Thursday 5 May 2022

पहले पतझड़, फिर बसंत

सूखा सैकत सूर्यसुता का,

वृंदावन भी ख़ाली है।

कालिय के कालकूट से 

हुई कालिन्दी काली है।



गुल चमन  नहीं खिलते हैं, 

अलि आली भी  नहीं मिलते हैं।

बाग बीज विरह बोया है,

जीवन का सौभाग्य सोया है।


चाँद चुप और शांत पौन है,

पर्वत थिर और नदी  मौन है।

ठंडी किरणें सूरज काला,

जहर जुन्हाई माहूर हाला।


काली रात कर्कश काटी है,

धरती की छाती फाटी है।

अंतरिक्ष पर्जंय सूखा है,

मन का अंतर्भाव भूखा है।


पल पर परलय का पहरा है,

तिमिर विश्व पसरा गहरा है।

आशा का किंतु, कहाँ अंत है!

पहले पतझड़ फिर बसंत है।


28 comments:

  1. बहुत बहुत सुन्दर

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(०६-०५-२०२२ ) को
    'बहते पानी सा मन !'(चर्चा अंक-४४२१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. अंतरिक्ष पर्जंय सूखा है,
    मन का अंतर्भाव भूखा है।
    -सत्य
    सुंदर रचना

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  5. आशा से आकाश थमा!!विरह के अद्भुत भाव और आशा का संचार!!बहुत सुन्दर रचना!

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  6. गुल चमन नहीं खिलते हैं,
    अलि आली भी नहीं मिलते हैं।
    बाग बीज विरह बोया है,
    जीवन का सौभाग्य सोया है।
    सुंदर व्याख्या
    सादर..

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  7. वाह!विश्वमोहन जी ,बहुत खूब!

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  8. कमाल का सृजन

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  9. Nice parallel drawn between the internal and external environment, and forever ending on a positive note.

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  10. जीवन की तमाम दृश्य और अदृश्य संभावनाओं में जो चिरंतन है, वह बस आशा है जो कभी नहीं मरती। यही पतझड़ के बाद बसंत का स्वप्न संजोने को बाध्य करती है।सुन्दर प्रस्तुति हमेशा की तरह ।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय विश्वमोहन जी 🙏🙏

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  11. आशा का किंतु, कहाँ अंत है!

    पहले पतझड़ फिर बसंत है।

    एक आशा ना हो तो जीवन में निराशा ही निराशा है।
    बसंत के आगमन के आस में ही तो पतझड़ झेल जाता है इंसान,
    सुंदर सृजन,सादर नमन आपको

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  12. सही कहा प्रकृति के हर कलाप में एक तारतम्यता रहती है पहले पतझर फिर बसंत! जाना और आना !
    कालिय के कालकूट से ,हुई कालिन्दी काली है।
    तपते सूरज से तपता वसुधा का हर कोना।
    सुंदर व्यंजनाएं।


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  13. बहुत बढ़िया। सदैव आपकी रचनाओं से सीखने को मिलता है।

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  14. अद्भुत सृजन।

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  15. बहुत ही आशावादी कविता !
    मित्र, हमारे जीवन में कुल 71 पतझड़ बीत गए पर सही मायने में बसंत तो अभी तक आया नहीं है.
    मुझे बसंत से कोई शिकायत नहीं है. उसने अगर वादा किया है तो फिर वह ज़रूर आएगा. लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर रह-रह कर याद आ रहा है -
    'हमने माना कि तगाफ़ुल न करोगे लेकिन,
    खाक़ हो जाएंगे हम, तुमको ख़बर होने तक.'

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    1. जी, हमें तो लगता है कि बचपन में ही आपने बसंत को इस क़दर मुट्ठी में जकड़ लिया है कि बेचारा पतझड़ दूर खड़ा कसमसा रहा है। इसीलिए पतझड़ बीतता रहा लेकिन बसंत चिपका रहा। भगवान आपके बसंत को चिर युवा बनाए रखे।अत्यंत आभार।

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  16. सुन्दर, सकारात्मक सन्देश प्रेषित करती अनुपम प्रस्तुति

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