Saturday 25 January 2014

स्व-छंद


कहते हो मैं छंद छोड़ दूँ, 
भाव लय अनुबंध तोड़ लूँ!

मित्र,  छंद  को  क्यों  छोड़ुं  मैं?
काव्य  शास्त्र  को  क्यों  तोड़ुं  मैं?

भाव गंगा  के  कलकल-छलछल,
प्रांजल प्रवाह  को  क्यों  मोड़ुं  मैं?

कवित्त-प्रवाह के तीर तुक हैं,
अंतस से उपजे भाव हुक हैं.

फिर दोनों को क्यों न जोड़ुं मैं?
मित्र छंद को क्यों  छोड़ुं मैं

जैसे कन्हैया राधामय हैं,
शक्ति नहीं तो शिव प्रलय है.

पुरुष संग प्रकृति अक्षय है,
संगीत  सुर का संचय है.

रस हो तो जीवन की जय है,
शब्दों मे अक्षर का लय है.

फिर, मन की मदमस्त धारा को,
गीतों ही में क्यों न हिलोड़ुं मैं.

मित्र छंद को क्यों छोड़ुं मै?

        ------- विश्वमोहन

पहला दीया

वक्त के दर्दों को कबतक संयम से सहलाऊं,
मन के ज़ख्मों को, कौन सा मलहम लगाऊं.

दुख  की  दरिया  में  डूबती है  जिंदगी,
बता तूँ ही, मुझे, किस साहिल के सहारे लगाऊं.

अतीत को बिसराऊं, वर्तमान की वर्त्तिका जलाऊं,
या भविष्य  की भरमाती भूल-भुलैया में, भुला जाऊं.

मुमकिन है, जीवन के बंजर से बियाबान रेगिस्तान में,
कामनाओं  की मृग-मरीचिका में कहीं  खो ना जाऊं.

डरकर ख्वाब ही न देखुं, कत्तई बुज़दिल नहीं मैं,
देह धंसा रेत के महल ही बनाने के काबिल सही मैं.

होती हर सजावट की शुरुआत, बिखराहट से ही,
और फिर अंत, उजड़ जाने की उदास आहट में ही.

बिखरना, सजना, उजड़ना और और फिर सज जाना,
अंकुरना, बढ़ना, फुलाना, फिर फल बनकर लरज जाना.

पुंकेसर प्रणीत पराग-कणों का बीज बन धरती पर झड़ना,
उत्थान-पत्तन, उठना-गिरना और फिर गिरकर बढ़ना-चढ़ना.

मिलना-बिछुड़ना, हंसना-रोना, राग-रंग में सटना-जूटना
पुरुष-प्रकृति की इस कुदरती परम्परा का कभी न टूटना.

प्रकृते, पल-पल तेरे कण-कण में यहीं संजीवनी पाऊं,
फिर ठहर ज़िंदगी, दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

 दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

मौसम

मौसम बदले या बदले लोग/
परिवर्तन है प्रकृति का भोग//

जीव- जगत सब क्षणभंगुर हैं/
जीवन का यह सत्य क्रुर है//

दिल सूखा और आंखे नम हैं/
दुख की बदरी का झमझम है/

पहले काल निशा का गम है/
 चांद हंसे तो फिर पुनम है//

आने-जाने का ये क्रम है/
इसी का नाम, प्रिये, मौसम है//

                                    ----- विश्वमोहन

प्रकृति

धरती  की  तपती  छाती  पर,  
रिमझिम बूँदों का  टप-टप पड़ना।
सूखी-भूखी  भुरभुर माटी,
सोंधी-सोंधी छौंक का उड़ना।
उमसे-गुमसे गगन में बादल,  
मचल-मचल गर्जन करते हैं।
अंजुली-भर  जलकण भर कर,  
वसुधा पर नर्तन करते हैं।

नव ऋतु की इस सृजन वेला में,
प्रेयसी, छेड़ें आओ तान।
सस्वर स्वागत  करो ये सजनी,
आश्विन का है नया विहान।
नव श्रृंगार  मधु मौसम में,
ली नवचेतन ने अंगड़ाई।
प्रकृति के नव प्रभात में,
शिशिर की सुरीली शहनाई।

