आज अखबार
में डा० बशिष्ठ नारायण सिंह के जन्मदिन की खबर पढ़कर नयन आर्द्र हो गए. बालपन में
होनहार किरदारों के बारे में जो जानकारी मिलती है वह स्मृति पटल पर सदैव सजीव रहती है. उसमे कोई ऐसा व्यक्तित्व जो महानायक बनकर आपके दिलो दिमाग पर छा जाए, जिसकी
अभ्यर्थना में आप अपनी निश्छल भावनाओं के समस्त प्रसून समर्पित कर दें और समय के प्रवाह
में वही व्यक्तित्व कालसर्प के विषैले दंश का आखेट बन एक सामान्य सी जिन्दगी भी
जीने को मुहताज हो जाय तो नियति की इस निष्ठुरता पर दृग जल का छलक जाना अस्वाभाविक नहीं! बालपन की ड्योढ़ी पार
कर कैशोर्यावस्था के आलिंगन में समाने का
ही तो समय होता है दसवीं पास करके ग्यारहवीं (तब इसे हम आई,एस,सी , यानी
इंटरमीडिएट ऑफ़ साइंस कहते थे ) कक्षा में जाने का. ये वो वय होती है जब बड़े आपको
बड़े नहीं मानते और छोटे आपको छोटे नहीं मानते. उम्र की ये त्रिशंकु अवस्था अदम्य
ऊर्जा, जीवंत जीवट और जिज्ञासा का स्वर्ण काल होती है.जीवन मूल्यों के सही आकार
लेने का काल होता है यह. हमारा नामांकन
पटना साइंस कॉलेज में हुआ था. कोआर्डिनेट ज्योमेट्री की कक्षा थी. ड़ा० डी पी वर्मा
आये थे क्लास लेने. उन्हें अनुशासनहीनता का आभास हुआ. विद्वान् प्रोफेसर भावुक हो
गए.
इस कथ्य
को आगे बढाने से पहले आपको थोड़ा परिचय पटना साइंस कॉलेज का देना भी अपेक्षित होगा.
१९२७ में पटना विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के रूप में स्थापित पटना साइंस
कॉलेज की नींव भारत के तत्कालीन वायसराय
लार्ड इरवीन ने १५ नवम्बर १९२८ को
डाली. यह महाविद्यालय अभी हाल के दशकों तक एक विश्व प्रसिद्द उत्कृष्ट विज्ञान
संस्था के रूप में जाना जाता था, जहां बिहार के सुदूर गाँव की अनोखी प्रतिभाएं
अपनी शैक्षणिक छवि तराशती थी. यहाँ आई एस सी में नामांकन हो जाना गौरव की बात मानी
जाती थी.
असाधारण
कोटि की प्रतिभा से संपन्न शिक्षकों की टोली स्नाकोत्तर से आई एस सी तक की कक्षाएं
लेती थी. इसलिये छात्रों को अपनी प्रवेशिका स्तर के पठन पाठन विशेषकर विज्ञान की
शिक्षा के शैशव काल में ही ऐसे कुशल शिक्षा शिल्पियों से तरासे जाने का सौभाग्य
मिलता जो उन्हें समाज के भविष्य की अमूल्य धरोहर के रूप में गढ़ देता. फैराडे,
कैवेंडिश, न्यूटन, रामानुजम, संतोष भवन औआर सी वी रमण - ये छः छात्रावास थे जो अपने
अन्तेवासियों में अपने नाम के अनुरूप संस्कार गढ़ने का पर्यावरण सतत प्रस्तुत करते.
