कहते हो मैं छंद छोड़ दूँ,
भाव लय अनुबंध तोड़ लूँ!
मित्र, छंद को क्यों छोड़ुं मैं?
भाव लय अनुबंध तोड़ लूँ!
मित्र, छंद को क्यों छोड़ुं मैं?
काव्य
शास्त्र को क्यों
तोड़ुं मैं?
भाव गंगा
के कलकल-छलछल,
प्रांजल प्रवाह
को क्यों मोड़ुं
मैं?
कवित्त-प्रवाह के तीर ‘तुक’ हैं,
अंतस से उपजे भाव ‘हुक’ हैं.
फिर दोनों को क्यों न जोड़ुं मैं?
मित्र छंद को क्यों छोड़ुं मैं
जैसे कन्हैया राधामय हैं,
शक्ति नहीं तो शिव प्रलय है.
पुरुष संग प्रकृति अक्षय है,
संगीत सुर का संचय है.
रस हो तो जीवन की जय है,
शब्दों मे अक्षर का लय है.
फिर, मन की मदमस्त धारा
को,
गीतों ही में क्यों न हिलोड़ुं मैं.
मित्र छंद को क्यों छोड़ुं मै?
------- विश्वमोहन