साथ - साथ गिरते - दौड़ते, चौकड़ी भरते दोनों पिछले दो फागुन से एक दूसरे के जीवन मेंअपने स्नेह और अपनापन का रंग भर रहे थे। यह देख-महसूस कर उसका बाल मन अघा जाता कि पिता ने भी उन दोनों पर अपने प्राण निछावर कर दिए थे।
मेमने के मुँह की हरी घास उसके मुँह में स्वाद भर देती। घंटी टुनटुनाती उसके गले की रस्सी हमेशा मनु थामे रहता। घंटी की रुनझुन पर झूमते दोनों के सामने न जाने ये तीसरा फागुन दस्तक देने कब पहुंच गया! ...........
मनु पछाड़े मारकर रो रहा था। कसाई के हाथों में मेमने का पगहा था। पिता के हाथों में गुलाबी रुपए, मुख पर मुस्कुराहट और आंखों में चमक थी। मेमने की निरीह आँखों में मायूस मनु था। गंगा-जमुना की धार मनु की आंखों से बह रही थी। एक अज्ञात भय उसके मन को कँपा रहा था; कहीं अपने स्नेह से उसको बांधने वाली डोर भी पिता किसी और के हाथों में न थमा दें!
कसाई अब मैं और बस मैं ही भगवान हूं कह चुका है हिम्मत है किसी की भगवान जी से पंगा लेने की?
ReplyDeleteगुलाबी नोट की महिमा है। जी, अत्यंत आभार।
DeleteThe contrast between innocent childhood and hardened adulthood beautifully depicted.
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-05-2022) को चर्चा मंच "पहली बारिश हुई धरा पर, मौसम कितना हुआ सुहाना" (चर्चा अंक-4441) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteएक मर्मभेदी लघुकथा आदरनीय विश्वमोहन जी जो सरल बालमन के भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। बालक मनु नहीं जान पाता , कि मेंमने के लिए संवेदनाशून्य पिता से उसका अपना कितना गहरा सम्बंध है !मेमने को बिकता देख उसका भयातुर बालमन असुरक्षा की भावना का शिकार हो खुद को भी मेमने सरीखा खरीद- फरोखत का सामान समझ लेता है।एक लघुकथा की सफलता इसी में है कि वह अपनी सीमित विषयवस्तु के बावजूद अन्त में एक सन्नाटा छोड़ जाती है।'स्नेह की डोर ' एक सफल लघुकथा कही जा सकती है।सादर 🙏🙏
ReplyDeleteजी, बहुत आभार लघु कथा के वृहत मर्म को टटोलने हेतु।
Deleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 25 मई 2022 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!!
Deleteनिस्तब्ध !!!
ReplyDeleteमेमने के जन्म के साथ ही ये नियति लिख दी गयी थी |
ReplyDeleteजी,अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत भावपूर्ण , मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
DeleteI actually got goosebumps while reading this short story. With just a few words , you have expressed the harsh reality of life so well. Very Emotional !!
ReplyDeleteGlad to recieve this encouraging note from a vigilant reader. Thanks a lot!
Deleteबहुत सुन्दर कथा !
ReplyDeleteमनु अभी नादान है. बड़ा हो कर वह समझ जाएगा कि जब गुलाबी नोटों के लिए तो धर्म-मज़हब, ईमान और ज़मीर, तक बिक जाते हैं तो प्यार और जज़्बात बेचने में किसे संकोच होगा.
मतलब, मानव मन की मलीनता का एक कारण उसकी बढ़ती उम्र और समझ भी है जो पर्यावरण के समान ही घोर प्रदूषण के दौर से गुजर रही है। आपका अत्यंत आभार!!!
Deleteमर्मस्पर्शी । बाल मन पर कुठाराघात कर दिया उसके पिता ने ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteकाश! बालमन हमेशा सबका रह पाता
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह!विश्वमोहन जी ,बहुत ही हृदयस्पर्शी ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमार्मिक
ReplyDeleteबहुत अच्छी कथा
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबेहद भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबालमन पर कुठाराघात करती सार्थक और मर्मस्पर्शी लघुकथा ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमर्मस्पर्शी लेखन। बाल मन का असल दुनिया से पहला परिचय दिल बींध देता है। वैसे अक्सर ऐसे काम बच्चों की अनुपस्थिति में किए जाते हैं।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteओह ,
ReplyDeleteअपने अपने मन के भाव , बेहतरीन चित्रण
जी, अत्यंत आभार!!!
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