मै इंटर प्रथम वर्ष (आज की ग्यारहवीं कक्षा) में रामानुजम भवन और
द्वितीय वर्ष (बारहवीं कक्षा) में न्यूटन हाउस का अन्तेवासी था. न्यूटन हाउस में
मै काशीजी के मेस में भोजन करता था. काशीजी बड़े चाव से छात्रों को उनके बेड के
पूर्वज छात्रों की कहानी सुनाते. इस प्रक्रिया में जाने अनजाने संसकारों का संचरण
पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता और प्रत्येक अन्तेवासी अपने बेड के गौरवशाली इतिहास की
गरिमा बढाने की जुगत में सतत जुटा रहता. उस जमाने में कोचिंग संस्थानों की
कुकुरमुत्ता संस्कृति का उद्भव नहीं हुआ था. शिक्षक और छात्रों की पारस्परिक
प्रतिबद्धता अपनी पराकाष्ठा पर थी. प्रति वर्ष यह कॉलेज अकेले करीब ६० से ७० छात्रों को देश के प्रतिष्ठित आई आई
टी संस्थानों में भेजता.
अब हम इस
संक्षिप्त परिचय के बाद उस घटना पर आते है जिसका हम जिक्र कर रहे थे. डी पी वर्मा
गणित के उद्भट विद्वान् थे . उनके छोटे भाई, एच सी वर्मा, भी अभी नए नए फिजिक्स के
लेक्चरर बने थे जो आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर हैं तथा जिनकी फिजिक्स की
पुस्तक पुरे देश के लडके आज कल पढ़ते हैं. तो, हमारे विद्वान् प्रोफेसर जैसे ही
क्लास में थोड़े विलम्ब से पहुंचे उनकी नज़र ब्लैक बोर्ड पर पड़ी जिसपर किसी छात्र
(वो छात्र भी आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर है!) ने शरारत में उनके विलम्ब पर
अपनी व्यग्र टिपण्णी दर्ज कर दी थी:- "This class will not take place
due to sudden demise of our beloved coordinate teacher"
अर्थात, 'कोआर्डिनेट ज्यामिति के हमारे प्रिय शिक्षक के आकस्मिक निधन के कारण यह
कक्षा नहीं लगेगी.' और इससे पहले कि इस टिपण्णी को मिटाया जाता, प्राध्यापक महोदय
का आकस्मिक आगमन हो गया ! सर अपनी आदत के अनुरूप हाथ में डस्टर उठा कर ब्लैक बोर्ड
की ओर मुड़े और जडवत हो गए. सारे क्लास को तो मानो काठ मार गया.और फिर उनकी आहत
भावनाओं की गंगा में वेदना की सरस्वती और करुणा की यमुना ने मिलकर जो त्रिवेणी धार
बहायी वो छात्रो के नयनों को बहुत देर तक आप्लावित करती रही. रुंधे स्वर में कक्षा
ने गुरु से क्षमा याचना की. गुरु के वात्सल्य का गौरव भी हिमालय की तरह उदात्त था.
उसी 'एक दूसरे के आंसू पोछने' के भींगे माहौल में गुरु ने छात्रों को उनकी विरासत की महिमा का भान दिलाने
के क्रम में अपने पुराने छात्र वशिष्ठ की कहानी सुनायी और हम सभी छात्र पुरी
तन्मयता से उस कथा गंगा में डूबकी लगाते रहे.
वशिष्ट नारायण सिंह ने अपने बैच में मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा में प्रसिद्द नेतरहाट विद्यालय (मेरे अनुज यहाँ के छात्र
रह चुके हैं) से बिहार में सर्वोच्च स्थान
प्राप्त किया था . जहां तक मुझे याद है , उनके
८०३ अंको का कीर्तिमान १९७८ तक रहा था. प्रथम वर्ष में ही उनकी चमत्कारी
प्रतिभा से शिक्षकों की आँखे चौधियाने लगी. नाथन-बासु-आइन्स्टीन थ्योरी
की प्रसिद्धि वाले प्रसिद्द वैज्ञानिक
ड़ा० नागेन्द्र नाथन साइंस कॉलेज के प्राचार्य थे . देवकांत बरुआ बिहार के
राज्यपाल और पटना विश्वविद्यालय के चांसलर थे. विशेष व्यवस्था के तहत वशिष्ठजी को
इंटर प्रथम वर्ष में ही बी एस सी हौनर्स
की परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गयी . प्रोफेसर वर्मा अपनी आँखों में एक
अद्भुत चमक समेटे कक्षा में वशिष्ठजी के व्यवहार का बखान कर रहे थे . वह छोटी छोटी
गलतियों पर उग्र हो टोकाटाकी करते. गणित की किसी समस्या को सुलझाने का उनका अपना
एक गैर पारंपरिक स्वतंत्र तरीका होता तथा वह समस्या के समाधान के लिए एक से अधिक
रास्तों से एक साथ प्रयाण करते. उनकी सूझ विलक्षण होती तथा एक अलग प्रकार का नयापन
होता.