शनैः शनैः अब शीत शशक का,
अम्बर में उल्लास मनाना। 
सूने फैले नीलांचल में,  
भगजोगनी संग रास रचाना।
तारक सज्जित रजत पटल पर,
चंदा का मंद-मंद मुस्काना।
पवन प्रकम्पित पत्रदलों पर,
शबनम का अब लूटे खजाना।

पूनम के इस प्रेम प्रहर में,
सजनी, प्रीत के गीत सुनाना।
कल बीत जाना, फिर कल आना,
सृष्टि का ये चलन पुराना।
तपना, भींगना और ठिठुरना,
मौसम का ये ताना-बाना।
जीवन चक्र ऐसे ही चलता,
उद्भव, पलना और गुजरना।

हिम तरल बन वाष्प में परिणत,
फिर तुषार का वापस पड़ना।
जगत मिथ्या, ब्रह्म्-सत्यम दर्शन,
चिन्मय चिंतन चिरंतन चरना।  
नैसर्गिक पावन उपवन में,
विश्वमोहिनी,  हरदम हँसना।
मेरे हमदम हरदम हँसना, 
विश्वमोहिनी, हरदम हँसना।

       ----- विश्वमोहन     

जनतंत्र का जनाजा !


सदन के पटल पर,
 जैसे ही आया प्रस्ताव I
 जेल में सजायाफ्ता कैदी,
 भी लड़ सकेंगे चुनाव I
 लोकतंत्र के मंदिर में बैठे,
 कौओं ने किया समवेत कांव-कांव I
 न्यायपालिका की पिटी भद्द,
 और फिरा उलटा दांव I
 नरभक्षी नेताओं ने न,
 देखा आव न देखा ताव I
 बस पंद्रह मिनटों में ही,
 हो गया पारित प्रस्ताव I
 भैया, कराहती जनता,
 और चुप राजा हैI
 दुनिया के सबसे जाली.
 जनतंत्र का यह जनाजा हैI  

         ----- विश्वमोहन     

रजत-मिलन

  

पहूंचे रूडकी के प्रांगण में
जैसे जीवन के सावन में.
खुशियों के बादल छा जाये                                           
मन मयूरी मधु रास रचाये.
सहपाठी मिले मनभावन
चुप चुप लौटा चपल बालपन.

वर्ष पच्चीस गतहुए हम दीक्षित
सृजन के श्रृंगार में शिक्षित.
नयी प्रेरणा से दीपित मन
नये सपनों से हर्षित लोचन. 
रजत काल में ऊर्जस्वित तन
चुप चुप लौटा चपल बालपन .

वसुधा के हर खंड से आकर
मिले हृदय में हृदय समाकर.
तन पुलकित है मन पुलकित है
मिलन राग से नभ गुंजित है.
और स्वरित है उर में धडकन
चुप चुप लौटा चपल बालपन .

दीक्षांत में विदा जो होकर
आईआईटी में उतर आज आये.
पंचविश के काल खंड का
अतिक्रमण कर के हैं आये.
भरे अंजुली में ज्ञान वो पावन
चुप चुप लौटा चपल बालपन.

जग में जहां जहां भी जाते 
रूडकी के कुल गीत सुनाते.
सृजन हित जीवन नित अर्पित
धरा स्वर्ग शोभा कर निर्मित "
श्रमं बिना न किमपि साध्यम
चुप चुप लौटा चपल बालपन .
 
"काटले", 'गंगा' कलकल छलछल
'गोविंद' की बंशी धुन निश्छल.
सुर-संगीत 'रवींद्र' मिलाकर
कोकील कंठ 'सरोजिनी' पाकर.  
रचा ज्ञान का स्वर सप्तक जो
मधुर ताल मिलन मनभावन.
चुप चुप लौटा चपल बालपन .


