Saturday, 25 January 2014

प्रेम- पीयुष

पतित पावन पुण्य सलिला के प्रस्तर में
चारू चंद्र की चंचल चांदनी की चादर में
पूनम  तेरी पावस स्म्रृति के सागर में
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

अब विरह की घोर तपस में
प्रेम पीर की शीत तमस में
बिछुडन की इस कसमकश में
प्रणय के एक एक तंतु को
बडे जतन से मै बुनता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

मन के आंगन में तू आकर
चंचल नयनों से फुसलाकर
लागी लगन की धुन सुनाकर
फिर विरहा की टीस उसकाकर
प्रीत अमर के गीत जो छेड़े
मंद – मंद आंखें मुंदता  हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

तू क्या जाने पीर   परायी
मन मे कैसी अगन है छायी
फगुआ मे धरती क्यों बौरायी
आषाढ में बदरी क्यूं करियायी
सावन ने कैसी आग लगायी?
यक्ष को विरहण जैसे भायी
तू मेरे मन में लिपटायी
मेघदुत के फुहारों से
सजनी तुमको सिंचित करता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

परिणय में प्रणय जो पाया
प्रेम सुधा तन मन लपटाया
सपनों ने श्रृंगार सजाया
राग लगन का साज सजाया
अंतरीक्ष के सूनापन में
तू अपना अपनापन  भर दे
निशा निमंत्रण, मधु प्रहर में
प्रिये तू, अपना स्वर भर दे
प्रणीते, कल्पना के उन धुनों को मैं गुनता हूँ
प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.

प्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.
                   ------------------ विश्वमोहन



2 comments:

  1. अमित जैन 'मौलिक': परिणय में प्रणय जो पाया
    प्रेम सुधा तन मन लपटाया
    सपनों ने श्रृंगार सजाया
    राग लगन का साज सजाया
    अंतरीक्ष के सूनापन में
    तू अपना अपनापन भर दे..

    Wahhhh बहुत ख़ूब। बहुत उम्दा

    Vishwa Mohan: +अमित जैन 'मौलिक' आभार!!!!

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  2. Digamber Naswa: बहुत सुन्दर प्रेम कल्पना ... विरह के पल में प्रेम चरम उत्कर्ष पे होता है ...
    Vishwa Mohan: आभार!!!!

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