इस अर्जुन को एक द्रोणाचार्य प्रोफेसर केली के
रूप में मिला जो इन्हें कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ले गए. वहां 'साइकिल वेक्टर स्पेश
थ्योरी' पर पीएचडी की और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बने. नासा
में काम करने का मौक़ा मिला. अमेरिका सरकार ने रोकने की कोशिश की तो भारत लौट आये.
यहाँ आई आई टी कानपुर, , टाटा
इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और भारतीय सांख्यिकी संस्थान जैसे प्रसिद्द संस्थानों
में काम किया. वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत को चुनौती दी
थी. उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर
कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का
कैलकुलेशन एक था. सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. शादी भी वन्दना रानी के साथ हो गयी . लेकिन
नियति की निष्ठुरता ने इस गणित नायक को धर दबोचा . वशिष्ठजी ' सिजोफ्रेनिया' के शिकार
हो गए. उनका इलाज़ रांची में चल रहा था. १९८९ में बशिष्ठ्जी अचानक लापता हो गए. १९९३
में सारण के एक कस्बे, डोरीगंज, में उन्हें भिखारियों
के झुण्ड में पत्तल चाटते देखा गया, जहां से वापस घर लाया गया. इस कारुणिक प्रसंग को
सुनकर हमें वाकई उनकी भाभी प्रभावतीजी की बात
कचोटती है कि:-
"हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो
डॉक्टरों की लाइन लग जाती है. लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता
है. बाक़ी तो यह पागल खुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना
दिया."
वशिष्ठजी हाथ में पेंसिल लिए दीवारों में हलके से कुछ
बुदबुदाते हुए लिखते नज़र आते. चिडचिडापन ने उनके स्वभाव में घर बना लिया था. २००४ मे
मै प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली सरकार में ' मानव व्यवहार एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान'
में अधिशासी अभियंता के पद पर पदस्थापित हुआ था. पता चला कि एक साल पहले तक वह वहां
इलाज़ के लिए भर्ती थे. मै उस वार्ड की कक्षा में जाता और अपने आदर्श नायक की याद में
कुछ नम पल बिताता. उनकी सेवा मे लगे वार्ड बॉयज से उनकी हरकतों के बारे में कुतूहल
से सुनता.. लेकिन उनको समीप से दर्शन करने की बलवती इच्छा फलवती हुई कुछ तीन एक साल
पहले पटना के रविन्द्र रंगशाला में आयोजित विश्व भोजपुरी सम्मलेन में, जहां उनको सम्मानित
करने के लिए बुलाया गया था. साथ में मालिनी अवस्थी, भरत व्यास, मनोज तिवारी और अन्य लोग भी थे . पिछली पंक्ति में मेरे महानायक
एक अबूझ पहेली से अपने भाई के साथ निर्भाव
रूप से खड़े थे. बिखरे बाल, चिथड़ी दाढ़ी,, क्लांत, बुझे बुझे, खोये खोये ! किन्तु, चहरे
पर तैरती एक रहस्मय दार्शनिकता , मानो इस ब्रह्मांड में छिपे किसी गुह्यातगुह्यतम आख्यान
का मौन संधान कर रहे हों ! गणित की एक अबूझ पहेली ! मैं मंत्रमुग्ध ,हतशून्य
निगाहों से उन्हें निहारे जा रहा था और मेरे कानों में अपने भाव विह्वल प्रोफेसर वर्मा की आर्द्र वाणी फिर से गूंजने लगी
थी............!