रजत मिलन, की विरह वेला ने
शाश्वत सत्य को उकेरा है.
बिछुडन है फिर मृदु मिलन है
है संझा, फिर सवेरा है.
चिंतन-चिन्मय चरैवति का,
अक्षत आर्य जीवन दर्शन है.
रजत विरह के बाद शेष भी
रूबी कोरल के मंगल क्षण हैं.


स्वर्ण मिलन का नवयौवन है
फिर हीरक का चिरयौवन है.
मेरे हमदम खुश रह हरदम
तेरे साथ  विश्वमोहन है
                   -------------- विश्वमोहन


प्रेम- पीयुष

पतित पावन पुण्य सलिला के प्रस्तर में
चारू चंद्र की चंचल चांदनी की चादर में
पूनम  तेरी पावस स्म्रृति के सागर में
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

अब विरह की घोर तपस में
प्रेम पीर की शीत तमस में
बिछुडन की इस कसमकश में
प्रणय के एक एक तंतु को
बडे जतन से मै बुनता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

मन के आंगन में तू आकर
चंचल नयनों से फुसलाकर
लागी लगन की धुन सुनाकर
फिर विरहा की टीस उसकाकर
प्रीत अमर के गीत जो छेड़े
मंद – मंद आंखें मुंदता  हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

तू क्या जाने पीर   परायी
मन मे कैसी अगन है छायी
फगुआ मे धरती क्यों बौरायी
आषाढ में बदरी क्यूं करियायी
सावन ने कैसी आग लगायी?
यक्ष को विरहण जैसे भायी
तू मेरे मन में लिपटायी
मेघदुत के फुहारों से
सजनी तुमको सिंचित करता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

परिणय में प्रणय जो पाया
प्रेम सुधा तन मन लपटाया
सपनों ने श्रृंगार सजाया
राग लगन का साज सजाया
अंतरीक्ष के सूनापन में
तू अपना अपनापन  भर दे
निशा निमंत्रण, मधु प्रहर में
प्रिये तू, अपना स्वर भर दे
प्रणीते, कल्पना के उन धुनों को मैं गुनता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.
                   ------------------ विश्वमोहन



अब तो भाग!

                       लगन की लाग
                                  श्रृंगार का फाग
                                  प्रेम का पाग
                                                प्रणय का राग
                                  चुनर में दाग
चितवन की आग       
                                  विरह का नाग
                                  माया के इस
                                  भ्रम- जाल में
                                  रे मन, क्यों भटके? 
                                  अब तो भाग ! 
अब तो भाग !
     -------- विश्व मोहन



साथी

मेरे अकेलेपन मे साथी
तुम आकर दस्तक देना.
दूर कहीं एकांत नभ में
मुझे भी सैर करा देना.

निस्सीम व्योम के अंचल में
सूनापन मन का फैलाना.
मेरे अकेलेपन  में साथी
तुम आकर दस्तक देना.




जीवन ने कौतुक कैसा खेला
मेरा निज शाश्वत अकेला.
जीवन की शुष्क तरंगो से
हलाहल मन का हर लेना.
मेरे अकेलेपन में साथी
तुम आकर दस्तक देना.


जीव  जगत  जब  मिलते हैं
नित नित नव रीत ये रचते हैं.
मेरी जड़ प्रकृति में साथी
अपने पुरुष का चेतन भर देना.
मेरे अकेलेपन में साथी
तुम आकर दस्तक देना.

आदि जनम है अंत मरण है
शैशव यौवन का मधुर मिलन है.
वृद्धावस्था की तड़पन है
काल चक्र का यहीं घुर्णन है.

माया के इस महाजाल से
साथी हमे सुलझा लेना.
मेरे अकेलेपन में साथी
तुम आकर दस्तक देना.



                                                                                    
तु अनादि है, तु अनंत है
मेरा मैं तेरा ही अंश है.
मेरे निज को हरकर हमदम
मुझको पूरा कर देना.
 मेरे अकेलेपन में साथी
तुम आकर दस्तक देना.

------ विश्वमोहन