सच कहते हो, मैं हँसता हूँ ,
हँसना है मजबूरी।
धुक-धुक दिल की मेरी सुध लो,
इसकी साध अधूरी।
नहीं गोद अब इसे मयस्सर,
जिसमें यह खो जाए!
आँचल उसका गीला कर दे,
मन भर यह रो जाए।
सुबक-सुबक कर जी भर बातें,
दिल में उसके बोले ।
हर सिसकी पर उर में उसके,
भाव भूचाल-सा डोले।
फिर क्रोड़ से करुणा की,
भागीरथी भर आए।
मन के कोने-कोने को,
शीतल तर कर जाए।
बस मन रखने को मेरा,
चाँद पकड़ वह लाए।
उसकी दूधिया चाँदनी में,
सूरज को नहलाए।
ग्रह-नक्षत्र, पर्वत, नदियाँ,
चिड़िया, परियों की रानी।
दुलराए और मुझे सुनाए,
‘माँ, कह एक कहानी’।
मंद-मंद मुन्ने की मुस्की,
माँ का मन अघाए।
पुलकित संपुट के प्रसार में,
सभी कला छितराए।
अब चंदोवा-सी उस गोदी से ,
दीर्घ काल की दूरी।
छिन गयी गोदी, अब क्यों रोना?
हँसना है मजबूरी!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (8-5-22) को "पोषित करती मां संस्कार"(चर्चा अंक-4423) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
जी, सादर आभार!!!
Deleteउत्कृष्ट भाव संयोजन !!
ReplyDeleteये कमी तो रहेगी ! इसलिये आंसुओं को मुस्कुराहट के पीछे छुपा लेना होता है।आप की रचना पढ़ कर आंसू कहीं बग़ावत न कर बैठें !
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना रविवार ८ मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमाँ से है सारा संसार, कोई करे न माँ जैसा प्यार ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteअब चंदोवा-सी उस गोदी से ,
ReplyDeleteदीर्घ काल की दूरी।
छिन गयी गोदी, अब क्यों रोना?
हँसना है मजबूरी!
माँ के सिवाय कौन है आँसू पौंछने वाला दुनिया में...
दिल को छूकर आँखे नम करती बहुत ही भावपूर्ण रचना ।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमां के प्रति निर्मल विहवल भावों का सुंदर प्रवाह । उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह कितनी मोहक लय। मनोरम कविता
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteअब चंदोवा-सी उस गोदी से //
ReplyDeleteदीर्घ काल की दूरी//
छिन गयी गोदी, अब क्यों रोना//
सना है मजबूरी!
अब चंदोवा-सी उस गोदी से ,/दीर्घ काल की दूरी।छिन गयी गोदी, अब क्यों रोना?/हँसना है मजबूरी!/
ReplyDeleteआदरणीय विश्व मोहन जी,माँ के साथ इन्सान का बचपन,परिकथाएँ ,वात्सल्य भरी मनुहार और दुलार सब विदा हो जाता है।फिर हँसना मात्र मजबूरी ही तो रह जाता है।आँचल की छाँव तले संजोये सपनों की उस जादुई संसार का कोई सानी नहीं है।मातृविहीन हृदय का बहुत ही मार्मिक और भावभीना एकाकी प्रलाप,जो हृदय को विदीर्ण कर गया।सादर 🙏🙏
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबेहद भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर मधुर रचना
ReplyDeleteबस मन रखने को मेरा,
ReplyDeleteचाँद पकड़ वह लाए।
उसकी दूधिया चाँदनी में,
सूरज को नहलाए।
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बहुत खूब।
सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ और बधाईयाँ।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteवाह .... बचपन में लौटा दिया आपने ... माँ के करीब बिताये दिन याद आ गए ...
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजी, अत्यंत आभार!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर 🙏💕
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
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