Saturday, 25 January 2014

पहला दीया

वक्त के दर्दों को कबतक संयम से सहलाऊं,
मन के ज़ख्मों को, कौन सा मलहम लगाऊं.

दुख  की  दरिया  में  डूबती है  जिंदगी,
बता तूँ ही, मुझे, किस साहिल के सहारे लगाऊं.

अतीत को बिसराऊं, वर्तमान की वर्त्तिका जलाऊं,
या भविष्य  की भरमाती भूल-भुलैया में, भुला जाऊं.

मुमकिन है, जीवन के बंजर से बियाबान रेगिस्तान में,
कामनाओं  की मृग-मरीचिका में कहीं  खो ना जाऊं.

डरकर ख्वाब ही न देखुं, कत्तई बुज़दिल नहीं मैं,
देह धंसा रेत के महल ही बनाने के काबिल सही मैं.

होती हर सजावट की शुरुआत, बिखराहट से ही,
और फिर अंत, उजड़ जाने की उदास आहट में ही.

बिखरना, सजना, उजड़ना और और फिर सज जाना,
अंकुरना, बढ़ना, फुलाना, फिर फल बनकर लरज जाना.

पुंकेसर प्रणीत पराग-कणों का बीज बन धरती पर झड़ना,
उत्थान-पत्तन, उठना-गिरना और फिर गिरकर बढ़ना-चढ़ना.

मिलना-बिछुड़ना, हंसना-रोना, राग-रंग में सटना-जूटना
पुरुष-प्रकृति की इस कुदरती परम्परा का कभी न टूटना.

प्रकृते, पल-पल तेरे कण-कण में यहीं संजीवनी पाऊं,
फिर ठहर ज़िंदगी, दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

 दीवाली का पहला दीया मैं ही क्यों न जलाऊं.

3 comments:

  1. Roli Abhilasha (अभिलाषा): वाह!
    Vishwa Mohan: +#Ye Mohabbatein अत्यंत आभार!!!

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  2. Kusum Kothari: अप्रतिम काव्याभिव्यक्ती।
    शुभ दिवस।
    Vishwa Mohan: +Kusum Kothari अत्यंत आभार!!!

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  3. NITU THAKUR: Bahut sunder rachna
    Ek ek shabd kitna arthpurn Hai...badhai is khoobsurat rachna ke liye
    Vishwa Mohan: +Nitu Thakur अत्यंत आभार!!!

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