ख्वाहिशों का घर गिरा हो,
घोर निराशा तम घिरा हो।
तो न जीवन को जला तू,
खोल अंतस अर्गला तू।
मन प्रांगण में बसे हैं,
जीवन ज्योति धाम ये।
तिमिर से बाहर निकल,
आशा का दामन थाम ले।
ले वसंत का अज्य तू और,
ग्रीष्म की हो सत समिधा।
हव्य समर्पण हो शिशिर का,
पुरुष सूक्त की यज्ञ विधा।
सृष्टि के आदि पुरुष का,
दिव्य भाव मन अवतरण।
हो प्रकृति के तंतुओं का,
कण -कण सम्यक वरण।
अणु प्रति के परम अणु,
सौंदर्य दिव्य विस्तार हैं।
सृष्टि है एक पाद सीमित,
तीन अनंत अपार हैं।
उस अनंत में घोलो मन को
त्राण तृष्णा से तू पा लो।
' तुभ्यमेव समर्पयामि '
कातर कृष्णा-सा तू गा लो।
बहुत सुन्दर ! तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा ---
ReplyDeleteमैं तुझसे...तुझको मेरा अर्पण❤️
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार। मेरे समर्पण भाव के प्रसाद रूप में अवतरित हुए मेरे हमनाम और हमनवां का हार्दिक स्वागत🙏🙏🙏
Deleteवाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 16 मई 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 16 मई 2022 को 'बुद्धम् शरणम् आइए, पकड़ बुद्धि की डोर' (चर्चा अंक 4432) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
मननपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteहे अनंत हे दिगदिगंत सर्वस्व समर्पण है तुमको ।
ये मेरे भावों की माला निश दिन प्रतिपल अर्पण तुमको ।।
बहुत सुंदर। अत्यंत आभार।
Deleteआध्यात्मिक जीवन की ओर इशारा करती.. शब्द शब्द अंतस भावों को उकेरती सुंदर रचना।
ReplyDeleteशुभकामनाएँ
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteघोर निराशा में आशा का संचार करती बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteईश्वर को समर्पित , आध्यात्म का सुख देती रचना ...वाह विश्वमोहन जी...मन को छू गई पूरी की पूरी रचना कोश में रख रही हूं...अणु प्रति के परम अणु,
ReplyDeleteसौंदर्य दिव्य विस्तार हैं।
सृष्टि है एक पाद सीमित,
तीन अनंत अपार हैं।...बहुत सुंदर
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। हरि: ॐ
ReplyDeleteभुंजीथा:, मा गृध:!!! जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteप्रकृति से जन्मा मानव अंत में अंशरूप में उसी में विलीन हो जाता है।सो,जीवन में समस्त पीड़ाओं से त्राण पाने हेतु 'तुभ्यमेव समर्पयामि'- सा विराट विचार बहुत बड़ा संबल प्रदान करता है।एक अनुपम सन्देशपरक रचना,जिसमें वैराग्योन्मुखी हृदय का सूक्ष्म आह्वान है।सादर 🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह! बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमन प्रांगण में बसे हैं,
ReplyDeleteजीवन ज्योति धाम ये।
तिमिर से बाहर निकल,
आशा का दामन थाम ले।
आशा का दामन थाम खुद को सम्हालना तो फिर भी आसान है मगर.. पूर्ण समर्पण थोड़ा मुश्किल...
हमेशा की तरह लाजबाव सृजन,सादर नमस्कार आपको 🙏
जीव जन्म विलय प्रकृति यह जीवनचक्र है
ReplyDeleteभंगुरता का शाश्वत गान सुनो भावनाएँ अक्र है।
-----///----
समृद्ध शब्दावलियों से अलंकृत, अत्यंत विराट भाव लिए बेहद सारगर्भित जीवन दर्शन का प्रशंसनीय गान।
प्रणाम
सादर।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteत्वदीयं वस्तु गोविन्द ,तुभ्यमेव समर्पये.
ReplyDeleteऔर है क्या संसार में?!
सुंदर अभिव्यक्ति।
सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
DeleteNice Sir .... Very Good Content . Thanks For Share It .
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