्यथा सुनाई।


सांप, लाठी, आगी, समुंदर,

हाथी, जाल, घर पहुंची।

दाल दिला दे बिल्ली मौसी, 

चूहा चूँ-चूँ, चीं-चीं!


आगे की सब बात पता है

कैसे बढ़ी कहानी।

बड़ी मुश्किल से दाल को पाई,

गौरये की नानी।


करके याद नानी की बातें,

पाते चट कर जाए।

फुदक-फुदक कर फदगुदी ने,

फड़-फड़ पर पसराए।






Sunday, 15 May 2022

तुभ्यमेव समर्पयामि

ख्वाहिशों का घर गिरा हो,

घोर निराशा तम घिरा हो।

तो न जीवन को जला तू,

खोल अंतस अर्गला तू।


मन  प्रांगण में बसे हैं,

जीवन ज्योति धाम ये।

तिमिर से बाहर निकल,

आशा का दामन थाम ले।


ले वसंत का अज्य तू और,

ग्रीष्म की हो सत समिधा।

हव्य समर्पण हो शिशिर का,

पुरुष सूक्त की यज्ञ विधा।


सृष्टि के आदि पुरुष का,

दिव्य भाव मन अवतरण।

हो प्रकृति के तंतुओं का,

कण -कण सम्यक वरण।


अणु प्रति के परम अणु,

सौंदर्य दिव्य विस्तार हैं।

सृष्टि है एक पाद सीमित,

तीन अनंत अपार हैं।


उस अनंत में घोलो मन को

त्राण तृष्णा से तू पा लो।

 ' तुभ्यमेव समर्पयामि '

कातर कृष्णा-सा तू गा लो।


Saturday, 7 May 2022

हँसना है मजबूरी।

सच कहते हो, मैं हँसता हूँ ,

हँसना  है  मजबूरी।

धुक-धुक दिल की मेरी सुध लो,

इसकी साध अधूरी।


नहीं गोद अब इसे मयस्सर,

जिसमें यह खो जाए!

आँचल उसका  गीला  कर दे, 

मन भर यह रो जाए।


सुबक-सुबक कर जी भर  बातें, 

दिल में उसके बोले ।

हर सिसकी पर उर में उसके, 

भाव भूचाल-सा डोले।


फिर क्रोड़ से करुणा की, 

भागीरथी भर आए।

मन के कोने-कोने को, 

शीतल तर  कर  जाए।


बस मन रखने को मेरा, 

चाँद पकड़ वह  लाए।

उसकी  दूधिया चाँदनी में,

सूरज को नहलाए।


ग्रह-नक्षत्र, पर्वत, नदियाँ, 

चिड़िया, परियों की रानी।

दुलराए और मुझे सुनाए, 

‘माँ, कह एक कहानी’।


मंद-मंद मुन्ने की मुस्की,

माँ का मन अघाए।

पुलकित संपुट के प्रसार में, 

सभी कला छितराए।


अब चंदोवा-सी उस गोदी से ,

दीर्घ काल की दूरी।

छिन  गयी गोदी, अब क्यों रोना?

हँसना  है  मजबूरी!


Thursday, 5 May 2022

पहले पतझड़, फिर बसंत

सूखा सैकत सूर्यसुता का,

वृंदावन भी ख़ाली है।

कालिय के कालकूट से 

हुई कालिन्दी काली है।



गुल चमन  नहीं खिलते हैं, 

अलि आली भी  नहीं मिलते हैं।

बाग बीज विरह बोया है,

जीवन का सौभाग्य सोया है।


चाँद चुप और शांत पौन है,

पर्वत थिर और नदी  मौन है।

ठंडी किरणें सूरज काला,

जहर जुन्हाई माहूर हाला।


काली रात कर्कश काटी है,

धरती की छाती फाटी है।

अंतरिक्ष पर्जंय सूखा है,

मन का अंतर्भाव भूखा है।


पल पर परलय का पहरा है,

तिमिर विश्व पसरा गहरा है।

आशा का किंतु, कहाँ अंत है!

पहले पतझड़ फिर बसंत है।